प्रकृति-संरक्षण के लिए जल को बचाना है
प्रकृति-संरक्षण के लिए जल को बचाना है

जल है एक अमूल्य प्राकृतिक वरदान

देश में उपलब्ध सीमित जल को वर्षा ऋतु में एकत्रित करके यथासमय मानव की जल आवश्यकताओं की पूर्ति करना, देश में उपलब्ध जल संसाधनों का एक महत्वपूर्ण कार्य है। वर्तमान में जल संसाधनों की उपलब्धता एवं देश की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ भविष्य में आने वाली संभावित समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जल की बढ़ती मांगों को पूर्ण करने के लिए देश में जल के इष्टतम उपयोग में जल प्रबंधन की भूमिका महत्वपूर्ण है। सामान्यतः नदी में उपलब्ध वार्षिक प्रवाह का अधिकांश भाग वर्षा ऋतु के कुछ महीनों में ही उपलब्ध होता है। परंतु क्षेत्र में जल की मांग पूरे वर्ष रहती है। अतः यह आवश्यक है कि वर्षा ऋतु में उपलब्ध अतिरिक्त जल के उपयुक्त प्रबंधन द्वारा उपलब्ध जल को एकत्रित करके इसका उपयोग उस अवस्था में किया जाए, जब नदी में उपलब्ध प्राकृतिक प्रवाह जनमानस की मांगों को पूर्ण करने में असमर्थ हो।
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प्रकृति का उपहार है जल

जल प्रकृति द्वारा दिया गया एक अमूल्य वरदान है जिसका विकल्प आज तक उपलब्ध नहीं हो सका है। दूसरे शब्दों में यह प्रकृति प्रदत्त एक विलक्षण यौगिक है। जल जीवन का एक प्रमुख साधन है। जीवन की इकाई और उसके अवयवों की उत्पत्ति जल से ही हुई है। जीवन का क्रमवार विकास जल से प्रारम्भ होकर स्थलमंडल पर अवतरित हुआ है। हमारी धरती पर जल इतनी अधिक मात्रा में सर्वसुलभ है कि लोग इसके महत्व को नजरअंदाज कर देते हैं। यहाँ तक कि बहुत से लोग इसके जीवनदायी गुणों से भी अनभिज्ञ हैं। वैज्ञानिक जानकारियों तो उन्हें नहीं के बराबर हैं। अतः जल संरक्षण के प्रति उनकी रुचि नहीं बन पाती।

अखिल ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है जहाँ का पर्यावरण जीवन की उत्पत्ति व पालन-पोषण के लिए अनुकूल है। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्रह्मांड में कोई भी ऐसा ग्रह नहीं है जहाँ अभी तक जीवन की उपस्थिति के प्रमाण मिले हों। आसमान से देखने पर धरती नीली दिखाई देती है क्योंकि इसका दो तिहाई भाग जल से आच्छादित है, इसीलिए इसे नीला ग्रह भी कहते हैं। जल चाहे जैसा भी हो, उसका प्रदूषण होता ही रहता है। वैसे भी प्राकृतिक रूप से शत-प्रतिशत शुद्ध जल मिलना संभव नहीं रह गया है। जब एक या उससे अधिक पदार्थ जल में घुलते हैं तो जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुण-धर्म में बदलाव आ जाते हैं जिससे वह जल सामान्य उपयोग के योग्य नहीं रह जाता। ऐसे जल को प्रदूषित जल कहा जाता है। ऐसा जल पीने के लिए अनुपयोगी होता है।

रासायनिक दृष्टि से भी जल शत-प्रतिशत शुद्ध नहीं होता है। उसमें अनेक रसायन जैसे हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन डाई आक्साइड, अमोनिया, नाइट्रोजन इत्यादि घुले होते हैं। इसी प्रकार जल में कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम आदि के क्षार, मिट्टी के तैरते कण, तलछट, बालू के कण, सूक्ष्मजीव आदि भी विद्यमान रहते हैं। परन्तु, इनकी मात्रा इतनी अल्प होती है कि इससे जल का प्रदूषण नहीं होता। मनुष्य द्वारा प्राकृतिक सम्पदाओं और क्रियाकलापों में प्रत्येक स्तर पर दखलंदाजी, जैसेः शहरी विकास, बढ़ती जनसंख्या, औद्यौगिकीकरण और पर्यावरण के मामले में लापरवाही के कारण जल प्रदूषण की समस्या गंभीर होती जा रही है।

जल इस सृष्टि का मूल तत्व है

जल इस सृष्टि का मूल तत्व है, क्योंकि यह मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। जल के बिना मानव जीवन की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र, उदाहरणतः घरेलू उपयोगों, खाद्यान्न उत्पादन, औद्योगिक एवं आर्थिक विकास तथा अन्य सामान्य अनुप्रयोग हेतु जल एक अत्यंत महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जल संसाधन की उपलब्धता में भारतवर्ष कनाडा एवं अमेरिका के बाद तृतीय स्थान पर आता है।

इससे जल का प्रदूषण नहीं होता। मनुष्य द्वारा प्राकृतिक सम्पदाओं और क्रियाकलापों में प्रत्येक स्तर पर दखलंदाजी, जैसेः शहरी विकास, बढ़ती जनसंख्या, औद्यौगिकीकरण और पर्यावरण के मामले में लापरवाही के कारण जल प्रदूषण की समस्या गंभीर होती जा रही है।

जल इस सृष्टि का मूल तत्व है, क्योंकि यह मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। जल के बिना मानव जीवन की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र, उदाहरणतः घरेलू उपयोगों, खाद्यान्न उत्पादन, औद्योगिक एवं आर्थिक विकास तथा अन्य सामान्य अनुप्रयोग हेतु जल एक अत्यंत महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जल संसाधन की उपलब्धता में भारतवर्ष कनाडा एवं अमेरिका के बाद तृतीय स्थान पर आता है।

जल संकट के विभिन्न आयाम

बाढ़ की विभीषिका का सामना करना पड़ता है, जो कि देश की एक ज्वलंत एवं भीषण समस्या है। यद्यपि देश में जल संसाधनों की उपलब्धता सीमित होने के बावजूद पर्याप्त है, तथापि उपलब्ध जल संसाधनों का उपयुक्त प्रबंधन न होने के कारण देश के अधिकांश भागों में जनमानस को अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जल की कमी का सामना करना पड़ता है।

देश में उपलब्ध सीमित जल को वर्षा ऋतु में एकत्रित करके यथासमय मानव की जल आवश्यकताओं की पूर्ति करना, देश में उपलब्ध जल संसाधनों का एक महत्वपूर्ण कार्य है। वर्तमान में जल संसाधनों की उपलब्धता एवं देश की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ भविष्य में आने वाली संभावित समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जल की बढ़ती मांगों को पूर्ण करने के लिए देश में जल के इष्टतम उपयोग में जल प्रबंधन की भूमिका महत्वपूर्ण है। सामान्यतः नदी में उपलब्ध वार्षिक प्रवाह का अधिकांश भाग वर्षा ऋतु के कुछ महीनों में ही उपलब्ध होता है। परंतु क्षेत्र में जल की मांग पूरे वर्ष बनी रहती है। अतः यह आवश्यक है कि वर्षा ऋतु में उपलब्ध अतिरिक्त जल को उपयुक्त प्रबंधन द्वारा एकत्रित करके इसका उपयोग उस अवस्था में किया जाए, जब नदी में उपलब्ध प्राकृतिक प्रवाह जनमानस की मांगों को पूर्ण करने में असमर्थ हो।

हम सभी जानते हैं कि जीवन का उद्भव, वृद्धि और विकास क्रम का मौलिक आधार भी जल ही है। प्रकृति ने हमारी पृथ्वी पर वायु एवं जल दोनों को बड़ी ही प्रचुरता तथा निर्मलता से प्रदान किया था। हमारी वर्तमान सभ्यता ने इनकी निर्मलता एवं प्रचुरता दोनों को ही दुष्प्रभावित किया है। इसलिए हमें धरती पर जल की प्रचुरता होने के वावजूद इसे शुद्ध बनाये रखने की आवश्यकता है।

हमारा देश भारत लगभग तीन ओर से महासागरों से घिरा है। इसमें अनेक स्थानों पर जल के समृद्ध भण्डार हैं। चेरापूँजी जैसे कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ प्रचुर वर्षा होने के बावजूद पेयजल की समस्या बनी रहती है, तो दूसरी तरफ कुछ स्थान ऐसे भी हैं जहाँ के निवासियों को प्रतिदिन पाँच-सात किलोमीटर तक पैदल चल कर जल प्राप्त करना पड़ता है। ऐसी जगहों पर परिवार के कुछ सदस्यों को जल व्यवस्था की पूर्णकालिक जिम्मेदारी सौंप दी जाती है।

विडम्वना देखिए कि हमारे देश के अधिकांश जगहों पर जल के सुलभता से उपलब्ध हो जाने के कारण आमजन उसका उपयोग तो खूब करते हैं, परन्तु उसके महत्व को समझ नहीं पाते हैं। ऐसी परिस्थिति में जल अपव्यय को रोकने और इसके उपयोग में संयम बरतने के लिए जनमानस को उपयुक्त जानकारी प्रदान की जानी चाहिए। इसके साथ ही जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाने तथा उनके संरक्षण की दिशा में सक्रिय योगदान प्राप्त करने हेतु वर्तमान पीड़ी को प्रेरित और क्रियाशील करने की आवश्यकता है।

इधर भारत सहित अनेक राष्ट्रों में जल संरक्षण के क्षेत्र में काफी कार्य किया जा रहा है। ऐसा देखा जाता है कि जिस समाज में जल का जितना ही ज्यादा अपव्यय होता है, उस समाज में हिंसा की संभावना भी उतनी ही अधिक हो जाती है। जल का गहराता संकट हमारे लिए एक शिक्षा और चुनौती है कि हम अपने लिए और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए समय रहते जल के उपयुक्त प्रबन्धन हेतु आवश्यक कार्य करें।

मानव शरीर से लेकर प्रकृति तक हर जगह 

हम जानते हैं कि मानव शरीर में जो खरबों कोशिकाएँ होती हैं, वे परमाणुओं से ही मिलकर बनती हैं। हम यह भी जानते हैं कि अणु एवं परमाणु स्वयं में निर्जीव होते हैं, परन्तु ये निर्जीव अणु व परमाणु ही मिल कर जीव का निर्माण करते हैं। जीवों में संचालित सभी प्रकार की महत्वपूर्ण जैविक क्रियाएं जल की उपस्थिति में ही संचालित हो पाती, किसी भी प्रकार की महत्वपूर्ण जैविक क्रियाएं जल की उपस्थिति में ही संचालित हो पाती हैं। इसीलिए जल को 'प्रकृति का संचालक' भी कहा जाता है।

हम मनुष्यों के जीने के लिए जल अपरिहार्य है और यह हमारे आहार का मुख्य भाग भी है। हमारा भोजन भी जल में ही पकाया जाता है। एक आंकलन के अनुसार एक व्यक्ति लगभग तीन दिनों से ज्यादा प्यासा नहीं रह सकता। एक व्यक्ति को प्रतिदिन पीने के लिए लगभग 2.5 लीटर जल की आवश्यकता पड़ती है, जिसकी मात्रा ग्रीष्म ऋतु में बढ़ जाती है। शरीर की स्वच्छता, कपड़े धोने तथा विभिन्न कार्यों के लिए नगरीय क्षेत्रों में प्रत्येक व्यक्ति को औसतन 100 से 500 लीटर तक जल प्रतिदिन व्यय करना पड़ता है।

सूक्ष्म जीवाणु से लेकर बड़े-बड़े जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों तक की जीवित कोशिकाओं की जैवरासायनिक क्रियाएं जल की उपस्थिति में ही संभव हैं। जब तक जीव जीवित है तब तक उसके शरीर में जल का संतुलन बना रहता है और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके शरीर का जल सूखने लगता है।

इतना ही नहीं, जल धरती की हरियाली के लिए भी आवश्यक है। जल के बिना साफ-सफाई नहीं हो सकेगी और हमारा वातावरण प्रदूषित होता जायेगा। देखिये, हम सौरमण्डल के विभिन्न ग्रहों पर जल मिलने और बसने की संभावनाओं की तलाश में जुटे हुए हैं, परन्तु पृथ्वी पर मौजूद जल के विशाल भण्डार को नजरन्दाज करते जा रहे हैं।

जल हमारे स्वास्थ्य को भी तय करता है। जल शुद्ध होगा, तो स्वास्थ्य भी अच्छा होगा। इसलिए हमें नियमित रूप से आवश्यक मात्रा में शुद्ध जल पीना चाहिए। बरसात के दिनों में जल में संदूषण बढ़ जाता है, क्योंकि उससे सतही जल का कहीं न कहीं संपर्क हो जाता है। इसलिए यह समझ लेना चाहिए कि हम जो जल पीने जा रहे हैं क्या वह शुद्ध और पीने लायक है या नहीं?

दुनिया की एक बड़ी आबादी को आज भी स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। जो जल उन तक पहुँच रहा है वह भी संक्रमित है और जलजन्य बीमारियों के कीटाणुओं से भरा पड़ा है। इसके कारण उनमें दस्त, आंत्रशोथ, चर्मरोग, पोलियो, हेपेटाइटिस, कैंसर आदि बीमारियां अपना शिकार बना रही हैं।

हमारे समाज में अनेक लोगों को यह पता ही नहीं है कि जल हमारे शरीर के लिए पोषक पदार्थ होने के साथ-साथ शरीर को ऊर्जा भी प्रदान करता है। यह हमारे शरीर के जोड़ों एवं सभी अंतरंग भागों के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जल की पर्याप्त मात्रा शरीर के व्यर्थ एवं विषैले पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करती है। मनुष्व अपने शरीर से प्रतिदिन पसीना, मल-मूत्र तथा साँस आदि के द्वारा जितना जल बाहर निकालता है उससे ज्यादा जल पीना शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है।

पेयजल की मात्रा का निर्धारण

मनुष्य के लिए पेय जल की मात्रा का निर्धारण शारीरिक क्रियाकलापों पर निर्भर करता है। अधिक श्रम करने वाले व्यक्ति को अधिक जल पीने की आवश्यकता पड़ती है। सामान्यतया आधा गिलास या 100 मिलीलीटर पानी से 100 कैलोरी ऊर्जा की प्राप्ति होती है, अर्थात् एक गिलास पानी (200 मिली.) से 200 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होगी।

पर्याप्त मात्रा में जल पीते रहने से शरीर का पाचन तंत्र ठीक से कार्य करता है। चेहरे पर झुर्रियाँ नहीं पड़ती हैं और उसका तेज बना रहता है। इससे मनुष्य स्वस्थ बना रहता है।

हमारे गलत खान-पान के तरीकों और शरीर का वजन बढ़ने से अनेक समस्याएं पैदा हो जाती हैं। ऐसे में पेय जल की मात्रा को बढ़ाकर शरीर से यूरिक अम्ल के स्तर को घटाया जा सकता है।

गर्भवती एवं दुग्धपान कराने वाली महिलाओं के लिए जल की भूमिका महत्वपूर्ण है। गर्भावस्था की अवधि में शिशु विकास के अलग-अलग चरणों में जल की विभिन्न मात्राओं की आवश्यकता पड़ती है। यह उन्हें ऊर्जा प्रदान करने के साथ-साथ कब्ज, रक्तस्राव, इलेक्ट्रोलाइट असन्तुलन और गर्भक्षति रोकने में सहायता करती है।

हमारे शरीर में जल की कमी से चक्कर आना, थकान और कमजोरी महसूस होने जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं। शरीर में यदि दो प्रतिशत जल की कमी हो जाये तो प्यास लगती है, भूख लगती है, त्वचा शुष्क हो जाती है, मुँह सूखने लगता है, ठंड लगती है और मूत्र का पीलापन बढ़ जाता है। यदि पांच प्रतिशत की कमी हो जाये तो हृदय की घड़कन बढ़ जाती है, मल-मूत्र त्यागने में
परेशानी होने लगती है, माँसपेशियों में अकड़न पैदा हो जाती है, थकान बढ़ जाती है, मिचली और सिरदर्द जैसे लक्षण महसूस होने लग जाते हैं। वहीं यदि 10 प्रतिशत की कमी हो जाये तो तत्काल चिकित्सकीय सुविधा प्राप्त करनी चाहिए। ऐसे में चक्कर आना, माँसपेशियों में अकड़न, उल्टी, नाड़ी तेज चलना, शरीर का सिकुड़ना, धुँधला दिखना, साँस लेने में परेशानी, याददाश्त में कमी, सीने में दर्द, मूत्रत्याग में कष्ट जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।

विभिन्न मौसम भी जल पीने की मात्रा को प्रभावित करते हैं। शीत काल में ज्यादा प्यास नहीं लगती, जबकि ग्रीष्म काल में ज्यादा जल पीने की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु, शुष्क वायु होने के कारण मनुष्य को प्यास न लगने पर भी समय-समय पर जल पीते रहना चाहिए। जल की कमी होने से झिल्लियाँ, फेफड़े, आँत आदि के शुष्क होने का खतरा बढ़ जाता है जिससे संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। उचित मात्रा में जल का सेवन मोटापा घटाने, शरीर से व्यर्थ पदार्थों को बाहर निकालने, पाचन तंत्र और वृक्क को ठीक रखने में सहायक होता है।

आज जल समस्या को देखते हुए ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता है जिससे भविष्य में जल की प्रचुरता बनी रहे और अगली पीढ़ी को भी स्वच्छ जल उपलब्ध हो सके। अगर हम अभी से नहीं जागृत हुए तो अगली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी। आइए, जल बचाएं और संरक्षित भी करें।

सम्पर्क करें:
डॉ. दया शंकर त्रिपाठी बी 2/63 सी-1के, भदैनी वाराणसी-221 001
मो. 9415992203

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