जल और वन से जुड़े कांवड़ यात्रा।
जल और वन से जुड़े कांवड़ यात्रा।

जल और वन से जुड़े कांवड़ यात्रा

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कांवड़ यात्रा को जनहित से जोड़ने की कोशिश की जानी चाहिए। रास्तों में वृक्षारोपण कर कांवड़िए हरियाली बढ़ा सकते हैं और वर्षा जल संरक्षण का कार्य कर सकते हैं। उन्हें नमामि गंगे अभियान से भी जोड़ा जा सकता है। कांवड़ यात्रा में 90 फीसदी भागीदारी युवाओं की होती है। शिव की भक्ति में वे पैदल सैकड़ों किलोमीटर चलकर अपनी आस्था की अभिव्यक्ति करते हैं। इस यात्रा में गंगा से जल लेकर अपने-अपने शिवालयों में जल अर्पण करने का संकल्प जुड़ा होता है। इस तरह ये अपने शिवालयों को गंगा से जोड़ लेते हैं।

साल-दर-साल कांवड़ यात्रा बढ़ ही रही है। घोर श्रद्धा के साथ की जाने वाली यह यात्रा अनेक लोगों की नींद उड़ाने का भी काम करती है। कांवड़ यात्रा मात्र प्रशासन और पुलिस को ही मुस्तैद नहीं रखती, इस यात्रा की राह में किसी भी रूप में आने वाला आम जन भी एक तरह के भय से व्यथित रहता है। यह कांवड़ियों की ही कृपा है कि क्या पुलिस और क्या आम जन, सभी शिव की आराधना में इसलिए जुट जाते हैं, ताकि सब कुछ ठीक-ठाक निपट जाए। करोड़ों रुपए का व्यापार इनके कपड़े, कांवड़ व भोजन आदि से जुड़ा होता है। इससे अनेक लोगों की आर्थिकी और रोजगार भी जुड़े हुए हैं। यह पैसा ज्यादातर छोटे व्यापारियों और कारीगरों को ही जाता है। पूरे देश में यह व्यापार लगभग एक लाख करोड़ रुपए का है।

कांवड़ की यह संस्कृति ज्यादा पुरानी नहीं है, पर जिस आश्चर्यजनक गति से यह बढ़ी है, उससे यह एक अनियंत्रित सैलाब की तरह सामने आई है। यह मानसरोवर और अमरनाथ यात्रा जैसी नहीं है कि कांवड़ियों की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता हो। जब कांवड़ पहले पहले शुरू हुई थी, तब यह संख्या सैकड़ों में थी, धीरे-धीरे हजारों, लाखों में पहुँची और आज-करोड़ों में है। पिछले एक-दो दशकों में ही इनकी संख्या लगातार बढ़ती गई। साल में एक बार इतनी बड़ी संख्या में लोग अगर देशहित के किसी कार्य में जुट जाएं, तो क्रान्ति आनी तय है। इतनी बड़ी तादाद में इनकी आवाजाही को ठीक तरीके से निपटा देने का श्रेय तो पुलिस-प्रशासन को जाता ही है। यह यात्रा श्रद्धा को लेकर है, पर अक्सर यह अराजकता का भी हिस्सा बन जाती है। पिछली बार दिल्ली, हरिद्वार और अन्य जगहों पर कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्हें कतई, स्वीकारा नहीं जा सकता।

कांवड़ यात्रा में 90 फीसदी भागीदारी युवाओं की होती है। शिव की भक्ति में वे पैदल सैकड़ों किलोमीटर चलकर अपनी आस्था की अभिव्यक्ति करते हैं। इस यात्रा में गंगा से जल लेकर अपने-अपने शिवालयों में जल अर्पण करने का संकल्प जुड़ा होता है। इस तरह ये अपने शिवालयों को गंगा से जोड़ लेते हैं। इस मजबूत आस्था का हमने कभी बड़ा लाभ नहीं उठाया। करोड़ों कांवड़िए सृजनात्मक कार्यों का भी हिस्सा बन सकते थे, पर ऐसा हमने कभी नहीं सोचा। कांवड़िए स्वच्छता अभियान का हिस्सा हो सकते हैं। रास्तों में वृक्षारोपण कर वे हरियाली बढ़ा सकते हैं। वे वर्षा जल संरक्षण का भी कार्य कर सकते हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश, जहाँ साधु-संतों और आश्रमों की भरमार है, इस कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, क्योंकि ये स्थान कांवड़ियों की यात्रा के आश्रय स्थल भी होते हैं। कांवड़ियों का इस तरह के कार्यों के लिए इस्तेमाल कर इनकी ऊर्जा को सही दिशा में उत्प्रेरित किया जा सकता है।

कांवड़ यात्रा चूंकि देश के विभिन्न हिस्सों में होती है, ऐसे में, कांवड़ियों को, नमामि गंगे से जोड़ने के बारे में भी सोचा जा सकता है, क्योंकि ये अपने शिवालयों में गंगा जल ही लाते हैं। कांवड़िए इसके महत्व और अपने योगदान के प्रति संजीदगी दिखा सकते हैं। धर्म और आस्था के इस पर्व को जनहित से जोड़ने की कोशिशें की जानी चाहिए, वर्ना कांवड़ यात्रा को हम एक ऐसे पर्व से ज्यादा कुछ नहीं समझेंगे, जिसमें श्रद्धालुओं की संख्या हर वर्ष बढ़ती चली जाएगी। करोड़ों शिव भक्तों को सावन का महत्व बताते हुए उनको जल और वन से जोड़ने की कवायद शुरू होनी चाहिए। यह प्रकृति, पृथ्वी, धर्म व समान के लाभ का भी अवसर बन सकता है।

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