एक घड़े पानी को 3 किलोमीटर का सफर: महाराष्ट्र के मेलघाट में साफ़ पानी आज भी दूर का ख्वाब
महाराष्ट्र में अमरावती ज़िले के ऊबड़-खाबड़ मेलघाट इलाके में बसे दूरदराज के आदिवासी गांव जुटपानी में, कोरकू समुदाय की कुंती बैठाकर तीन बच्चों की मां हैं। उनकी सुबह की शुरुआत गांववासियों की एक थकी हुई कतार में शामिल होने से होती है। यह कतार तीन किलोमीटर दूर एक तालाब से पानी लाने के लिए है। ये ग्रामीण तालाब के किनारे उथले गड्ढे खोदकर भूजल को अपने हाथों से इकट्ठा करते हैं, जो सालों से भारी घड़े ढोते-ढोते खुरदुरे हो चुके हैं। साल के अधिकांश समय घरों में मौजूद जल जीवन मिशन के नलों में पानी नहीं आता। ऐसे में, यह मुश्किल भरी यात्रा ही पीने, खाना बनाने, धोने और बुनियादी ज़रूरतों के लिए पानी लाने का एकमात्र साधन है।
रोज़ाना के संघर्ष का क्रम
अमरावती ज़िले में धरणी ब्लॉक के जुटपानी और अन्य पड़ोसी गांवों में पानी इकट्ठा करना धीरज की रस्म है। गांववासी रोज़ कई किलोमीटर पैदल चलते हैं या बैलगाड़ी की मदद से उन जल स्रोतों तक पहुंचते हैं जो दूर भी हैं और असुरक्षित भी। चरम गर्मी के महीनों में जब तापमान 46°C तक पहुंच जाता है, पानी की मांग दोगुनी हो जाती है।
कुंती (37 वर्ष), सीता (30 वर्ष) और सरोज (26 वर्ष) जैसी महिलाओं के लिए, तालाब तक जाना एक दैनिक अनुष्ठान है। कुंती अपनी 14 वर्षीय बेटी भी कई बार साथ ले जाती हैं। दिन में दो बार और गर्मी के दिनों में कभी-कभी तीन बार भी पानी लेने जाना पड़ता है। जिस तालाब पर वे निर्भर हैं, वह सिर्फ पीने के लिए नहीं है। यही वह जगह है जहां गांववासी नहाते हैं, कपड़े धोते हैं और मवेशियों को पानी पिलाते हैं।
"घंटों लगते हैं। कभी-कभी मैं अपनी बेटी को भी ले जाती हूं ताकि ज़्यादा पानी वापस ला सकूं," कुंती कहती हैं। उनकी आवाज थकान से भरी हुई है।
गाद के कारण पानी का रंग अक्सर धुंधला होता है। परिवारों को इसे उबालना या छानना पड़ता है, जो एक अतिरिक्त काम है। यह उनके पहले से ही लंबे दिन को और भी बढ़ा देता है। बच्चे मदद के लिए अक्सर स्कूल छोड़ देते हैं, जबकि महिलाएं वे कीमती घंटे खो देती हैं जिन्हें वे आजीविका कमाने या अपने परिवार की देखभाल करने में बिता सकती थीं।
सचिन बैठाकर एक कृषि मजदूर हैं। वे पानी के स्रोत तक जाने और सिर पर पीने का पानी लेकर आने में 45 मिनट बिताते हैं। इसके कारण अक्सर उन्हें सिरदर्द और बाहों में दर्द रहता है। फिर भी, कोई दूसरा विकल्प नहीं है। उन दिनों में भी उन्हें पानी लाना ही होता है जब वे मई और जून की झुलसा देने वाले गर्मी में खेतों में काम करते हैं।
मेलघाट का जल संकट
मेलघाट क्षेत्र, महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में दूरदराज़ का आदिवासी इलाका है, जो अपनी ऊबड़-खाबड़ सुंदरता, उष्णकटिबंधीय सागौन के जंगलों, खड़ी घाटियों और मेलघाट टाइगर रिज़र्व के लिए जाना जाता है। लेकिन यह नाटकीय भूदृश्य अक्सर अपने ही लोगों को धोखा देता है। मानसून के दौरान, जून और अक्टूबर के बीच इस क्षेत्र में 1,000-2,250 मिमी बारिश होती है। हालांकि, बारिश का पानी पहाड़ी से नीचे बह जाता है।
ज़मीन के भीतर पानी न पहुंचने के कारण कुएं और बोरवेल नवंबर आते-आते सूख जाते हैं। फरवरी तक संकट और बढ़ जाता है और गर्मियों में जब तापमान 43°C तक पहुंच जाता है, अधिकांश तालाब, कुएं और पानी के टैंक गर्मियों में पूरी तरह सूख जाते हैं। यहां तक कि मध्य भारत में नर्मदा नदी के दक्षिण में पश्चिम की ओर बहते हुए अरब सागर में मिल जाने वाली तापी नदी भी तीव्र गर्मी के मौसम में सूखने लगती है।
समाज प्रगति सहयोग एक एनजीओ है जो इस क्षेत्र में पानी और आजीविका के मुद्दों पर काम करता है। इसी एनजीओ के सदस्य मनोज कुवाते के मुताबिक पानी समस्या की जड़ है वर्षा जल संरक्षण के प्रयासों की कमी। वे कहते हैं, "पहाड़ी इलाके की वजह से बारिश का पानी अपने आप संरक्षित नहीं हो पाता। यह बह जाता है। ऐसा मुख्य रूप से जलाशयों और बारिश के पानी के लिए हार्वेस्टिंग सिस्टम जैसे ढांचे की कमी के कारण होता है। धरणी ब्लॉक पानी की गंभीर कमी का सामना करता है। बहुत से लोग टैंकरों पर निर्भर हैं। हमें बारिश के ज़्यादातर पानी को संरक्षित करना होगा, जलाशय बनाने होंगे, और मौजूदा ढांचे का विस्तार करना होगा।"
वे बताते हैं कि मौजूदा जलाशय पर्याप्त नहीं हैं। कुछ गांवों में जलाशयों से गाद निकालने का काम चल रहा है, पर मेलघाट क्षेत्र को बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अभी भी कई और जलाशयों की आवश्यकता हो सकती है।
भरपूर बारिश होने के बावजूद, क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और पानी संरक्षित करने के टिकाऊ ढांचे की कमी का मतलब है कि पानी की सुरक्षा अभी भी मुश्किल है। धरणी ब्लॉक में, केवल 1,500 लीटर पानी ले जाने वाले टैंकर की कीमत ₹700 से ₹1,000 के बीच हो सकती है, जो कई आदिवासी परिवारों के लिए असंभव कीमत है। कोट और हरिसाल जैसे गांवों में, बैलगाड़ियों से पानी ले जाना आम बात है क्योंकि बोरवेल काम नहीं करते। अधिकांश निवासियों के लिए, टैंकर का पानी एकमात्र जीवनरेखा है।
अधूरे वादों का पैबंद
जुटपानी से 20 किलोमीटर दूर स्थित कोहाना शहर के लगभग 1,200 परिवार एक दूर के गांव के कुएं पर निर्भर रहने को मजबूर हैं। उनकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए, ज़िला प्रशासन रोज़ पानी के 15 टैंकर भेजता है। स्टोरेज के लिए इन्हें सूखे कुओं में खाली किया जाता है। ये कुएं 50-60 फीट गहरे हैं। गांववासी घड़े और बाल्टी लेकर दौड़ते हैं, अक्सर कुओं में उतरकर आखिरी बूंद तक निकालते हैं। यह काम न केवल मेहनत भरा है, बल्कि अक्सर खतरनाक भी हो सकता है।
जल जीवन मिशन (JJM) पोर्टल के आंकड़ों के अनुसार, धरणी ब्लॉक के 92% घर आधिकारिक रूप से नल के पानी से जुड़े हैं। हालांकि, यह आंकड़ा एक कड़वी सच्चाई को छुपाता है, क्योंकि साल के अधिकांश समय पानी नहीं आता, खासकर चरम गर्मी के महीनों में, जब मानसून के बाद नल अक्सर सूख जाते हैं और समुदाय पानी के टैंकरों पर निर्भर रहने को मजबूर हो जाते हैं।
जुटपानी गांव 100% नल के पानी की कवरेज के रूप में सूचीबद्ध है। पर यहां अधिकांश नल तब काम करना बंद कर देते हैं जब उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। जल जीवन मिशन के तहत आने वाला पानी ज़्यादातर भूजल स्रोतों से आता है। गर्मी की शुरुआत मार्च के मध्य में हो जाती है और मई के चरम में भूजल इतना नीचे चला जाता है कि मोटर पंप भी पानी नहीं खींच पाते। यही पानी न आने की मुख्य वजह है।
यहां बिजली की आपूर्ति अनियमित है, पंप काम नहीं करते, भंडारण टैंक खाली रहते हैं, और पाइप से आने वाले पानी का सिस्टम अक्सर पूरी तरह काम करना बंद कर देता है। "हमें दिन में केवल 3 से 4 घंटे बिजली मिलती है। इसलिए, जब भी मौका मिलता है लोग तालाबों से पानी इकट्ठा करते हैं या सूखे कुओं के पास उथले गड्ढे खोदते हैं," सचिन बताते हैं, जो जुटपानी के स्थानीय निवासी हैं।
हर बूंद की कीमत
जुलाई 2022 में पानी और स्वच्छता की कमी के परिणाम जानलेवा हो गए। दूषित कुएं का पानी पीने के कारण अमरावती ज़िले के चिखलदरा ब्लॉक में हैजा फैल गया, जिससे 354 गांववासी बीमार हुए और एक हफ्ते के अंदर कई लोगों की जान चली गई।
एक ऐसे क्षेत्र में जहां स्वच्छ पानी की पहुंच दुर्लभ है, गांववासी रुके हुए तालाबों और खुले, असुरक्षित स्रोतों पर निर्भर रहने को मजबूर हैं। महिलाएं नियमित रूप से इन जल स्रोतों से कीचड़ को हाथों से साफ करती हैं। नतीजे स्वास्थ्य के लिए विनाशकारी हैं। लोगों को बार-बार संक्रमण, त्वचा रोग, एनीमिया, और विटामिनों की कमी जैसी समस्याएं होती हैं।
मेलघाट क्षेत्र में पानी का संकट सिर्फ़ पानी बचाने और बांटने के ढांचे की समस्या नहीं है, यह ज़िंदगियों को प्रभावित कर रहा है। यह उन बच्चों की समस्या है जो स्कूल छोड़ देते हैं, उन महिलाओं की तकलीफ़ है जो थकान के बावजूद लगातार काम करती हैं। उन सबसे गरीब परिवारों की कहानी है जो जीवित रहने की लड़ाई के हाशिए पर और भी पीछे धकेल दिए जाते हैं। संकट दशकों पुराना है, संकट दशकों पुराना है, फिर भी समाधान टुकड़ों में, अपर्याप्त फंडिंग के साथ और खराब तरीके से लागू किए गए हैं। अक्सर गांवों में टूटे या रिसते नल और पाइपलाइन समय पर ठीक नहीं हो पाते।
कई योजनाएं अधूरी रह गई हैं या बीच में ही रुक गई हैं। लोकसत्ता की एक रिपोर्ट के अनुसार, मेलघाट के 22 गांवों में जल जीवन मिशन के काम “दो साल से अटके” हुए हैं और जहां पाइपलाइन बिछ भी गई है, वहां बिजली कनेक्शन न होने के कारण लोगों को अब भी पानी के लिए पैदल लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।
भरपूर बारिश होने के बावजूद, टूटे हुए ढांचे और सरकारी उपेक्षा के कारण यह क्षेत्र प्यासा ही रह जाता है। बड़े-बड़े सरकारी दावों के बीच जुटपानी जैसे गांवों और कुंती, सरोज, सचिन जैसे लोगों के लिए, स्वच्छ पानी अभी भी एक दूर का सपना है।
इनके जीवन में नियमित नलों में आता पानी और बिजली जैसी बुनियादी चीज़ एक बड़ा फर्क ला सकती है। इन बुनियादी ज़रूरतों के पूरे होने से इन परिवारों को न सिर्फ़ राहत मिलेगी, बल्कि एक स्वस्थ, अधिक सम्मानजनक ज़िंदगी का मौका भी मिलेगा। पर जब तक सार्थक, टिकाऊ समाधान नहीं दिए जाते, निवासी कमर तोड़ यात्रा की कीमत चुकाते रहेंगे, एक बूंद-बूंद करके।