पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तकें
पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तकें

पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तकें राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के नजरिए से विश्लेषण

पाठ्यपुस्तकों से अपेक्षा है कि ज्ञान को स्थानीय व वैश्विक पर्यावरण के संदर्भ में रखें ताकि विज्ञान, तकनीक व समाज के पारस्परिक संवाद के क्रम में मुद्दों को समझा जा सके। जब इस वैधता पर हम पुस्तकों को देखते हैं तो इनमें स्वच्छता, शौचालय, कचरा प्रबंधन आदि पर विस्तार से बात की गई है जिससे यह उम्मीद दिखती है कि इन मुद्दों पर समाज में संवाद कायम होगा और बदलाव भी आ सकेगा। लेकिन इनके महत्त्व को स्थापित करने हेतु उचित तर्क चुने जाने चाहिए थे।
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भारत में स्कूली शिक्षा कार्यक्रमों के अंतर्गत पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण पद्धतियों को बनाने के लिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एनसीएफ) 2005 दस्तावेज एक खाका प्रदान करता है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार, शिक्षा के उद्देश्य हमारे संवैधानिक मूल्यों के आधार पर तय किए गए हैं (एनसीएफ 2005, अध्याय-1, पृ. 12) यह दस्तावेज कहता है कि हम सारे बच्चों को जाति, धर्म संबंधी अंतर, लिंग और असमर्थता संबंधी चुनौतियों से निरपेक्ष रखते हुए स्वास्थ्य, पोषण और समावेशी स्कूली माहौल मुहैया कराएं जो सीखने में मदद करे और उन्हें सशक्त बनाए (एनसीएफ 2005, अध्याय-1, (पृ. 7-8) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के नीति निर्देशक सिद्धान्तों में कहा गया है कि ज्ञान को विद्यालय के बाहरी जीवन से जोड़ना, पढ़ाई रटन्त प्रणाली से मुक्त, पाठ्यचर्या पाठ्यपुस्तक केन्द्रित न होकर
बच्चों को चहुंमुखी विकास के अवसर मुहैया करवाए, परीक्षा को लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना तथा एक ऐसी अधिभावी ( overriding) पहचान का विकास जिसमें प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रीय चिंताएं समाहित हों (एनसीएफ 2005, अध्याय-1, पृ. 5)।

पाठ्यपुस्तकें कैसी हों? एनसीएफ कहता है कि पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकें शिक्षक को इस बात के लिए सक्षम बनाएं कि वे बच्चों की प्रकृति और वातावरण के अनुरूप कक्षाई अनुभव आयोजित करें ताकि सारे बच्चों को अनुभव मिल पाएं (एनसीएफ 2005, सार संक्षेप, पृ. viii) आगे यह दस्तावेज कहता है कि ज्ञान को सूचना से अलग करने की आवश्यकता है और प्रत्येक साधन का उपयोग इस तरह किया जाना चाहिए कि बच्चों को खुद को अभिव्यक्त करने में, वस्तुओं के इस्तेमाल करने में, अपने परिवेश की खोजबीन करने में मदद मिल सके, साथ ही कक्षा के अनुभवों को इस प्रकार आयोजित किया जाए कि उन्हें ज्ञान सृजित करने का अवसर मिले (एनसीएफ 2005, सार संक्षेप, पृ. ix)। एनसीएफ के अनुसार रचनात्मक सीखना पाठ्यक्रम का एक हिस्सा होना चाहिए। पाठ्यपुस्तकें विद्यार्थियों के लिए ऐसे अवसर और परिस्थितियां सृजित करें जो विद्यार्थियों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करें और उनमें रचनात्मकता और सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करें।

नींव का मजबूत और स्थिर होना आवश्यक है, अतः प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय के बच्चों को खोजने और तर्कसंगत सोच विकसित करने के मौके उपलब्ध कराने चाहिए जिससे कि के अवधारणाओं, भाषा, ज्ञान, जांच और सत्यापन प्रक्रिया पर पर्याप्त ज्ञान आत्मसात कर सकें। (एनसीएफ 2005, अध्याय-3, पृ. 56 ) 

अर्थात, पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से निम्नलिखित बातें सुनिश्चित हों-

  1. जाति, धर्म, लिंग, असमर्थता निरपेक्ष, समावेशी स्कूली माहौल मुहैया करवाना।
  2. बच्चों की प्रकृति और वातावरण के अनुरूप कक्षाई अनुभव मुहैया करवाना।
  3.  ज्ञान को सूचना से अलग करना ।
  4.  बच्चों को स्वयं ज्ञान सृजित करने का अवसर मुहैया करवाना।
  5. प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रम की बात करते हुए यह दस्तावेज (एनसीएफ 2005, अध्याय-3, पृ.55) कहता है कि-बच्चा अपने चारों ओर की दुनिया में नई-नई चीजें खोजने का आनंद लेने और उनके साथ सामंजस्य बैठाने में व्यस्त रहे।
  6.  विद्यार्थी सूक्ष्म अवलोकन, वर्गीकरण आदि मूल ज्ञानात्मक कौशल हासिल कर सके। 
  7.  भारत जैसे बहुलतावादी समाज में यह आवश्यक है कि सभी क्षेत्रीय और सामाजिक समूह पाठ्यपुस्तकों से अपने आपको जोड़ पाएं।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, पाठ्यचर्या के पांच तरह के वैध मानकों की ओर इंगित करती है- संज्ञानात्मक वैधता, प्रक्रिया की वैधता, ऐतिहासिक वैधता, पर्यावरण संबंधी वैधता, नैतिक वैधता (एनसीएफ 2005, अध्याय-3, पृ. 54) यहां इन्हीं वैधताओं को आधार बनाकर राजस्थान की पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा का प्रयास किया गया । यह तर्कसंगत भी है क्योंकि पाठ्यपुस्तकों के प्राक्कथन में स्पष्ट रूप से लिखा है, “एन.सी.एफ. 2005 की इन्हीं भावनाओं को आत्मसात करते हुए तथा इसके व्यापक फलक को समाहित करते हुए राजस्थान की प्राथमिक कक्षाओं के लिए पर्यावरण अध्ययन विषय का यह नया पाठ्यक्रम विकसित किया गया है।" (अपना परिवेश, पर्यावरण अध्ययन, कक्षा 3 प्राक्कथन, पृ. iii)

प्रस्तुत लेख में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में वर्णित निर्देशक सिद्धांतों और प्राथमिक स्तर पर विज्ञान (पर्यावरण अध्ययन) शिक्षण के लिए तय मानदंडों के आधार पर एक फ्रेमवर्क बना कर नई पाठ्यपुस्तकों की पड़ताल करने का एक प्रयास किया गया है।

इसके अंतर्गत हम देखेंगे कि विषयवस्तु, प्रक्रिया, भाषा व शिक्षा शास्त्रीय अभ्यास आयु के अनुरूप हों और बच्चे की संज्ञानात्मक पहुंच के भीतर आएं।
(क) विषयवस्तु-  विषय की प्रकृति से अनुरूपता, अवधारणाओं की तर्क संगत क्रमिकता और एकरूपता, तथ्यात्मक खरापन, वस्तुनिष्ठता, बच्चों के पूर्व ज्ञान और परिवेश से जुड़ाव को देखने का प्रयास किया गया।

पाठ्यपुस्तक में कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां पर्यावरण अध्ययन विषय की प्रकृति के महत्वपूर्ण उद्देश्य ज्ञानात्मक कौशलों जानकारी देने का प्रयास किया गया है जिससे बचे रट लें  "  ऐसी ही जानकारी के आधार पर हर पाठ में  सोचिए और बताइए" शीर्षक से कुछ प्रश्न दिए गए है जिनका उद्देश्य  शायद यह है कि बच्चो को चिंतन और विश्लेषण के मौके मिलें लेकिन उदाहरण के साथ, देखें-

इस उद्धरण (चित्र-1 ) में यह मान्यता प्रकट होती है कि विद्यार्थी को महाराणा प्रताप के बारे में पूर्वज्ञान है, और उसी को आधार बना कर नयी जानकारी जोड़ने का प्रयास हो, जबकि ऐसा राजस्थान के क्षेत्र विशेष में ही संभव है। पाठ इतनी जल्दी में लिखा गया है कि वाक्य भी गड़बड़ा गए हैं, दूसरे पैराग्राफ (चित्र- 2) में 'स्वामीभक्ति और मित्रता की मिसाल कम ही देखने को नहीं मिलती है' लिख दिया गया है जबकि संदर्भ से पता चल रहा है कि नहीं मिलती है' के स्थान पर मिलती है' होना चाहिए।

इतिहास में चेतक जैसी स्वामीभक्ति और मित्रता की मिसाल कम ही देखने को नहीं मिलती है इसी कारण महाराणा प्रताप के साथ-साथ चेतक को हमेशा याद किया जाता है दिल्ली से उदयपुर चलने वाली एक रेलगाड़ी का नाम भी चेतक एक्सप्रेस रखा गया है। सोचिए और बताइए

उपरोक्त पाठ में तीनों सवाल सीधे-सीधे मूल पाठ में से पूछ लिए गए हैं, जिनमें विद्यार्थी के लिए कोई चिंतन या विश्लेषण करने की गुंजाइश नहीं है।

सूचनाओं और जानकारियों से भरी पुस्तक में कहीं-कहीं विषयवस्तु को सरल बनाने के चक्कर में खामियां छोड़ दी गई हैं। ऐसे कई उदाहरण आगे दिए गए हैं। कक्षा 4 की पुस्तक में पाठ 13  में पृ. 78 पर (चित्र-3) जीभ पर स्वाद के क्षेत्रों का भ्रामक चित्र दिया गया है। "इस मानचित्र की उत्पत्ति 19वीं सदी के आखिरी वर्षो में किए शोध कार्य की गलत व्यारख्या करने से हुई थी। किन्तु लगता है लेखक इस जानकारी से अनभिज्ञ हैं और परिणाम स्वरूप इन पाठ्यपुस्तकों में इसे पुनः दोहरा दिया गया है।

(ख) प्रक्रियाः

सीखने की प्रक्रिया में कक्षा के अनुभवों को इस प्रकार आयोजित किया जाना चाहिए कि उन्हें (बच्चों को) ज्ञान सृजित करने के मौके मिलें लेकिन प्रस्तुत पाठ्यपुस्तकों में सुझाई गई गतिविधियां बहुत कम हैं, ज्यादातर अवधारणाएं सूचना के रूप में दे दी गई हैं। उदाहरण के लिए, कक्षा 5 का दसवां पाठ जल ऊपर से नीचे की ओर - पूरे पाठ में सिंचाई के साधनों की बात होती है, लेकिन बाल केन्द्रित गतिविधि आधारित पाठ्यक्रम का दावा करने वाली किताब में इस पाठ में करने योग्य एक भी गतिविधि नहीं सुझाई गई है। इसी प्रकार से हम कक्षा 3 की किताब का छठा पाठ देख सकते हैं: 'देखो, जंगल अजब निराला'। इस पाठ में 'स्थलीय आवास' के संबंध में कुछ इस तरह जानकारी दी गई है: ""हम जिस आवास में रहते हैं वह स्थालीय आवास है। इस आवास में वायु, प्रकाश इत्यादि पर्याप्त मात्रा में होता है। ये आवास वातावरण के आधार पर अनेक प्रकार के हो सकते हैं। जहां बर्फ हो व सर्दी अधिक रहे, उसे शीत आवास कहते हैं। इसी तरह जहां जल की कमी हो, उसे सूखा या शुष्क आवास कहते हैं। इसी प्रकार जहां वातावरण में पर्याप्त जल व अनुकूल ताप हो, उसे सम आवास कह सकते हैं।" इस जानकारी को रटने के अलावा बच्चे के पास कोई और तरीका नहीं रह जाता।

प्राचीन भारत में नागार्जुन एक प्रसिद्ध रसायन शास्त्री थे। वे जन्म से ही प्रतिभाशाली थे। उनका जन्म छत्तीसगढ़ अंचल के बालूका ग्राम में हुआ। उन्होंने वेद, वेदांगों का अध्ययन शीघ्र ही पूर्ण कर लिया था।
कालान्तर में नागार्जुन ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया व बौद्धमत में दीक्षित हो गये। रसायन शास्त्र के क्षेत्र में रस हृदय' नामक ग्रंथ में धातुकर्म पर कार्य का विवरण मिलता है। उन्होंने पारे को शोधकर उसका भष्म बनाने की विधि भी ज्ञात की चिकित्सा के क्षेत्र में उनका योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने इस क्षेत्र में अनेक ग्रंथ लिखे है। नागार्जुन एक महान दार्शनिक थे उनका दर्शन शून्यवाद' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय के माध्यमिक सिद्धान्त को प्रारम्भ करने का श्रेय भी इन्हें ही है। उन्होंने वैदिक व बौद्ध दर्शन में समन्वय स्थापित कर भारत की राष्ट्रीय एकात्मकता में महान योगदान दिया था। आन्ध्रप्रदेश में कृष्णा नदी पर बने विशाल बांध का नामकरण उनकी स्मृति में नागार्जुन सागर किया गया है।

(ग) भाषाः

पाठ में कठिन शब्दावली का उपयोग बारंबार किया गया है। उदाहरण के लिए कक्षा 3 की पुस्तक में बारहवां पाठ (चित्र 4 ) हमारे गौरव-1 देखें:
इस पाठ में रसायन शास्त्री, प्रतिभाशाली, वेदांगों, कालांतर, बौद्ध दर्शन, बौद्धमत, दीक्षित, धातुकर्म, उल्लेखनीय, शून्यवाद, महायान संप्रदाय, माध्यमिक सिद्धान्त, राष्ट्रीय एकात्मकता आदि कई शब्द आए हैं जो काफी क्लिष्ट हैं, साथ ही तीसरी कक्षा के स्तर पर ये अवधारणाएं काफी कठिन प्रतीत होती हैं। चूंकि पाठ का उद्देश्य वैज्ञानिक के कार्यों से विद्यार्थियों को अवगत करना है, तो भाषा को सरल रखा जाना बहुत जरूरी लगता है।

कमल का फूल- अरे ये पानी में कितने सुंदर फूल तैर रहे हैं। फूल-फूल ! तुम कौन हो? कमल में कमल का फूल हूँ। पानी में खिलता हूँ। मेरे पत्ते बहुत बड़े-बड़े हैं। मेरे डंठल व पुष्पासन से बहुत से अच्छी सब्जी बनती है। अच्छा-अच्छा, मैंने तुम्हें अपनी स्कूल में भी देखा है, तुम तो वही फूल हो जिस पर माँ सरस्वती विराजमान है।हाँ हाँ वही कमल का फूल हूँ जिस पर माँ सरस्वती विराजमान रहती है। हा हा ! कमल का फूल मुस्कुरा दिया।

इस जीवनी के बाद - 'चर्चा कीजिए' शीर्षक के अन्तर्गत प्रश्न दिया गया है 'नागार्जुन की जीवनी से हमें क्या सीख मिलती है?"

  1. शून्यवाद और माध्यमिक सिद्धान्त:-

     को समझे बिना इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मुश्किल है, एक संभावना यह लगती है कि विद्यार्थी को इसे रटना होगा और इस तरह यह पाठ  एनसीएफ 2005 की मूल बात, शिक्षा को रटंत प्रणाली से दूर करने के विरुद्ध जाता प्रतीत होता है।
  2.  

    प्रक्रिया की वैधता -

    पाठ्यपुस्तकों को जब हम इस नजरिए से देखें कि विद्यार्थी को ऐसे मौके मिलें जो उसे वैज्ञानिक जानकारी के पुष्टीकरण व सृजन करने की ओर बढ़ाए तो हम पाते हैं कि कई ऐसे मौके आते हैं जहां ऐसी अस्थाओं व मिथकों को पाठों में स्थान दिया गया है जिन्हें वैज्ञानिक रूप से ज्ञात करने और पुष्टीकरण करने की संभावना नहीं है। जैसे कक्षा 4 की पुस्तक में पांचवें पाठ "फूल ही फूल" में कमल के फूल पर मां सरस्वती का विराजमान होना (चित्र-5) इस तरह यह पुस्तक तर्क संगत सोच विकसित करने के मौके उपलब्ध कराने और अवधारणाओं, जांच और सत्यापन प्रक्रिया पर आधारित ज्ञान निर्माण कर पाने में असफल दिखाई देती है और लिखे गए को हूबहू मान लेने की वकालत करती दिखती है।
  3.  

    ऐतिहासिक वैधता-

    पाठ्यपुस्तकों में ऐतिहासिक दृष्टिकोण के साथ जानकारी देने के पीछे उद्देश्य यह है कि विद्यार्थी ये समझ सकें कि समय के साथ-साथ विज्ञान की अवधारणाएं कैसे विकसित हुई। पर्यावरण अध्ययन ( ईवीएस) की किताबों में ऐतिहासिक सूचनाएं भी इस तरह से आती हैं कि विज्ञान की अवधारणाएं कैसे विकसित होकर हमारे आज के ज्ञान तक पहुंची, इस बात को स्पष्ट नहीं कर पातीं और अपने मूल उद्देश्य (विज्ञान को समाज से जोड़ने) को पूरा नहीं कर पातीं। जैसे कक्षा 5 के पहले पाठः रिश्तों की समझ में वंशानुगत लक्षणों की बात करते हुए पाठ में बिना किसी भूमिका से एकदम से 'आओ और जाने' शीर्षक के अंतर्गत आनुवांशिकी के जनक- मेंडल और भारतीय वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना के बारे में 4 लाइनें दी गई हैं, जिनमें उनके काम को लेकर कोई ऐसी जानकारी नहीं जिससे पाठ को जोड़ा जा सके। "ग्रेगर जॉन मेण्डल ने मटर के पौधे पर बहुत से प्रयोग कर वंशानुगत के नियम प्रतिपादित किए इसलिए उन्हें आनुवांशिकी का जनक कहा जाता है।" "डॉ. हरगोविन्द खुराना ने वंशानुगत नए गुणों के निर्धारण हेतु कई शोध पत्र लिखे। इस कार्य हेतु इन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।" जबरदस्ती ठूसी गई इस जानकारी पर रिक्त स्थान की पूर्ति व अभ्यास प्रश्न भी दिया गया है, "एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में गुणों का जाना... कहलाता है।", “आनुवांशिकता के क्षेत्र में कार्य करने वाले किन्हीं दो वैज्ञानिकों के नाम लिखिए" (पृ. 8)। जिसे रटने के अलावा बच्चे के पास कोई उपाय नहीं।
  4.  पर्यावरण संबंधी वैधता

    - पाठ्यपुस्तकों से अपेक्षा है कि ज्ञान को स्थानीय व वैश्विक पर्यावरण के संदर्भ में रखें ताकि विज्ञान, तकनीक व समाज के पारस्परिक संवाद के क्रम में मुद्दों को समझा जा सके। जब इस वैधता पर हम पुस्तकों को देखते हैं तो इनमें स्वच्छता, शौचालय, कचरा प्रबंधन आदि पर विस्तार से बात की गई है जिससे यह उम्मीद दिखती है कि इन मुद्दों पर समाज में संवाद कायम होगा और बदलाव भी आ सकेगा। लेकिन इनके महत्त्व को स्थापित करने हेतु उचित तर्क चुने जाने चाहिए थे। उदाहरण के लिए, कक्षा 5 का पाठ 4 मिलकर करें सफाई- "गंगा की भाभी का कहना है कि जब हम घर एवं बाहर घूंघट निकालते हैं तो खुले में शौच कैसे जाएं" तो सवाल ये उठता है कि ऐसी महिला जो घूंघट नहीं निकालती या कोई पुरुष है तो उसके लिए क्या इतना ही जरूरी नहीं है कि वह खुले में शौच न जाए? शौचालय के उपयोग के लिए जो तर्क गढ़े गए हैं, वो उचित प्रतीत नहीं होते। 
  5.  नैतिक वैधता-  

    पाठ्यपुस्तकें "हमारे गौरव" घटक के रूप में अनेक प्रसिद्ध व्यक्तित्वों के बारे में बताते हुए नैतिक उपदेशों व मूल्यों को प्रोत्साहित करने का प्रयास करती हैं। हमने संवैधानिक मूल्यों को पाठ्यपुस्तकों में देखने का प्रयास किया जो स्पष्ट रूप से एनसीएफ 2005 में भी परिभाषित किए गए हैं- जैसे जाति, धर्म, लिंग, असमर्थता निरपेक्ष, समावेशी स्कूली माहौल मुहैया करवाना।

कक्षा 5, पाठ 6 'बीज बना पौधा-  बीज का अंकुरण पढ़ाने के लिए पृष्ठ 29 पर बछवारस त्यौहार की बात की गई। है लेकिन राजस्थान के कई प्रदेशों में विशेषकर आदिवासी बहुल इलाकों में इसके बारे में कोई नहीं जानता। अगले ही पृष्ठ 30 पर नवरात्रि में मंदिर देवरों में ज्वारा उगाने की बात है। 'बीजों का इधर उधर फैलना' (पृ. 32 ) में "मीरा ने पीपल का पौधा मंदिर की दीवार पर देखा...", इस तरह पूरा पाठ अन्य धर्मों में पौधों के महत्व का कोई जिक्र नहीं करता, जबकि उनका भी समावेश यहां होना चाहिए- जैसे जैन और बौद्ध धर्म में अशोक, साल और वटवृक्ष, इस्लाम में कुरान में कई पौधों तुलसी, अंजीर, मेहंदी, अनार, जैतून आदि का महत्व बताया गया है, वहीं ईसाई धर्म में भी बबूल, जैतून, अंजीर, अंगूर और नारंगी के पौधों को किसी न किसी महत्व के साथ दर्शाया गया है। बड़, पीपल, शीशम, इमली, आम, नीम और बेर आदि को सिक्ख धर्म में विशेष महत्व दिया गया है।

कक्षा 4 के पाठ 5 'फूल ही फूल' में कमल के फूल के साथ मां सरस्वती का जिक्र है, लेकिन हम जानते हैं कि जैन, बुद्ध, सिक्ख, में भी कमल के फूल का विशेष महत्त्व बताया गया है।

पाठ 7 'वृक्षों की महिमा' - वट सावित्री के व्रत पर बड़ के पेड़ की पूजा से पाठ की शुरुआत होती है और फिर आंवला नवमी पर आंवले और दशामाता पर पीपल की पूजा द्वारा पेड़ों के महत्व की बात होती है। फिर अमृता देवी विशनोई की कहानी है। फिर 'सोचिए और बताइए' शीर्षक के अंतर्गत प्रश्न भी है- "आपके आस पास किन-किन पेड़- पौधों की पूजा की जाती है?" पूजा प्रार्थना की एक पद्धति है जो खास धर्म में की जाती है; दूसरे धर्मों में पूजा नहीं की जाती। जब हम यह सवाल पूछ रहे होते हैं तो उस खास पद्धति के बारे में बात कर रहे होते हैं और बाकी को छोड़ दे रहे होते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक बहुलता के खिलाफ जाता प्रतीत होता है।
इस तरह लेखक एक संकुचित विचारधारा के साथ पुस्तक में तथ्यों को प्रस्तुत करते हुए प्रतीत होते हैं।

कक्षा 3 का पाठ 3 खेल-खेल में', कक्षा 4 का पाठ-4 खेल प्रतियोगिता', कक्षा 5 का पाठ 5 'आओ खेलें खेल' सभी पाठों में जितने चित्र दिए गए हैं उनमें लड़कियों का प्रतिनिधित्व बेहद कम है वे कक्षा 5 में पहली बार ठीक से दिखाई देती हैं। कुछ इसी तरह का चित्रण 'अलग अलग हैं सबके काम' (कक्षा 3 पाठ 18), 'खेती से खुशहाली' (कक्षा 5 पाठ 20). 'कपड़े की कहानी' (कक्षा 1, पाठ 21 ) में बयान होता है, सभी चित्रों में पुरुष दिखाए गए हैं लेकिन इसके विपरीत यदि कक्षा 3 में पाठ 7 और 8 में पानी भरने और कक्षा 3 में पाठ 10 और कक्षा 4 में पृष्ठ 64 पर खाना बनाने की गतिविधि के चित्र देखें तो उनमें लड़के दिखाई नहीं देते। इस तरह यह पाठ 'लड़कों के काम और लड़कियों के काम की परंपरागत पितृ सत्तात्मक अवधारणा का प्रसार करते प्रतीत होते हैं।

कक्षा 5 के पाठ 3 'कुछ खास हैं हम' दिव्याङ्ग बच्चों पर आधारित इस पाठ में सभी बच्चों को ब्रेल लिपि और सांकेतिक भाषा सिखाने का प्रयास किया गया है और उस पर आधारित गतिविधि भी दी गई है। कक्षागत स्तर पर भी यदि इस तरह की सांकेतिक भाषा के उपयोग के उचित अभ्यास के मौके दिए जाएं तो यह एक सराहनीय प्रयास हो सकता है जहां सभी बच्चे दिव्यांग बच्चों से संवाद स्थापित कर सकेंगे।

लेखिका परिचयः वनस्पति विज्ञान में पीएचडी हैं, लंबे समय तक स्नातकोत्तर स्तर पर अध्यापन किया। वर्तमान में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में विज्ञान की संदर्भ व्यक्ति के तौर पर कार्यरत ।
शिक्षा विमर्श जुलाई-अगस्त, 2016

1. 'स्वाद में क्या रखा है', स्निग्धा दास, शैक्षिक संदर्भ, अंक 10, मूल अंक 67, पृ. 71-80

स्रोत -शिक्षा विमर्श जनवरी-फरवरी, 2017

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