जनभागीदारी से हो कूड़े-कचरे का प्रबंधन
जनभागीदारी से हो कूड़े-कचरे का प्रबंधन

जनभागीदारी से हो कूड़े-कचरे का प्रबंधन

प्लास्टिक व पॉलीथिन पर नियंत्रण के लिए पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने एक आदेश दिया था जिसमें पूरी तरह पॉलिथीन पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई है। इस आदेश को सरकार ने कड़ाई से पालन करने के लिए प्रयास तो किए हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि इसमें थोड़ी भी कमी नहीं आई है। प्रदूषण नियंत्रण के विषय में अदालतों ने अनेक फरमान जारी किए हैं जिनका प्रभाव एक महीने से अधिक नहीं टिक पाता। इसका कारण है
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हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर, बुग्याल, जंगल में जगह-जगह  कूड़े के ढेर लगे हुए हैं। यात्रा सीजन पूरा होने के बाद चारधाम और बुग्यालों के बीच में आने वाले पर्यटकों द्वारा पैदा किए गए ठोस कचरे को एकत्रित करने के प्रयास भी किए जाते हैं, लेकिन अक्सर देखा गया कि जहां से इसको बोरों में भरकर उठाया जाता है, उसके आगे नदियों के किनारे ही डंप कर दिया जाता है। इसके बाद सफाई का संदेश भी प्रकाशित हो जाता है। प्रदूषण रोकने में जन भागीदारी महत्वपूर्ण मानी जानी चाहिए। स्वच्छता-सफाई के काम में स्थानीय रोजगार उपलब्ध कराने की नीयत हो। 

महात्मा गांधी की कल्पना थी कि देश को आजादी मिलने के बाद 5 लाख से अधिक गांवों में ग्राम स्वराज की स्थापना के लिए कार्य किया जाएगा। ग्राम स्वराज को जमीन पर उतारने की पहली शर्त थी कि ग्राम स्वच्छता अर्थात ग्राम सफाई द्वारा गांव में पैदा होने वाले कूड़े-कचरे का प्रबंधन। इससे जितना संभव हो, जैविक खाद भी तैयार हो। ब्रिटिश सरकार से संघर्ष के दौरान महात्मा गांधी जहां भी जाते वहां गांव के लोगों के साथ सफाई अभियान को चलाना उनका पहला रचनात्मक कार्य बन जाता था। उनका मानना था कि कूड़े-कचरे के प्रबंधन में गांव के प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी सुनिश्चित हो।

लेकिन आजादी के बाद ग्राम सफाई से प्रारंभ होने वाले ग्राम स्वराज की कल्पना केवल बापू की जयंती के दिन झाड़ू लगाने तक सीमित रह गई। गांव शहरों में तब्दील होने लगे। शहरों का अजैविक कचरा विभिन्न पैकेजों के माध्यम से गांव में बिखरने लगा। स्थिति ऐसी हो गई है कि मानव निर्मित कूड़ा-कचरा नदियों और जल स्रोतों के बीच में बेहिचक उड़ेला जा रहा है। नदियों के जिस अमृत जल को पीने से लोग पुण्य प्राप्त करते थे और अपने को भाग्यशाली मानते थे, वह आज इतना प्रदूषित हो चुका है कि सीवर का पानी गंगा में घुल चुका है। हर नदी और जल स्रोत में बढ़ती गंदगी से लोगों में तरह-तरह के रोग उत्पन्न हो रहे हैं। अनेकों शोध बता रहे हैं कि जलस्रोतों और नदियों में गिर रहे प्लास्टिक और पॉलिथीन के कण मानव शरीर में प्रवेश कर चुके हैं जिसका इलाज करना भी आसान नहीं है। प्रदूषण की मार इतनी अधिक है कि बड़े-बड़े उद्योगों से निकल रहा कचरा सीधे नदियों में प्रवाहित हो रहा है।

प्लास्टिक व पॉलीथिन पर नियंत्रण के लिए पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने एक आदेश दिया था जिसमें पूरी तरह पॉलिथीन पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई है। इस आदेश को सरकार ने कड़ाई से पालन करने के लिए प्रयास तो किए हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि इसमें थोड़ी भी कमी नहीं आई है। प्रदूषण नियंत्रण के विषय में अदालतों ने अनेक फरमान जारी किए हैं जिनका प्रभाव एक महीने से अधिक नहीं टिक पाता। इसका कारण है कि जिन माध्यमों से प्रदूषण पैदा करने वाले कारक गांव, शहर और जल स्रोतों में एकत्रित हो रहे हैं, उन पर नियंत्रण करने के लिए कोई भी आदेश अब तक हुआ नहीं है। वैसे न्यायालयी स्तर पर प्रदूषण और अतिक्रमण रोकने के लिए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) का गठन किया गया है। लेकिन चिंताजनक है कि उनके तमाम फैसले पलटने के लिए न्यायालयों में एक समूह लगातार काम करता रहता है। यह इसलिए भी है कि कानून में जहां दोषी व्यक्ति को जमानत मिल जाती है वहीं प्रदूषण फैलाने वाले कारकों को एक तरह की छूट दी जा रही है। और प्रदूषण बढ़ता रहता है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एक निश्चित दायरे से अधिक काम नहीं कर पा रहा है क्योंकि जिन उद्योगपतियों ने प्लास्टिक और पॉलिथीन के कारखाने लगाए हैं, उनको रोकना आसान नहीं है, क्योंकि उन्हें विकास का अहम और मजबूत हिस्सा मान लिया गया है। लोगों की बढ़ती आवश्यकताएं और जीवन शैली भी प्रदूषण को बढ़ा रही हैं और कानून की दीवारें कमजोर पड़ती दिखाई देती हैं। जिला प्रशासन प्रदूषण नियंत्रण के लिए विभिन्न उपायों पर बात करता नजर आता है, लेकिन उसके सामने ऐसा कोई विकल्प नहीं है कि जो वह बाहर से आने वाली पॉलिथीन की थैलियां पर मजबूती से अपने जिले में आने से निषेध कर सके। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि प्रदूषण, कानून के आदेशों से नहीं रुक सकता। प्रदूषण रोकने में राजनीतिक महत्वाकांक्षा सबसे बड़ी बाधा है।

लगभग एक दशक से हमारे देश में स्वच्छ भारत अभियान और गंगा की स्वच्छता के लिए नमामि गंगे परियोजना चलाई जा रही है। इससे एक लाभ तो हुआ है कि शहरों में लगातार स्वच्छकार हर दिन साफ सफाई करते नजर आते हैं, लेकिन उनके द्वारा एकत्रित कूड़े के ढेर जगह-जगह लगे हुए हैं। सीवर ट्रीटमेंट प्लांट्स की क्षमताएं भी इतनी कमजोर हैं कि वे प्रदूषण को रोक नहीं पा रहे हैं। उदाहरण है कि गंगा के उद्गम स्थल उत्तरकाशी में गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर पिछले 5 वर्षों से कूड़े का ऐसा पहाड़ तैयार हो गया है कि जहां से गुजरने वाले हजारों पर्यटक और है। स्थानीय लोगों को गाड़ी के शीशे बंद करने के बाद भी तीखी दुर्गंध से गुजरना पड़ रहा है। यहां तरह-तरह के रोग पैदा होने की संभावना बढ़ गई हैं। कूड़े का यह पहाड़ भागीरथी नदी के किनारे पर है। जहां थोड़ी सी बरसात होने पर पूरी गंदगी रिस कर भागीरथी के पवित्र जल को प्रदूषित कर रही है। आश्चर्य यह कि यहां नगर पालिका और स्थानीय विधायक, सांसद भी इस गंदगी को दूर करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इसको दूर करने में भी कहीं न कहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है।

हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर, बुग्याल, जंगल में जगह-जगह कूड़े के ढेर लगे हुए हैं। यात्रा सीजन पूरा होने के बाद चारधाम और बुग्यालों के बीच में आने वाले पर्यटकों द्वारा पैदा किए गए ठोस कचरे को एकत्रित करने के प्रयास भी किए जाते हैं, लेकिन अक्सर देखा गया है कि जहां से इसको बोरों में भरकर उठाया जाता है, उसके आगे नदियों के किनारे ही डंप कर देते हैं। इसके बाद सफाई का संदेश भी प्रकाशित हो जाता है। अतः प्रदूषण रोकने में आमजन की भागीदारी महत्वपूर्ण मानी जानी चाहिए। समाधान यह है कि स्वच्छता और सफाई के नाम पर जो भी खर्च किए जाते हैं, वे स्थानीय बेरोजगार युवाओं को उपलब्ध कराया जाए। वे साल भर स्थानीय गांव और शहर के लोगों के साथ प्रदूषण नियंत्रण के लिए कूड़े का प्रबंधन कर सकते हैं। लेकिन राज्य की तरफ से कोशिश रहे कि जो भी ठोस और अजैविक कूड़ा है, उसकी रीसाइकिलिंग के लिए उचित स्थान पर पहुंचाने में सहयोग दे।

लेखक सुरेश भाई उत्तराखंड के गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं। पानी-पर्यावरण के सशक्त चिंतक हैं। 

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