प्लास्टिक कचरा कई समस्याएँ पैदा करता है
प्लास्टिक कचरा कई समस्याएँ पैदा करता है

प्लास्टिकमय होती दुनिया का परिदृश्य

17 min read

प्लास्टिक कचरा कई समस्याएँ पैदा करता है (फोटो साभार - इण्डिया टुडे)आज की दुनिया में हमारे जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं है जो प्लास्टिक से अछूता हो। कॉपी-किताब, पेन-पेन्सिल, स्कूली बस्ते, लंच बॉक्स से लेकर चाय के कप और कृत्रिम गहने तक हर चीज में प्लास्टिक का इस्तेमाल हो रहा है. यहीं नहीं पूरी इलेक्टॉनिक क्रान्ति तो जैसे प्लास्टिक पर ही टिकी हुई है। मोबाइल के हैंडसेट, ईयरफोन, कम्प्यूटर-लैपटॉप, पेन-ड्राइव, टीवी, रिमोट, वॉशिंग मशीन आदि लगभग हर डिवाइस या तो प्लास्टिक की बनी हुई है या उसमें बड़ी मात्रा मे प्लास्टिक का उपयोग किया गया है।

हमारी दिनचर्या में सुबह से शाम तक प्लास्टिक निर्मित इतनी चीजें शामिल रहती हैं कि अगर किसी रोज उनका प्लास्टिक निकाल दिया जाय तो शायद दुनिया अधूरी लगने लगे। बच्चों के खिलौने हों, दूध या पानी पीने के बोतलें हों, खेल के सामान हों, जूते और यहाँ तक की कपड़ों तक में (विशेष रूप से जींस में) प्लास्टिक प्रयोग में लाई जा रही है।

प्लास्टिक के ही एक रूप पॉलिथीन का तो विशेष उल्लेख करना होगा क्योंकि इससे बनी मोटी-पतली थैलियों ने पिछले दो-तीन दशकों में सामानों को लाना-ले जाना इतना आसान कर दिया कि किसी को इससे पैदा होने वाले खतरे का अहसास तक नहीं हुआ। बेहद नाजुक, पतली सी पॉलिथीन की थैली में कैसे 5-10 किलो आटा समा जाता है, गर्म चाय और ठंडी लस्सी टिक जाती है और फिर भी उसका बाल-बाँका नहीं होता-यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। पर यही थैलियाँँ कूड़े में फेंके जाने के बाद जब नालियों को जाम करती हैं, गायों से लेकर जंगल के शेरों के पेट में पाई जाती हैं, वर्षों बाद भी सड़ती-गलती नहीं हैं, तो सवाल उठता है कि आखिर कोई इन्हें खत्म क्यों नहीं करता है।

साफ तौर पर प्लास्टिक के दो पक्ष हैं। एक वह है जिसमें वह हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से उपयोगी है। दूसरा वह है, जिसमें वह एक प्रदूषक तत्व और इंसानों व जानवरों में बीमारियाँ फैलाने वाले तत्व के रूप में मौजूद है और उससे छुटकारा पाने या फिर उसका कोई बेहतरीन विकल्प खोजने की जरूरत पैदा होती है। लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि प्लास्टिक आखिर दुनिया में क्यों और कब आया।

दुनिया में जब आया प्लास्टिक

प्लास्टिक के शुरुआती रूप का जिक्र सदियों पहले मिलता है। दस्तावेज बताते हैं कि 1600 ईसा पूर्व में प्राकृतिक रूप से रबर के पेड़ों से मिलने वाले रबर, माइक्रोसेल्यूलोज, कोलेजन और गैलालाइट आदि के मिश्रण से प्लास्टिक जैसी किसी चीज को तैयार किया गया था, जिसका इस्तेमाल गेंद (बॉल), बैंड और मूर्तियाँ बनाने में किया जाता था। लेकिन आज हम जिस आधुनिक प्लास्टिक के विविध रूपों को देख रहे हैं, उसके आरम्भिक आविष्कार का श्रेय ब्रिटेन के वैज्ञानिक अलेक्जेंडर पार्क्स को जाता है। उन्होंने इसे नाइट्रोसेल्यूलोज कहा, जिसे उनके सम्मान में पार्केसाइन कहा जाने लगा।

अलेक्जेंडर पार्क्स एक हाथी दाँत का सिथेंटिक विकल्प खोज रहे थे ताकि सजावटी सामान बनाने के लिये हाथी दाँत की जगह उस पदार्थ का इस्तेमाल हो सके और हाथियों की हत्या रोकी जा सके। अलेक्जेंडर पार्क्स इस काम में थोड़ा-बहुत सफल भी रहे। उन्होंने अपनी खोज को 1856 में बर्मिंघम में पेटेंट कराया और फिर भी इससे बनी चीजों को उन्होंने 1862 में लंदन में लगी एक अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शनी में पेश किया। इसके लिये उन्हें एक कांस्य पदक देकर सम्मानित भी किया गया।

लेकिन प्लास्टिक की यह किस्म इतनी लचीली नहीं थी कि उसे मनचाहा आकार दिया जा सके। बाद में प्लास्टिक को लेकर कई खोजें हुईं। जिनसे इसके परिष्कृत रूप सामने आने लगे। जैसे सन 1897 में जर्मनी के दो रसायनशास्त्रियों विल्हेल्म फ्रिस्क और अडोल्फ स्पिट्लर ने ब्लैक बोर्ड बनाने के स्लेट का विकल्प खोजने की कोशिश शुरू की।

इसके बाद करीब 40 वर्षों तक प्रयोंगों से कैसीन नामक पदार्थ पर फॉर्मेल्डिहाइड की अभिक्रिया कराते हुए जानवरों के सींग से प्लास्टिक जैसा लचीला पदार्थ हासिल किया गया जो कई चीजें बनाने में काम आने लगा। लेकिन असली क्रान्ति 1900 में हुई थी, जब प्लास्टिक का पूरी तरह से सिथेंटिक (यानी कैमिकल्स से तैयार) स्वरूप सामने आया। यह प्लास्टिक फिनॉल और फॉर्मेल्डिहाइड के उपयोग से बनाया गया था।

आई बारी सच्चे प्लास्टिक की

बेल्जियम मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक लियो एच. बैकलैंड को इसका श्रेय दिया जा सकता है कि आज हम प्लास्टिक की जिन विभिन्न किस्मों और सभी चीजों में प्लास्टिक के इस्तेमाल को देख रहे हैं, उसकी खोज उन्होंने ही की थी। बेल्जियम में पैदा होने वाले लिये बैकलैंड एक मोची के बेटे थे। उनके पिता अशिक्षित थे और उन्हें अपनी तरह ही जूते बनाने के धंधे में लाना चाहते थे। हैरानी की बात है कि वे समझ नहीं पा रहे थे कि लियो पढ़-लिखकर आखिर क्या करना चाहते हैं।

बैकलैंड की असली कहानी तब शुरू हुई, जब वह अमेरिका आये और न्यूयॉर्क में हडसन नदी के किनारे पर एक घर खरीदा। इस घर में समय बिताने के लिये उन्होंने एक प्रयोगशाला (लैब) बनाई थी, जहाँ पर 1907 में उन्होंने रसायनों के साथ समय बिताते हुए प्लास्टिक का अविष्कार किया था।

प्लास्टिक का अविष्कार करने के बाद 11 जुलाई, 1907 को एक जर्नल में लिखे अपने लेख में बैकलैंड ने लिखा, ‘अगर मैं गलत नहीं हूँ तो मेरा ये अविष्कार (बैकेलाइट) एक नए भविष्य की रचना करेगा।’ ऐसा हुआ भी उस वक्त प्रसिद्ध मैगजीन- टाइम ने अपने मुख्यपृष्ठ पर लियो बैकलैंड की तस्वीर छापी और उनकी फोटो के साथ उनके नाम की जगह लिखा- ‘ये ना जलेगा और ना पिघलेगा।’

बैकलैंड असल में इलेक्ट्रिक मोटरों और जेनरेटरों में तारों की कोटिंग के लिये एक ऐसे पदार्थ की खोज कर रहे थे तो प्राकृतिक रूप से कीटों से प्राप्त पदार्थ लाख (गोंद जैसा एक चिपचिपा द्रव जो सूखने पर किसी भी सतह पर चिपककर पपड़ी तैयार कर देता है) का स्थान ले सके। बैकलैंड ने अपनी खोज 1907 में शुरू की और फिनॉल व फॉर्मेल्डिहाइड के मिश्रण से लाख जैसा चिपचिपा द्रव तैयार कर लिया। गर्म करने पर यह द्रव पिघल जाता था और ठंडा होने पर सख्त हो जाता था।

शुरुआती प्रयोगों के तीन साल 1912 में बैकलैंड ने अपने आविष्कार की घोषणा की और इसका नामकरण बैकेलाइट किया गया। बैकेलाइट का इस्तेमाल बिजली और तमाम ऐसे उपकरणों में होने लगा, जहाँ तापरोधी सतह तैयार करन के लिये किसी कोटिंग की जरूरत होती थी। यह एक सच्चा प्लास्टिक था जो विशुद्ध रूप से सिथेंटिक सामग्री से बना था। यह पहला ऐसा थर्मोसेटिंग प्लास्टिक था, जिसे इसे गर्म करके पिघलाते हुए किसी भी रूप में ढाला जा सकता था।

बैकेलाइट प्लास्टिक सस्ता, मजबूत और टिकाऊ था और इससे रेडियो, टेलीफोन, घड़ी और बिलियर्ड गेंदों से लेकर हजारों चीजें तैयार की जा सकती थीं। बैकेलाइट कॉर्पोरेशन ने प्लास्टिक के प्रचार के लिये कहा कि इस अविष्कार से इंसान ने जीव, खनिज और वनस्पतियों की सीमा के पार एक नई दुनिया खोज ली है जिसकी अपार सीमाएँ हैं।

बैकलैंंड के लिये एक अफसोस की बात यह रही कि बैकेलाइट के पेटेंट की अवधि 1930 में खत्म हो गई और तब एक अलग प्रक्रिया का इस्तेमाल कर प्लास्टिक बनाने वाली कम्पनी कैटिलिन कॉर्पोरेशन ने नया पेटेंट हासिल कर लिया। इस कम्पनी ने अपने प्लास्टिक को कैटलिन प्लास्टिक का नाम दिया था।
 

बेशक डेढ़-दो सौ साल की इस यात्रा में प्लास्टिक ने सबसे ज्यादा तरक्की पिछले 40-50 वर्षों में ही की है जब जीवन से जुड़ी हर जरूरत के सामान में प्लास्टिक ने घुसपैठ कर ली। आज प्लास्टिक को बेशक एक समस्या के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन मानव सभ्यता के विकास में इसके योगदान की अनदेखी नहीं हो सकती।

वैसे तो प्लास्टिक के मोटे तौर पर दो प्रकार होते हैं। एक है थर्मोप्लास्टिक और दूसरा, थर्मोसेट्स। थर्मोप्लास्टिक को गर्म किया जाय तो वह नर्म हो जाता है और पिघल जाता है, जैसे पॉलिथीन, पॉलीस्टायरीन और पीटीएफई आदि। जबकि गर्म करने पर थर्मोसेट्स नर्म नहीं पड़ते और आसानी से पिघलते भी नहीं हैं। इसकी माइक्रोटा और जीपीओ जैसी किस्में होती हैं। लेकिन अलग-अलग किस्मों की प्लास्टिक को उनकी रासायनिक संरचना के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।

इस तरह के वर्गीकरण में एक्रेलिक, पॉलिस्टर, सिलिकॉन, पॉलीयूरेथिन, हैलोगनेटेड, इलास्टोमर, स्ट्रक्चरल, बायोडिग्रेडेबल और विद्युत कुचालक, पॉलीप्रोपाइलिन, पॉली-विनाइल क्लोराइड, पॉलीमाइट (यानी नायलॉन) आदि। इनमें पॉलीस्टाइनिन और (पीएस) और पॉलीविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) की खूब चर्चा होती है।

पॉलीस्टाइनिन एक कठोर, भंगुर, सस्ते किस्म का प्लास्टिक है जिसका इस्तेमाल प्लास्टिक के मॉडल, मूर्तियाँ, ट्रे या किट आदि बनाने में किया जाता है। इसके मुकाबले में पॉलीविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) कठोर, मजबूत गर्मी और मौसम प्रतिरोधी प्लास्टिक है। इससे पाइप, जूतों के सोल, कम्प्यूटर-लैपटॉप के पार्ट बनाए जाते हैं। पीवीसी से ही पैकेजिंग की पतली पन्नियाँ भी तैयार होती हैं। प्लास्टिक की एक महत्त्वपूर्ण किस्म है पॉलिथीन या पॉलीएथिलीन (पीई)।

पॉलिथीन को असल में 1933 में आर.गिब्सन और एरिक फॉवेट नामक रसायनशास्त्रियों ने ब्रिटेन की इंपीरियल कैमिकल इंडस्ट्रीज (आईसीआई) में खोजा था। पीई सस्ता, लचीला, टिकाऊ और रासायनिक रूप से प्रतिरोधी प्लास्टिक है और इसी गुण के कारण थैलियों से लेकर कैमरे की फिल्मों और पैकेजिंग सामग्री बनाने में इसका बहुतायत से इस्तेमाल होता है।

पॉलिथीन की तरह प्लास्टिक का एक उपयोगी प्रकार टेलॉन यानी पॉली टेट्रा फ्लोरो एथिलीन (पीटीएफई) भी है। इसे 1938 में परमाणु बम के लिये यूरेनियम को परिष्कृत करने की प्रक्रियाओं में संयोगवश खोजा गया था पर कम घर्षण वाली सुरक्षात्मक कोटिंग की इसकी खूबी इसे बर्तनों तक ले आई और फ्राइंग पैन, तवे से लेकर प्रेशर कुकर आदि में इसका इस्तेमाल होने लगा।

इस समय सबसे ज्यादा चर्चा बायोडिग्रेडेबल (कम्पोस्टेबल) प्लास्टिक की है जो इस्तेमाल में लाये जाने के बाद कचरे में सूर्य के प्रकाश (जैसे-अल्ट्रा वॉयलेट विकिरण), पानी या नमी, बैक्टीरिया, एंजाइमों, वायु के घर्षण और सड़न कीटों की मदद से खत्म होकर मिट्टी में घुल-मिल जाये ताकि प्लास्टिक का पर्यावरण पर कोई विपरीत असर न पड़े। इसकी कुछ किस्में, जैसे कि बायोपॉल, बायोडिग्रेडेबल पॉलीएस्टर इकोलैक्स, इकोजेहआर आदि हैं, लेकिन अभी यह प्लास्टिक काफी महंगा पड़ता है, इसलिये कम्पनियाँ इनके सामान नहीं बनाती हैं।

बेशक डेढ़-दो सौ साल की इस यात्रा में प्लास्टिक ने सबसे ज्यादा तरक्की पिछले 40-50 वर्षों में ही की है जब जीवन से जुड़ी हर जरूरत के सामान में प्लास्टिक ने घुसपैठ कर ली। आज प्लास्टिक को बेशक एक समस्या के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन मानव सभ्यता के विकास में इसके योगदान की अनदेखी नहीं हो सकती। कहीं-कहीं तो आज भी प्लास्टिक का कोई विकल्प भी नहीं है, जैसे बिजली की तारों के इन्स्युलेशन में यानी उन पर प्लास्टिक की परत चढ़ाने में ताकि विद्युत प्रवाह होने पर उनसे करंट नहीं लगे।

बिजली से चलने वाले ज्यादातर उपकरणों में प्लास्टिक विद्युत कुचालक होने की खूबी के कारण ही इस्तेमाल में लाया जाता है। वजन में हल्की, किसी भी आकार में आसानी से मोड़ी या डिजाइन करने की सहूलियत के कारण प्लास्टिक को एक बेजोड़ तत्व माना जाता है। वजन सहने की इसकी क्षमता भी लाजवाब है। प्लास्टिक (पॉलिथीन) की थैलियों में दूध और पानी की बोतलों में मनचाहे वजन की पैकिंग की जा सकती है।

बड़े सामानों की हर किस्म की पैकिंग में प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है क्योंकि वह जल्द खराब नहीं होती और मौसम की मार भी सह सकती है। बड़ी कम्पनियों के सामानों की 85 फीसदी पैकिंग में प्लास्टिक के कवर से लेकर रस्सियाँ तक इस्तेमाल में लाई जाती हैं। प्लास्टिक की यह घुसपैठ कितनी ज्यादा है, इसका एक आकलन पुस्तक प्लास्टिकः अ टॉक्सिक लव स्टोरी की लेखिका सुजैन फ्रीनकेल ने किया था।

इस किताब में उन्होंने अपने एक दिन की दिनचर्या के बारे में लिखा कि वे 24 घंटे में ऐसी कितनी चीजों के सम्पर्क में आईं जो प्लास्टिक की बनी हुईं थीं। इनमें प्लास्टिक के लाइट स्विच-ए-टॉयलेट सीट, टूथब्रश और टूथपेस्ट ट्यूब शामिल थे। ऐसी चीजों की संख्या 196 थी, जबकि गैर-प्लास्टिक चीजों की संख्या 102 थी। यानी अन्य पदार्थों के मुकाबले प्लास्टिक से बनी चीजें हमारी जिन्दगी में ज्यादा हो गई हैं।

दुनिया में कितनी प्लास्टिक बनती है इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे तेल उत्पादन का आठ फीसदी हिस्सा प्लास्टिक उत्पादन में खप जाता है। लेकिन जहाँ इस्तेमाल होने तक यह प्लास्टिक सुविधा प्रदान करता है, उपयोग के दौरान होने वाली रासायनिक क्रियाओं और उसके बाद कूड़े-कचरे में बदलने पर यह दुनिया के लिये बड़ी समस्या बन जाता है।

मुसीबत प्लास्टिक कचरे की

चूँकि हर चीज में प्लास्टिक की दखल है, इसलिये इसका कचरे में बदलना भी इस धरती और प्रकृति में सीधी दखलंदाजी के हालात पैदा करता है। जैसे, एक आँकड़ा यह है कि दुनिया में हर सेकेंड आठ टन प्लास्टिक का कोई-न-कोई सामान बनता है और इसी तरह हर साल कम-से-कम 60 लाख टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में पहुँच जाता है।

यह भी उल्लेखनीय है कि प्लास्टिक कचरे का केवल 15 फीसद हिस्सा ही पृथ्वी की सतह यानी जमीन पर बचा रह पाता है, बाकी सारा कचरा समुद्र तल में जाकर जमा हो जाता है। चार दशक पहले वर्ष 1975 में किये गए एक अध्ययन में पाया गया था कि सागरों की ओर जाने वाली नदियों द्वारा लगभग 8 लाख पाउंड प्लास्टिक वार्षिक रूप से फेंक दिया जाता है इसीलिये यह दुनिया में जमीन पर अतिरिक्त रूप में नहीं दिखता है। यह आँकड़ा आज कई गुना बढ़ चुका है और इसमें हमारे देश का योगदान भी कुछ कम नहीं है।

अगस्त, 2014 में प्रश्नकाल के दौरान संसद में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने यह जानकारी दी थी कि देश के 60 बड़े शहर रोजाना 3500 टन से अधिक प्लास्टिक कचरा निकाल रहे हैं। उन्होंने बताया था कि वर्ष 2013-14 के दौरान देश में 1.1 करोड़ टन प्लास्टिक की खपत हुई, जिसके आधार पर यह जानकारी प्रकाश में आई कि दिल्ली, चेन्नई, मुम्बई, कोलकाता और हैदराबाद जैसे बड़े शहर सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा निकाल रहे हैं।

उपयोग के दौरान और कचरे के रूप में बच जाने वाला प्लास्टिक इंसानों-जानवरों समेत प्रकृति को भी बड़ा भारी नुकसान पहुँचा रहा है। प्लास्टिक की थैलियों, दूध व पानी की बोतलों, लंच बॉक्स या डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थों का सेवन मनुष्य स्वास्थ्य को इसलिये नुकसान पहुँचाता है क्योंकि गर्मी व धूप आदि कारणों से रासायनिक क्रियाएँ प्लास्टिक के विषैले प्रभाव उत्पन्न करती हैं जो कैंसर आदि तमाम बीमारियाँ पैदा कर सकते हैं।

सच्चाई तो यह है कि प्लास्टिक अपने उत्पादन से लेकर इस्तेमाल तक सभी अवस्थाओं में पर्यावरण और समूचे पारिस्थितिक तंत्र के लिये खतरनाक है। चूँकि इसका निर्माण पेट्रोलियम पदार्थों से प्राप्त तत्वों-रसायनों से होता है, इसलिये यह उत्पादन अवस्था, प्रयोग के दौरान और कचरे के रूप में फेंके जाने पर कई तरह की रासायनिक क्रियाएँ करके विषैले असर पैदा करता है।

जिन डिस्पोजेबल बर्तनों, कप-प्लेटों में खाने व चाय-कोल्ड ड्रिंक आदि पेय पदार्थ मिलते हैं, कुछ समय तक उनमें रखे रहने के कारण रासायनिक क्रियाएँ होने से वह खान-पान विषैला हो जाता है। कई वैज्ञानिक शोधों में यह दावा तक किया गया है कि प्लास्टिक से बनी पानी की बोतलें यदि कुछ समय तक सूर्य के प्रकाश में रहती हैं, तो उनमें मौजूद पानी का सेवन कैंसर जैसे रोग तक पैदा कर सकता है।

प्लास्टिक में अस्थिर प्रकृति का जैविक कार्बनिक एस्टर (अम्ल और अल्कोहल से बना घोल) होता है, जो कैंसर पैदा कर सकता है। सामान्य रूप से प्लास्टिक को रंग प्रदान करने के लिये उसमें कैडमियम और जस्ता जैसी विषैली धातुओं के अंश मिलाए जाते हैं। जब ऐसे रंगीन प्लास्टिक से बनी थैलियों, डिब्बों या अन्य पैकिंग में खाने-पीने के सामान रखे जाते हैं, तो ये जहरीले तत्व धीरे-धीरे उनमें प्रवेश कर जाते हैं। उल्लेखनीय है कि कैडमियम की अल्प मात्रा शरीर में जाने से उल्टियाँ हो सकती हैं, हृदय का आकार बढ़ सकता है। इसी प्रकार यदि जस्ता नियमित रूप से शरीर में पहुँचता रहे, तो इंसानी मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होने लगता है जिससे अल्जाइमर जैसी बीमारियाँ होती हैं।

प्लास्टिक से होने वाले खतरों से जुड़ी एक चेतावनी ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने भी जारी की है। उन्होंने प्लास्टिक से बने लंच बॉक्स, पानी की बोतल और भोजन को गर्म व ताजा रखने के लिये इस्तेमाल में लाई जाने वाली पतली प्लास्टिक फॉइल (क्लिंज फिल्म) के बारे में सचेत किया है कि इनमें 175 से ज्यादा दूषित घटक होते हैं, जो बीमार करने के लिये जिम्मेदार हैं।

वैज्ञानिकों का मत है कि यदि भोजन गर्म हो या उसे गर्म किया जाना हो, तो ऐसे खाने को प्लास्टिक में बन्द करने से या प्लास्टिक के टिफिन में रखने से दूषित कैमिकल खाने में चले जाते हैं। इससे कैंसर और भ्रूण के विकास में बाधा समेत कई बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। इन खतरों के मद्देनजर ही ब्रिटेन में कैंसर संस्थान खाने को पैक करने और गर्म रखने के लिये प्लास्टिक उत्पादों का उपयोग बन्द करने की सलाह देने लगे हैं। खतरा तो दूध की प्लास्टिक बोतलों को लेकर भी है।

असल में प्लास्टिक की बोतल में रासायनिक द्रव्यों की कोटिंग होती है। बोतल में गर्म दूध डालने पर रसायन दूध में मिलकर बच्चे के शरीर में पहुँचकर नुकसान पहुँचाता है। दूध की बोतल के अलावा शराब, कोल्ड ड्रिंक्स, और पैक्ड फूड को नमी से बचाने के लिये कई कम्पनियाँ प्लास्टिक में इसी की खतरनाक रासायनिक कोटिंग करती हैं।

और दवा की पैकिंग

सितम्बर, 2015 में केन्द्र सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी करके दवाओं को प्लास्टिक से बनी शीशियों व बोतलों में पैक करने पर रोक लगाने का इरादा जाहिर किया था। कहा गया था कि दवाओं की प्लास्टिक शीशियों व बोतलें मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण, दोनों के लिये हानिकारक हैं। हालांकि दवा उद्योग उसके लिये राजी नहीं है क्योंकि इससे उसे कारोबार पर असर पड़ सकता है।
 

कहीं-कहीं तो आज भी प्लास्टिक का कोई विकल्प भी नहीं है, जैसे बिजली की तारों के इन्स्युलेशन में यानी उन पर प्लास्टिक की परत चढ़ाने में, ताकि विद्युत प्रवाह होने पर उनसे करंट नहीं लगे। बिजली से चलने वाले ज्यादातर उपकरणों मे प्लास्टिक विद्युत कुचालक होने की खूबी के कारण ही इस्तेमाल में लाया जाता है। वजन में हल्की, किसी भी आकार में आसानी से मोड़ी या डिजाइन करने की सहूलियत के कारण प्लास्टिक को एक बेजोड़ तत्व माना जाता है। वजन सहने की इसकी क्षमता भी लाजवाब है।

असल में, पिछले करीब एक-डेढ़ दशक में कई तरह के सीरप, टॉनिक और दवाएँ प्लास्टिक पैकिंग में बेची जाने लगी हैं। इसकी वजह यह है कि ये शीशियाँ व बोतलें सस्ती पड़ती हैं और उनके टूटने का खतरा भी नहीं होता है। पर सवाल यह है कि इनसे खतरा क्या है? वैज्ञानिकों का दावा है कि प्लास्टिक बोतलों में पाये जाने वाले एक खास तत्व-थैलेट्स मनुष्य की सेहत पर प्रतिकूल असर डालते हैं। इनकी वजह से हॉर्मोनों का रिसाव करने वाली ग्रन्थियों का क्रियाकलाप बिगड़ जाता है।

ऐसा एक शोध अमेरिका में ब्रीघम यंग विश्वविद्यालय में किया गया है। वहाँ के वैज्ञानिकों ने करीब ढाई हजार महिलाओं पर किये गए अध्ययन में पाया कि प्लास्टिक बोतलों की दवाओं के सेवन से महिलाओं में थैलेट्स की मात्रा ज्यादा हो गई जो उनके शरीर में हॉर्मोनों के रिसाव में गड़बड़ी पैदा करने लगा। इन महिलाओं में मधुमेह के लक्षण पाये गए। कुछ अध्ययन में थैलेट्स को कैंसर पैदा करने में भी सहायक पाया गया है।

बोतलबन्द पानी में भी प्लास्टिक

जिस बोतलबन्द पानी को आमतौर साफ-सुथरा और पीने योग्य माना जाता है, उसमें भी प्लास्टिक के कण पाये गए हैं। अमेरिका के न्यूयॉर्क की स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भारत के अलावा चीन, अमरीका, ब्राजील, इंडोनेशिया, केन्या, लेबनान, मैक्सिकों और थाइलैंड में बेची जा रही 11 ब्रांडों की 250 बोतलों का परीक्षण किया।

मार्च 2018 में इस अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार बोतलबन्द पानी के 90 प्रतिशत नमूनों में प्लास्टिक के अवशेष पाये गए। सबसे ज्यादा प्लास्टिक के कण अमेरिका और थाईलैंड में बेचे जा रहे एक चर्चित ब्रांड के पानी में मिले। सभी ब्रांडों के एक लीटर पानी में औसतन 325 प्लास्टिक के कण मिले।

शोधकर्ताओं ने दावा किया कि बोतलबन्द पानी में यह प्रदूषण पैकेंजिंग के दौरान बोतलों के ढक्कन से आता है। प्लास्टिक के जो अवशेष पाये गए हैं, उनमें पॉली प्रोपाइलीन, नायलॉन और पॉलीएथिलीन टेरेप्थेलेट शामिल हैं। इन सभी का इस्तेमाल बोतल के ढक्कन बनाने में होता है। ये बोतलें कितना ज्यादा कचरा पैदा कर रहीं हैं, यह अन्दाजा इससे लगता है कि वर्ष 2016 में पूरी दुनिया में 480 अरब बौतलें खरीदी गईं। आकलन यह है कि दुनिया में हर मिनट 10 लाख प्लास्टिक बोतलें खरीदी जाती हैं, जिनमें से 50 प्रतिशत कचरा बन जाती हैं।

जानवरों के पेट में पॉलिथीन

कुछ साल पहले अहमदाबाद के जीवदया चैरिटेबल ट्रस्ट में इलाज के लिये लाई गई एक बीमार गाय के पेट से 100 किलोग्राम कचरा निकला, जिसमें ज्यादातर हिस्सा प्लास्टिक या पॉलिथीन की थैलियों का था। गुजरात के गिर के जंगल में एक शेर के पेट से भी पॉलिथीन की ऐसी ही थैलियाँँ बरामद हुई थीं। गायों के साथ तो ऐसे हादसों की खबर अक्सर ही पढ़ने-सुनने को मिलती हैं। पॉलिथीन और प्लास्टिक की थैलियों से जल-जंगल और जीवन पर असर पड़ रहा है, पर मजबूरी यह है कि किसी को इसका ठोस विकल्प नहीं सूझ रहा है। सरकारें इन पर रोक लगाती हैं, लेकिन वह रोक कारगर नही हो पाती क्योंकि लोगों को इससे ज्यादा सुविधाजनक विकल्प नहीं सूझता है।

अस्सी के दशक में जब पॉलिथीन की थैलियाँँ कागज और जूट के थैलों का विकल्प बनना शुरू हुई थीं, तो लोग इन्हें देखकर हैरान थे। बेहद पतली, वाटरप्रूफ लेकिन कागज आदि से बने लिफाफों-थैलों के मुकाबले सैकड़ों गुना मजबूत पॉलीथिन की थैलियों ने हर किसी को अपना मुरीद बनाया है। ढाबों से दफ्तरों में गर्म चाय ले जाने से लेकर पाँच-सात किलो वजन तक के सामान आसानी से ये थैलियाँ ढो रही हैं।

कागज और कपड़ों के थैलों के मुकाबले कम जगह घेरने वाली और अत्यन्त हल्की पॉलीथिन-प्लास्टिक थैलियों को बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोरों में हर किस्म की पैकिंग में इस्तेमाल में लाया जाता रहा है। सामान ढोने, खराब होने से बचाने, भीगने से बचाने आदि कई मामलों में इस विकल्प का कोई जोड़ नहीं है। लेकिन फल-सब्जी से लेकर हमारी हर खरीददारी का हिस्सा रही इन थैलियों के नुकसान भी बहुत हैं। ये आसानी से नष्ट नहीं होतीं, इसलिये हर जगह कचरे के रूप में दिखती हैं।

प्लास्टिक-पॉलिथीन की थैलियों का सबसे खराब पहलू यह है कि जितनी देर इन्हें इस्तेमाल में लाया जाता है, उसके मुकाबले सैकड़ों गुना ज्यादा वक्त इनके नष्ट होने में लगता है। हो सकता है कि इन्हें सब्जी वाले से घर तक आने में महज एक-डेढ़ घंटे का वक्त लगा हो या कपड़ों की पैकिंग में आई ये थैलियाँँ कुछ महीने या साल भर तक सहेजी गई हों, लेकिन जब एक बार ये कचरे के ढेर में पहुँचती हैं तो वहाँ इन्हें नष्ट होने में कुछ सौ से लेकर हजार साल तक लग जाते हैं।

इस बीच ये नालियों में फँसकर जलभराव की समस्या पैदा करती हैं, तो कचरे के ढेर में मुँह मारती गायों के पेट में जमा हो जाती हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि हर साल कम-से-कम 60 लाख टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में पहुँच जाता है। यानी कचरे का केवल 15 फीसद हिस्सा पृथ्वी की सतह यानी जमीन पर रह पाता है, बाकी सारा कचरा समुद्र तल में जाकर जमा हो जाता है। चालीस साल पहले वर्ष 1975 में किये गए एक अध्ययन मेें पाया गया कि सागरों की ओर जाने वाली नदियों द्वारा लगभग 8 लाख पाउंड प्लास्टिक-पॉलिथीन वार्षिक रूप से फेंक दी जाती है इसीलिए यह दुनिया में जमीन पर अतिरिक्त रूप में नहीं दिखती है।

जो खा जाए पचा जाए प्लास्टिक

प्लास्टिक कोई समस्या न बने, अगर उसे आसानी से रिसाइकिल किया जा सके। प्लास्टिक की कुछ किस्में रिसाइकिल की जा सकती हैं। प्लास्टिक के डिब्बों आदि में उनकी सतह पर बने त्रिकोण में 1 से 7 के बीच में कुछ नम्बर अंकित किये जाते हैं। इन्हें रेसिन पहचान कोड कहा जाता है जो रिसाइक्लिंग में मदद करते हैं। ये कोड ट्रेड एसोशिएसन्स ने बनाए हैं। लेकिन सवाल है कि रिसाइक्लिंंग कैसे हो। पूरी दुनिया के वैज्ञानिक इसके अलग-अलग तरीके खोज रहे हैं। जैसे, कुछ वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक कचरे को थ्री-डी प्रिंटर के फिलामेंट में बदलने की तकनीक खोजी है। साथ ही, कुछ वैज्ञानिक प्लास्टिक कचरे को कृषि कचरे (एग्रीकल्चर वेस्ट) और नैनो पार्टिकल के साथ जोड़कर नया मैटिरियल बनाने के प्रयोग कर रहे हैं।

वर्ष 2017 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने गैलेरिया मेलोनेला नामक कैटरपिलर (कीड़े) का पता लगाया जो आमतौर पर मधुमक्खी का छत्ता खा लेता है, पर उसे प्लास्टिक के खिलाफ भी कारगर पाया गया। एक प्रयोग में पता चला कि यह कैटरपिलर प्लास्टिक की कैमिकल संरचना को उसी तरह से तोड़ देता है, जैसे मधुमक्खी के छत्ते को वह पचा लेता है। प्लास्टिक कचरे का एक समाधान वर्ष 2018 में ब्रिटेन की पोर्ट्समाउथ यूनीवर्सिटी और अमेरिका के अक्षय ऊर्जा मंत्रालय से जुड़ी एक प्रयोगशाला ने सुझाया है।

ये दोनों संस्थान साथ मिलकर जापान में मिले एक ऐसे बैक्टीरिया पर शोध कर रहे हैं, जो प्लास्टिक खाता है। उनकी कोशिश इस बैक्टीरिया की कोई ऐसी किस्म विकसित करने की थी, जो ज्यादा बड़ी मात्रा में प्लास्टिक हजम कर सके। इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली, लेकिन इस प्रयोग के दौरान संयोगवश एक ऐसा एंजाइम बन गया, जो प्लास्टिक को गलाकर उसे मिट्टी में मिला सकता है।

जापानी बैक्टीरिया पर रिसर्च करते हुये वैज्ञानिकों ने उस पर सूरज की रोशनी से दस अरब गुना चमकीली एक्स-रे डाली तो यह चमत्कार घटित हो गया। पता चला यह एंजाइम जापान बैक्टीरिया की तुलना में बीस फीसद ज्यादा तेजी से प्लास्टिक को खत्म करता है। इसका नाम ‘पेटेज’ रखा गया है क्योंकि यह सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक पॉलीएथिलीन टेरेप्थैलेट (पीईटी) को खत्म करता है।

जापान के एक रिसाइक्लिंग प्लांट में पेटेज एंजाइम पीईटी की रासायनिक बनावट को तोड़ने में कारगर पाया गया। यही नहीं, वैज्ञानिकों ने जब इस एंजाइम में कुछ अमीनो एसिड मिला दिया तो यह दोगुनी तेजी से प्लास्टिक खाने लगा। इससे प्लास्टिक कचरे के खात्मे की एक कई राह मिलता दिखाई दे रही है।

डॉ. संजय वर्मा वरिष्ठ सहायक सम्पादक, नवभारत टाइम्स 9-10 बहादुरशाह जफर मार्ग, एक्सप्रेस बिल्डिंग प्रथम तल, नई दिल्ली 110002

(मो.9958724629)

 

TAGS

plastic waste problem, plastic waste statistics, plastic pollution essay, plastic pollution solutions, plastic waste definition, plastic pollution articles, plastic pollution facts, plastic pollution in the ocean, plastic eating enzyme, plastic eating enzyme name, plastic eating bacteria name, plastic eating bacteria wiki, plastic eating bacteria japan, plastic eating bacteria in ocean, plastic eating bacteria 2018, petase, plastic eating bacteria pdf, nanoparticles, nanoparticles examples, nanoparticles properties, nanoparticles applications, types of nanoparticles, nanoparticles pdf, nanoparticles synthesis, properties of nanoparticles pdf, nanoparticles articles, agricultural waste, agricultural waste wikipedia, examples of agricultural waste, agricultural waste pdf, list of agricultural waste, types of agricultural waste, sources of agricultural waste, agricultural waste management, what are some examples of agricultural waste, polyethylene terephthalate, polyethylene terephthalate properties, polyethylene terephthalate uses, polyethylene terephthalate structure, polyethylene terephthalate properties pdf, polyethylene terephthalate bottles, polyethylene terephthalate products, how is polyethylene terephthalate made, polyethylene terephthalate pronunciation, polypropylene, polypropylene structure, polypropylene properties, how is polypropylene made, polypropylene material properties, polypropylene density, polypropylene melting point, is polypropylene safe, polypropylene meaning, cling film, cling film uses, cling film price in india, cling film suppliers, cling film roll, cling film manufacturers in delhi, cling film online india, cling film wrap, pvc cling film, manufacturers in gujarat, switch a toilet, how to replace a toilet youtube, how to install a toilet flange, how to replace a toilet flange, replace toilet parts, how to install a toilet wax ring, how to install a toilet from scratch, how do you measure for a toilet?, how to install a toilet drain, plastic optoxic love story, plastic a toxic love story pdf, plastic a toxic love story summary, plastic a toxic love story quotes, plastic: a toxic love story review, plastic a toxic love story audiobook, plastic a toxic love story free pdf, plastic a toxic love story answers, susan freinkel, plastic pollution, plastic pollution essay, plastic pollution solutions, plastic pollution articles, plastic pollution project, plastic pollution facts, plastic pollution in the ocean, plastic pollution essay in english, plastic pollution ppt.

India Water Portal Hindi
hindi.indiawaterportal.org