उत्तर कोरिया सरकार ने मानव मल एकत्र करने के लिए आदेश क्यों दिया है
उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन के एक नए आदेश के बारे में जानना चाहिए कि उन्होंने कोरिया की जनता से 10 किलोग्राम मानव मल एकत्र करने का आदेश दिया है। ताकि उसे खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सके। हालांकि यह आदेश उत्तर कोरियाई लोगों के लिए पूरी तरह से नया नहीं है, क्योंकि वे पहले से ही सर्दियों में खाद के रूप में मानव मल का उपयोग करते आए हैं। हालाँकि, इस बार यह आदेश गर्मियों में भी मानव मल एकत्र करने का आदेश देता है, जो किम जोंग उन की नई "कृषि-प्रथम" पहल का हिस्सा है।
कृषि के लिए खाद के तौर पर होगा मल का इस्तेमाल
उत्तर कोरिया की सरकारी न्यूज एजेंसी केसीएनए के मुताबिक उत्तर कोरिया के लोगों को आदेश दिया गया है कि प्रत्येक घर से 10 किलोग्राम (22 पाउंड) मानव मल एकत्र किया जाएगा, ताकि इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जा सके। कोरिया सरकार रासायनिक खादों की कमी को मानव मल से खाद बनाकर पूरी करती है। एक जानकारी के अनुसार विशेषज्ञों का कहना है कि मानव मल खेती में खाद की तरह इस्तेमाल हो सकता है। एक आकलन है कि 10 लाख लोगों के मल से हर साल 1,200 टन नाइट्रोजन, 170 टन फॉस्फोरस, 330 टन पोटेशियम बनाया जा सकता है। (1)
होता क्या है
हमारे सीवर सिस्टम की बनावट बहुत ही गलत ढंग की है। समझने के लिए जानकारी यह है कि इंडोनेशिया में 95 फीसदी मल का निबटारा सही तरीके से नहीं होता है। ज्यादातर को नालियों या फिर नदियों में बहा दिया जाता है। इसकी वजह से 70 फीसदी नदियां बेहद प्रदूषित है और स्वास्थ्य की समस्या पैदा करती हैं। इससे सीख क्या मिलती है? सीख यह है कि मानव मल को किसी भी अर्थ में बर्बाद करना संसाधनों की बर्बादी ही है। आदमी के विवेक का विकास भी नहीं माना जाएगा। जहां आदमी में एक भी चीज व्यर्थ गंवाने की आदत आई तो सारा जीवन व्यर्थ गंवाने तक बढ़ जाती है। यह सब बदलना है तो किसी भी उपयोगी चीज की बेकदरी और बर्बादी की आदत छोड़नी होगी।
भारत का संदर्भ
भारत की नालियों और नदियों में भी बड़ी मात्रा में मल बहाया जाता है। कृषि क्षेत्र अब तक रासायनिक खादों पर निर्भर है और यह सस्ता नहीं है। इसके साथ ही रासायनिक खाद का ज्यादा इस्तेमाल एक तरफ मिट्टी की उर्वरता को घटाता है तो दूसरी तरफ पर्यावरण को प्रदूषित भी करता है।
गांधीजी मानवमल से बनी खाद को सोनखाद कहते थे। मानवमल की बर्बादी किसी भी तरह को बेहद खराब सोच मानते थे। उनका कहना था कि धनी मुल्कों में फिजूलखर्ची के ये तरीके चल सकते हैं, उनके पास साधन की विपुलता है और रासायनिक खाद काफी मात्रा में वहां उपलब्ध है, इसलिए सोनखाद की अभी उतनी आवश्यकता वहां नहीं महसूस होती। लेकिन हिन्दुस्तान जैसे देश में, जहां हरेक आदमी के पास मुश्किल से एक-डेढ़ एकड़ जमीन है, वहां मैले को व्यर्थ गंवाना नहीं पुसा सकता। एशिया के कई मुल्कों में मल को खेती का बल बना लिया जाता है।
क्या है रास्ता
इस विचार में बहुत दम है। ‘जल, थल और मल’ पर शोधरत सोपान जोशी कहते हैं कि कल्पना कीजिए कि जो अरबों रुपए सरकार गटर और मैला पानी साफ करने के संयंत्रों पर खर्च करती है वो अगर सोनखाद बनाने पर लगा दें तो करोड़ों लोगों को साफ-सुथरे शौचालय मिलेंगे और बदले में नदियां खुद ही साफ हो चलेंगी। किसानों को टनों प्राकृतिक खाद मिलेगी और जमीन का नाइट्रोजन जमीन में ही रहेगा। पूरे देश की आबादी सालाना 80 लाख टन नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटेशियम दे सकती है। हमारी 115 करोड़ की आबादी जमीन और नदियों पर बोझ होने की बजाए उन्हें पालेगी क्योंकि तब हर व्यक्ति खाद की एक छोटी-मोटी फैक्ट्री होगा। जिनके पास शौचालय बनाने के पैसे नहीं हैं वो अपने मल-मूत्र की खाद बेच सकते हैं। अगर ये काम चल जाए तो लोगों को शौचालय इस्तेमाल करने के लिए पैसे दिए जा सकते हैं। इस सब में कृत्रिम खाद पर दी जाने वाली 50,000 करोड़, जी हां पचास हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी पर होने वाली बचत को भी आप जोड़ लें तो सोनखाद की संभावना का कुछ अंदाज लग सकेगा। तो हम अपनी जमीन की उर्वरता चूस रहे हैं और उससे उगने वाले खाद्य पदार्थ को मल बनने के बाद नदियों में डाल रहे हैं अगर इस मल-मूत्र को वापस जमीन में डाला जाए- जैसा सीवर डलने के पहले होता ही था- तो हमारी खेती की जमीन आबाद हो जाएगी और हमारे जल स्रोतों में फिर प्राण लौट आएंगे।
और अंत में
डॉयचे वेले की रिपोर्ट के अनुसार ‘द सॉयल एसोसिएशन’ ब्रिटेन की सबसे बड़ी ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन संस्था है। उसका कहना है, "अनुमानतः विश्व भर में मानवीय आबादी द्वारा मानव मल के परित्याग किए जाने वाले तीस लाख टन फॉसफोरस का सिर्फ 10 फीसदी वापस धरती में पहुंचता है।" फसल के विकास में फॉसफोरस की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बीज बनने, जड़ विकसित होने और अनाज के विकसित होने में फॉसफोरस की पर्याप्त मात्रा की आपूर्ति जरूरी है। इस समय मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए फॉसफोरस का इस्तेमाल खाद के रूप में किया जाता है।
द सॉयल एसोसिएशन की रिपोर्ट का कहना है कि फॉसफेट की चट्टानों से मिलने वाला फॉसफोरस यानी माइनिंग सोर्स से मिलने वाला फॉस्फोरस 2033 तक अपनी खत्म होने के कागार पर होगा। उसके बाद फॉस्फोरस महंगा और दुर्लभ होता जाएगा। रिपोर्ट का कहना है, "हम फॉसफोरस की कमी, फसल उत्पादन के गिरने और उसके कारण खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ने की स्थिति का मुकाबला करने के लिए कतई तैयार नहीं हैं।" ऐसे में विश्व भर में मानवीय आबादी द्वारा मानव मल के परित्याग किए जाने वाले तीस लाख टन फॉसफोरस ही रास्ता रह जाएगा।