Environmental pollution and reproductive health
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वातावरणीय प्रदूषण एवं प्रजनन स्वास्थ्य

यह लेख आईसीएमआर के अहमदाबाद स्थित राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान के वैज्ञानिक 'जी' एवं प्रभारी निदेशक डॉ सुनील कुमार द्वारा "वातावरणीय प्रदूषण, जीवन शैली एवं प्रजनन स्वास्थ्य शीर्षक से उनकी पुस्तक में प्रकाशित आलेख पर आधारित है। This article is based on an article published by Dr. Sunil Kumar, Scientist 'G' and Director-in-charge, National Institute of Occupational Health, Ahmedabad, ICMR, in his book titled "Environmental Pollution, Lifestyle and Reproductive Health."
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विगत लगभग 50-60 वर्षों से प्रजनन स्वास्थ्य में गिरावट की सूचनाएं विश्व के विभिन्न भागों विशेषकर पश्चिमी तथा औद्योगिक देशों से प्रकाश में आ रही हैं जिसके प्रमुख कारणों में व्यावसायिक तथा वातावरणीय प्रदूषण का भी हाथ हो सकता है। सामान्य नागरिक भी अपनी दिनचर्या के दौरान वातावरण में उपस्थित अनेक प्रदूषकों से लगातार प्रभावित होते रहते हैं, जो वातावरण में मौजूद प्रदूषकों की मात्रा पर निर्भर होता है। विभिन्न व्यावसायिक कार्यों के दौरान कामगारों का प्रजनन स्वास्थ्य भी हानिकारक प्रदूषकों से प्रभावित हो सकता है। व्यावसायिक परिवेश में सामान्यतः प्राकृतिक वातावरण की अपेक्षा ज्यादा हानिकारक प्रदूषित तत्व हो सकते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए, क्योंकि विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं के दौरान उत्पन्न होने वाले दूषित पदार्थ कार्य स्थलीय वातावरण में जुड़ते रहते हैं।

सामान्य बोल-चाल की भाषा में व्यावसायिक वातावरणीय प्रदूषण में व्यवसाय के दौरान विभिन्न प्रक्रियाओं से उत्पन्न अनेक प्रकार के रसायनों, अत्यधिक गर्मी और ठण्ड, सामान्य से ज्यादा मात्रा में विकिरण का उत्पन्न होना, सामान्य से अधिक शोर का होना तथा व्यावसायिक कार्य स्थल की वायु में सामान्य से अधिक रसायनों, घातक गैसों, धातुओं, विलायकों (सॉल्वेन्ट्स) तथा उनके ऑक्साइड एवं अन्य घातक तत्वों का समावेश होता है। व्यावसायिक वातावरण में प्रदूषित पदार्थों की मात्रा विभिन्न व्यवसायों में होने वाली अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं के दौरान तथा उसमे उपयोग होने वाले विभिन्न पदार्थों, रसायनों और कार्यस्थलीय वातावरण में उत्पन्न एवं उपस्थित होने की उनकी मात्रा पर निर्भर करती है और जो कामगारों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से तथा विभिन्न जीव-जंतुओं और सामान्य मनुष्यों के प्रजनन स्वास्थ्य को अप्रत्यक्ष रूप से भी प्रभावित कर सकती हैं।

प्राकृतिक वातावरण को प्रभावित करने में मनुष्य की अनेक दैनिक गतिविधियों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक क्रियाओं/ आपदाओं, रोजमर्रा के क्रियाकलापों तथा अन्य व्यावसायिक क्रियाओं का भी हाथ पाया गया है। प्राकृतिक वातावरण में सामान्यतः प्राकृतिक क्रियाओं/आपदाओं के दौरान उत्पन्न हुए बहुत से रसायनों, घातक गैसो, धातुओं, विलायको, सामान्य से अधिक तापमान, विकिरण तथा अन्य घातक तत्वों का समावेश होता है। विश्व के कुछ भागों में सामान्य से अधिक तापमान तथा ठंड का होना और कहीं-कहीं तो भूजल भी अनेक दूषित तत्वों से प्रदूषित है जिससे वह पीने योग्य नहीं है और उसका सेवन विभिन्न बीमारियों यहां तक कि प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को भी जन्म दे सकता है।

आज विश्व का कोई भी हिस्सा पूर्णतया प्रदूषण रहित नहीं है अथवा पूर्ण स्त्प से स्वच्छ/सुरक्षित नहीं है। वातावरण के दूषित होने के पीछे प्रमुख कारणों में मानव द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और उसका दुरुपयोग करना सम्मिलित है। इसका मूल कारण विश्व की तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या है तथा उनकी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का ज़रूरत से ज़्यादा उपयोग तथा दोहन किया जाना है। आधुनिक युग में मनुष्य के दैनिक जीवन में भौतिकवादी वस्तुओं की आवश्यकताएं भी बहुत तेज़ी से बढ़ी हैं। बहुत से वातावरणीय विषाक्त रसायन, भौतिक कारण, अनेक दूषित पदार्थ हमारे प्रजनन स्वास्थ्य को हानि पहुंचा सकते हैं जो वातावरण में उपस्थित उनकी कुल मात्रा, शरीर द्वारा उनका अवशोषण, उनकी विषाक्तता की क्षमता, इत्यादि पर निर्भर होता है। वातावरणीय घटको का हमारे जीवन से बहुत गहरा संबंध है, या कहा जा सकता है कि इन वातावरणीय घटको के बिना जीवन असम्भव है। प्रमुख वातावरणीय घटकों में निम्नलिखित सम्मिलित हैं :

जल प्रदूषण

जल हमारे जीवन के लिए एक अत्यंत आवश्यक एवं महत्वपूर्ण घटक है जिसके बिना जीवधारियों का जीवित रहना असम्भव है। जल प्रदूषण को सामान्य बोलचाल की भाषा में कह सकते हैं कि जब शुद्ध जल में प्रदूषित तत्वों की मात्रा एक अधिकतम निर्धारित सुरक्षित सीमा से अधिक हो जाती है और जो मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के जीवन, वनस्पतियों, वातावरण, इत्यादि को प्रभावित करती हो, तब वह पानी प्रदूषित माना जाता है। संसार में संपूर्ण जल का लगभग 2 प्रतिशत से कम भाग ही मानव के पीने योग्य है। इसलिए हम सबको मिलकर यह प्रयत्न करना होगा कि हम कैसे इस पीने योग्य पानी को पीने के लायक शुद्ध और सुरक्षित रख सकते हैं। जल की गुणवत्ता, मानव के क्रियाकलापों तथा स्वास्थ्य के बीच एक बहुत ही गहरा संबंध होता है। मानव के द्वारा पानी का किसी भी रूप में उपयोग करने के पश्चात यह स्वच्छ पानी, दूषित हो जाता है और यही दूषित पानी विभिन्न रूपों में जैसे नालियों, नालों, झीलों, तालाबों व नदियों के द्वारा होता हुआ समुद्र में चला जाता है।

आज हम सभी अपने चारो तरफ देख सकते हैं कि कल- कारखानों तथा अन्य स्रोतो से निकलने वाले दूषित पानी, कचरा, कूड़ा, अप्रयुक्त गन्दी वस्तुओं, इत्यादि को नदियों/तालाबो/नालो/ झीलों और भूमि पर ऐसे ही फेंक दिया जाता है जिससे इन स्रोतो का पानी भी दूषित हो जाता है और पीने योग्य नहीं रह पाता है। हम सभी इसी दूषित पानी को पीने तथा अपने दैनिक जीवन में कई अन्य प्रकार के कार्यों में उपयोग करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इससे विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं के साथ-साथ प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म दे सकता है। इसके अतिरिक्त उस गंदे पानी का उपयोग करने वाले जीव-जंतुओं यहां तक कि इस गंदे पानी का वनस्पतियों और जल के भीतर रहने वाले अन्य जीव-जंतुओं जो मनुष्य के द्वारा खाद्य सामग्री के रूप में भी इस्तेमाल किए जाते हैं। 

उनके स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है और इन जीव जंतुओं तथा वनस्पतियों का मानव द्वारा सेवन करना उनके स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी हो सकता है। प्रयोगशालाओं में किए गए अध्ययनों के आधार पर कुछ वैज्ञानिक सूचनाएं उपलब्ध हैं कि दूषित जल से प्रभावित होने पर प्रजनन स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है। वर्ष 2001 में नर खरगोशों में खतरनाक कचरे के स्थानों के नजदीक के रसायन युक्त दूषित जल के पीने से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन किया गया। इस दूषित जल में आर्सेनिक, क्रोमियम, लेड, बेज़ीन, क्लोरोफॉर्म, फिनोल तथा ट्राईक्लोरोइथाइलीन रसायन मौजूद थे। उन्होंने खरगोशों को गर्भावस्था के 20 दिन से वीनिंग (दूध छुड़ाई) तक, पीने के माध्यम से इस रसायन युक्त दूषित जल द्वारा उन्हें प्रभावित करने तथा, उसके पश्चात उनको 15 सप्ताह (किशोरावस्था) तक प्रभावित किया गया, उसके पश्चात उन्हें शुद्ध जल दिया गया। 57-61 सप्ताह की आयु पर इन खरगोशों की वीर्य स्खलन क्षमता और सेमिनल, टेस्टीकुलर इपिडिडाईमल और एण्डोक्राइन विशेषताओं की जांच करने पर सभी सामान्य सात नरो को मादा के साथ रखने पर सभी दसों अवसरों पर प्रत्येक बार वीर्य स्खलन हुआ। जबकि दूषित जल से प्रभावित 17 में 12 नरों ने मादा से यौन संबंध स्थापित करने के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई। इस प्रकार प्रदूषित पानी पीने के परिणामस्वरूप प्रभावित होने के 45 सप्ताह के बाद भी संभोग इच्छा/क्षमता, शुक्राणु गुणवत्ता, लिडिग कोशिका के कार्य सामान्य से कम पाये गये थे'।

विश्व के अनेक भागों के साथ-साथ पड़ोसी बांग्लादेश और अपने देश के मुख्यतः पूर्वी भाग में पीने का पानी आर्सेनिक से संदूषित है। वर्ष 2005 में बांग्लादेश में आर्सेनिक युक्त पेयजल का लगातार सेवन कर रही महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी परिणामों को ज्ञात करने पर संपन्न अध्ययन से पता चला कि आर्सेनिक संदूषित पानी के लगातार सेवन का संबंध भ्रूण तथा नवजात की मृत्यु के जोखिम के साथ जुड़ा हुआ है। एक अन्य अध्ययन में 50 mg/L आर्सेनिक से संदूषित ट्यूबवेल से प्राप्त पेयजल के सेवन से गर्भावस्था के दौरान भ्रूण के नष्ट होने और नवजात की मृत्यु होने का जोखिम पाया गया है। इसके अतिरिक्त आर्सेनिक तथा फ्लोराइड से संदूषित जल के सेवन से कई अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के साथ-साथ प्रजनन स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है। इस विषय पर कुछ वैज्ञानिक सूचनायें भी उपलब्ध हैं।

वायु प्रदूषण

वायुमंडल में मानव, अन्य जीव-जंतुओं तथा पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले रसायनों, सूक्ष्म कणीय पदार्थों, जैविक सामग्री तथा अन्य हानिकारक तत्वों की उपस्थिति वायु प्रदूषण कहलाती है। आधुनिक विश्व में वायु प्रदूषण भी अनेक कारणों से पूरे विश्व में तेज़ी से बढ़ रहा है। आज हम श्वास के द्वारा जिस वायु को ग्रहण कर रहे हैं वो वायु प्रदूषण रहित और शुद्ध है, यह कहना बहुत कठिन और लगभग असंभव है। उसमें कई प्रकार के दूषित तत्व हो सकते हैं। वायु प्रदूषण बढ़ने का मुख्य कारण मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं का बढ़ना है। आज बड़े पैमाने पर कृषि की पैदावार बढ़ाने, बीमारियां फैलाने वाले कीटों की रोकथाम करने, खाद्य पदार्थों के संरक्षण एवं हमारे दैनिक जीवन के अनेक कार्यों के लिए बड़ी मात्रा में कृत्रिम रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है। कुछ रसायन तो वातावरण में एक बार पहुंचने के पश्चात बरसों तक वातावरण में बने रहते हैं तथा वे वातावरण से आसानी से समाप्त (डीग्रेड) भी नहीं होते हैं और वायु के द्वारा एक स्थान से दूसरे भाग तक पहुंच जाते हैं। ये रसायन साधारणतया परसिस्टेन्ट्स आर्गेनिक प्रदूषक होते हैं जो वातावरण में अधिक समय तक बने रहते हैं। वायु प्रदूषण भी मानव/जीवधारियो के सामान्य स्वास्थ्य के साथ-साथ उनके प्रजनन स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव डाल सकता है।

कुछ ताजा रिपोर्ट्स के अनुसार वायु प्रदूषण से प्रभावित होने की स्थिति में जन्म के प्रतिकूल परिणाम का खतरा बढ़ सकता है। वर्ष 2002 में सम्पन्न एक अध्ययन में लिथुआनिया देश में वायु प्रदूषण और जन्म के समय शिशु के कम वजन तथा अपरिपक्व प्रसव होने की घटना की जांच की गई। जिसमें काउनाश शहर के परिवेश में फार्मएल्डिहाइड की मात्रा तथा बच्चों के कम वजन के जोखिम और नाइट्रोजन डाईआक्साइड (NO₂) से प्रभावित होने की स्थिति में अपरिपक्व बच्चों के जन्म होने के बीच में संबंध पाए गए।

वर्ष 2010 में सम्पन्न अध्ययन से पता चला है कि वातावरणीय वायु प्रदूषण प्रजनन स्वास्थ्य विशेषतया गर्भावस्था के परिणामों के साथ-साथ भ्रूण के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। उस जानपदिक रोगविज्ञानी अध्ययन के अनुसार परिवेशी वायु प्रदूषण के प्रभाव में जन्म के समय शिशु का कम वजन, गर्भ के विकास में कमी, अपरिपक्व जन्म, नवजात की मौत और पुरुष की प्रजनन क्षमता में कमी के खतरे से जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त घरो के अंदर का वायु प्रदूषण भी प्रजनन स्वास्थ्य तथा उसके परिणाम पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है।

भूमि प्रदूषण

भूमि प्रदूषण की स्थिति मुख्यतया भूमि की सतह पर व्यर्थ की अनुपयोगी वस्तुओं के अंधाधुंध एकत्रित होने से उत्पन्न होती है। भूमि पर औद्योगिक कचरा डालने, हानिकारक कृषि पद्धति द्वारा भूमि की उपजाऊ क्षमता में ह्रास होने, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाला गन्दा पानी को भूमि पर बहाने, कचरा घरो की अनुपयोगी वस्तुएं फेंकने और अन्य अनेक कारणों से भी भूमि प्रदूषित होती है जो मानव तथा अन्य प्राणियों के जीवन के साथ-साथ पर्यावरण को प्रभावित कर सकती है। आज के आधुनिक युग में संसार के सभी भागों में भूमि प्रदूषण बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। भूमि की सतह पर मौजूद ठोस कचरे अनुपयोगी वस्तुओं तथा कृत्रिम रसायनों से भूमि प्रदूषित हो रही है और दूषित पदार्थ धीरे-धीरे रिस-रिसकर भूमि की सतह के नीचे चले जाते हैं जिससे भूमिगत पेयजल के स्रोत भी दूषित हो जाते हैं। भूमि की ऊपरी सतह के साथ-साथ भूमि की निचली सतह भी प्रदूषित हो जाती है। इन वस्तुओं में बहुत से ऐसे कृत्रिम रसायन तथा अन्य हानिकारक तत्व होते हैं जो आसानी से वातावरण से समाप्त नहीं होते, अर्थात वे वातावरण में बहुत लंबी अवधि तक बने रहते हैं। कुछ रसायन शरीर के ऊतकों में भी जमा हो जाते हैं जो उन्हें हानि पहुंचा सकते हैं। कुछ अध्ययनों के अनुसार प्रदूषित मिट्टी/भूमि से भी जीवधारियो के प्रजनन स्वास्थ्य को हानि पहुंच सकती है। एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार डम्पिंग साइट की मिट्टी तथा पेट्रोलियम के बहिःस्राव से दूषित मिट्टी उस स्थान में मौजूद केंचुओं की संख्या में कमी कर सकती है, अर्थात ऐसे स्थानों की दूषित मिट्टी केंचुओं के प्रजनन पर हानिकारक प्रभाव डालती है।

वर्ष 1987 में सम्पन्न एक अध्ययन में सफेद मूषक (माइस) को 2,4,5-ट्राइक्लोरोफिनोऑक्सी एसिटिक एसिड (2,4,5-T) के निर्माण स्थल और व्यर्थ धातुओं युक्त कचरे की उपस्थिति वाली जगह की दूषित मिट्टी से प्रभावित किया गया। निर्माण स्थल की मिट्टी हेलोजिनेटिड डाइबेन्जोडाइ-ऑक्सिन्स, डाइबेन्जोफ्युरान्स, बेज़ीन, एल्काइल-बेज़ीन्स, क्लोरो-बेजीन्स, पॉलीऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन, फिनोलिक्स, फिनोऑक्सी एसिडस् और दूसरे अन्य यौगिकों से संदूषित थी। तीव्र और प्रजनन विषाक्तता के कारण मूषको द्वारा कम संख्या में बच्चों को जन्म देने तथा दूध छुड़ाने (वीनिंग) तक जीवित बचे बच्चों की संख्या में कमी की स्थितियां पाई गई। उस निर्माण स्थल की मिट्टी (2,050 µg 2,3,7,8-टेट्राक्लोरोडाईवेन्जो- पी-डाईऑक्सिन/किलो मिट्टी और 18 mg टोटल डाईबेन्जो- डाइआक्सिस और डाईबेन्जो-फ्युरांस/ किलो मिट्टी) से प्रभावित थी। व्यर्थ धातुओं से निर्मित कचरे की उपस्थिति वाले स्थल की संदूषित मिट्टी से प्रभावित सफेद मूषकों के प्रजनन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पाया गया। लुन्दास्की तथा साथियो ने पोलैंड के पूर्वी भाग में लेड तथा कैडमियम धातुओं से प्रदूषित मिट्टी से प्रभावित होने का महिलाओं के प्रजनन परिणामों को ज्ञात करने पर संपन्न एक अध्ययन में पाया गया कि भारी धातुओं से संदूषित मिट्टी वाले क्षेत्र मे महिलाओं में सगर्भता में कमी तथा निर्धारित अवधि से पूर्व शिशु जन्म होने और कम वजन सहित शिशुओं के जन्म की स्थितियां देखी गई। उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रदूषित भूमि भी मानव तथा अन्य प्राणियों के जीवन को प्रभावित कर सकती है।

खाद्य पदार्थों में प्रदूषक

आज लगभग सभी खाद्य तथा पेय पदार्थों में कुछ न कुछ मात्रा में रासायनिक तथा अन्य घातक तत्व पाए जाते हैं जिनका मूल कारण रसायनों/कीटनाशकों का कृषि की उपज को बढ़ाने के लिये बिना सोचे-समझे अत्यधिक मात्रा में उपयोग करना है। कुछ रसायनों का खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने में प्रयोग तथा कुछ रसायनों का दैनिक जीवन में भी अनेक कार्यों में उपयोग होना है। इसके अतिरिक्त अन्य जीवन संबंधी वस्तुओं के इस्तेमाल से जैसे कि प्लास्टिक की थैलियों तथा प्लास्टिक के डिब्बों में खाने का सामान रखने से प्लास्टिक के अंदर मौजूद थैलेट रसायन खाने-पीने की वस्तुओं में धीर-धीरे रिसकर उन वस्तुओं में जमा हो सकते हैं जो स्वास्थ्य, यहां तक कि प्रजनन स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हो सकते हैं। कुछ थैलेट रसायन कृत्रिम रूप से हॉर्मोन्स जैसा व्यवहार करते हैं। आधुनिक पेय पदार्थों में भी कुछ न कुछ मात्रा में हानिकारक पदार्थ हो सकते हैं, सामान्यतः उनकी उपस्थिति निर्धारित मात्रा में ही होनी चाहिए। खाद्य पदार्थों के द्वारा भी अधिक मात्रा में इन रसायनो से प्रभावित होने से प्राणियों के प्रजनन स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है। वर्ष 1995 में संम्पन्न एक अध्ययन में कृषि रसायनो तथा औद्योगिक कचरे के द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव में पक्षियों के भी प्रजनन पर प्रतिकूल प्रभाव का संबंध पाया गया। इस पर्यावरण प्रदूषण के परिणामस्वरूप वयस्कों के प्रजनन के कई स्तरो पर तथा भ्रूण पर प्रभाव, भ्रूण मृत्यु, कंकाल में असामान्यता तथा प्रजनन और नर्वस प्रणाली में विषमता जैसी स्थित्तियां शामिल हैं।

एक अन्य अध्ययन के अनुसार लाईपोफिलिक खाद्य पदार्थ जैसे कि विभिन्न मांस उत्पादों का लगातार सेवन करने पर मानव के शुक्राणुओं की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, जबकि कुछ फलों तथा सब्जियों का सेवन वीर्य की गुणवत्ता को बनाए रख सकता है और वीर्य की गुणवत्ता में सुधार कर सकता है'। उपलब्ध वैज्ञानिक सूचनाएं इंगित करती हैं कि खाद्य तथा पेय पदार्थों में प्रदूषित पदार्थों का होना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो सकता है।

आज कुछ रसायनों/प्रदूषकों की मात्रा किसी न किसी स्तर पर लगभग सभी ख़ाद्य तथा पेय पदार्थों में पाई जा रही है। इन रसायनों की कुछ न कुछ मात्रा पेय-जल तथा आधुनिक पेय पदार्थों में भी पाई गई है। इस कारण मानव तथा अन्य प्राणी भी दूषित खाद्य तथा पेय पदार्थों का सेवन करते हैं जिसके कारण उनमें अनेक प्रकार की बीमारियां होने का संभावित जोखिम बढ़ जाता है। इसलिए, कृत्रिम रसायनों पर मानव की निर्भरता को हमें कम करने और दैनिक जीवन में उनके उपयोग को भी कम करने का प्रयास करना होगा। आज दूसरे वैकल्पिक उपायों के आविष्कार की आवश्यकता है जिससे हम प्राकृतिक पर्यावरण तथा प्राणियों दोनों को सुरक्षित रख सकेंगे। इसके अतिरिक्त आधुनिक युग में विभिन्न क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के प्रयोग बढ़ने के कारण रेडियोधर्मिता के प्रदूषण का खतरा भी बढ़ा है और कभी-कभी परमाणु संयत्रों में आकस्मिक दुर्घटना होने पर कामगार अधिक विकिरण से भी प्रभावित हो सकता है। विकिरण से महिलाओं तथा पुरुषों दोनों के प्रजनन स्वास्थ्य पर भी अनेक प्रकार के हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं।

उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य की बढ़ती हुई आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन, आधुनिक जीवन शैली तथा मानव के अपने लोभ मात्र ने ही पिछले कुछ वर्षों में विश्व में पर्यावरण की समस्या बहुत अधिक बढ़ गई है, जिसके फलस्वरूप दूषित पर्यावरण के बढ़ने से संबंधित अनेक कारणों ने प्राणियों के लिए कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं तथा विभिन्न प्रकार की प्रजनन संबंधी विकारों को भी जन्म दे दिया है।

पिछले कुछ वर्षों में विशेषकर औद्योगिक देशों में प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे शुक्राणुओं की संख्या, गतिशीलता तथा उनकी गुणवत्ता में ह्रास, टेस्टीकुलर एवं प्रोस्टेट कैंसर में बढ़ोतरी के साथ-साथ महिलाओं के मासिक चक्र में अनियमितता, स्तन कैंसर तथा अंतर्गभर्भाशय अस्थानता (एन्डोमेटरियोसिस) जैसी स्थितियों में भी बढ़ोतरी हुई है। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी इन विकारों की बढ़ोतरी के पीछे व्यावसायिक रसायनों से प्रभावित होना भी एक कारण हो सकता है। इसलिए हम सभी को मिल-जुलकर प्रदूषण को नियंत्रित करने के विषय पर और अधिक गंभीरता से ध्यान देना होगा जिसके फलस्वरूप प्रदूषण के द्वारा होने वाली अनेक बीमारियों को रोका जा सकेगा तथा प्राणियों की सुरक्षा के साथ-साथ, प्राकृतिक पर्यावरण को भी सुरक्षित रखा जा सकेगा।

निष्कर्ष

औद्योगिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी बहुत अधिक बढ़ा है। इसके अंतर्गत जल, वायु और भूमि के प्रदूषण तथा खाद्य पदार्थों के रासायनिक संदूषण के चलते मानव एवं अन्य प्राणियों के स्वास्थ्य पर अनेक दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं। हमारे परिवेश में व्यावसायिक गतिविधियों के दौरान विभिन्न प्रकार के प्रदूषण ने अनेक बीमारियों को जन्म दिया है। इनसे मानव का प्रजनन स्वास्थ्य भी अछूता नहीं है। आज वातावरणीय प्रदूषण के स्तर को कम करने की नितांत आवश्यकता है। इससे प्रदूषण से होने वाली बीमारियां तो कम की जा सकेंगी, मानव प्रजनन स्वास्थ्य के अंतर्गत अनेक विकारों से बचा भी जा सकेगा।

वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की भी अत्यंत आवश्यकता है जिससे हम मानव स्वास्थ्य तथा वातावरण दोनो को ही सुरक्षित रख सकेंगे। जनसंख्या वृद्धि पर भी नियंत्रण रखना आवश्यक है क्योंकि तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या की जरूरतें पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है।

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