आर्थिक विकास एवं पर्यावरण
आर्थिक विकास एवं पर्यावरण

आर्थिक विकास का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है (What effect does economic development on the environment?)

विकसित देशों द्वारा विलासिता संबंधी आवश्यकताओं हेतु प्रकृति के संसाधनों का कितना उपयोग किया जाए एवं विकासशील देशों द्वारा मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का कितना इस्तेमाल किया जाए। अनेक देशों ने प्रकृति से अधिकतम लिया है, पर अब जब वापस करने की जिम्मेदारी आई है. तो ये पीछे हट रहे हैं।
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वर्तमान में संपूर्ण विश्व में यह विचार चल रहा है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना किस प्रकार सतत् आर्थिक विकास किया जाए। जलवायु परिवर्तन, पानी की कमी, आर्थिक असमानता एवं भूख आदि समस्याएं आज भयानक रूप धारण करती जा रही हैं। ऐसे कौन-से उपाय है, जिससे विकास जारी रहे और पर्यावरण भी प्रभावित न हो? यह हमारे ही हित में है कि हम पर्यावरण की रक्षा करें। पर्यावरण को बचाए रखने में यदि इन सफल होंगे, तो आने वाली पीढ़ीयों के लिए भी संसाधनों का उपयोग करने हेतु कुछ छोड़ जाएंगे। उद्योगों द्वारा फैलाए जा रहे कार्बन उत्सर्जन की न्यूनतम स्तर पर लाना आवश्यक है। सभी देशों को मिलकर इस कार्य में योगदान देना होगा। भारत भी जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने हेतु प्रयास कर रहा है। सौर ऊर्जा के उपयोग पर सरकार ध्यान दे रही हैं।

कूट शब्द

वास्तव में विकसित एवं विकासशील देशों के बीच हितों का टकराव है। वर्ष 2000 में सहस्राब्दी विकास लक्ष्य एवं वर्ष 2015 में सतत विकास लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, जिन्हें वर्ष 2030 तक विश्व के सभी देशों को प्राप्त करना है। इस अभियान में विकसित देशों के प्रयासों में कभी देखने में आ रही हैं। आज यह निश्चित होना आवश्यक है कि विकसित देशों द्वारा विलासिता संबंधी आवश्यकताओं हेतु प्रकृति के संसाधनों का कितना उपयोग किया जाए एवं विकासशील देशों द्वारा मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का कितना इस्तेमाल किया जाए। अनेक देशों ने प्रकृति से अधिकतम लिया है, पर अब जब वापस करने की जिम्मेदारी आई है. तो ये पीछे हट रहे हैं। चीन, भारत, दक्षिण पूर्वी देशों एवं अफ्रीका में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। फिर भी इन देशों में प्राकृतिक संसाधनों की प्रति व्यक्ति खपत कम है। जबकि विकसित देशों में आबादी भले कम है, पर प्राकृतिक संसाधनों की प्रति व्यक्ति खपत बहुत अधिक है। ऐसे मे सिद्धांत: विकसित देशों को पर्यावरण में सुधार हेतु ज्यादा योगदान करना चाहिए। परंतु वे ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उनके यहां कल-कारखानों में इस संबंध में किए जाने वाले तकनीकी बदलाव पर बहुत अधिक खर्च होगा, जिसे वे करना नहीं चाहते हैं। आर्थिक वृद्धि को नापने का हमारा नजरिया भी बदलना चाहिए। सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के बजाय सतत एवं स्थिर विकास को आर्थिक विकास का पैमाना बनाया जाना चाहिए, ताकि प्राकृतिक संसाधनों का भंडार स्थिर रखा जा सके। साथ ही रीसाइकलिंग उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। पूरी दुनिया में उपज का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। भारत में भी यही स्थिति है। इन फसलों को उगाने में बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है। पानी का बहुत अधिक उपयोग होता है. परिवहन की लागत अधिक आती है, अतः अनाज और खाद्य पदार्थों की बर्बादी रोकना भी पर्यावरण संरक्षण का काम है। अपने यहां भू-क्षरण भी एक बड़ी समस्या है। इससे सकल घरेलू उत्पाद में 25 प्रतिशत की कमी हो जाती है। इससे फसल के अंदर पौष्टिक तत्व भी नष्ट हो जाते है। घास उगाकर, पेड़ लगाकर झाड़ियां उगाकर यह क्षरण रोका जा सकता है। उर्वरकों का इस्तेमाल कम करना जरूरी है। नीति आयोग ने एक सतत विकास इंडेक्स तैयार किया है, जिसमे 17 बिंदु रखे गए हैं। इनके आधार पर समस्त राज्यों की सालाना रैंकिंग तय की जाती है। इससे भी देश के सभी राज्यों में पर्यावरण सुधार हेतु आपस में प्रतियोगिता की भावना पैदा हो रही है।

संपूर्णतया सभी प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, हवा, जल, वन एवं जन्तु मानव मात्र के पूर्ण विकास एवं अस्तित्व के लिये जरूरी है। हमारे चारों ओर व्याप्त संसाधन ही पर्यावरण है। विकास इन संसाधनों का परिपूर्ण पद्धति द्वारा अनुकूलतम उपयोग है। आर्थिक वृद्धि एवं पर्यावरण संरक्षण दोनों में परस्पर अन्तर्सम्बन्ध है। परन्तु वर्तमान एवं भविष्य की गुणात्मक एवं मात्रात्मक आधारभूत मानवीय आवश्यकताएँ प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग बिना पर्यावरण को क्षति पहुंचाए हुए आदि कारणों पर निर्भर हैं। मानव अस्तित्व बनाम पर्यावरण संरक्षण में विवाद वस्तुतः 80 के दशक में शुरू में हुआ, जिसका मूलभूत कारण मानव का अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना था आर्थिक विकास के बिना पर्यावरण संरक्षण सम्भव नहीं है, विकासशील देशों में जैसे भारत इत्यादि, जहाँ विकास प्रक्रिया बहुत धीमी है, पर्यावरण संरक्षण आर्थिक विकास के लिये बाधक है। एक रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 1990 में भारत में कुल प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय उत्पाद 350 अमेरिकी डॉलर था, जबकि जापान में 25,430 डॉलर था, कुल मिलाकर विकसित देशों में जैसे जापान, विकासशील देशों की अपेक्षाकृत सात गुना प्रति व्यक्ति कुल राष्ट्रीय उत्पाद अधिक है। पर्यावरण संरक्षण एवं आर्थिक विकास को मद्देनजर रखते हुए एक संतुलित समाधान की आवश्यकता है, ताकि आर्थिक विकास के साथ महत्त्वपूर्ण संरक्षण सुलभ हो, इसके लिये अर्थशास्त्रियों एवं पर्यावरणविदों को परस्पर कार्य करने की आवश्यकता है

विश्व आज पर्यावरण की समस्या से ग्रसित है, जो कि पृथ्वी में निरन्तर ताप वृद्धि से लेकर वनों के कटाव तक है। झील, नदियाँ एवं सागर, सीवेज एवं उद्योगों से निकलने वाले विषैले पदार्थों में परिवर्तित हो गए हैं। लाखों जीव जन्तु खत्म होने की कगार पर हैं वायु प्रदूषण, ओजोन स्तर में छिद्र और ग्रीन हाउस प्रभाव से वर्तमान मानव अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है। संसाधनों का अत्यधिक शोषण तथा उद्योगों एवं वाहनों से निकलने वाली कार्बन मोनोऑक्साइड गैस से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि की यही दर रही तो आने वाले पचास वर्षों में समुद्र तटीय क्षेत्रों में स्थित भू-भागों में लगभग तीन मीटर समुद्र का पानी भर जाएगा, जिससे विश्व के बड़े बड़े बन्दरगाह भी जलमग्न हो जाएंगे। 

संयुक्त राज्य अमेरिका के नेशनल ओरोनॉटिकल एवं स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले सौ सालों में तापमान पर किये एक शोध कार्य द्वारा यह अनुमान लगाया गया कि 1988 से 1998 के बीच पृथ्वी के तापमान में 0.60 से 120 सेंटीग्रेड औसत तापमान की वृद्धि हुई अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा संगोष्ठी (आई.ई.सी) जो कि 1990 में दिल्ली में हुई। इस ऊर्जा संगोप्टी (आई.ई.सी.) में वैज्ञानिकों ने यह घोषणा की कि ग्रीन हाउस प्रभाव से पृथ्वी के तापमान में भी वृद्धि हो रही है। प्रमुख वैज्ञानिक रिचर्ड ईटन (बूटस रिसर्च सेंटर मेसाचुसेट, कनाडा, डब्ल्यू आर.सी.एम.) लिखते हैं कि पृथ्वी की वनस्पतियों में लगभग बीस हजार अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस विद्यमान हैं। संयुक्त राज्य पर्यावरण कार्यक्रम एवं विश्व संसाधन की 1990 91 की संयुक्त रिपोर्ट विश्व सत्यधन' ने कहा गया है कि विश्व के तीन देश चीन, भारत एवं ब्राजील प्रमुख रूप से ग्रीन हाउस प्रभाव के लिये जिम्मेदार हैं। अतः आर्थिक विकास में पर्यावरण के योगदान को निम्न चित्र से समझ सकते हैं।

विश्व के विकसित, विकासशील एवं अविकसित देशों में वनों क निरन्तर कटाव भूमि पर मानव के बढ़ते हुए दबाव एवं औद्योगिकरण के विस्तार के कारण हो रहा है। विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 06 अरब हेक्टेयर वन भूमि का कटाव हो रहा है एवं अकेले भारत में लगभग 1.6 करोड़ वन भूमि या तो अधिवासों के रूप में या कृषि उपायोग हेतु उपयोग में लाई जा रही है। परिणामस्वरूप भारत में 15 हजार वनस्पति जातियाँ एवं लगभग 75 हजार जन्तु जातियाँ सामान्यतः समाप्त ही हो गई हैं। जनसंख्या के विस्फोट से मानव अस्तित्व के साथ-साथ जन्तुओं, वनस्पतियों एवं संसाधनों के अस्तित्व को भी भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ भारत 4.76 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड एवं 52 लाख टन मिथेन गैस उत्पन्न करने में सहायक रहा है। शुद्ध जल संस्थान मैनीटोवा कनाडा में उत्तर पश्चिमी एन्टोरियों की एक झील पर एसिड घोल की मात्रा बढ रही है, जो कि मत्स्य पारिस्थितिकी को असन्तुलित कर रही है। डब्ल्यू. आर. सी.एम. को इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रतिवर्ष में लगभग एक खरब टन कार्बन डाईऑक्साइड गैस मिश्रित हो रही है। उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान समय में ग्रीन हाउस प्रभाव जैसे संकट से मानव अस्तित्व को भी भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया है।

जून 1992 में रियो डि जेनेरो (ब्राजील) में आयोजित पुदी सम्मेलन ने पर्यावरणविदों को एक नई दिशा दी. पहला विश्व स्तर का सम्मेलन 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित किया गया था। यूनाईटेड नेशन्स कान्फ्रेंस ऑन इन्वायरनमेन्ट एंड डवलपमेंट ने भविष्य के लिये एक पर्यावरण एजेंट बनाया है। इस एजेंडा में 'अर्थ चार्टर' बनाया गया हैं, जो कि पर्यावरण के सम्पूर्ण विकास से सम्बन्धित है इसी से सम्बन्धित एजेंडा - 21' इस ग्रह की व्यवस्था के लिये तैयार किया गया है। इन शिखर सम्मेलनों में विश्व में बहती पर्यावरणीय असमानताओं से उत्पन्न संकटों पर विचार-विमर्श किया गया, पर्यावरण से उत्पन्न विवाद ने उत्तरी औद्योगिक देशों (यूरोप, उत्तरी अमरीका एवं जापान) तथा दक्षिणी विकासशील देशों (एशिया, अफ्रीका एवं दक्षिण अमरीका) के बीच नए आयाम शुरू किये विकतशील देशो ने अपने उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से संसाधनों का अत्यधिक उपभोग कर पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ाया है। पर्यावरणीय विनाश प्रत्यक्ष रूप से उपभोग के अनुपात पर निर्भर करता है। विकासशील देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भी इन संसाधनों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसलिये ये देश गरीबी और आर्थिक संकट से गुजर रहे है। उत्तरी औद्योगिक देशों और दक्षिण विकासशील देशों के बीच पर्यावरण से सम्बन्धित तीन समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए हैं

  1.  मन्ट्रियल प्रोटोकोल (2)
  2. बायोडाइबर सिटी कन्वेन्शन
  3.  क्लाइमेट चेंज कन्वेंशन 

द मान्ट्रियाल समझौता ओजोन परत के निरन्तर नष्ट होने से सम्बन्धित था दूसरा बायोडाइबर सिटी कन्वेन्शन पृथ्वी के सत्ताधनों के सम्पूर्ण उपयोग से सम्बन्धित था जबकि तीतरा क्लाइमेट चेंज कन्वेशन विकासशील देशों द्वारा विकसित देशों पर संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग से सम्बन्धित था, जो कि पृथ्वी पर निरन्तर बढ़ते तापमान का कारण है। भारत में पर्यावरण संरक्षण हेतु उठाए गए कदम निम्न है जो कि मील का पत्थर साबित हुए हैं-

  1.  चिपको आन्दोलन जो कि अधाधुध पेड़ों के कटाव को रोकने से सम्बन्धित है। 
  2. गुजरात व केरल के लोगों का न्यूक्लियर पावर प्लाट के विरुद्ध आन्दोलन 
  3. भोपाल गैस पीड़ितोंद्वारा बढ़ते औद्योगिक प्रदूषण के विरुद्ध कठोर कदम 
  4.  उड़ीसा के लोगों का बाल्को परियोजना का विरोध करना। 5. चिल्का झील में प्रोन फार्मिग
  5. मेधा पाटेकर एवं सुन्दरलाल बहुगुणा द्वारा सरदार सरोवर एवं टिहरी बाँध का विरोध ।

(आर्थिक विकास के आधार पर विश्व के देशों को क्रमशः तीन वर्गों में रखा गया है, विकसित विकासशील व अविकसित देश यद्यपि पर्यावरण की समस्या विश्व समस्या है और विश्व के सारे देश इससे ग्रसित है तथापि इसका सबसे बड़ा प्रभाव विकासशील एवं अविकासशील देशों पर पड़ा है, इन देशों का आर्थिक विकास प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरणीय योजनाओं द्वारा रूक सा गया है। जब कभी ये देश आर्थिक सन्तुलन को बनाए रखने के लिये आर्थिक योजनाओं को लागू करते हैं, तब विकसित देश इन योजनाओं में अवरोध उत्पन्न करते हैं विकसित देशों की नीति तृतीय विश्व के देशों की प्रगति में बाधक है। यह सार्वजनिक तथ्य है कि चाहे विकसित देश हो या विकासशील देश बिना आर्थिक प्रगति के पर्यावरण संरक्षण असम्भव है। जैसे तृतीय विश्व के देशों को ईंधन की लकड़ी के लिये वनों पर निर्भर रहना पड़ता है और हर साल करोडों दन लकड़ी ईंधन के लिये उपयोग में लाई जाती है। यदि सभी लोगो को ईंधन की पूर्ति के लिये मिट्टी का तेल या गैस उपलब्ध करा दिया जाये तो निश्चित रूप से वनों के कटाव में कमी आएगी। मानव और पर्यावरण एक दूसरे से संबंधित है। एक जो आत्मनिर्भर है तथा अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में स्वयं सक्षम है। वह पर्यावरणवादी अधिक हो सकता है। पर्यावरण संरक्षण तो अपने आप हो जाएगा जय प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो जाएगा। इन दोनों आयामों के बीच उत्पन्न संकट को तभी दूर किया जा सकता है, जबकि आर्थिक विकास हो। विकासशील देश जैसे भारत में प्रति व्यक्ति जी. एच.पी. 350 अमेरिकन डॉलर है, जबकि विकसित देश जैसे जापान में 25,430 अमेरिकन डॉलर है। इसी तरह एनर्जी इन्टेक में विकासशील देश विकसित देशों की तुलना में नगण्य हैं। इतने विशाल स्तर पर विभिन्नता तृतीय देशों को उनके आर्थिक विकास के लिये मजबूर करती है, परन्तु विकसित देश उन्हें यह करने से रोकते हैं। विकसित देशों का कुल घरेलू उत्पाद उद्योगों से अधिक है जबकि विकासशील देशों को अधिक उत्पादन कृषि क्षेत्र से प्राप्त होता है। विकासशील एवं अविकासशील देशों का परम्परागत समाज प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य समर्पित किये हुए हैं, यदि उत्तरी देशों का यह फिंजूल संसाधन उपयोग जारी रहा तो यह निश्चित रूप से फ्रेजाइल इको सिस्टम को नष्ट कर देगा, बढ़ता हुआ ऋण, गिरता व्यापार एवं तकनीक विकास में कमी जैसे तत्व तृतीय विश्व दो देशों में प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन करने के लिये दबाव डाल रहे हैं, जिससे पर्यावरण संकट उत्पन्न हुआ है, गरीबी एवं पर्यावरण संरक्षण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता है। भारत में विश्व की 16 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है तथा यह 3 प्रतिशत विश्व ऊर्जा का उपयोग करती है। साथ ही साथ एक प्रतिशत विश्व का कुल राष्ट्रीय उत्पाद ग्रहण करती है भारत की वर्तमान समस्याओं में जनसंख्या विस्फोट, निरक्षरता, गरीबी, महिलाओं का निम्न स्तर भूखमरी सूखा एवं प्राकृतिक आपदाएं हैं।

एक सिक्के के दो पहलू हैं। वर्तमान समय में सामाजिक आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संरक्षण दो केन्द्रीय मुद्दे हैं, इन दोनों आयामों में पारस्परिक सहयोग न होने के कारण नीतियों के निर्धारण में अवरोध उत्पन्न हुआ है। सम्पूर्ण विकास एवं स्वस्थ पर्यावरण को प्राप्त करने के लिये जरूरी है। कि सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं एक साथ मिल-जुलकर कार्य करें। पर्यावरणविदों एवं अर्थशास्त्रियों में पूर्व में जो विवाद था उसने वर्तमान में तबई का रूप ले लिया है। ये विवाद जिनके बीच है. ये इस प्रकार है- 

  1. वे जो पर्यावरण का शोषण अपने व्यक्तिवादी दृष्टिकोणों के लिये कर रहे हैं।
  2.  ये जो बिना आर्थिक विकास के पूर्ण रूपेण पर्यावरण का संरक्षण करना चाहते हैं। 

आर्थिक विकास एक ओर तो जीवनस्तर में वृद्धि करने के लिये कटिबद्ध है वहीं दूसरी ओर पर्यावरण संरक्षण का भी मार्ग प्रशस्त करता है। दोनों आयाम आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संरक्षण एक सिक्के के दो पहलू हैं, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नगण्य है। संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्पूर्ण विकास एवं उचित योजनाओं के निर्धारण को ध्यान में रखते हुए एवं साथ ही भूमि संसाधन का उचित उपयोग निश्चित रूप से पर्यावरण संरक्षण एवं आर्थिक विकास में सहयोग कर सकता है इसके लिये मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। निम्नलिखित तथ्य इन आयामों के संरक्षण के लिये आवश्यक हैं।

  1. सौर आधारित ऊर्जा का उपयोग जो कि जीवाश्म ईंधन के  प्रयोग को कम कर सके।
  2.  नया परिवहन नेटवर्क एवं नगरों को नई योजनाओं द्वारा बसाना। 
  3. भूमि एवं पूंजी का वितरण ।
  4.  छोटे परिवार की अवधारणा का अनुसरण करना ।
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  2.  चौहान भारत का भूगोल रस्तोगी प्रकाशन, मेरठ
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लेखक परिचय -

स्रोत:- इंटरनेशनल जर्नल ऑफ जियोग्राफी एंड एनवायरनमेंट

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