भूजल प्रबंधन- वर्तमान एवं भविष्य की महती आवश्यकता
पृथ्वी पर पाये जाने वाले प्रत्येक जीव का जीवन जल पर ही निर्भर होता है। अतः इसकी उपलब्धता नितान्त आवश्यक है। पानी को हम प्रकृति का मुफ्त या निशुल्क उपहार समझते हैं, जब वस्तुस्थिति यह है कि पानी प्रकृति का मुफ्त नहीं वरन् बहुमूल्य उपहार है। अतः यदि हमने जल का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग एवं संरक्षण नहीं किया तो हमारे अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा। प्रकृति ने हमें सभी वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराई है। परन्तु व्यक्ति की जल के प्रति स्वार्थ की प्रवृत्ति एवं लापरवाही, इस उपहार को युद्ध का कारण बना रही है। आज चिन्ता का विषय है कि साधन सम्पन्न लोग दैनिक जीवन में जल के बेतहाशा दोहन के साथ-साथ जल को मनोरंजन के रूप में दुरूपयोग कर रहे हैं। हमें यह जान लेना चाहिए कि यह एक सीमित संसाधन है एवं समूचे जीव जगत की सम्पदा है। वस्तुतः जल पर प्रत्येक जीव (पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, गरीब एवं अमीर) का अधिकार है। आज शहरी वातावरण एवं साधन संपन्न क्षेत्र में रहते हुए हम पानी की कमी का वास्तविक आंकलन नहीं कर पा रहे हैं।
पृथ्वी पर जल मंडल है, उसमें कुल 1,46,00,000 घन किलोमीटर जल है। इसमें से 97 प्रतिशत महासागरों में है जो लवणीय होने के कारण हमारे काम का नहीं है। अन्य 2 प्रतिशत हिमनदों तथा पर्वत शिखरों को आच्छादित करने वाली बर्फ के रूप में है तथा एक प्रतिशत से कम हमारे उपयोग के लिए है। इस न्यूनतम मात्रा में उपलब्ध जल में भी कहीं-कहीं पर गुणवत्ता का प्रश्न चिह्न लग जाता है और इन्हीं स्रोतों पर अधिकांश स्थल जीवियों को निर्भर रहना पड़ता है। अतः हमें यह समझना चाहिए कि जल की हर बूंद अनमोल है। तथा इसका संचयन एवं संरक्षण समय की महती आवश्यकता है।
विगत लगभग 60 वर्षों से भारत में पानी की उपलब्धता एक तिहाई रह गई है। अर्थात् 1952 के मुकाबले अब 33 प्रतिशत पानी समाप्त हो चुका है, जबकि आबादी 36 करोड़ से बढ़कर 115 करोड़ हो गई है, अर्थात तीन गुना से भी ज्यादा स्थिति यह हो गई है कि हम लगातार भूजल पर निर्भर होते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह है रहा है कि भूजल स्तर प्रतिवर्ष एक फीट की गति से नीचे जा रहा है।
आज विकट स्थिति बन चुकी है कि निरंतर पृथ्वी माता की गोद से भू-जल रूपी अमृत निकालते रहने के कारण देश के 5723 में से लगभग 850 ब्लॉक डार्क जोन में आ चुके हैं और यह संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इस स्थिति से देश की भी हिस्सा बच नहीं पाया है। कई शहरों में टैंकर ही पानी की आपूर्ति के एकमात्र साधन बन चुके हैं। देहाती क्षेत्रों में तो स्थिति बड़ी विकट है, वहां अधिकांश महिलाएं घर की जल व्यवस्था में अपना बहुत समय एवं श्रम लगाती है। जल के अंधाधुंध दोहन से जमीन के नीचे के भंडार तो खाली हो ही रहे हैं, नदियाँ भी वर्षा के कुछ माह बाद ही सुख जाती है तथा कई समाप्त होने के कगार पर है। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (WWF) के 2007 के प्रतिवेदन के अनुसार नदियों में जल की कमी होने का कारण जलवायु परिवर्तन और पानी का अत्यधिक दोहन है।
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भूजल प्रबंधन-वर्तमान एवं भविष्य की महती आवश्यकता (Ground water management-An immense need of present & future scenario)
डी डी ओझा
सारांशः
Abstract
वर्तमान में जल संकट के कारण
सारणी -1 जनसंख्या तथा जल की उपलब्धता में देश की स्थिति | ||
वर्ष | जनसंख्या (करोड़ में) | जल की उपलब्धता (घन मीटर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति) |
1947 | 40 | 5,000 |
2000 | 100 | 2,000 |
2025 | 139 | 1,500 |
2050 | 160 | 1,000 |
सारणी 2 - विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली जल की खपत | ||||||
क्षेत्र | 1990 | 2000 | 2025 | |||
| घन किमी. | कुल खपत का प्रतिशत | घन किमी. | कुल खपत का प्रतिशत | घन किमी. | कुल खपत का प्रतिशत |
कृषि | 460 | 83.3 | 630 | 8.4 | 770 | 73.3 |
घरेलू | 25 | 4.5 | 33 | 4.4 | 52 | 4.95 |
उद्योग | 15 | 2.7 | 30 | 4.0 | 120 | 11.4 |
ऊर्जा | 19 | 3.4 | 27 | 3.6 | 71 | 6.76 |
अन्य | 33 | - | 30 | - | 37 | - |
कुल | 552 | - | 750 | - | 1,050 | - |
सारणी 3- प्रति व्यक्ति प्रतिदिन जल की आवश्यकता | |
क्रिया | जल की मात्रा (लीटर) |
पीने हेतु | 5 |
भोजन बनाना, बर्तन धोना | 10 |
स्नान | 10 |
कपड़े धोना | 20 |
शौचालय प्रक्षालन | 20 |
योग | 65 |
इक्कीसवीं सदी की समस्या
भूजल प्रबंधन
व्यक्तिगत स्तर पर जल प्रबंधन:
यदि हर व्यक्ति जल बचाने का संकल्प कर लेता है तो वह अपने दैनिक कार्यकलापों में भी जल दुरुपयोग को जल के विवेकपूर्ण उपयोग से सैकड़ों लीटर पानी बचा सकता है जिसे सारणी 4 में दर्शाया गया है।
सामुदायिक/ग्राम स्तर पर जल प्रबन्ध
सारणी 4 जल उपयोग के सही एवं गलत तरीके | |||
क्र.स. | गलत तरीके से जल उपयोग | सही तरीके से जल उपयोग | जल की बचत |
1. | टब/फव्वारे से स्नान करने पर 180 लीटर | बाल्टी से स्नान करने पर 18 | 162 लीटर |
2. | शौचालय में फ्लैश टैंक उपयोग से 13 लीटर | शौचालय में छोटी बाल्टी के उपयोग 4 लीटर | 9 लीटर |
3. | नल खोलकर शेव करने से 11 लीटर | मग में पानी लेकर शेव करने से 1 लीटर | 10 लीटर |
4. | दंत मंजन नल खोलकर करने से 33 लीटर | दंत मंजन मग या लोटे के उपयोग पर 1 लीटर | 32 लीटर |
5. | नल खोलकर कपड़ों की धुलाई करने पर 166 लीटर | कपड़े धोने में बाल्टी का उपयोग पर 18 लीटर | 148 लीटर |
|
| कुल बचत | 361 लीटर |
संस्थानिक स्तर पर जल प्रबन्धन
पानी के संरक्षण हेतु जरूरी है
वर्षाजल संग्रहण
वर्षाजल संचयन एंव भूजल कृत्रिम पुनर्भरण
वर्षाजल संचयन एवं भूजल पुनर्भरण की आवश्यकता
पुनर्भरण के लाभ
पुरातन काल की वर्षाजल संचयन की विधियाँ
कुँओं बावड़ी एवं टांकों का निर्माण:
कुँओं का निर्माण पेयजल एवं कृषि कार्य हेतु विभिन्न स्थानों पर करवाया जाता था। पुरातन काल में वर्षाजल संचयन एवं जलभृत के भण्डारण हेतु शहर के अनेक भागों में विशाल बावड़ियों एवं टांकों का निर्माण करवाया जाता था। बावड़ियों की बनावट एक विशेष तकनीक को अपनाकर की जाती थी, जिसमें बावड़ी का ऊपरी भाग चौड़ा रखा जाता था तथा सीढ़ियों के निर्माण द्वारा इसको क्रमानुसार पेंदे की ओर ले जाते हुए संकरा किया जाता था। खुली सतह की तुलना में बावड़ी की गहराई ज्यादा रखी जाती थी। इस तकनीक से जल की खुली सतह, सूर्य की किरणों से कम प्रभावित होती थी तथा जल की वाष्पीकरण दर भी तालाबों आदि की तुलना में कम होती थी। इस कारण वर्षाजल बावड़ी में अधिक मात्रा में एकत्रित किया जा सकता था तथा अधिक दिन तक संग्रहित रहता था।
तालाब, झील, बाँध आदि का निर्माण: पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षाजल के संचयन हेतु तालाब, कृत्रिम बाँध आदि का निर्माण करवाया जाता था ताकि वर्षाकाल में व्यर्थ बहकर जाने वाले जल को एकत्रित कर उसका उचित उपयोग किया जा सके। इसी दृष्टि से जयपुर शहर के आस-पास रामगढ़ बाँध, मानसागर (जलमहल), ताल-कटोरा, मावठा, सागर आदि संरचनाओं का निर्माण किया गया था।
भारत के विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित जल संरक्षण की प्रणालियाँ
2. गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान
3. पठारी भाग
4. तटीय मैदान एवं द्वीप समूह
5. राजस्थान में जल संग्रहण/संरक्षण की विशिष्ट व्यवस्था
वर्षाजल संचयन एवं कृत्रिम पुनर्भरण
छतों पर गिरने वाले वर्षाजल का संचयन एवं जलमृत का पुनर्भरण
वर्षाजल संग्रहण व्यवस्था में विभिन्न स्तरों पर शामिल घटक
प्रथम प्रक्षालन:
यह एक ऐसी युक्ति है जिसमें एक वाल्व होता है जो यह सुनिश्चित करता है कि प्रथम वर्षा का पानी संग्रहण व्यवस्था में प्रवेश नहीं करे तथा बह जाये। ऐसा करने की आवश्यकता इसलिये पड़ती है क्योंकि पहली वर्षा के पानी में हवा तथा जल ग्रहण क्षेत्र से मिले प्रदूषण तत्वों की मात्रा अधिक होती है। यह जल बहाव क्षेत्र में वर्षा से पहले पड़े कचरे को भी अलग करने के काम आता है।
पुनर्भरण संरचनाएं:
वर्षाजल का भूमिगत जल के एक्वीफर में पुनर्भरण किसी उपयुक्त पुनर्भरण ढाँचे के माध्यम से किया जा सकता है जैसे बोरवेल, पुनर्भरण खन्दक तथा पुनर्भरण गड्ढे।
विभिन्न प्रवाह की पुनर्भरण संरचनायें सम्भव है। अनेक स्थानों पर वर्तमान संरचनाओं यथा कूप, गड्ढे तथा टांकों को पुनर्भरण संरचनाओं के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है जिससे नई पुनर्भरण संरचनाओं के निर्माण की आवश्यकता नहीं होगी।
सामान्य रूप से उपयोग में लाई जाने वाली कुछ पुनर्भरण की विधियाँ
वर्षा से जमीन के पानी की भरपाई का सस्ता ढाँचा
संदर्भ
1. एफ ए ओ (फुड एण्ड एग्रीकल्चरल ऑर्गेनाइजेशन) एफ ए ओ प्रोडक्शन इयर बुक 1990, यू.एन. रोम स्टे, सीरीयल नं. 100.44 (1999 बी)
2. कशीफ ए, ग्रांउड वाटर इंजीनियरिंग, मेक्कग्रा हिल, न्यूयार्क, 1998 बी.
3. रघुनाथ एच एम, ग्राउंड वाटर, न्यू एज इंटरनेशनल (1998)
4. ओझा डी डी एवं भट्ट एच आर, राजस्थान के भूजल की गुणवत्ता एवं उपलब्धता का अध्ययन, इंडियन वाटर मार्क्स एसोसियेशन जर्नल, 42 (210) 28.
5. वाल्टन डब्ल्यू सी. ग्राउण्ड वाटर रिर्सोस इवेल्यूशन, मेक्कग्रा हिल न्यूयार्क (1980)।
सम्पर्क
डी डी ओझा, DD Ozha
भूजल विभाग, जोधपुर, Ground Water Department, Jodhpur-342003
भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका, 01 जून, 2012