हाड़ौती के जलाशय निर्माण एवं तकनीक (Reservoir Construction & Techniques in the Hadoti region)

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प्राचीन ग्रंथों में प्रत्येक गाँव या नगर में जलाशय होना आवश्यक बतलाया गया है। राजवल्लभ वास्तुशास्त्र1 के लेखक मण्डन ने भी बड़े नगर के लिये कई वापिकाएँ, कुण्ड तथा तालाबों का होना अच्छा माना है। भारतीय धर्म में जलाशय निर्माण को एक बहुत बड़ा पुण्य कार्य माना गया है, किन्तु इस आध्यात्मिक भावना का भौतिक महत्त्व भी रहा है क्योंकि जलाशय एक ओर सिंचाई के श्रेष्ठ साधन बनते थे, वहीं दूसरी ओर जन सामान्य को पेयजल की कठिनाई से मुक्त भी करते थे। शासक एवं उनके सामन्त जलाशय निर्माण में पर्याप्त रुचि लेते थे।

जलाशयों में पाषाण की भित्तियां एवं घाटों का निर्माण हुआ करता था। घाटों में विभिन्न रेखाकृतियाँ उभार कर उन्हें कलात्मक बनाया जाता था। इनके ऊपरी भाग में छतरियाँ बनी रहती थी और चारों ओर से या एक ओर से सीढ़ियाँ बनी रहती थी, जो नीचे तक पहुँच जाती थी। जलाशय के पास ही जलाशय की स्थापना के अवसर पर एक स्तम्भ लगाने की भी परम्परा रही है। यह स्तम्भ भी कलात्मक हुआ करता था। स्तम्भ के ऊपरी भाग में मन्दिर के समान प्रायः वर्गाकृति में शिखर बना रहता था। शिखर के नीचे चारों ओर ताके होती थी जिनमें आराध्य देवताओं की प्रतिमाएँ उभारी जाती थी। ताकों में प्रायः गणपति की प्रतिमाएँ होती थी। ताकों के नीचे चतुष्कोणीय, षट्कोणीय, अथवा षोडश स्तम्भ बने रहते थे। स्तम्भ के मूल भाग पर प्रायः जलाशय निर्माता से सम्बन्धित व जलाशय निर्माण से सम्बन्धित सूचनाओं का लेख भी उत्कीर्ण करवा दिया जाता था। बावड़ी के प्रवेश मार्ग में अलंकरण की दृष्टि से कतिपय आकृतियाँ उर्त्कीण की जाती रही हैं तथा बीच-बीच में प्रतोलियो (पालों) का निर्माण भी होता रहा।2

बावड़ी स्थापत्य

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बूंदी के जलाशयों की तकनीक

भावलदेवी बावड़ी



बूंदी नगर में स्थित भावलदेवी बावड़ी का निर्माण महाराव राजा भावसिंह की रानी भावलदेवी ने प्रजा के कल्याण के लिये 1677 ई. में करवाया था।4 भावलदेवी प्रतापगढ़ नरेश हरिसिंह की दुहिता थी।5 बून्दी राजघराने की परम्परा के अनुसार सभी महारानियों को राजमाता का खिताब प्राप्त करने के बाद एक बावड़ी बनवानी पड़ती थी। सार्वजनिक जलस्रोत जैसे कुण्ड और बावड़ी को बनवाना दयालुता और सामाजिक कल्याण के साथ जोड़कर देखा जाता था। रियासतकालीन यह बावड़ी बून्दी के राजपरिवार की जल प्रबन्धन नीति को उजागर करती है। बाद में यह बावड़ी राजकवि सूर्यमल्ल मिश्रण, जो कि बून्दी राजदरबार के कवि थे और उनकी हवेली भावल्दी बावड़ी के गली के पार स्थित है, को दे दी गयी। इसी भावल्दी बावड़ी की बारादरी में उन्होंने अपने बहुत से स्मरणीय कार्य जैसे ‘वंश भास्कर’ (बून्दी के चौहान शासकों के भाग्य का काल) ‘वीर सतसई’ (भारत की आजादी के लिये शुरू प्रथम क्रान्ति 1857 ई. की कुछ गौरवमय यादें) ‘बसन्त विलास’ और ‘चन्दोमयुस’ लिखी। भावल्दी बावड़ी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि राजस्थान राज्य के क्षेत्रीय महत्त्व को दर्शाती है। इस बावड़ी को राज्य सरकार की Adopt a monument योजनान्तर्गत रख-रखाव एवं संरक्षित करने हेतु INTACH संस्था को गोद दिया गया है।

स्थिति

पहुँच और परिवेश

संरचना

1. प्रवेश द्वार -

इस बावड़ी के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ 6X6X6 घनफीट आकार के आधारों पर अष्टस्तम्भकार 12 फीट ऊँची आयताकार छतरियाँ बनी हुई हैं। बावड़ी का प्रवेश बहुत अच्छा बना हुआ है जो बारादरी और छतरियों के साथ चौरस छत को प्रदर्शित करता है। जिनमें राजपूत एवं मुगल प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इन छतरियों के नीचे भगवान गणेश और देवी सरस्वती की मूर्ति लगी हुई है। बारादरी की रूप-रेखा पीछे परिलक्षित होती है।

2. मुख्यद्वार -

बावड़ी के दोनों द्वारों का क्रम सीढ़ियों के दूसरे स्तर के अन्त तक सुनियोजित है, जो कि बावड़ी की गहराई से एक स्तर ऊँचे तक हैं। बावड़ी के प्रवेश द्वार से 15वीं सीढ़ी एक 25X3 वर्गफीट की पाट है जिसके दोनों तरफ दीवारों में कलात्मक मेहराबदार ताकें बनी हुई हैं। दायीं ताक में शिलालेख लगा हुआ है जबकि बायीं ताक रिक्त है। इस पाट से 19वीं सीढ़ी पर एक 20X20 वर्गफीट की विशाल पाट है। इसी पाट से बावड़ी उत्तर दिशा में मुड़ जाती है। इस पाट के पूर्वी भुजा पर एक 20 फीट ऊँची, 14 फीट चौड़ी कलात्मक जैन प्रभावयुक्त मेहराब बनाई गई है। इस मेहराब के सटे हुये 18 फीट ऊँचा, 12 फीट चौड़ा दरवाजा बना है। जिसकी छत पर बूंदी शैली में चित्रकारी की गई है।6

3. जलकुण्ड -

बावड़ी के नीचे के स्तर बने दरवाजे की बड़ी पाट से नीचे उतरने पर एक विशालकाय 32x25 वर्गफीट की कुण्डी बनी हुई है।

4. बारादरी -

बारादरी पहले द्वार के ऊपर सीढ़ियों के पहले स्तर पर बनी हुई है। मेहराब एवं दरवाजे की संयुक्त छत पर 12 स्तम्भों का कक्ष बना हुआ है। इस बारादरी में सूर्यमल्ल मिश्रण में कुछ साहित्यक महत्त्व के कार्य करने का जिम्मा लिया था। इस समय इसका उपयोग पढ़ने के कक्ष और पुस्तकालय के रूप में किया जा रहा है जिसे सूर्यमल्ल वाचनालय के नाम से जाना जाता है व बूंदी नगर निगम द्वारा संचालित है।

5. ताखें, आले -

राजस्थानी स्थापत्य में अलंकार (सजावट) के रूप में उपयोग होने वाला दूसरा प्रमुख घटक ताखें हैं। भावल्दी बावड़ी में दो तरह के ताखे बनाये गये हैं।

(अ) देवों के आवासीय ताखें

प्रकार-1 :

बावड़ी में प्रवेश करते ही दोनों तरफ आवासीय ताखें हैं जिसमें दायीं ओर भगवान गणेश ओर बायीं ओर हंसारूढ़ जलदेवी की प्रतिमा स्थापित है। जलदेवी की प्रतिमा में आगे-पीछे सेविकाएँ सेवा में निमग्न हैं।

प्रकार-2 :

बावड़ी के नीचे की ओर की दीवारों के कोने में दो मंदिरनुमा आवासीय ताखे हैं जिसमें बायीं ओर की ताक में 2x3x1 घनफीट आकार में शंख, चक्र, गदा व पदम धारण किये चतुर्भुज विष्णु की खड़गासन प्रतिमा स्थापित है जोमानवरूपधारी गरुड़ पर विराजमान है। इस मूर्ति के दोनों तरफ पहरेदार व सेवकों को तथा चारों तरफ छोटी-छोटी 20 प्रतिमाओं को उकेरा गया है। इस मूर्ति पर जैन प्रभाव दिखायी देता है। दायीं तरफ की ताक में चतुरानन ब्रह्मा विराजमान है जिसके सभी मुखों पर लम्बी तीखी दाढी व मूंछे बनाई गई हैं। इनमें मुगल प्रभाव दिखाई देता है।

प्रकार-3 :

बावड़ी के नीचे की ओर पाट की दक्षिणी दीवार पर नन्दी सहित शिवलिंग स्थापित है। पाट की पश्चिमी दीवार पर गजारूढ इन्द्र की प्रतिमा स्थापित है। इस गज को महावत हाँक रहा है तथा परियाँ ऊपर उड़ते-उड़ते साथ चल रही हैं। प्रतिमा के चारों तरफ देवी-देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएँ इन्द्र के राज्य (स्वर्ग) को दर्शाती है।

(ब) शिलालेखों के लिये ताखें

प्रकार-4 :

बावड़ी की सीढ़ियों के पहले सोपानक्रम के दोनों तरफ दीवारों में कलात्मक मेहराबदार ताके बनीं हुई हैं जहाँ पर दायीं तरफ के आवासीय ताखे में चौकोर पत्थर पर संस्कृत का शिलालेख है। यह बावड़ी और उसके निर्माण के विषय में सूचना देते हैं। बायीं ओर का ताखा खाली है जिसके उद्देश्य के बारे में अटकलें लगायी जा सकती हैं। शिलालेख से ज्ञात होता है कि बावड़ी का निर्माण प्रारम्भ करने से पूर्व शुभ मुहूर्त देखा जाता था। साथ ही विधि पूर्वक गणपति की आराधना व पूजा की जाती थी, जिसका उद्देश्य यह होता था कि निर्माण कार्य में किसी प्रकार की कोई बाधा न आवे।

6. छतरियाँ -

राजस्थानी स्थापत्यकला में छतरी सजावट का प्रतीकात्मक तत्व है।

भावल्दी बावड़ी में तीन तरह की छतरियाँ हैं -

- प्रवेश द्वार पर चौकोर छतरियाँ
- कुएँ के पास गोल छतरियाँ
- बारादरी की छत के कोने पर छोटी वर्गाकार छतरियाँ

7. तोरण -

हालाँकि तोरण एक संस्कृत शब्द है जो मुख्यद्वार के लिये उपयोग किया जाता है साथ ही यह जैन स्थापत्य में प्रधान व मुख्य द्वार पर सजावट के लिये महत्त्वपूर्ण है। तोरण बावड़ी के प्रथम प्रवेशद्वार पर बना हुआ है जो उसके स्थापत्य को और सुन्दर बनाता है।

8. चबूतरा -

बावड़ी की सीढ़ियों के जोड़ पर चबूतरा है, जिसके किनारे व्यवस्थित दीवारें हैं। चबूतरा बैठने के लिये उपयोग में आता है।

9. ऊँची दीवारें -

बावड़ी की समतल छत पर दीवार है जिसका निर्माण पूर्णतया (पूर्ण रूप रेखा से) पत्थर की चौकोर पट्टियों से पत्थर के खम्भों पर जोड़कर किया गया है।

10. घिरनी -

बावड़ी के कुएँ से पानी को खींचने के लिये बावड़ी की छत के साथ-साथ कुएँ के पश्चिमी किनारे पर घिरनी लगी हुई है।

11. अलंकरण और सतही सजावट

भावल्दी बावड़ी में निम्न अलंकरण देखे गये हैं -

(1) चित्रकला :-

सतही सजावट पेन्टिंग के रूप में है जो कि बून्दी स्कूल पेन्टिंग से सम्बन्धित है जो दोनों मुख्य द्वारों पर बनी मेहराबों में दर्शित है।

(2) पलस्तर पर अंलकरण :-

सतही सजावट चूने के प्लास्टर में अंलकरण के रूप में है जो दोनों मुख्य द्वारों, बारादरी और छतरियों पर देखने को मिलता है।

(3) पत्थरों में निर्माण कार्य :-

पत्थरों में निर्माण कार्य अलंकरण के स्वरूप में भावल्दी बावड़ी में विस्तृत है विशेष तौर पर तोरण, छतरियों, कोष्ठकों, ताखों, ऊँची दीवारों, खम्भों, स्तम्भों, चबूतरों में इन अलंकरणों को देखा जा सकता है।

स्थापत्य

जल का स्रोत

रानीजी की बावड़ी

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अभयनाथ की बावड़ी

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दधिमति माता की बावड़ी

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गोल्हा बावड़ी

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नाहरदूस की बावड़ी

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मनोहर बावड़ी

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मालनमासी हनुमान की बावड़ी

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नारूक्की की बावड़ी

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नेगीजी की बावड़ी

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अनारकली बावड़ी

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रामसा बावड़ी

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छीपाओं की बावड़ी

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पनघट की बावड़ी

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गणेशघाटी की बावड़ी

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देवपुरा की बावड़ी

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लाखेरी की व्यास बावड़ी

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माटून्दा, बावड़ी

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धाय र्भाइ जी का कुण्ड

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प्रधान जी का कुण्ड

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बोहराजी का कुण्ड

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नवलसागर तालाब

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रामसागर तालाब

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फूलसागर तालाब

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कोटा के जलाशयों की तकनीक

अबला मीणी की बावड़ी



कोटा के राव मुकुन्दसिंह (1649 ई. से 1658 ई.) की एक ख्वास का नाम अबला था जो जाति से मीणी थी। कहा जाता है कि एक बार राव मुकुन्दसिंह जी मुकन्दरा दर्रे में शिकार खेलने गये वहाँ उन्होंने एक अत्यन्त रूपवती स्त्री को देखा जो खेराबाद की रहने वाली अबला मीणी थी। महाराज उसे अपने हरम में ले आये और यहाँ बसा कर और महल बाग व शिकारगाह बनवाकर रहने लगे। कोटा शहर के नयापुरा इलाके में अबला मीणी ने इस बावड़ी का निर्माण करवाया था।66 जनरल सर कनिंगहम ने लिखा है कि अबला मीणी ने मुकुन्दसिंहजी के पास रहना स्वीकार करते हुए यह शर्त रखी थी कि दर्रे के पहाड़ पर उसके लिये महल बनवाया जावे और उस पर प्रति रात्रि ऐसा चिराग जलाया जावे जो अबला के गाँव वालों को दिखायी दे सकें। उस समय यह दीपक जलाया जाता था। यह दीपक कब तक जलता रहा इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती है।

अबला मीणी की बावड़ी एल आकार की पश्चिम मुखी देखती हुई है जिसमें मुख्यद्वार से सीढ़ियाँ उतरकर बावड़ी में प्रवेश किया जा सकता है। बावड़ी के प्रवेशद्वार पर तीन सीढ़ियों के बाद एक पाट बनी है। इसके बाद नीचे उतरने पर 8वीं सीढ़ी पर एक पाट उसके बाद 13वीं सीढ़ी पर एक पाट उसके बाद 18वीं सीढ़ी पर एक पाट बनी है। 8वीं व 13वीं सीढ़ी के मध्य दोनों तरफ 2 साधारण रिक्त ताकें हैं। बावड़ी के दोनों तरफ पूर्व व पश्चिम में 6-6 बरामदे बने हैं जो हवादार हैं। दरवाजे के नीचे एक कलात्मक बरामदा बना है जिसके मध्य में आर पार रिक्त ताका है। यहाँ से बावड़ी एल आकार में मुड़ जाती है। यहीं पर बावड़ी का कुण्ड स्थित है।

बावड़ी का एल आकार का भाग कलात्मक है जिसमें एक बड़ी तिबारी बनी हुई है। तिबारी की दोनों तरफ की दीवारों में 3-3 आर पार स्तम्भों पर बरामदा बना है बरामदों पर कंगूरेदार आकृति है। तिबारी के अन्दर दोनों तरफ 1-1 खाली ताका है तिबारी में प्रवेश करने हेतु एक तरफ कंगूरेदार दरवाजा व दूसरी तरफ साधारण दरवाजा है इस तिबारी के नीचे पानी कुण्ड तक जाता है दरवाजों के समानान्तर लम्बे पाटिये लगे हैं जो बावड़ी से बाहर निकलने वाली सीढ़ियों के बराबर तक जाते हैं। इन समानान्तर पाटियों के ऊपर एक तरफ 2-2 रिक्त ताके व नीचे के दोनों तरफ 4 ताके बनी है बावड़ी से 5-5 सीढ़ियों के क्रम में 2 पाटों के पार बाहर निकला जा सकता है इन सीढ़ियों के प्रथम पाट पर भी दोनों तरफ दो रिक्त ताके हैं बावड़ी की सीढ़ियों की दायीं तरफ कोने में पृथक से छोटी-छोटी सीढ़ियाँ भी बनी हैं। कुण्डी के सामने पानी खींचने का ढाणा बना हुआ है जिस पर चार घिरणिया लगी है। घिरणियों के नीचे पत्थर में कटाई कर कलात्मक व अलंकरण युक्त बनाया गया है। इसके नीचे दीवार पर एक ताका बना हुआ है जिसमें हनुमानजी की मूर्ति लगी हुयी है बावड़ी के जल का उपयोग राहगीरों व कोटा की जनता के लिये किया जाता था।67

जिन्दबाबा की बावड़ी

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जमना बावड़ी

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रंगबाड़ी की बावड़ी

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विभीषण कुण्ड

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झालावाड़ के जलाशयों की तकनीक

ठाकुर साहब की बावड़ी


झालावाड़ व झालरापाटन के मध्य गिन्दौर नामक ग्राम में ठाकुर साहब का प्राचीन श्रद्धा धाम है। यहाँ शीतल व सुस्वाद जल की एक कलात्मक ठाकुर साहब की बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण डूंगर गाँव की बेटी एवं ठाकुर जसोत सिंह जी की पोती मानदेव जी के द्वारा 1786 ई. में करवाया गया।74 यह बावड़ी पूर्व-पश्चिम देखती हुयी है। बावड़ी के प्रवेश द्वार पर 8 सीढ़ियाँ चढ़ती हुयी है जिसके दोनों ओर दो छोटे-छोटे मन्दिर स्थित है। दायीं ओर के मन्दिर में महादेव, पार्वती, शिवलिंग, नन्दी की प्रस्तर मूर्तियाँ व बायीं ओर के मन्दिर में गणेश जी की मूर्ति स्थापित है। सीढ़ियों के आगे चौड़ा चबूतरा है फिर 6 सीढ़ियाँ बावड़ी की ओर नीचे उतरते हुए है। जिसके दायीं ओर के ताखे में बावड़ी के निर्माण सम्बन्धी एक धार्मिक लेख अंकित है बावड़ी के बायीं ओर ठाकुर साहब का अर्द्धशिल्प कला का मन्दिर स्थित है जहाँ पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु पूजा के लिये आते हैं। यहाँ पर भी चौड़ा चबूतरा है जिसके बाद 6 सीढ़ियाँ नीचे बावड़ी के मध्य में बने कुएँ की ओर जाती हैं बावड़ी के सामने की ओर कंगूरेदार बेलबूटों की डिजाइन बनी है। बावड़ी में पानी भरा है जिसका उपयोग पूजा के काम में लिया जाता है। कुएँ के ऊपर एक तिबारी बनी है। बावड़ी कुएँ के पीछे तक फैली हुयी है। जिसके ऊपर लोहे का जाल बिछा है बावड़ी के अन्त में पानी खींचने का ढाणा बना हुआ है। जिस पर चार घिरणियाँ लगी हुयी हैं। जिसका प्रयोग पानी खींचने के लिये किया जाता रहा है।75

चन्दमोलिश्वर मन्दिर की बावड़ी

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शान्तिनाथ जैन मन्दिर की बावड़ी

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½
½

रमणिकनाथ की बावड़ी

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बारां के जलाशयों की तकनीक

बड़ा गाँव की बावड़ी



बारां से 12 किमी दूर मांगरोल रोड पर बड़ा ग्राम में यह बावड़ी स्थित है। यह बावड़ी श्री बड़गाँव बालाजी जल कल्याण समिति की सार्वजनिक सम्पत्ति है। इस बावड़ी का निर्माण 900 वर्ष पूर्व राज दरबार द्वारा करवाया गया था। इसका जीर्णोद्धार 2008 में स्थानीय नागरिक एवं जनप्रतिनिधि श्री प्रमोद जैन भाया के द्वारा करवाया गया है। पूर्व पश्चिम देखती हुई इस बावड़ी का एक सुसज्जित प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार से तीन सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने के बाद करीब 8x12 फीट का एक स्तम्भों युक्त चबूतरा बना है। यह चबूतरा चारों तरफ से खुला है जिसके ऊपर छतरी के आकार में अलंकरण है। इसके नीचे तीन सीढ़ियाँ उतरने के बाद पहला पाट, 20वीं सीढ़ी के बाद दूसरा पाट, 30वीं सीढ़ी पर तीसरा पाट एवं 39वीं सीढ़ी पर चतुर्थ पाट स्थित है, जहाँ पर सीढ़ियाँ समाप्त होती हैं। दोनों तरफ से खुली हुयी तिबारी है जिसमें दोनों तरफ तीन दरवाजे बने हुये हैं। बावड़ी में बनी तिबारी के ताकों में एक तरफ जिन्द बाबा का व दूसरी तरफ गणेश जी का स्थान है जहाँ पर स्थानीय नागरिक विवाह निमंत्रण हेतु आते हैं। इस तिबारी के ऊपर ऊर्ध्वाधर में झरोखेदार दोनों तरफ से खुली हुयी एक तिबारी और बनी हुयी है। उसके आगे एक वर्गाकार कुण्ड है जिसमें गोल आकार में 40 फीट गहरा कुण्ड बना हुआ है। इस कुण्ड में उतरने के लिये छोटी-छोटी सीढ़ियाँ बनी हैं। पानी में डूबी होने के कारण सीढ़ियों की संख्या ज्ञात नहीं की जा सकती है इस बावड़ी परिसर की 12 बीघा जमीन पर हनुमान जी, शिवजी, रामजी के अलग-अलग मन्दिर बने है। इस बावड़ी के निर्माण से सम्बन्धित एक शिलालेख बावड़ी के पास स्थित श्री कृष्ण गौशाला में पड़ा हुआ है। यह शिलालेख 12 लाइन में 1x 4 फीट के प्रस्तर पर खुदा है जो अपठनीय है। शिलालेख की नौवीं लाइन में बावड़ी शब्द दिखायी देता है। जिससे यह ज्ञात होता है कि यह शिलालेख बावड़ी के निर्माण से सम्बन्धित है। इस बावड़ी पर कई धार्मिक आयोजन किये जाते हैं। यहाँ पर सभी धर्मों के सामूहिक विवाहों के आयोजन भी होते हैं।80

पाटून्दा की बावड़ी

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बमूलिया कुण्ड

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दुर्ग में जलाशय तकनीक

तारागढ़ किला



कोटा जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के सामने बून्दी नगर की उत्तरी पहाड़ी पर 1426 फीट की ऊँचाई पर तारागढ़ दुर्ग स्थित है जिसे बून्दी नरेश राव बरसिंह ने निर्मित करवाया था।83 राव बरसिंह ने मेवाड़, मालवा और गुजरात की ओर से संभावित आक्रमणों से सुरक्षा हेतु बून्दी के पर्वत शिखर पर इस दुर्ग का निर्माण करवाया था। पर्वत की ऊँची चोटी पर स्थित होने के फलस्वरूप धरती से आकाश के तारे के समान दिखलायी पड़ने के कारण कदाचित इसका नाम तारागढ़ पड़ा हो।84 मुख्य दुर्ग की लम्बाई 500 मीटर व चौड़ाई 300 मीटर है। पहाड़ियों को घेरकर प्राचीरें इस तरह बनाई गई हैं जो दुर्ग की दोहरी रक्षा पंक्ति का कार्य करती हैं। प्राचीरों की ऊँचाई 7 मीटर व मोटाई 6 से 8 मीटर तक है। प्राचीरों के धरातल स्थल पर जल निकास के लिये अनेक पक्के मार्ग बने हुए हैं जिससे कि वर्षाऋतु का पानी जो पहाड़ों से नीचे आता था बहकर निकल जाये और प्राचीरों को किसी प्रकार की हानि नहीं हो।

दुर्ग में कोई प्राकृतिक जलाशय नहीं होने के कारण विशाल जलकुण्ड बनाये गये जिन्हें स्थानीय भाषा में टांके कहते हैं। इन टांको में वर्षा का पानी एकत्रित कर लिया जाता था। दुर्ग में इन जलाशयों की संख्या पाँच है। इन जलाशयों में जगह-जगह पत्थर के सिल्ट वाल्व लगाकर पानी को फिल्टर किये जाने का प्रबन्ध किया गया है। जलाशयों में 100 सीढ़ियाँ तक बनी हुई है।85 ये टांके पत्थर व चूने से निर्मित हैं और वर्ष पर्यन्त पानी से भरे रहते हैं जबकि गढ़ के नीचे कुएँ सूख जाते हैं। दुर्ग में जाल की तरह फैले हुये ये टांके दुर्ग के सभी हिस्सों में जल वितरण के काम आते थे। बाहरी आक्रमण एवं विपरीत परिस्थितियों में इनका महत्त्व अत्यधिक बढ़ जाता था।

दुर्ग में एक टाका दुर्ग के पूर्व की ओर भीम बुर्ज के नजदीक बना है। इस टांके से भीमबुर्ज सहित पूर्वी छोर के सुरक्षा प्रहरियों के लिये जल की पूर्ति की जाती थी। एक अन्य टांका दुर्ग के मंगल गज दरवाजे के समीप ही स्थित है। इस टांके से कभी गढ़ में जल उपलब्ध कराया जाता था। आज भी इस दुर्ग के टांके से लेकर गढ़ के कुण्ड तक भूमिगत पाईप लाईन बिछी हुई है। दो अन्य टांके दुर्ग में किलाधारी के मन्दिर के उत्तर व दक्षिण की तरफ स्थित है। किलाधारी महाराज के मन्दिर के उत्तर की ओर चावण्ड दरवाजे के निकट 80 फीट भुजा वाला यह वर्गाकार टांका सम्पूर्ण दुर्ग को जलापूर्ति कर जीवन प्रदान करता था इसलिये इसे दुर्ग जीवन टांका कहते हैं। यह टांका दुर्ग का प्राचीनतम टांका है। राव बरसिंह ने 1354 ई. में जब इस दुर्ग का निर्माण करवाया उसी समय इस टांके का भी निर्माण करवाया था। क्योंकि दुर्ग में कोई भी प्राकृतिक जल स्रोत न होने के कारण दुर्ग निर्माण के लिये एक कृत्रिम टांका बनवाना पड़ा था। यह टांका उस समय इतना मजबूत नहीं था बाद में इसे चौड़ा व गहरा करके 1775 ई. में कलात्मक रूप दिया गया। इस कार्य में दुर्गाधिकारी वैश्य प्रधान आनन्दी लाल सेमाणी, संगतराश गिरिधारी तथा कारीगण सेवोण ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 86 यह टांका वर्गाकार है। कुण्ड में पूर्व से पश्चिम दिशा में प्रवेश द्वार बनाये गये हैं। पानी निकासी हेतु उत्तर दिशा में ढाणा बनाया गया है। सम्पूर्ण टांका 5 फीट ऊँची दीवारों से परिबद्ध है। दोनों प्रवेश द्वारों से कुण्ड में प्रवेश करने पर 3-3 सीढ़ियाँ नीचे उतरते ही 4 फीट चौड़ी पाट कुण्ड के चारों तरफ घूमती है। इसी पाट की दीवारों पर जल संवर्धन एवं संरक्षण हेतु चारों दिशाओं में 13 जल छनित्र ताके बनाई गई थी। जिनसे वर्षा का पानी छन-छन कर कुण्ड में पहुँचता था। कुण्ड में जल भरने हेतु कुण्ड के चारों तरफ 10 फीट चौड़ा ढालयुक्त पक्का फर्श बनाया गया है। इस फर्श के किनारों पर दीवारें बनाई गई हैं। वर्षा का जल इन दीवारों तक भरकर ऊपर निकलता है जिससे मिट्टी, पत्थर दीवार से टकराकर बाहर ही रह जाते हैं और पानी जल छनित्र ताकों तक पहुँचता है और छनकर कुण्ड में इकट्ठा होता है। इस छनित्र तकनीक के कारण ही ऐसे कुण्डों को टांका कहा जाता है। किले के मुख्य प्रवेश द्वार से 3-3 सीढ़ियाँ नीचे उतरने पर 4 फीट चौड़ी पाट पर पहुँचते हैं। इस पाट से 17-17 सीढ़ियाँ दक्षिण, पूर्व व पश्चिम दिशा में उतरने हेतु बनाई गई है एवं 18-18 सीढ़ियाँ उत्तरी कोनों से बनाई गई हैं जो 10 फीट ऊँची, 12 फीट लम्बी व 4 फीट चौड़ी तिबारी में पहुँचती है। इसी तिबारी के ऊपर ढाणा बना हुआ है। तिबारी के साथ-साथ ढाई फीट चौड़ी पाट कुण्ड के चारों तरफ बनी हुई है। कुण्ड की कुल गहराई 45 फीट है। कुण्ड का निर्माण चूने-पत्थर से करके दीवारों एवं पाटों पर चूने का प्लास्टर किया गया है। कुण्ड में पानी भराव हेतु वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग हुआ है।87

किलाधारी जी के मंदिर के दक्षिण की तरफ एक जल कुण्ड स्थित है। जिसे किलाधारी के टांके के नाम से पहचाना जाता है। इस टांके का निर्माण महाराव राजा श्री उम्मेद सिंह जी ने 1795 ई. में किलाधारी जी के मंदिर के साथ में करवाया था।88 मुख्य रूप से इस टांके का जल किलाधारी जी महाराज की पूजा अर्चना के कार्य में लिया जाता था। यह टांका आयताकार है जो 120 फीट लम्बा तथा 102 फीट चौड़ा है। कुण्ड के चारों तरफ 2 फीट ऊँची दीवार बनाई गई है। उत्तरी दिशा की दीवार में 6 एवं पूर्व में 4 जल छनित्र ताके बनी हुई है। जिनसे वर्षा का जल कुण्ड में छन-छन कर इकट्ठा किया जाता था। कुण्ड की पूर्वी दिशा में 16x16 वर्गफीट आकार का ढाणा बना हुआ है। इस ढाणे के नीचे से एक गुप्त सुरंगरूपी मार्ग पास बने जीवरखा के महल में पानी की पूर्ति करता था। कुण्ड में प्रवेश करने हेतु पश्चिमी दिशा में 7 फीट ऊँचा, 3 फीट चौड़ा व 1 फीट मोटा दरवाजा बना हुआ है। प्रवेश द्वार के समान्तर 3 फीट चौड़ी पाट टांके के चारों तरफ घूमती है। प्रवेश द्वार से 5वीं सीढ़ी के बाद 6x5 वर्गफीट की पाट है इसी पाट से जोड़कर 2 फीट चौड़ी पाट टांके के चारों तरफ घूमती हैं। इस पाट के बाद उत्तर-पश्चिमी कोने में 6-6 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। इस प्रकार टांके में द्वितीय प्रवेश स्थान ढाणे की दक्षिण तरफ बनाया गया है। इस स्थान से 26 सीढ़ियाँ नीचे उतरकर अन्तिम पाट तक पहुँचा जा सकता है। इसके बाद टांका 80x60 फीट रह जाता है। कुण्ड की गहराई 55 फीट है। ढाणे के तीनों तरफ सुरक्षा हेतु पाषाण पट्टिकाएँ लगाई गई हैं। कुण्ड के दक्षिण-पूर्व कोने में एक 10 फीट लम्बी, 8 फीट चौड़ी व 9 फीट ऊँची तिबारी आराम करने के उद्देश्य से निर्मित करवाई गई है।

एक लघु टांका चावण्ड दरवाजे की प्राचीर से लगा हुआ है जो दुर्ग का सबसे छोटा टांका है। इन टांकों के पास ही परकोटों तथा महलों के निर्माण के लिये मसाला तैयार करने के स्थल बने हुए हैं जहाँ से निर्मित मसाला इन इमारतों में काम आता था। किलाधारी जी महाराज के मन्दिर के पृष्ठ भाग पर टांके को स्पर्श करते हुए जीवरखा महल बने हैं। इन महलों का निर्माण महाराव राजा विष्णुसिंह तथा राजा रामसिंह ने करवाया था। इसी दरवाजे से बाहर दायीं ओर चलने पर स्तम्भों पर टिकी हुई एक तिबारी बनी हुई है। इसी तिबारी से भूमिगत सोपान मार्ग किलाधारी जी के टांके में जाता है। यहाँ अन्तिम छोर पर एक कुण्डनुमा आकृति दिखायी देती है जिसमें सूर्य के प्रकाश के कारण टांके के जल की मछलियाँ स्पष्ट रूप से दिखायी देने के कारण रानियों द्वारा इन मछलियों का शिकार किया जाने का शौक पूरा किया जाता था। तारागढ़ दुर्ग के राजप्रसादों में रंग विलास उद्यान स्थित है जिसमें दुर्ग को जाने वाले रास्ते से भी पहुँचा जा सकता है। इस उद्यान के मध्य में एक कलात्मक कृत्रिम जल कुण्ड है जिसमें पानी तारागढ़ दुर्ग के टॉके से पाइपलाइन द्वारा आता था। यह पाइपलाइन आज भी कुण्ड से पहाड़ी के भूमिगत मार्ग से होते हुए दुर्ग के टाँकों तक बिछी है। 25.6x24.6 वर्ग फीट आकार के इस जलकुण्ड के चारों ओर कलात्मक जालियों से युक्त बैठने के लिये झरोखे बने हैं। जल कुण्ड से चारों दिशाओं में चार मार्ग बने हैं। पास ही बने देवालय की स्थापना को देखते हुए इस जलकुण्ड का जल पवित्र धार्मिक कार्यों में प्रयुक्त होता था।89

इन्द्रगढ़ दुर्ग

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गागरोण दुर्ग

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“Until you approach close to Gagrown its town and Castle apper united and present a bold and striking object and it is only on mounting the ridge that and perceives the strength of this position, the rock being seraped by the action of the waters to an unmense light on whichever side an enemy might approach it, he would have to take the bull by the horns.”

जल दुर्ग स्मृत तज्ज्ञैरासमन्तमहाजलम।97

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शाहबाद दुर्ग

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संदर्भ ग्रन्थ सूची

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