कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

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किसी भी क्षेत्र की कृषि जटिलताओं को समझने के लिये उस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली समस्त फसलों का एक साथ अध्ययन आवश्यक होता है। इस अध्ययन से कृषि क्षेत्रीय विशेषतायें स्पष्ट होती हैं। सस्य संयोजन अध्ययन के अध्यापन के अभाव में कृषि की क्षेत्रीय विशेषताओं का उपयुक्त ज्ञान नहीं होता है। फसल संयोजन स्वरूप वास्तव में अकस्मात नहीं होता है अपितु वहाँ के भौतिक (जलवायु, धरातल, अपवाह तथा मिट्टी) तथा सांस्कृतिक (आर्थिक, सामाजिक तथा संस्थागत) पर्यावरण की देन है। इस प्रकार का अध्ययन मानव तथा भौतिक पर्यावरण के सम्बंधों को प्रदर्शित करता है। मानव तथा भौतिक पर्यावरण के पारस्परिक सम्बंधों द्वारा ही संस्कृति का विकास होता है। अत: सस्य संयोजन के परिसीमन से क्षेत्रीय कृषि विशेषताओं एवं भौतिक तथा सांस्कृतिक वातावरण का कृषि पर प्रभाव दृष्टिगोचर होता है जिससे वर्तमान कृषि समस्याओं को भली-भाँति समझ कर समायोजन योजनाबद्ध तरीके से लागू किया जा सकता है।

अनेक फसलों के क्षेत्रीय वितरण से बने प्रारूप को सस्य स्वरूप कहते हैं। इसमें प्रत्येक फसल क्षेत्र के प्रतिशत की गणना कुल फसल क्षेत्र से की जाती है। विभिन्न फसलों की प्रतिशत गणना के पश्चात फसल क्षेणी क्रम ज्ञात किया जाता है जिससे सस्य स्वरूप के अनेक आर्थिक पहलुओं का ज्ञान होता है। कृषक परिवार से राष्ट्रीय स्तर तक अपनाये गये सस्य स्वरूप के अनेक रूप होते हैं सस्य स्वरूप में अंतर वहाँ के भौतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा संस्थागत कारकों को प्रदर्शित करते हैं। इन कारकों के प्रभाव को मापने के उद्देश्य से अनेक महत्त्वपूर्ण अध्ययन किये गये हैं। फसल वितरण में क्षेत्रीय एवं सामाजिक अंतर मिलता है। कृषि अर्थव्यवस्था में विकास के साथ-साथ फसलों के स्वरूप एवं क्षेत्र में अंतर होता है। इस प्रकार कृषि एवं आर्थिक विकास की गति तेजी होती है। इस दृष्टिकोण से सस्य स्वरूप का आर्थिक पक्ष भी अध्ययन का प्रमुख अंग होता है। अब प्रश्न उठता है कि किसी स्थान विशेष का वर्तमान सस्य स्वरूप अनुकूलित है या नहीं? अनुकूल सस्य स्वरूप का सुझाव देते समय विभिन्न फसलों के चुनाव तथा वरीयता का क्या आधार होना चाहिए।

फसलों के प्रकार तथा सस्य पद्धति का फार्म की मृदा, सिंचाई तथा अन्य साधनों के उपयोग पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। फार्म पर उगाने के लिये चुनी गई फसलें तथा सस्य पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिससे फार्म पर उपलब्ध सभी साधनों का समुचित तथा भरपूर उपयोग हो सके और मृदा उर्वरता तथा मृदा के अन्य गुणों में समय के साथ कमी न आये। ऐसा तभी संभव हो सकता है जब फसलों तथा फसलचक्रों का चयन सुस्थापित वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर किया जाये। जब हम फसलों के चयन की बात करते हैं तो इसके साथ सस्य पद्धति और फसल चक्रों पर भी विचार करना आवश्यक हो जाता है। फसल चक्र से आशय एक फसल के बाद दूसरी फसल उगाने के क्रम से है। सभी कृषक कोई न कोई सस्य पद्धति अपनाते हैं जिसमें एक या अनेक फसल चक्र हो सकते हैं।

अनेक वर्षों से फसल चक्रों पर अनुसंधान किये जा रहे हैं और वैज्ञानिकों ने अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार के फसल चक्रों को अपनाने की अनुशंसायें की हैं। फसल चक्रों से खरपतवारों, हानिकारक कीटों, फसल के रोगों और भूमि कटाव की रोकथाम में सहायता मिलती है। फसल चक्र पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन विभिन्न कृषि अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया है। झा ने उत्तरी बिहार के चंपारण जिले के कुछ कृषक परिवारों के सिंचाई साधनों से संपन्न फार्म के सस्य स्वरूप के आर्थिक पक्षों का अध्ययन किया है। रामालिंगन ने लघु स्तर पर सस्य स्वरूप तथा अनेक कारक जैसे जोत का आकार, सिंचाई, शुद्धलाभ, मिश्रित फसल व्यवस्था के प्रभावों का अध्ययन दो आधारों पर किया जाना चाहिए।

1. वृहत प्रदेशीय स्तर
2. लघु प्रदेशीय स्तर

सस्य स्वरूप को वृहत स्तर पर प्रभावित करने वाले कारक

1. मिट्टी
2. जलवायु भिन्नता
3. बाजार सुविधा
4. परिवहन विकास तथा
5. मांग और पूर्ति परिस्थितियाँ

जबकि लघु स्तर पर प्रभावित करने वाले कारक

1. जोत का आकार
2. रैयतदारी
3. सिंचाई
4. प्रत्येक फसल से शुद्ध लाभ की प्राप्ति
5. खाद्य आदतें
6. जल संरचना
7. पारिवारिक आय
8. आधुनिक तकनीकी आविष्कारों को अपनाने की क्षमता
9. शिक्षा स्तर
10. सामाजिक व्यवस्थायें एवं परंपरायें आदि। रामालिंगन के कुछ निष्कर्ष इस प्रकार हैं -

1. जोत के आकार में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादित फसलों की संख्या में भी होती है।
2. जोत के आकार में वृद्धि के साथ-साथ व्यापारिक फसलों के क्षेत्र में वृद्धि होती जाती है।
3. उत्पादित फसल पर बाजार में बिकने वाली कीमत की भी प्रभाव पड़ता है। लेकिन बड़े जोताकार के कृषकों पर अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव पड़ता है।
4. कृषक परिवार से पूछताछ से यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्तिगत स्तर पर सामाजिक एवं आर्थिक तथा लंबे समय से अपनाई गई फसल व्यवस्था का प्रभाव सस्य स्वरूप पर अधिकतम पड़ता है। मजीद का भी यही निष्कर्ष है कि सस्य स्वरूप को निर्धारित करने में जोत का आकार एक महत्त्वपूर्ण कारक है। विशेष रूप से खाद्यान्न तथा मुद्रादायनी फसलों के अंतर्गत क्षेत्र निर्धारित करने में कृषक जोत के आकार से प्रभावित होता है। शहरी सीमांत क्षेत्रों के सस्य स्वरूप के अध्ययन के आधार पर जोगलेकर का निष्कर्ष है कि जोत के आकार में वृद्धि के साथ-साथ व्यावहारिक फसलों के क्षेत्र में वृद्धि होती है तथा खाद्यान्न फसलों में ह्रास होता है। मंडल तथा घोष का निष्कर्ष है कि छोटी जोत के आकार वाले कृषकों को चार फसल से अधिक नहीं उगाना चाहिए। क्योंकि 4 या 4 से कम फसलों के उत्पादन से ही कृषक को अधिक लाभ हो सकता है तथा अनेक फसलोत्पादन की अपेक्षा जोखिम भी कम रहता है।

आर्थिक कारकों में बाजार में फसल की कीमत तथा सर्वाधिक आय भी सस्य स्वरूप को प्रभावित करती है इसलिये गन्ना क्षेत्र तथा बाजार क्षेत्र में प्राप्त कीमत का घनिष्ट संबंध मिलता है, जूट, चावल क्षेत्र तथा मूल्य का सह संबंध मिलता है। बाजार में इन फसलों की मूल्य वृद्धि के साथ क्षेत्र में भी वृद्धि हो जाती है। झा का भी यह निष्कर्ष है कि चंपारण जिले में चावल तथा मेवड़ा सस्य समिश्रण से कृषकों को प्रति एकड़ सर्वाधिक आय होती है। राजकृष्ण के अनुसार पंजाब के सस्य स्वरूप में हाल के परिवर्तन का मुख्य कारण प्रति एकड़ पारस्परिक लाभ की चेतना है। अनेक क्षेत्रों में फसल विनाश के जोखिम को कम करने की आवश्यकता के दृष्टिकोण से सस्य स्वरूप को अपनाया जाता है। अनेक क्षेत्रों में मक्का तथा ज्वार की खेती इसलिये की जाती है कि सूखे मौसम में फसलोत्पादन के जोखिम को कम किया जा सके। पूर्व उत्तर प्रदेश में खरीफ फसलों की मिश्रित खेती सांवा + अरहर + उड़द + बाजरा विषम मौसम में बीमा का कार्य करती है। फलस्वरूप पूर्वी उत्तर प्रदेश के सस्य स्वरूप के मिश्रित खेती का महत्त्वपूर्ण स्थान है जबकि प्रति एकड़ शुद्ध लाभ के दृष्टिकोण से सस्य स्वरूप अपेक्षाकृत कम लाभप्रद है, जोगलेकर के मतानुसार बीमारियों से प्रभावित होने के कारण अनेक छोटे जोत वाले कृषक मिर्च की खेती नहीं करते हैं इसी प्रकार मूल्य में कमी वृद्धि के कारण तिलहन की खेती नहीं करते हैं।

खरीफ तथा रबी फसलों की कटाई की अवधि के बीच में मुद्रा प्राप्ति के दृष्टिकोण से भी कुछ फसलों का उत्पादन किया जाता है कोयम्बटूर के निकट केला तथा गन्ने की खेती श्रम अभाव का प्रतिफल है। माथुर के अध्ययन के अनुसार विदर्भ में एक ऐसे सस्य स्वरूप को अपनाया जाता है जिसमें पुरुष श्रमिकों को वर्ष भर कार्य मिलता है। लागत उपलब्धि संबंधी सुविधायें भी सस्य स्वरूप को निर्धारित करती हैं। कृषक द्वारा फसल के चुनाव में बीज खाद सिंचाई तकनीकी ज्ञान पूँजी यातायात संभ्ररण तथा बाजार सुविधाओं का प्रभाव पड़ता है। माल्या के अनुसार उत्तरी तथा दक्षिणी आरकाट जिले में खाद्य फसल क्षेत्र तथा बाजार से दूरी का धनात्मक सह संबंध है। शासन द्वारा जारी किये गये अनेक भूमि अधिनियम योजनायें कर, खाद्य फसल कानून, भूमि उपयोग कानून, गहरी खेती योजना, उत्पादन कर, आयात निर्यात कर तथा ग्रामीण विद्युतीकरण का सस्य स्वरूप पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है।

फसलों का वितरण अध्ययन स्थान एवं समय के संदर्भ में किया जाता है। इस प्रकार के अध्ययन को तीन शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है।

1. फसलों का क्षेत्रीय वितरण अध्ययन :-


इस प्रकार के अध्ययन से फसल के क्षेत्रीय महत्त्व का ज्ञान प्राप्त होता है। तथा संबंधित कारकों का भी अध्ययन एवं स्पष्टीकरण होता है। हुसैन ने उत्तर प्रदेश के सस्य एक्रागता के प्रतिरूपों का अध्ययन किया है। हुसैन के मतानुसार गन्ना फसल प्रदेश से आशय उस क्षेत्र की कृषि भूदृश्यावली में गन्ना फसल क्षेत्र के अधिकतम संक्रेदण से है। हुसैन ने यूपी की अनेक उत्पादित फसलों (चावल, बाजरा, मक्का, गेहूँ, चना, जौ तथा गन्ना) की संक्रेदण सूची निकालते हुए प्रत्येक फसल को पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है। वास्तव में यह अध्ययन फसल वितरण संबंधी विशेषताओं को भलीभांति समझने में महत्त्वपूर्ण है। क्षेत्रीय वितरण अध्ययन में दूसरे उपागम का संबंध सीधे फसल प्रतिशत के आधार पर सस्य वरीयता के विश्लेषण से है। ऐसा तरीका सामान्य रूप से कृषि अर्थशास्त्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय स्तरों पर अपनाया गया है इनमें कुछ अध्ययन तहसील तथा विकासखंड के स्तर से भी किये गये हैं। जिनमें गाँव को न्यूनतम इकाई मानकर आंकड़ों को प्रदर्शित किया गया है। वृहद क्षेत्रीय अध्ययन में कुछ चुने गये प्रतिदर्शी गाँवों में सस्य स्वरूप का अध्ययन भी किया गया है।

2. फसलों का क्षेत्रीय परिवर्तन :-


साधारण फसलों के दो वर्षों (समयांतर में) के आधार पर क्षेत्रीय परिवर्तन संबंधी अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिये गेहूँ फसल के क्षेत्र में 1911 तथा 1971 के वर्षों में क्षेत्रीय परिवर्तन इस प्रकार के अध्ययन में अनेक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

तालिका 4.1 ग्राम अ के सस्य स्वरूप में हटाव

विवरण

गेहूँ

गेहूँ, चना

दालें

धान

मक्का बाजरा

गन्ना

सब्जी

मूंगफली

चारा

चार वर्षीय औसत अंतिम

वर्ष 1980-81

28.7

4.2

13.9

1.2

11.1

16.4

0.5

5.3

18.7

चार वर्षीय औसत अंतिम

वर्ष 1987-88

28.4

6.0

3.0

1.5

7.2

21.8

-

1.5

30.9

चार वर्षीय औसत अंतिम

वर्ष 1980-81

-0.3

+1.8

-10.9

+0.3

-3.9

+5.4

-

-4.2

+11.9

घट-बढ़

-1.04

+42.8

-78.4

+29.4

-35.1

+32.9

-

-74.1

+68.1

1
2

3. फसलों का कालिक अंतर :-


दो विभिन्न वर्षों के फसलांतर के स्थान पर जब अनके वर्षों के फसल क्षेत्र की अंतप्रवृत्ति का अध्ययन करते हैं तब उसे सामयिक या कालिक विश्लेषण कहते हैं। वास्तव में दो वर्षों पर आधारित क्षेत्रीय अंतर संबंधी विश्लेषण अस्थायी प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता है, जबकि अनेक वर्षों के विश्लेषण से स्थायी प्रवृत्ति की जानकारी होती है, फलस्वरूप प्रभावित करने वाले कारकों की प्रवृत्ति एवं क्रम को समझना सरल हो जाता है। सैनी ने उत्तर प्रदेश के परिवर्तनशील सस्य स्वरूप के कुछ पहलुओं का अध्ययन किया है। इनका निष्कर्ष है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश के सस्य स्वरूप में मुद्रादायिनी तथा प्रमुख फसलों के क्षेत्र में निरंतर वृद्धि हो रही है जबकि दालों तथा निम्नकोटि की खाद्यान्न फसलों के क्षेत्र में ह्रास हो रहा है। इसका मुख्य कारण सिंचाई सुविधाओं में सुधार, फसल की पारस्परिक लाभ प्रवृत्ति एवं आधुनिक तकनीकी पक्षों की कृषकों को जानकारी है। कौर ने अमृतसर तहसील में बोये गये क्षेत्र का क्षेत्रीय एवं कालिक विश्लेषण किया है। सिंह ने बड़ौत विकासखंड के सस्य स्वरूप का कालिक विश्लेषण किया है। इस आशय से 30 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर बड़ौत विकासखंड के 5 ग्रामों में से 6 प्रतिदर्शी ग्रामों में सस्य स्वरूप प्रवृत्ति निर्धारित की गई है।

अनूकूलतम सस्य स्वरूप संकल्पना

1. प्रति एकड़ अधिक उपज उपागम :-


देशायी के अनुसार गुजरात राज्य की खेती से प्राप्त कुल आय में 39 प्रतिशत की वृद्धि केवल कम पैदावार वाली फसलों की उत्पादकता बढ़ाने से हो सकती है। उनका मत है कि अनेक क्षेत्र हैं जहाँ निकटवर्ती क्षेत्र अपेक्षा प्रति एकड़ उत्पादन कम है, यदि ऐसे भागों की उत्पादकता स्तर निकटवर्ती क्षेत्रों की फसलों के समान किया जा सके तो कुल उपज में पर्याप्त वृद्धि हो सकती है। मुथीनान ने उपज सिद्धांत को प्रतिपादित किया। यह सिद्धांत अनेक फसलों की अंतर्क्षेत्रीय विशिष्टता पर आधारित है इनके मतानुसार जिस भाग में जिस फसल से प्रति एकड़ उत्पादन राष्ट्रीय औसत से अधिक होता है उस भाग में उसी फसल का उत्पादन होना चाहिए। उदाहरण के लिये यदि दो फसलों का उत्पादन राष्ट्रीय औसत से अधिक हो तो उन फसलों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए जिससे अधिकतम उत्पादन प्राप्त हो सके।

3. सर्वाधिक शुद्ध आय उपागम :-


इस समय सर्वाधिक शुद्ध आय उपागम अधिक प्रचलित है। वास्तव में आधुनिकतम तकनीकी लागत का प्रयोग करके उत्पादकता किसी भी सीमा तक बढ़ाई जा सकती है, लेकिन प्रश्न है कि शुद्ध लाभ का प्रतिशत या लागत आय अनुपात क्या होना चाहिए। सर्वाधिक शुद्ध लाभ उपागम वैज्ञानिक है। फसलों से प्राप्त शुद्ध आय की गणना दो मुख्य सांख्यिकी विधियों से की जाती है।

अ. लीनीनियर प्रोग्रामिंग विधि :-


अनेक कृषि अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न फसलों के अंतर्गत अनुकूलतम क्षेत्र निर्धारित करते समय इस उपागम को अपनाया है। राजकृष्ण ने पंजाब में अनेक फसलों के अंतर्गत अनुकूलित क्षेत्र निर्धारित करते समय लीनियन प्रोग्रामिंग विधि को अपनाया है। छोटे स्तर पर अनुकूलित भूमि का निर्धारण लीनयर प्रोग्रामिंग विधि द्वारा अधिक उचित होता, जिसमें फसल की बाजार कीमत, प्रति एकड़ कृषि लागत, भिन्न-भिन्न फसलों की प्रति एकड़ उपज मौसम तथा दूसरे संसाधन अवरोधों को ध्यान में रखकर फार्म से सर्वाधिक शुद्ध लाभ की गणना की जाती है।

ब. उत्पादन फसल उपागम :-


इस उपागम से आशय उत्पादन को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों के प्रभाव को निर्धारित करके शुद्ध लाभ को ज्ञात किया जाना। इसलिये इस उपागम को लागत आय संबंध भी कहते हैं। कृषि अर्थशास्त्रियों ने अधिकांश भूमि, श्रम, पूँजी तथा प्रबंध लागत के आधार पर शुद्ध लाभ ज्ञात किया है। यदि Y किसी समय किसी उत्पादक इकाई को प्रदर्शित करता है तथा जिसमें प्रयुक्त लागत का (X1, X2, X3, X4..............Xn) का फलन है तो उत्पादन फलन को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।

1. जिसमें एक चर लागत को ध्यान में रखा जाता है।
Y = f (X1, X2, X3 ..............Xn)

2. जिसमें दो चर लागतों को ध्यान में रखा जाता है।
Y = f (X1, X2, X3, X4 ..............Xn)

3. जिसमें सभी लागत चरों को ध्यान में रखा जाता है।
Y = f (X1, X2, X3, X4 ..............Xn)

इस समीकरण से यह स्पष्ट होता है कि Y की आय सभी लागत चरों (X1, X2, X3 ..............Xn) से निर्धारित होती है।

विकासखंड स्तर पर विभिन्न फसलों का क्षेत्रफल 1995-96 (हे.)

विकासखंड

सकल बोया गया क्षेत्र (हे.)

रबी

खरीफ

जायद

कालाकांकर

20506

9585  (46.74)

9608 (46.86)

1313 (6.40)

बाबागंज

25829

11999 (46.46)

12855 (49.77)

975 (3.77)

कुण्डा

26063

12435 (47.71)

11962 (45.90)

1666 (6.39)

बिहार

26868

12388 (46.11)

12991 (48.35)

1489 (5.54)

सांगीपुर

25631

12673 (49.94)

12402 (48.31)

574 (2.24)

रामपुरखास

30656

14512 (47.34)

14998 (48.92)

1164 (3.74)

लक्ष्मणपुर

18470

9175 (49.68)

8488 (45.96)

807 (4.37)

संडवा चंद्रिका

18700

9541 (51.02)

8492 (45.41)

667 (3.57)

प्रतापगढ़ सदर

16417

7625 (46.45)

8097 (49.32)

695 (4.23)

मान्धाता

22261

10745 (48.27)

10426 (46.83)

1090 (4.90)

मगरौरा

28383

12629 (44.50)

14912 (52.54)

842 (2.96)

पट्टी

19958

9203 (46.11)

10157 (50.89)

598 (3.00)

आसपुर देवसरा

23233

11025 (47.45)

11603 (49.94)

605 (2.61)

शिवगढ़

19599

10369 (52.91)

8692 (44.35)

538 (2.74)

गौरा

24545

12307 (50.14)

11465 (46.71)

773 (3.15)

योग ग्रामीण

347117

166211 (47.88)

167148 (48.15)

13758 (3.97)

योग नगरीय

1693

866  (51.15)

653 (38.57)

174 (10.28)

योग जनपद

348810

167077 (47.90)

167801 (48.11)

13932 (3.99)

अ. रबी की प्रमुख फसलें :-

1. गेहूँ :-


विश्व की धान्य फसलों में गेहूँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण फसल है। क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में धान की बाद गेहूँ का स्थान है। गेहूँ का उपयोग चपाती (रोटी, डबल रोटी, बिस्कुट, मैदा सूजी) बनाने में किया जाता है इसका भूसा पशुओं को खिलाने के काम आता है। इनके दाने में 9 से 15 प्रतिशत प्रोटीन 70 से 72 प्रतिशत कार्बोहाइर्डेटस तथा प्रचुर मात्रा में खनिज तत्व व विटामिन भी पाये जाते हैं गेहूँ का उपयोग जहाँ मनुष्यों के भोजन के रूप में किया जाता है वहाँ इसे बीज के रूप में पशुओं को खिलाने के लिये तथा कुछ भाग विभिन्न उद्योगों में स्टार्च आदि बनाने के काम भी आता है। एक अनुमान के अनुसार गेहूँ का उपयोग 74 प्रतिशत मनुष्यों के भोजन में 11 प्रतिशत बीज के रूप में तथा 15 प्रतिशत पशुओं का भोजन औद्योगिक उपयोग तथा व्यर्थ में प्रयुक्त होता है। गेहूँ की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में अलग-अलग मत है। डी. कन्डोले के मतानुसार गेहूँ का जन्म स्थान दजला और फरात की घाटियाँ हैं जहाँ से चीन, मिस्र तथा अन्य देशों में गया। राबर्ट ब्रेड बुट ने गेहूँ के कार्बन युक्त दानें इराक के जार्मो नामक स्थान से प्राप्त किये जो 6700 वर्ष पुराने बताये जाते हैं बेबीलोन के मतानुसार ड्यूरम (कडे) गेहूँ की उत्पत्ति अबीसीनिया तथा कोमल गेहूँ का जन्म स्थान भारत तथा अफगानिस्ता है। अधिकांश तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गेहूँ की उत्पत्ति दक्षिणी पश्चिमी एशिया में हुई।

अध्ययन क्षेत्र में गेहूँ एक प्रमुख खाद्य फसल है। जिसके अंतर्गत शुद्ध बोये गये क्षेत्र का 60 प्रतिशत से अधिक भाग इस फसल के लिये प्रयुक्त किया जाता है। जनपद में इसकी अनेकों किस्में बोयी जाती हैं जिसमें ऊँची बढ़वार वाली जातियाँ के65, के68, सी306, के78 तथा के72 प्रमुख रूप से उगायी जाती है। जबकि बौनी जातियों में लरमा रोजो सोनारा-63 एस 227 यूपी-2003 एचडी 2004 रोहनी मालवीय 37 यूपी 262 चंडी 2210, यूपी 115 कुंदन, सुजाता, मुक्ता, मेघदूत, कल्याण सोना, मालवीय 55, सीयान 2016, यूपी 2402 जातियाँ प्रमुख रूप से प्रयोग में लायी जाती है इसकी खेती सभी प्रकार की भूमियों पर की जा सकती है। 5.0 से 7.50 पीएच मान वाली भूमियाँ गेहूँ के लिये सर्वाधिक उपयुक्त है। गेहूँ की बौनी जातियों में प्रोटीन की मात्रा 13 से 16 प्रतिशत तथा ऊँची बाढ़ वाली जातियों में 9 से 12 प्रतिशत होती है। अब तक गेहूँ की एक जीन वाली (110 से 120 सेमी ऊँची) दो जीन वाली (100 से 110 सेमी ऊँची) तथा तीन जीन वाली (70 से 90 सेमी ऊँची) जातियाँ विकसित की जा चुकी है।

2. जौ :-


संसार के विभिन्न भागों में जौ की खेती प्राचीन काल से ही की जा रही है इसका प्रयोग प्राचीन काल से मनुष्यों के भोजन तथा जानवरों के रातिब के लिये किया जा रहा है।

हमारे देश में जौ का प्रयोग रोटी बनाने के लिये शुद्ध रूप में या चने के साथ अथवा गेहूँ के साथ मिलाकर किया जाता है कहीं-कहीं इसको भूनकर चने (भुना हुआ) के साथ पीसकर सत्तु के रूप में भी प्रयोग करते हैं। इसके साथ ही जौ को शराब बनाने के काम में भी प्रयोग किया जाता है। जौ के दाने में 11 से 12 प्रतिशत प्रोटीन 1.8 प्रतिशत वसा, 0.42 प्रतिशत फास्फोरस, .08 प्रतिशत कैल्शियम तथा 5 प्रतिशत रेसा भी पाया जाता है।

अध्ययन क्षेत्र में जौ भी रबी की प्रमुख फसल है। लेकिन गेहूँ के फसल के क्षेत्रफल में विस्तार के साथ जौ के क्षेत्रफल में कमी होती जा रही है यह फसल अधिकांश असिंचित क्षेत्रों में उगाई जाती है क्योंकि इस फसल को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 1971 में इस फसल का जनपद में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है और यह 44972 हे. अर्थात रबी फसल के क्षेत्रफल के लगभग 27 प्रतिशत क्षेत्र में बोयी जाती थी। परंतु इसके उपरांत सिंचाई तथा उर्वरकों की सुविधा में वृद्धि के साथ इस फसल क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण गिरावट आयी है जिसका कारण गेहूँ की फसल का प्रतिस्थापन इस फसल के स्थान पर होना है। 70 के दशक तथा इस फसल का उत्पादन खाद्यान्न आपूर्ति के रूप में किया जाता था परंतु अब लोगों के खान-पान में परिवर्तन के साथ इसका स्थान गेहूँ ने ले लिया है अब इस फसल को खाद्य की दृष्टि से निकृष्ट खाद्यान्न की श्रेणी में समझा जाने लगा है। जनपद में जौ की अनेकों किस्में बोयी जाती हैं जिनमें ज्योति, जाग्रति, करण 19, विजया, आजाद, रतना, करण 18 जातियाँ प्रमुख रूप से उगाई जाती हैं।

तालिका क्रमांक 4.4

विकासखंड स्तर पर गेहूँ तथा जौर का वितरण 1995-96 (हे.)

विकासखंड

रबी फसल का कुल क्षेत्रफल

गेहूँ

जौ

क्षेत्रफल

प्रतिशत

क्षेत्रफल

प्रतिशत

कालाकांकर

9585

8549

89.19

118

1.23

बाबागंज

11999

11291

94.10

136

1.13

कुण्डा

12435

10820

87.01

407

3.27

बिहार

12388

11534

93.11

151

1.22

सांगीपुर

12673

10191

80.42

332

2.62

रामपुरखास

14512

12791

88.14

256

2.76

लक्ष्मणपुर

9175

7849

85.55

261

2.84

संडवा चंद्रिका

9541

6706

70.28

541

5.67

प्रतापगढ़ सदर

7625

5285

69.31

418

5.48

मान्धाता

10745

8749

81.42

152

1.41

मगरौरा

12629

11048

87.48

198

1.57

पट्टी

9203

8330

90.51

62

0.67

आसपुर देवसरा

11025

10234

92.83

90

0.81

शिवगढ़

10369

7592

73.22

326

3.14

गौरा

12307

11084

90.06

107

0.87

योग ग्रामीण

166211

142053

85.47

3555

2.14

योग नगरीय

866

785

90.65

30

3.46

योग जनपद

167077

142838

85.49

3585

2.15

2. रबी मौसम के अंतर्गत दलहनी फसलें :-

तालिका क्रमांक 4.5

विकासखंड स्तर पर दलहनी फसलों का वितरण 1995-96 (हे.)

विकासखंड

चना

मटर

क्षेत्रफल

प्रतिशत

क्षेत्रफल

प्रतिशत

कालाकांकर

257

2.68

134

1.40

बाबागंज

86

0.72

316

2.63

कुण्डा

686

5.52

244

1.96

बिहार

174

1.40

287

2.32

सांगीपुर

986

7.78

604

4.77

रामपुरखास

410

2.83

398

2.74

लक्ष्मणपुर

396

4.32

248

2.70

संडवा चंद्रिका

1315

13.78

364

3.82

प्रतापगढ़ सदर

1134

14.87

287

3.76

मान्धाता

338

3.15

281

2.62

मगरौरा

680

5.38

483

3.82

पट्टी

432

4.69

382

4.15

आसपुर देवसरा

379

3.44

402

3.65

शिवगढ़

1237

11.93

280

2.70

गौरा

338

2.75

385

3.13

योग ग्रामीण

8848

5.32

5095

3.07

योग नगरीय

62

7.16

26

3.00

योग जनपद

8910

5.33

5121

3.0065

अ. चना :-


इस देश में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में चना सबसे पुरानी और महत्त्वपूर्ण फसल है चने का प्रयोग दाल रोटी, स्वादिष्ट मिठाईयाँ नमकीन बनाने तथा सब्जियों के रूप में किया जाता है चने का सेवन करने से मनुष्य के शारीरिक विकास उचित व उचित पोषण के लिये इसमें प्रोटीन 21 प्रतिशत तथा आवश्यक अमीनों अम्ल कार्बोहाइड्रेट तथा खनिज लवण पाये जाते हैं। वसा 4.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट 61.5 प्रतिशत कैल्शियम 1.49 प्रतिशत लोहा 0.072 प्रतिशत राइबोफ्लेविन 0.09 प्रतिशत तथा नियासिन 0.023 प्रतिशत प्राप्त होता है। चना ठंडे व शुष्क मौसम की फसल है। बहुत अधिक शर्दी व पाला चने के लिये हानिकारक होता है। चने की खेती अधिकांश असिंचित क्षेत्रों में की जाती है। अधिक उपजाऊ भूमि इस फसल के लिये अच्छी नहीं होती है। क्योंकि ऐसी भूमि पर पौधों की बढ़वार तो अधिक होती है परंतु फलियाँ कम लगती हैं।चना जनपद की दलहनी फसलों में फसल है। यह अधिकतम धान के खेतों में धान की फसल काटने के बाद बोया जाता है कहीं-कहीं बाजरे की फसल कटने के बाद उसी खेत में चना बो दिया जाता है। इनकी अनेकों किस्में अध्ययन क्षेत्र में बोयी जाती है जिनमें से टाइप-3 राधे, के 468, पंतजी 114, पूसा 408, गौरव, काबुली के 4, काबुली के 5, काबुली एल. 550 पूसा 417 आदि प्रमुख है।

ब. मटर :-


शरद कालीन सब्जियों में मटर का एक प्रमुख स्थान है मटर में केवल 22.0 प्रतिशत प्रोटीन ही नहीं होता है बल्कि वसा 1.8 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट 62.1 प्रतिशत कैल्शियम 0.64 प्रतिशत लोहा 0.048 प्रतिशत तथा नियासिन 0.024 प्रतिशत पाया जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार सब्जी मटर की मूल उत्पत्ति स्थल इथोपिया है। दानें वाली मटर के पौधे इटली के जंगलों में पाये गये हैं बेबीलोन का मत है कि इसकी उत्पत्ति स्थल इटली व पश्चिमी भारत के बीच कहीं हुआ होगा। मटर के लिये शुष्क तथा ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। मटर की वृद्धिकाल में अधिक वर्षा हानिकारक होती है। फसल पकने के समय उच्च ताप तथा शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है। अच्छे जल निकास वाली दोमट या हल्की दोमट भूमि जिसका पीएच मान 6 से 7.5 के बीच हो मटर के लिये सर्वोत्तम मानी जाती है।

जनपद में दलहनी फसलों में मटर भी एक प्रमुख स्थान रखती है यह कम लागत पर अच्छी उपज देने वाली फसल है। मटर का ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों में उपभोग अधिक होता है। हरे दानों का प्रयोग सब्जियों में तथा सूखे दानों का प्रयोग दालों, छोले तथा चाट आदि में किया जाता है। इसकी अनेकों किस्में अध्ययन क्षेत्र में बोई जाती हैं जिनमें से रचना, स्वर्ण रेखा, किन्नड़ी, आर्केल, कोनविले, पंत उपहार, जवाहर-4 आर्लीबैजर हंस तथा असौनी जातियाँ प्रमुख हैं।

तालिका क्रमांक 4.6

विकासखंड स्तर पर तिलहनी फसलों का वितरण 1995-96 (हे.)

विकासखंड

लाही/सरसों

अन्य तिलहन

कुल तिलहन

क्षेत्रफल

रबी का प्रतिशत

क्षेत्रफल

रबी का प्रतिशत

क्षेत्रफल

रबी का प्रतिशत

कालाकांकर

99

1.03

96

1.00

195

2.03

बाबागंज

49

0.41

86

0.72

135

1.13

कुण्डा

246

1.98

57

0.46

303

2.44

बिहार

85

0.69

27

0.22

112

0.91

सांगीपुर

194

1.53

107

0.84

301

2.37

रामपुरखास

138

0.96

233

1.61

371

1.56

लक्ष्मणपुर

98

1.07

37

0.40

135

1.47

संडवा चंद्रिका

177

1.86

125

1.31

302

3.17

प्रतापगढ़ सदर

123

1.61

75

0.98

198

2.59

मान्धाता

149

1.39

21

0.20

170

1.59

मगरौरा

222

1.76

62

0.49

284

2.25

पट्टी

152

1.65

43

0.47

195

2.12

आसपुर देवसरा

188

1.71

22

0.20

210

1.91

शिवगढ़

165

1.59

84

0.81

249

2.40

गौरा

69

0.56

35

0.28

104

0.87

योग ग्रामीण

2154

1.30

1110

0.67

3264

1.97

योग नगरीय

24

2.77

02

0.23

26

3.00

योग जनपद

2178

1.304

1112

0.665

3290

1.969

3. तिलहनी फसलें :-

4. अन्य फसलें :-

अ. गन्ना :-


भारत में शर्करा के प्रमुख स्रोत के रूप में गन्ने की खेती प्राचीन काल से होती आई है। गन्ने का उपयोग विभिन्न रूपों में किया जाता है। इससे चीनी गुड़ खांड के अतिरिक्त शीरा भी मिलता है जो तंबाकू, अल्कोहल यीष्ट तथा पशुओं के आहार बनाने के रूप में काम आता है। गन्ने का हरा अगोला पशुओं के चारें के रूप में तथा सूखी पत्ती र्इंधन और छावनी के लिये प्रयोग की जाती है। गन्ने की खोई से कार्डबोर्ड और मोटा कागज बनाया जाता है। भारत में गन्ने की खेती प्राचीन काल से होती आ रही है। कुछ ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत में गन्ने की कृषि ऋगवेद काल (2500-1400 ई. पूर्व) में की जाती थी। जब सिकंदर ने भारत पर आक्रमण (326 ई. पूर्व) किया था तो उसके सैनिकों ने नरकुल जैसे पौधों के तने को चूसा था जिसमें मिठास थी इन्हीं तथ्यों के आधार पर कहा जाता सकता है कि गन्ने की उत्पत्ति केंद्र भारत है। गन्ना लगभग सभी प्रकार की भूमियों पर उगाया जाता है। 6.1 से 7.5 पीएच मान वाली भूमियाँ इसके लिये सर्वोत्तम रहती हैं। अध्ययन क्षेत्र में इसकी अनेकों किस्में बोई जाती हैं। जिनमें से को-1148, को-1158, को-7321, को. शा. 510 को.शा. 770, 802, बी.ओ. 54, 70, पंत 84211, पंत 84215, कोशा 758, को. 395 तथा को.शा. 687 प्रमुख रूप से उगाई जाती है।

ब. आलू :-


वर्ष भर प्राप्त होने वाली सब्जियों में आलू का प्रमुख स्थान है। आलू एक पूर्ण भोजन है, इसमें 22.6 प्रतिशत काबोहाइड्रेटस 1.6 प्रतिशत प्रोटीन, 0.1 प्रतिशत वसा तथा 0.6 प्रतिशत खनिज पदार्थ पाया जाता है। आलू के प्रोटीन में अधिकतर खाद्यान्नों की अपेक्षा शरीर के लिये आवश्यक अमीनों अम्ल में से एक नियासिन की मात्रा अधिक होती है। विटामिन बी तथा सी भी बहुतायत होती है। आलू से ग्लूकोज, स्टार्च, शराब, कागज साइट्रिक अम्ल तैयार किये जाते हैं। आलू का उत्पत्ति स्थल दक्षिणी अमेरिका है जहाँ से यह यूरोप तथा अन्य देशों में फैला। भारत में आलू सत्रहवीं सताब्दी में पुर्तगालियों द्वारा लाया गया (1915 में सर थामस रो की दावत में पहली बार आलू का प्रयोग किया गया था। आलू की खेती के लिये ठंडी जलवायु, बलुई दोमट या दोमट भूमि जो अच्छे जल निकास वाली हो, सर्वोत्तम रहती है।हल्की अम्लीय भूमि जिसका पीएचमान 6.0 के मध्य हो, अच्छी उपज मिलती है। अध्ययन क्षेत्र में बुफरी चंद्रमुखी (ए. 2708) कुफरी बहार, (ई. 3797) बुफरी नवताल (जे.2524) बुफरी बादशाह (जे.एस.4870) कुफरी किसान बुफरी शीतमान (सी 745) बुफरी चमत्कार (ओ.एन. 1202) आदि प्रमुख रूप से उगाई जाती है।

स. अन्य सब्जियाँ :-


रबी मौसम में सब्जियों की फसलों में प्याज, टामाटर, बैगन, फूलगोभी, पत्तागोभी, मिर्च, मूली, गाजर तथा शकरकंद प्रमुख रूप से उगाई जाती है। पालक तथा मेथी भी सीमित क्षेत्र में उगाई जाती है।

द. चारा फसलें :-


चारा फसलों में जई रिजका तथा बरसीम का प्रमुख स्थान है। जई एक पौष्टिक चारा है जो कि सभी वर्गों में पशुओं को अधिक मात्रा में खिलाया जा सकता है प्रोटीन इसमें अपेक्षाकृत कम होती है। इसकी केंट फ्लेमिंग गोल्ड तथा यू.पी.ओ. 94 किस्में अधिकांश बोयी जाती हैं। यह मक्का, धान के बाद आसानी से उगाई जा सकती है। भूमि का पी.एच मान 6.0 या इससे अधिक होना चाहिए। इसकी मेसकवी तथा पूसा ज्वाइंट किस्में प्रमुख रूप से उगाई जाती है।

तालिका क्रमांक 4.7

विकासखंड स्तर पर सब्जियाँ तथा अन्य फसलों का वितरण 1995-96

विकासखंड

गन्ना

सब्जियाँ

चारा फसलें

अन्य फसलें

आलू

अन्य

कालाकांकर

63

339

97

65

27

बाबागंज

35

482

76

78

20

कुण्डा

38

448

182

52

56

बिहार

51

483

84

76

41

सांगीपुर

68

419

71

60

48

रामपुरखास

75

607

174

58

52

लक्ष्मणपुर

39

400

9

26

35

संडवा चंद्रिका

131

403

74

17

22

प्रतापगढ़ सदर

21

351

108

18

20

मान्धाता

95

947

82

44

32

मगरौरा

449

490

120

54

44

पट्टी

510

386

54

42

30

आसपुर देवसरा

813

451

91

100

46

शिवगढ़

220

499

88

44

31

गौरा

413

674

46

68

28

योग ग्रामीण

3021

7579

1354

802

532

योग नगरीय

-

56

28

7

10

योग जनपद

3021

7635

1382

809

542

ब. खरीफ की प्रमुख फसलें :-


ऊँचे तापक्रम तथा आर्द्र वायुमंडलीय दशाओं में खरीफ मौसम प्रारंभ होता है। इस मौसम की फसलें जून-जुलाई में बोयी जाती है और अक्टूबर नवंबर तक पक कर तैयार हो जाती है। इस दृष्टि से देखा जाये तो अध्ययन क्षेत्र में खरीफ की फसलों में धान, ज्वार, बाजरा तथा मक्का आदि खाद्यान्न फसलों की प्रमुख फसलें हैं जबकि दलहनी फसलों में उड़द मूंग तथा अरहर प्रमुख रूप से उगाई जाती है। कुछ कृषकों ने सोयाबीन को भी उगाना प्रारंभ किया है इसके अतिरिक्त इस मौसम में सब्जियाँ भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। जनपद में खरीफ फसलों का विवरण निम्नवत है :-

1. धान :-


धान फसल जनपद में उगाई जाने वाली एक महत्त्वपूर्ण फसल है। चावल अन्य धान्य फसलों से कैलोरी एवं भोजनात्मक मान के दृष्टिकोण से कम नहीं है इसमें 7.7 प्रतिशत प्रोटीन 72.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेटस (स्टार्च) 2.2 प्रतिशत वसा 11.8 प्रतिशत शेलयूलोज पाया जाता है। जनपद के सकल बोये गये क्षेत्रफल के लगभग 32 प्रतिशत क्षेत्रफल पर तथा खरीफ फसल के लगभग 67 प्रतिशत क्षेत्रफल पर धान फसल का विस्तार है वर्ष में उगाई जाने वाली फसलों में गेहूँ के बाद इस फसल का स्थान आता है जबकि खरीफ मौसम की विभिन्न फसलों में इसका एकाधिकार जैसा है भोजन के रूप में प्रयोग करने के अतिरिक्त चावल का प्रयोग विभिन्न उद्योगों में भी किया जाता है। चावल में पाये जाने वाले स्टार्च का प्रयोग कपड़ा उद्योग में विशेष रूप से किया जाता है। धान के सूखे पौधों को काँच का सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजते समय पैकिंग में प्रयोग किया जाता है हरे पौधों को चारे के रूप में तथा सूखे पौधों को निर्धन लोग बिछावन के रूप में प्रयोग करते हैं।

धान की अच्छी उपज के लिये अधिक वर्षा तथा अधिक नमी की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में 100 सेमी से कम वर्षा होती है वहाँ पर कृत्रिम सिंचाई की आवश्यकता होती है इसलिये कम वर्षा वाले क्षेत्रों में यदि सिंचाई की कृत्रिम सुविधा उपलब्ध होगी तभी धान की अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है।

साथ ही इस फसल को पानी की अधिक आवश्यकता होती है इसलिये पानी का मूल्य कम होना चाहिए अन्यथा उत्पादन लागत बढ़ जाने के कारण यह फसल लाभदायक नहीं रह जायेगी। और यही कारण है कि विभिन्न विकासखंडों में सिंचाई सुविधाओं में भिन्नता के कारण इस फसल के क्षेत्रीय वितरण में भिन्नता देखने को मिलती है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इस फसल क्षेत्र को प्रभावित करता है वह है उस क्षेत्र की मिट्टी। धान की खेती के लिये भारी भूमि की आवश्यकता होती है। जिसमें पानी रोकने की क्षमता अधिक होती है। चिकनी दोमट मिट्टी धान की खेती के लिये सर्वोत्तम मानी जाती है। 6.5 पीएच मान वाली भूमि इसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त होती है।

धान की उत्पत्ति के विषय में भिन्न मत हैं अनेक भारतीय विद्वानों का मत है कि धान का जन्म स्थान भारत वर्ष, वर्मा तथा इण्टो चाइना हो सकता है क्योंकि धान की जंगली जातियाँ भारत वर्ष तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया में बहुतायत में पाई जाती है हिंदुओं के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋगवेद में भी चावल का वर्णन पाया जाता है। घोष और उनके सार्थी पाक सार्थी 1960 के अनुसार चावल का प्राचीनतम अवशेष उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर ग्राम की खुदाई से प्राप्त हुआ है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की खुदाइयों से प्राप्त अवशेषों के आधार पर भारत वर्ष में चावल ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से ही उगाया जाता है। बेबीलोन 1926 के मतानुसार भारत तथा वर्मा दोनों ही चावल के जन्म स्थान हैं।

जनपद में धान की खेती के दो प्रकार प्रचलित हैं।

1. खेत में धान की पौध की रोपाई करके :-

यह विधि उन्हीं क्षेत्रों में अपनाई जाती है जहाँ पर पानी की उचित व्यवस्था होती है। या वर्षाकाल में धान लगाने वाले खेतों में पानी इकट्ठा हो जाता है तथा श्रम भी सरलता से उपलब्ध हो जाता है।

2. खेत में सीधी बोआई करके :-


सीधी बुआई की दशा में शीघ्र पकने वाली जातियाँ जैसे साकेत-4, गोविंद, कावेरी, वाला तथा नगीना-22 आदि उगाई जाती है। जनपद में धान की कई जातियाँ उगाने का प्रचलन है। इनमें देशी जातियों में बासमती, हंसराज, रामभोग, लकड़ा, श्यामजीरा, लटेरा तथा इंद्रासन प्रमुख हैं जबकि उन्नति किस्म की जातियों में नगीना 22 गोविंद प्रसाद, पूसा-33 साकेत-4, कावेरी, रत्ना, पद्यमा, सरजू-49 विजया, जया, कृष्णा, आईआरआठ तथा जयंती प्रमुख रूप से उगाई जाती है।

2. मोटे अनाज :-


हमारे देश में ज्वार बाजारा, तथा मक्का मोटे अनाज के रूप में जाने जाते हैं ये फसलें न केवल मनुष्यों को खाद्यान्न ही उपलब्ध कराती हैं बल्कि पशुओं के लिये सूखा चारा की आपूर्ति करती है। ज्वार तथा बाजरा के पौधे लगभग एक समान ऊँचाई के होते हैं परंतु मक्का का पौधा ऊँचाई में कम होता है इन फसलों का भी खरीफ मौसम में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि तीनों की भागीदारी हो तो इन तीनों फसलों की खरीफ में भागेदारी लगभग 13 प्रतिशत है।

ज्वार :-

डींकडोल तथा हूकर के अनुसार :-

ज्वार का उत्पत्ति स्थान अफ्रीका है जबकि बर्थ के अनुसार भारत व अफ्रीका है। बेबीलोन इसके उत्पत्ति स्थान को अबीसिनिया मानते हैं ज्वार गर्म जलवायु की फसल है 30 से 100 सेमी वर्षा वाले स्थानों में ज्वार की खेती की जाती है। 25 अंश सेंटीग्रेड से 35 अंश सेंटीग्रेड तापमान इस फसल के अनुकूल पड़ता है। इसके फूल पड़ते समय तथा परागकण के समय वर्षा हानिकारक होती है। अध्ययन क्षेत्र में देशी जातियों में वर्षा टाइप-22 मऊ टाइप-1 तथा उन्नतिशील जातियों में एसपीएच 196 सीएसएच-5 सीएसएच-9 सीएसबी-1 प्रमुख रूप से उगाई जाती है।

बाजरा :-

मक्का :-

तालिका क्रमांक - 4.8

विकासखंड स्तर पर धान तथा मोटे अनाज का वितरण 1995-96 हे. में

विकासखंड

कुल खरीफ फसल का क्षेत्रफल

धान

ज्वार

बाजरा

मक्का

कालाकांकर

9608

7930

(82.54)

208

(2.16)

231

(2.40)

2

(0.02)

बाबागंज

12855

11438

(88.98)

136

(1.06)

1237

(0.99)

-

(0.0)

कुण्डा

11962

8867

(74.13)

516

(4.31)

1301

(10.88)

5

(0.04)

बिहार

12991

12436

(95.73)

124

(0.95)

386

(2.97)

1

(0.007)

सांगीपुर

12402

5365

(43.26)

1412

(11.39)

648

(5.22)

2

(0.016)

रामपुरखास

14998

12683

(84.56)

382

(2.55)

460

(3.07)

31

(0.21)

लक्ष्मणपुर

8488

5328

(62.77)

356

(4.19)

1262

(14.87)

4

(0.05)

संडवा चंद्रिका

8492

2228

(26.24)

838

(9.87)

1874

(22.07)

12

(0.14)

प्रतापगढ़ सदर

8097

1628

(20.11)

705

(8.71)

2349

(29.01)

43

(0.53)

मान्धाता

10426

7462

(71.57)

206

(1.98)

1423

(13.65)

6

(0.06)

मगरौरा

14912

9949

(66.72)

224

(1.50)

891

(5.98)

94

(0.63)

पट्टी

10157

8341

(81.92)

130

(1.28)

484

(4.77)

502

(4.94)

आसपुर देवसरा

11603

6938

(59.79)

381

(3.28)

156

(1.35)

1037

(8.94)

शिवगढ़

8692

4027

(46.33)

234

(2.69)

1984

(22.83)

216

(2.49)

गौरा

11465

6938

(60.51)

108

(0.94)

334

(2.91)

124

(1.08)

योग ग्रामीण

167148

111538

(66.73)

5960

(3.57)

13910

(8.32)

2079

(1.24)

योग नगरीय

653

367

(56.20)

48

(7.35)

87

(13.32)

3

(0.46)

योग जनपद

167801

111905

(66.69)

6008

(3.58)

13997

(8.34)

2082

(1.24)

(कोष्टक में दिये गये समंक प्रतिशत दर्शा रहे हैं।)

सारिणी 4.8 जनपद में विकासखंड स्तर पर खरीफ मौसम की फसलों को प्रदर्शित कर रही है। खरीफ मौसम में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण फसल धान की है। जो 66.69 प्रतिशत पर अपनी भागेदारी प्रदर्शित कर रही है दूसरा स्थान बाजरा का है जो केवल 8.34 प्रतिशत की भागेदारी कर रहा है। ज्वार का स्थान जनपद में तीसरा है जो 3.58 प्रतिशत पर हिस्सेदारी प्रदर्शित कर रहा है। मक्का का स्थान मोटे अनाजों में न्यूनतम है। और यह फसल केवल 1.24 प्रतिशत ही भागेदारी कर पा रही है वैसे जैसे-जैसे सिंचाई के साधनों में वृद्धि हो रही है वैसे-वैसे ही धान के क्षेत्रफल में विस्तार हो रहा है जबकि मोटे अनाजों की फसलों का क्षेत्रफल घटता जा रहा है।विकासखंड स्तर में देखें तो धान की फसल का सर्वाधिक विस्तार बिहार विकासखंड में है जहाँ कुल खरीफ फसलों के 95.73 प्रतिशत क्षेत्रफल पर थान की फसल उगाई जाती है दूसरा स्थान बाबागंज विकासखंड का है जहाँ पर 88.98 प्रतिशत क्षेत्रफल पर धान की फसल आच्छादित है। प्रतापगढ़ सदर इस फसल के लिये न्यूनतम 20.11 प्रतिशत भागेदारी कर रहा है। इसके अतिरिक्त संडवा चंद्रिका तथा सांगीपुर क्रमश: 26.24 प्रतिशत तथा 43.26 प्रतिशत भागेदारी करके 50 प्रतिशत से कम की हिस्सेदारी पर स्थित है। अन्य विकासखंडों में शिवगढ़ भी 46.33 प्रतिशत धान की फसल को आवंटित करके लगभग आधे क्षेत्रफल को छूने का प्रयास कर रहा है अन्य विकासखंड 60 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल पर धान की फसल उगा रहे हैं केवल आसपुर देवसरा विकासखंड 59.79 प्रतिशत पर स्थित है।मोटे अनाजों में ज्वार बाजरा तथा मक्का तीनों फसलें संयुक्त रूप से खरीफ मौसम में 13.16 प्रतिशत क्षेत्रफल पर उगाई जाती हैं। जिसमें बाजरा सर्वाधिक क्षेत्र 8.34 प्रतिशत क्षेत्रफल पर उगाई जाती है जबकि ज्वार 3.58 प्रतिशत और मक्का केवल 1.24 प्रतिशत क्षेत्रफल पर उगाई जा रही है। विकासखंड स्तर पर बाजरा का सर्वाधिक क्षेत्रफल प्रतापगढ़ सदर में 29.01 प्रतिशत पाया जा रहा है। जबकि दूसरे स्थान पर शिवगढ़ विकासखंड स्थित है। जहाँ 22.83 प्रतिशत खरीफ फसल क्षेत्र पर बाजरा की फसल उगाई जा रही है। सडंवा चंद्रिका विकासखंड में 22.07 प्रतिशत क्षेत्र बाजरा फसल के लिये आवंटित करके शिवगढ़ का पीछा करता प्रतीत हो रहा है। इस दृष्टि से न्यूनतम भागेदारी बाबागंज विकासखंड कर रहा है जो इस फसल को 1 प्रतिशत से ही कम क्षेत्रफल छोड़ रहा है। अन्य विकासखंडों में न्यूनाधिक बाजरा फसल भागेदारी कर रही है। मोटे अनाजों में ज्वार फसल ही जनपद में महत्त्वपूर्ण रही है। परंतु कृषि की नयी तकनीकी के कारण मोटे अनाजों की फसलों का स्थान घटता जा रहा है। ज्वार की फसल भी कृषि की नई तकनीकि के कारण प्रभावित हुई है। और अब इस फसल का क्षेत्रफल घटकर मात्र 3.58 प्रतिशत रह गया है। ज्वार की फसल की दृष्टि से सांगीपुर विकासाखंड 11.39 प्रतिशत क्षेत्रफल पर ज्वार की फसल उगाकर सर्वोच्च स्थान पर है। संडवा चंद्रिका 9.87 प्रतिशत क्षेत्रफल पर इस फसल को बोकर द्वितीय स्थान पर है। विकासखंड तथा गौरा विकासखंड क्रमश: 0.95 प्रतिशत तथा 0.94 प्रतिशत क्षेत्रफल रखकर लगभग एक समान न्यूनतम स्थिति में स्थित है। मक्का का स्थान जनपद में अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है केवल आसपुर देवसरा तथा पट्टी विकासखंडों में ही यह क्रमश: 8.94 प्रतिशत तथा 4.94 प्रतिशत क्षेत्रफल पर ही उगाई जाती है। अन्य विकासखंडों में मक्का की भागेदारी 1 प्रतिशत से भी कम है। और बाबागंज विकासखंड तो मक्का रहित विकासखंड है।

खरीफ की दलहनी फसलें :-

1. अरहर :-

2. उड़द/मूंग :-

तालिका क्रमांक - 4.9

विकासखंड स्तर पर दलहनी फसलों का वितरण 1995-96 हे. में

विकासखंड

उड़द

मूंग

अरहर

कालाकांकर

632

6.58

345

3.59

421

4.38

बाबागंज

493

3.84

342

2.66

255

1.98

कुण्डा

406

3.39

183

1.53

1273

10.64

बिहार

704

5.42

543

4.18

419

3.23

सांगीपुर

1684

13.58

150

1.21

1395

11.25

रामपुरखास

1116

7.44

284

1.89

799

5.33

लक्ष्मणपुर

552

6.50

62

0.73

875

10.31

संडवा चंद्रिका

894

10.53

139

1.64

1650

19.43

प्रतापगढ़ सदर

668

8.25

102

1.26

1766

21.81

मान्धाता

781

7.49

122

1.17

850

8.15

मगरौरा

338

2.27

188

1.26

1086

7.28

पट्टी

232

2.28

200

1.97

773

7.61

आसपुर देवसरा

246

2.12

146

1.26

561

4.83

शिवगढ़

381

4.38

193

2.22

2045

23.53

गौरा

692

6.04

437

3.81

417

3.64

योग ग्रामीण

9819

5.87

3436

2.05

14585

8.73

योग नगरीय

33

5.05

29

4.44

94

14.40

योग जनपद

9852

5.87

3465

2.06

14679

8.75

4. अन्य फसलें :-

3. जायद की फसलें :-

सस्य विभेदीकरण :-

अध्ययन क्षेत्र में विकासखंड स्तर पर सस्य विभेदीकरण सूचकांक

क्र.

विकासखंड

फसलों की संख्या

विभिन्न फसलों के अंतर्गत बोये जाने वाले क्षेत्र का प्रतिशत

सस्य विभेदीकरण सूचकांक

1

कालाकांकर

2

80.36

40.18

2

बाबागंज

2

87.99

43.99

3

कुण्डा

4

85.41

21.35

4

बिहार

2

89.22

44.61

5

सांगीपुर

6

82.06

13.68

6

रामपुरखास

3

86.73

28.91

7

लक्ष्मणपुर

4

82.92

20.73

8

संडवा चंद्रिका

7

84.90

12.13

9

प्रतापगढ़ सदर

7

82.45

11.78

10

मान्धाता

6

90.79

15.13

11

मगरौरा

4

80.94

20.23

12

पट्टी

3

87.34

29.11

13

आसपुर देवसरा

3

77.41

25.80

14

शिवगढ़

5

86.15

17.23

15

गौरा

2

73.43

36.71

अध्ययन क्षेत्र में विकासखंड स्तर पर सस्य विभेदीकरण सूचकांक

सारिणी क्रमांक 4.12 विकासखंड स्तर पर सस्य विभेदीकरण

सस्य विभेदीकरण सूचकांक

सस्य विभेदीकरण की श्रेणी

विकासखंड

10 से कम

अति उच्च

कोई नहीं

10 से 20

उच्च

1. सांगीपुर 2. संडवा चंद्रिका 3. प्रतापगढ़ सदर 4. शिवगढ़ 5. मांधाता

20 से 30

मध्यम

1. कुंडा 2. रामपुरखास 3. लक्ष्मणपुर 4. मगरौरा 5. पट्टी 6. आसपुर देवसरा

30 से 40

निम्न

1. गौरा

40 से अधिक

अति निम्न

1. कालाकांकर 2. बाबागंज 3. बिहार

स. सस्य संयोजन :-


सस्य संयोजन के अंतर्गत किसी क्षेत्र विशेष में उत्पन्न की जाने वाली सभी फसलों का अध्ययन होता है किसी इकाई क्षेत्र में एक या दो विशिष्ट फसलें होती हैं और उन्हीं के साथ अन्य अनेक गौण फसलें भी पैदा की जाती है कृषक मुख्य फसल के साथ ही कोई न कोई खाद्यान्न दलहन, तिलहन या रेसेदार फसल की खेती करते हैं प्राय: यह भी देखने को मिलता है कि यदि विशिष्ट क्षेत्र में दलहन या तिलहन फसल प्रथम वरीयता क्रम में है तो इसके साथ ही कृषक कोई न कोई खाद्यान्न फसल अवश्य ही उत्पन्न करता है इस प्रकार किसी क्षेत्र या प्रदेश में उत्पन्न की जाने वाली प्रमुख फसलों के समूह को सस्य संयोजन कहते हैं कृषि प्रदेशीयकरण के अध्ययन में फसल प्रतिरूप के प्रादेशिक अध्ययन के साथ ही सस्य संयोजन का अध्ययन महत्त्वपूर्ण होता है इससे कृषि की क्षेत्रीय विशेषताओं को आसानी से समझा जा सकता है। अत: सस्य संयोजन प्रदेशों का निर्धारण उन फसलों के स्थानिक वर्चस्व के आधार पर किया जाता है जिनमें क्षेत्रीय सह संबंध पाया जाता है एवं जो साथ-साथ विभिन्न रूपों में उगाई जाती है फसलों के ऐसे अध्ययन से कृषि प्रकृति पद्धति और उसकी विशेषताओं के आधार पर कृषि प्रदेशीकरण हेतु उपागम प्राप्त होते हैं सस्य संयोजन प्रदेशों के अध्ययन से जहाँ एक तरफ क्षेत्रीय कृषि विशेषताओं के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है वहीं वर्तमान कृषि समस्याओं के निराकरण हेतु समुचित सुझाव दिये जा सकते हैं। किसी भी क्षेत्र के फसल संयोजन का स्वरूप मुख्यत: उस क्षेत्र विशेष के भौतिक (जलवायु, जलप्रवाह, मृदा) तथा सांस्कृतिक (आर्थिक, सामाजिक तथा संस्थागत) वातावरण की देना होता है। यह मानव तथा भौतिक वातावरण के सम्बंधों को प्रदर्शित करता है।

सस्य संयोजन से संबंधित सर्वप्रथम जॉन बीबर महोदय ने महत्त्वपूर्ण प्रयास किया इन्होंने फसलों से संबंधित अध्ययन को एक नई दिशा दी। इनका सूत्र कुल फसल क्षेत्र से अनेक फसलों को अधिकृत प्रतिशत द्वारा तथा कुल क्षेत्र के सैद्धांतिक वितरण जिसमें संपूर्ण फसल क्षेत्र को बराबर अनेक भागों में विभाजित किया है कि तुलनात्मक विधि पर आधारित है। थॉमस 17 से बीवर महोदय के सूत्र में सुधार प्रस्तुत किया। थॉमस ने प्रत्येक संयोजन में सभी फसलों के वास्तविक तथा सैद्धांतिक प्रतिशत के अंतर के आधार पर गणना की शेष फसलों की गणना शून्य से विचलन के आधार पर की।

भारत में सर्वप्रथम वनर्जी 18 ने पश्चिमी बंगाल के लिये बीवर महोदय की संसोधित विधि को अपनाया। हरपाल सिंह ने पंजाब मैदान के मालवा क्षेत्र के सस्य संयोजन का निर्धारण करते समय बीवर की विधि को अपनाया। ई. दयाल ने पंजाब मैदान के सस्य संयोजन प्रदेशों का परिसीमन के उद्देश्य से एक नई विधि को अपनाया। प्रत्येक क्षेत्रीय इकाई में मुख्य फसलों के चयन हेतु 50 प्रतिशत मापदंड का प्रयोग किया दूसरे शब्दों में कुल फसल क्षेत्र के 50 प्रतिशत के अंतर्गत आने वाली फसलों को सस्य संयोजन विश्लेषण के लिये चुना गया। राम ने पूर्वी गंगा घाघरा के दोआब के फसलों के बदलते सस्य स्वरूप का अध्ययन करते समय सस्य साहचर्य प्रदेशों का निर्धारण किया है। अहमद तथा सिद्दीकी ने लूनी बेसिन के सस्य साहचर्य का अध्ययन कम विभिन्नता तथा सभी कृषि संभावना वाले प्रदेशों में समिश्रण विश्लेषण को दृष्टिगत रखते हुए किया है।

अध्ययन क्षेत्र में जनपदीय स्तर पर सस्य संयोजन का निर्धारण करने के लिये दोई, थॉमस तथा रफीउल्लाह की विधियों का प्रयोग किया है। किकू काजू दाई की विधि वीवर की ही संसोधित विधि है जिसमें दोई महोदय के ∑d2/n के स्थान पर ∑d2 को ही सस्य संयोजन का आधार माना। दोई महोदय की गणना के आधार पर अध्ययन क्षेत्र में सस्य संयोजन का निर्धारण करके यह पाया गया कि विकासखंड स्तर पर सस्य संयोजन के निर्धारण में इस विधि का प्रयोग किया जा सकता है। अध्ययन क्षेत्र में सस्य संयोजन की गणना करते समय उन फसलों को सम्मिलित किया गया है जिनका क्षेत्रफल सकल कृषि क्षेत्र में 2 प्रतिशत से अधिक की भागेदारी कर रहा है।

थॉमस ने वीवर के विचलन निकालने की विधि संशोधित किया है वीवर ने 2 सस्य समिश्रण में दो मुख्य फसलों के अंतर के आधार पर गणना की थी जबकि थॉमस महोदय ने प्रत्येक सस्य समिश्रण में सभी फसलों के लिये वास्तविक एवं सैद्धांतिक प्रतिशत के अंतर के आधार पर गणना की है। थॉमस के अनुसार जब दो सस्य समिश्रण में प्रत्येक फसल के अंतर्गत 50 प्रतिशत क्षेत्र है तो शेष फसलों के लिये शून्य प्रतिशत की कल्पना की जा सकती है। इस प्रकार इन्होंने सस्य समिश्रण की गणना प्रत्येक सस्य संयोजन में फसलों के सैद्धांतिक प्रतिशत में फसलों की संख्या के बाद शेष फसलों के लिये सैद्धांतिक प्रतिशत शून्य मानकर विचलन की गणना की और प्रत्येक सस्य संयोजन में सभी फसलों को सम्मिलित करके सस्य संयोजन का निर्धारण किया।

प्रो. रफीउल्लाह ने सस्य संयोजन निर्धारण के लिये अधिकतम सकारात्मक विधि को अपनाया इससे पूर्व सस्य संयोजन के निर्धारण में सभी फसलों को समान महत्त्व प्रदान किया गया था। प्रो. रफीउल्लाह को इस कमी को दूर करने का प्रयास किया। प्रो. रफीउल्लाह ने सस्य संयोजन निर्धारण के लिये निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया।

प्रो. रफीउल्लाह ने यह माना कि सकारात्मक तथा नकारात्मक विचलनों का अंतर सैद्धांतिक वक्र के माध्यिका मूल्य से होता है अत: उन्होंने सैद्धांतिक मान के मध्यमान से वास्तविक मान की गणना की है तथा सर्वाधिक धनात्मक मूल्य से सस्य समिश्रण को ज्ञात किया। रफीउल्लाह के सूत्र के आधार पर निकाले गये सस्य समिश्रण में फसलों की संख्या कम तथा वास्तविकता के अनुरूप है।

सारिणी क्रमांक 4.12 विकासखंड स्तर पर सस्य संयोजन का निर्धारण

अध्ययन क्षेत्र में तीनों सस्य संयोजन विधियों की तुलना :-

सारिणी क्रमांक 4.13

यथार्थ फसल श्रेणी तथा सस्य संयोजन में फसल श्रेणी

विकासखंड

फसलों का यथार्थ श्रेणीक्रम

सस्य संयोजन में फसलों का श्रेणीक्रम

दोई

थॉमस

रफीउल्लाह

कालाकांकर

W,R,Gg,Bg,G,P,M,

WR

WR

WR

बाबागंज

R,W,Gg,P,Pe

RW

RW

RW

कुण्डा

W.R.N.Bg.G.Gg.

WR

WR

WR

बिहार

R, W, Gg, P,Bg,M,

RW

RW

RW

सांगीपुर

W,R,Gg,J,Bg,

WRGg

WRGg

WRGg

रामपुरखास

W,R,Gg,Bg,P,

WR

WR

WR

लक्ष्मणपुर

W, R,N,Bg, Gg,

WR

WR

WR

संडवा चंद्रिका

WRMBgGGgJ

WR

WR

WR

प्रतापगढ़

WRMBgRGGg

MBgRWG

MBgRWG

MBgRWG

मान्धाता

WRMPGgBgG

WR

WR

WR

मगरौरा

WRBgNGGg

WR

WR

WR

पट्टी

WRBgMGgG

WR

WR

WR

आसपुर देवसरा

WRBgPPeGg

WR

WR

WR

शिवगढ़

WRBgN,GP

RWBgM

RWBgM

WRBg

गौरा

WRGg PBg Pe

WR

WR

WR

कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ

2

अध्ययन क्षेत्र की वर्तमान स्थिति

3

सामान्य भूमि उपयोग एवं कृषि भूमि उपयोग

4

सामान्य भूमि उपयोग एवं कृषि भूमि उपयोग

5

कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

6

कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

7

कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति

8

भोजन के पोषक तत्व एवं पोषक स्तर

9

कृषक परिवारों के स्वास्थ्य का स्तर

10

कृषि उत्पादकता में वृद्धि के उपाय

11

कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव

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