कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव

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विकास और उससे उत्पन्न समस्याओं का आश्य यह नहीं है कि धरा का कोष रिक्त हो गया है और भी भारत में अप्रयुक्त और अल्प प्रयुक्त संसाधनों का विपुल भंडार विद्यमान है आवश्यकता है विवेकपूर्ण विदोहन की, उर्वरक शक्ति का उपयोग करने के साथ-साथ लौटाने की विकास की प्रत्येक संकल्पना और परिकल्पना को पर्यावरण की कसौटी पर अहर्य सिद्ध होने पर ही विकास के लिये व्यवहार में लाना होगा।

भारत की बुनियादी समस्या आर्थिक विकास की आवश्यकता है। आर्थिक विकास से आशय है सर्वजन को उनकी न्यूनतम आवश्यकता को पूरा करने के साधन उपलब्ध कराना। इस स्वप्न को मूर्तरूप देने के लिये भारत में स्वतंत्रता के बाद अनेक कदम उठाए गये। 1 अप्रैल 1951 से पहली पंचवर्षीय योजना जो योजनाबद्ध विकास की पहली कड़ी थी, भारतीय ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को इसी दिशा में ले जाने का एक प्रयास थी। पिछले पाँच दशकों के योजनाबद्ध विकास के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं जिनमें उल्लेखनीय है कि भारत का कृषि उत्पादन लगभग चार गुना बढ़ा है और राष्ट्रीय आय में भी प्रति वर्ष लगभग 3.8 प्रतिशत की दर से बढ़ी हैं सरकार ने कृषि के विकास के लिये जो नीतियाँ अपनाई हैं वे बहुत उत्साहवर्द्धक रही हैं।

सरकार द्वारा निर्धारित सहायतार्थ कीमतों से फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल विस्तार पर प्रभाव पड़ता है। सहायतार्थ कीमतों पर प्रदान किए गये आगतों की मांग में वृद्धि हो रही है अब साधारण उपस्करों और कृषि यंत्रों पर किसानों को अधिक धन व्यय नहीं करना पड़ता है। जिससे कृषि यंत्रों और कार्य मशीनरी की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। भारत में सामाजिक उपरिसेवाओं का भी पर्याप्त विस्तार हुआ है, वित्तीय साधनों की उपलब्धि से कृषि निर्यात, उद्योग, लघु एवं कुटीर उद्योग, फुटकर एवं छोटे व्यापार एवं रोजगार, शिक्षा आदि के क्षेत्र में पर्याप्त एवं महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है, साक्षरता का अनुपात बढ़ा है जीवन की प्रत्याशा बढ़ी है वित्तीय साधनों की उपलब्धि से कृषि निर्यात, उद्योग, लघु एवं कुटीर उद्योग, फुटकर एवं छोटे व्यापार एवं रोजगार शिक्षा आदि के क्षेत्र में पर्याप्त एवं महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई, साक्षरता का अनुपात बढ़ा है जीवन की प्रत्याशा बढ़ी है और मानव पूँजी में गुणात्मक सुधार हुए हैं। अब देश में प्रशिक्षित श्रमिकों तकनीकी विशेषज्ञों वैज्ञानिकों, अनुसंधानकर्ताओं, प्रशासकों, प्रबंधकों उद्यमियों आदि की कमी नहीं है। अब साधनों तथा आवश्यकता निर्मित वस्तुओं के लिये विदेशों पर नहीं निर्भर रहना पड़ता है। सबसे बड़े गौरव की बात तो यह है कि हम अपनी घरेलू तकनीक का विकास करके देश के तीव्र आर्थिक विकास की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के योग्य हो गये हैं।

पृथ्वी की सतह कृषि एवं खाद्यान्न उत्पादन का प्रमुख स्थल है जिस पर मानव का भरण पोषण निर्भर रहता है, वास्तव में यह मनुष्य के आर्थिक विकास के लिये पृष्ठ भूमि प्रस्तुत करती है। यह मनुष्य के सामाजिक एवं सर्वांगीण विकास की जननी है।

पृथ्वी का संपूर्ण धरातल कृषि योग्य नहीं है और न ही इसे कृषि योग्य बनाया जा सकता है। कृषि के लिये तो धरातल का वही भाग उपयोगी है जो किसी न किसी रूप में उपजाऊ है। मानवीय प्रयासों के फलस्वरूप कृषि के अयोग्य भूमि का एक बड़ा भाग भी कृषि योग्य बनाया जा सका है। इसलिये मनुष्य को सीमित कृषि योग्य भूमि से ही अपने भरण पोषण का पर्याप्त साधन प्राप्त करना है, यही उसके अनेक उद्यमों का स्रोत भी है इस उद्देश्यों की सफलता भूमि के समुचित उपयोग, उसकी उत्पादन क्षमता, उससे प्राप्त उपलब्धियाँ तथा अन्य लाभों पर निर्भर है। दूसरे शब्दों में भूमि संसाधन के यथा संभव अधिकतम उपयोग तथा उसके नियोजन द्वारा ही मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति संभव है।

तीव्रगति से बढ़ती हुई जनसंख्या, जीवन स्तर का क्रमिक उत्थान, पौधों और जैविक पदार्थों के औद्योगिक उपयोग में अप्रत्याशित वृद्धि खाद्यान्न तथा अन्य कृषि उपजों के बीच भूमि उपयोग में उत्पन्न होने वाली प्रतिस्पर्धा, यातायात साधनों एवं यातायात मार्गों का विस्तार आदि क्रियाएँ कृषि भूमि का अभाव उत्पन्न करते जा रहे हैं, किंतु तकनीकी में परिवर्तन से कृषि उत्पादन की सघनता में वृद्धि भी की जा रही है जिससे कृषि भूमि का अधिक नियोजित उपयोग भी होने लगा है जिससे जनसंख्या की निरंतर वृद्धि होने पर भी खाद्यान्न के अभाव को कुछ हद तक रोका जा सका है।

जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि को देखते हुए कृषि साधन के विकास से मानवीय समस्याओं का आंशिक समाधान ही संभव है, परंतु इसके लिये भी हमें प्रयत्नशील रहना होगा। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये भूमि की क्षमता, उर्वरता तथा उसके समुचित एवं समन्वित उपयोग का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है, इन्हीं दृष्टिकोणों से कृषि उत्पादन, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियों का अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रस्तुत शोध प्रबंध का मुख्य उद्देश्य कृषि प्रधान जनपद प्रतापगढ़ की कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं स्वास्थ्य की समुचित व्याख्या करना है जिससे जनपद वासियों के आर्थिक उन्नयन हेतु समन्वित वैज्ञानिक नियोजन हेतु कुछ कार्यक्रम प्रस्तावित किए जा सकें। इस शोध निबंध में शोधकर्ता को निष्कर्ष रूप में निम्नलिखित तथ्य प्राप्त हुए हैं -

1. अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ 25 डिग्री 52’ से 26 डिग्री 22’ उत्तरी अक्षांश तथा 81 डिग्री 22’ से 82 डिग्री 49’ पूर्वी देशांतर के मध्य स्थित है जिसका कुल प्रतिवेदित क्षेत्रफल 36 के मध्य स्थित है जिसका कुल प्रतिवेदित क्षेत्रफल 362426 हेक्टेयर है जिसमें कृषि फसलों हेतु 222106 हेक्टेयर भूमि का उपयोग किया जाता है शेष 140300 हेक्टेयर भूमि अन्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उपयोग में लाई जाती हैं अथवा अकृष्ठ और परती भूमि के रूप में हैं।

2. गंगा के उत्तर में स्थित यह क्षेत्र गंगा की जलोढ़ मिट्टी से युक्त संयुक्त समतल मैदानी क्षेत्र है जिसका ढाल उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व की ओर है उत्तर पश्चिम में समुद्रतल से ऊँचाई 148.67 मीटर तथा दक्षिण पूर्व में यह 131.36 मीटर है। गंगा नदी के उत्तर में तथा सई नदी के दोनों और कुछ भूमि ऊबड़-खाबड़ तथा असमतल है जो कृषि कार्य की दृष्टि से अधिक उपजाऊ नहीं है।

3. अध्ययन क्षेत्र की कृषि अब परंपरागत सिंचाई का साधन मानसून पर निर्भर न रहकर कृत्रिम सिंचाई के साधनों से सुसज्जित हो गई है परंतु फिर भी औसत वार्षिक वर्षा 824 मिलीमीटर से 977 मिलीमीटर के मध्य रहती है। यहाँ का तापमान उच्चतम 47.7 सेंटीग्रेट तथा न्यूनतम 4.5 सेंटीग्रेट के मध्य रहता है। उच्चतम तापमान सामान्य तथा जून के प्रारंभ में तथा न्यूनतम तापमान जनवरी के प्रारंभ में पाया जाता है।

4. अध्ययन क्षेत्र में कृषि के लिये उपलब्ध 222106 हेक्टेयर भूमि कुल 2529041 लोगों के उदर आपूर्ति का दायित्व वहन करती है। जनसंख्या वृद्धि देखें तो वर्ष 1981 तथा 1991 के मध्य 22.13 की दर से बढ़ी जिससे अब प्रतिवर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर सामान्य घनत्व 671 प्रतिवर्ग किलोमीटर, क्रमिक घनत्व 697 प्रतिवर्ग किलोमीटर तथा कृषि घनत्व 175 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर है। प्रति हेक्टेयर कृषि क्षेत्र पर 1.75 व्यक्ति निवास कर रहे हैं। जबकि फसल गहनता 157.05 प्रतिशत है।

5. अध्ययन क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों की भाँति जोत के आकार में अत्यधिक असमानता दिखाई पड़ती है जहाँ एवं एक ओर तो 87.43 प्रतिशत कृषक ऐसे हैं जिनके पास 1 हेक्टेयर से कम कृषि भूमि है, जब कि दूसरी ओर 12.57 प्रतिशत कृषकों के पास 1 हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि है, जिनमें से 1 से 2 हेक्टेयर के मध्य 9.46 प्रतिशत कृषक 2 से 3 हेक्टेयर के मध्य, 1.95 प्रतिशत कृषक, 3 से 5 हेक्टेयर, के मध्य 0.94 प्रतिशत और 5 हेक्टेयर से अधिक भूमि वाले 0.22 प्रतिशत कृषक हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से देखें तो 87.43 प्रतिशत कृषकों के पास कुल भूमि का 56.83 प्रतिशत कृषि क्षेत्र है जबकि 12.57 प्रतिशत कृषकों के पास 43.17 प्रतिशत कृषि क्षेत्र है।

6. अध्ययन क्षेत्र में 222106 हेक्टेयर कुल कृषि क्षेत्र में 57.05 प्रतिशत क्षेत्रफल पर प्रतिवर्ष एक से अधिक बार विभिन्न फसलें उगाई जाती हैं इस प्रकार वर्ष में बोया जाने वाला कृषि क्षेत्र 348810 हेक्टेयर है। सिंचाई के साधनों में प्राकृतिक वर्षा के अतिरिक्त कृत्रिम साधनों का भी उपयोग बड़े पैमाने पर किया जा रहा है जिनमें राजकीय नलकूप, राजकीय नहरें, विद्युत/डीजल चलित नलकूप/पंपिंग सेट्स महत्त्वपूर्ण है इन साधनों द्वारा सिंचन सुविधाएँ प्राप्त हो जाने के कारण शुद्ध सिंचित क्षेत्र 163425 हेक्टेयर (शुद्ध बोये गये क्षेत्रफल का 65.91 प्रतिशत) है। कृषि मौसमों में खरीफ तथा रबी कृषि मौसम में खाद्यान, दलहनी तथा तिलहनी फसलों की प्रधानता है जब कि जायद मौसम में ककड़ी, खरबूजा तथा तरबूज और मौसमी सब्जियाँ महत्त्वपूर्ण फसले हैं। खाद्यान फसलों में धन, ज्वार, मक्का, गेहूँ तथा जौ की प्रमुखता है जबकि अरहर, चना, मटर, दलहनी फसल हैं तिलहनी फसलों में लाही, सरसों ही प्रमुख फसलें हैं नकदी फसलों में गन्ना, आलू प्रमुख रूप से उगाए जाते हैं इस प्रकार अध्ययन क्षेत्र में प्रचलित कृषि प्रारूप में 79.42 प्रतिशत क्षेत्र पर खाद्यान्न फसलें, 12.09 प्रतिशत क्षेत्रफल पर दलहनी फसलें, 0.80 प्रतिशत क्षेत्र पर तिलहनी फसलें, आलू 2.2 प्रतिशत क्षेत्र पर गन्ना 0.70 प्रतिशत अन्य फसलों के अंतर्गत 4.79 प्रतिशत क्षेत्र प्रयोग में लाया जाता है।

7. अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न फसलों के उत्पादन की दृष्टि से देखें तो कुल खाद्यान 5598609 क्विंटल, दलहन का उत्पादन 412335 क्विंटल तिलहन का उत्पादन 24013 क्विंटल, गन्ना 1500652 क्विंटल तथा आलू 1441641 क्विंटल उत्पन्न किया जाता है। खाद्यान्नों में गेहूँ, चावल, ज्वार, बाजरा तथा मक्का प्रमुख हैं।

8. अध्ययन क्षेत्र में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष खाद्यान्न की उपलब्ध मात्रा 244.50 किलोग्राम, दालों की उपलब्ध मात्रा 17.83 किलोग्राम है। इस प्रकार प्रतिदिन प्रति व्यक्ति उपलब्ध खाद्यान्न तथा दलहन की मात्रा क्रमश: 669 ग्राम तथा 49 ग्राम है। विभिन्न फसलों में शुद्ध खाने योग्य पदार्थ खाद्यान्नों की उपलब्ध मात्रा केवल 476 ग्राम तथा दलहन की यह मात्रा केवल 29 ग्राम प्रति व्यक्तियों के प्रतिदिन उपयोग योग्य है।

9. अध्ययन क्षेत्र में अनुकूलतम भूमि भार वहन क्षमता प्रतिवर्ग किलोमीटर 558 व्यक्ति है जब कि कायिक घनत्व 697 व्यक्ति है। इस प्रकार खाद्यान्न उत्पादन की दृष्टि से अध्ययन क्षेत्र 139 व्यक्तियों के लिये अतिरिक्त भरण-पोषण की व्यवस्था करता है क्योंकि अध्ययन क्षेत्र में 558 व्यक्तियों के लिये कुल खाद्यान्न उपलब्ध है जब कि 697 व्यक्तियों का भरण पोषण किया जा रहा है।

10. अध्ययन क्षेत्र में कृषि तकनीकी में आधुनिकीकरण का स्तर सूचकांक 173 से लेकर 334 प्रतिशत तक प्राप्त होता है जिसका वर्गीकरण करने पर अतिरिक्त स्तर पर कुंडा, बाबागंज तथा कालाकांकर विकास खंड स्थित है। निम्न तकनीकी स्तर का प्रदर्शन बिहार, मगरौरा तथा रामपुरखास विकास खंड कर रही है। मध्यम तकनीकी स्तर में सांगीपुर, प्रतापगढ़ सदर तथा गौरा विकासखंड देखे गये जबकि अति उच्च तकनीकी गुणांक 334 प्रतिशत आसपुर देवसरा विकासखंड का प्राप्त हुआ।

11. अध्ययन क्षेत्र में सस्य विभेदीकरण सूचकांक 11.78 से लेकर 44.61 तक प्राप्त हुआ है जिसमें अति उच्च स्तर पर कोई विकास खंड नहीं पाया गया। उच्च स्तर पर पाँच विकासखंड क्रमश: सांगीपुर, संडवा चंद्रिका, प्रतापगढ़ सदर, शिवगढ़ व मांधाता स्थित है। मध्यम स्थिति में छ: विकास खंड क्रमश: कुंडा, रामपुर खास लक्ष्मणपुर, मगरौरा, पट्टी तथा आसपुर देवसरा प्राप्त हुए। निम्न सस्य विभेदीकरण सूचकांक एक मात्र गौरा विकास खंड का प्राप्त हुआ है जबकि अति निम्न सूचकांक कालाकांकर, बाबागंज व बिहार विकासखंडों का प्राप्त हुआ है।

12. अध्ययन क्षेत्र में सस्य संयोजन की दृष्टि से देखें तो दोई की विधि के अनुसार पाँच फसल संयोजन तक प्राप्त होता है जब कि थामस विधि के अनुसार छ: फसल संयोजन विद्यमान है और रफी उल्लाह अध्ययन क्षेत्र को केवल चार फसल संयोजन तक रखते हैं संपूर्ण अध्ययन क्षेत्र के फसल संयोजन की गणना करने पर दोई विधि में दो से पाँच फसल संयोजन प्राप्त होता है, थामस विधि में दो से छ: तक फसल संयोजन देखने को मिलता है जबकि रफी उल्लाह विधि में न्यूनतम 2 से 4 फसल तक संयोजन प्राप्त हुआ है। फसलों के वास्तविक क्रम तथा रफी उल्लाह द्वारा निर्धारित फसलों के क्रम में समानता मिलती है। अध्ययन क्षेत्र में प्रथम स्तर के प्रदेशों के अंतर्गत गेहूँ तथा धान फसलों की प्रधानता पाई जाती है जिनमें से 13 विकास खंडों में गेहूँ प्रथम स्थान पर जब कि बाबागंज तथा बिहार विकासखंडों में धान प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। इन दो फसलों के अतिरिक्त संडवा, चंद्रिका तथा मांधाता विकासखंडों में बाजरा तीसरी फसल के रूप में महत्त्वपूर्ण है जबकि प्रतापगढ़, सदर, मगरौरा और शिवगढ़ विकास खंडों में अरहर तीसरी फसल के रूप में महत्त्वपूर्ण मान्यता प्राप्त कर रही है।

13. सूक्ष्म स्तरीय अध्ययन के लिये सर्वेक्षण में सीमांत कृषक 122, लघुकृषक 107, लघुमध्यम कृषक 52, मध्यम कृषक 16 तथा बड़े कृषक 3 प्राप्त करते हुए कुल 300 कृषकों से विश्लेषण संबंधी सूचनाएँ प्राप्त की गई हैं। जिनमें से 24 उच्च जाति के, 36 पिछड़ी जाति के, 53 अनुसूचित जाति के तथा 09 मुस्लिम वर्ग के कृषक प्राप्त हुए हैं जिनके परिवारों का औसत आकार 6.73 प्राप्त हुआ है। 122 सीमांत कृषकों के पास कुल 70.93 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र, लघु कृषकों (107) के पास 133.30 हेक्टेयर, लघु मध्यम कृषकों (52) के पास 102.88 हेक्टेयर, मध्यम कृषकों के 16 परिवारों के पास 61.35 हेक्टेयर तथा बड़े कृषकों (3) के पास 44.69 हेक्टेयर कृषि भूमि उपलब्ध पाई गई इस प्रकार 300 कृषक परिवारों के पास 413.15 हेक्टेयर भूमि प्राप्त हुई।

14. सर्वेक्षण में विभिन्न वर्गों द्वारा औसत खाद्यान्न उत्पादकता की दृष्टि से प्रति व्यक्ति प्रति दिन 668.02 ग्राम खाद्यान्न, 24.36 ग्राम दलहन, तिलहन 9.11 ग्राम आलू 150.66 ग्राम उत्पन्न किया जाता है खाद्यान्नों में गेहूँ तथा चावल की प्रधानता है जबकि दलहनों में अरहर तथा चना प्रमुख हैं और तिलहन में लाही/सरसों का विशिष्ट स्थान है।

15. अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न वर्गों के मध्य सेवन किए जाने वाले खाद्य पदार्थों को तीन वर्गों में रखा गया है जिनमें परंपरागत खाद्य पदार्थ शिष्ट खाद्य पदार्थ तथा आधुनिक खाद्य पदार्थों को शामिल किया गया है। खाद्य पदार्थों के उपभोग की तीव्रता के क्रम में 760 प्रतिशत से अधिक आवृत्ति वाले खाद्य पदार्थों में रोटी, दाल, भात, तरकारी आदि आते हैं। 40-70 प्रतिशत के मध्य सत्तू, पराठा, खिचड़ी, लस्सी, गादा, महेरी आदि आते हैं। 10-40 प्रतिशत के मध्य पूड़ी, खीर, कढ़ी, चटनी, महेरी, घुथरी, बहुरी, चटनी, माठा, सलाद सेवई, मिठाई, सूतफेनी, बच्चों को दूध आदि खाद्य पदार्थ सेवन किए जाते हैं जबकि 10 प्रतिशत से कम आवृत्ति वाले खाद्य पदार्थों में मालपुआ, शकरपारे, रसखीर, पकौड़ी, बिस्किट, नमकीन, पुआ, सिंघाड़ा, आलू चिप्स, चावलबरी, कुम्हडौरी, समोसा, मकोसा, डबलरोटी, सोयाबीन बरी, मिठाई, मांस, मछली, अंडे, दूध, आलूदम, आलूचिप्स, दही, अचार, मौसमी फल, रसखीर, गुलगुला, चिल्ला, मिठाई घी, मिथौरी, निमोना, मलीदा पूड़ी, कचौड़ी, कबाब, तस्मई, गुलगुला आदि प्रमुख रूप से सेवन किए जाते हैं।

16. प्रतिव्यक्ति खाद्य पदार्थों में लगभग सभी वर्गों में शीतऋतु में मात्रात्मक अधिकतम रहती है, खाद्य पदार्थों की न्यूनतम मात्रा वर्षाऋतु में उपभोग की जाती है। वर्ष भर में प्रति व्यक्ति खाद्य पदार्थों की उपभोग की मात्रा सीमांत कृषकों में 103.79 ग्राम सीमांत कृषकों का, 1023.86 ग्राम लघु कृषक परिवारों का 1026.32 ग्राम लघु मध्यम कृषक परिवारों का 1055.06 ग्राम मध्यम कृषक परिवारों का तथा 1046 ग्राम बड़े परिवारों का प्राप्त हुआ है। लगभग सभी वर्गों के खाद्य पदार्थों में 50 प्रतिशत से अधिक भागेदारी खाद्यान्नों की देखी गई है।

17. विभिन्न खाद्य पदार्थों से प्राप्त होने वाले पोषक तत्वों की गणना करने पर पाया गया कि सभी वर्गों में अधिकांश पोषक तत्व खाद्यान्नों से ग्रहण किए जा रहे हैं और श्रेष्ठ पोषक तत्वों से युक्त खाद्य पदार्थ दूध, घी, मांस, मछली तथा अंडों आदि का सेवन अत्यल्प मात्रा में पाया गया। पोषक तत्वों की गुणात्मक श्रेष्ठता का अभाव लगभग सभी वर्गों में दिखाई पड़ता है, जबकि विभिन्न वर्गों में मात्रात्मक भिन्नता कम दिखाई पड़ती है।

18. प्रतिदिन के भोजन में पोषक तत्वों की आवश्यक मात्रा का संयोजन असंतुलित पाया गया। सीमांत कृषक परिवारों में जहाँ ऊष्मा का 147.90 कैलोरी अधिक उपयोग किया जा रहा है वहीं मध्यम कृषक परिवारों में 110.67 कैलोरी की कमी देखी गई है। प्रोटीन सीमांत कृषक परिवारों तथा बड़े कृषक परिवारों में मानक से कुछ अधिक देखी गई, शेष अन्य वर्गों में इस तत्व की 0.02 ग्राम से लेकर 1059 ग्राम तक की कमी दिखाई पड़ी। वसा पोषक तत्व का विभिन्न वर्गों में 47.53 ग्राम से लेकर 56.66 ग्राम तक का अभाव देखा गया। कार्बोहाइड्रेट्स का उपभोग मानक स्तर से 66.97 ग्राम से लेकर 119.38 ग्राम तक की अधिकता प्रत्येक वर्ग में पाई गई है। सभी वर्गों में अधिकता वाला पोषक तत्व फास्फोरस प्राप्त हुआ है जिसमें .01 ग्राम से लेकर .10 ग्राम तक की अधिकता पाई गई। नियासिन तथा थियासिन की भी सभी वर्गों में अधिकता दिखाई पड़ रही है। राइबोफ्लेबिन की सभी वर्गों में न्यूनता देखी गई।

सीमांत कृषक परिवारों में ऊर्जा 147.19 कैलोरी अधिक, प्रोटीन 0.47 ग्राम अधिक, फाइवर 4.64 ग्राम अधिक, कार्बोहाड्रेटस 119.38 ग्राम अधिक, फास्फोरस 0.10 ग्राम अधिक, थियासिन 1.27 मि. ग्राम अधिक तथा नियासिन 11.08 मि. ग्राम अधिक प्राप्त किये जा रहे हैं। जबकि मानक स्तर से न्यून पोषक तत्वों में वसा 56.66 ग्राम, खनिज 1.13 ग्राम, कैल्सियम 1.02 ग्राम, लोहा 5.54 ग्राम, कैरोटीन 436 मि.ग्राम तथा राइवोफ्लेबिन 0.08 मि. ग्राम कम पाया गया।

लघु कृषक परिवारों में पोषक तत्वों की अधिकता वाले तत्व फाइबर 4.48 ग्राम, कार्बोहाइड्रेटस 117.75 ग्राम, फास्फोरस 0.07 ग्राम, थियासिन 0.87 मि. ग्राम तथा नियासिन 10.08 मि. ग्राम है जबकि मानक स्तर से कम ग्रहण किये जाने वाले पोषक तत्व ऊर्जा 81.82 कैलोरी, प्रोटीन 1.59 ग्राम, वसा 57.67 ग्राम, खनिज 0.85 ग्राम, कैल्सियम 1.01 ग्राम लोहा 4.98 ग्राम, कैरोटीन 28.73 मि. ग्राम और राइबोफ्लेविन 0.11 मि. ग्राम है।

मध्यम कृषक परिवारों में मानक स्तर से अधिक मात्रा में ग्रहण किये जाने वाले पोषक तत्वों में फाइबर 5.01 ग्राम, कार्बोहाइड्रेटस 92.88 ग्राम, फास्फोरस 0.03 ग्राम, कैरोटीन 279.85 मि. ग्राम थियामिन .88 मि. ग्राम तथा नियासिन 8.89 मि. ग्राम पाये गये। जबकि न्यून मात्रा में ग्रहण किये जाने वाले पोषक तत्वों में ऊर्जा 110.61 कैलोरी, प्रोटीन 0.02 ग्राम वसा 47.53 ग्राम, खनिज 0.02 ग्राम, कैल्शियम 0.92 ग्राम, लोहा 3.30 ग्राम तथा राइबोफ्लेबिन 0.11 मि.ग्रां. है।

बड़े कृषक परिवारों में पोषक तत्वों की अधिक मात्रा, प्रोटीन 0.35 ग्राम फाबर 4.77 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट्स 92.88 ग्राम, फास्फोरस 0.03 ग्राम, कैरोटीन 279.85 मि. ग्राम. थियासिन .88 मि. ग्राम तथा नियासिन 8.98 मि.ग्राम. पाये गये जबकि स्वल्पता वाले पोषक तत्व ऊर्जा .92 कैलोरी, वसा 49.68 ग्राम खनिज .34 ग्राम कैल्सियम .96 ग्राम लोहा 4.09 ग्राम तथा राइबोफलेविन .11 मि. ग्राम प्रमुख है।

19. अध्ययन क्षेत्र में ग्रहण किये जाने वाले भोजन से प्राप्त होने वाले पोषक तत्वों के असंतुलन के परिणाम स्वरूप विभिन्न वर्गों में अल्प पोषण तथा कुपोषण से उत्पन्न होने वाले एक या एक से अधिक विभिन्न रोगों से ग्रसित रोगियों में 15.46 प्रतिशत हाथों तथा पैरों की ऐंठन से 16.85 पेट के रोगों से 13.53 प्रतिशत थकान व शरीर में सूजन से 11.69 प्रतिशत सर्दी जुकाम मसूड़ों की सूजन से 8.13 प्रतिशत जीभ तथा ओंठ के रोगों से, 7.43 प्रतिशत प्लेग्रा रोग 4.86 प्रतिशत बेरी-बेरी रोग से 3.22 प्रतिशत रिकेट्स तथा आस्टोमैलेशिया से 4.16 प्रतिशत रतौंधी रोग से 9.66 प्रतिशत जोड़ों तथा गांठों में दर्द से 2.18 प्रतिशत मधुमेह के रोगों से ग्रसित पाये गये।

सुझाव :-

1. प्राकृतिक समस्याओं के निवारण हेतु सुझाव :


प्राकृतिक विपदाओं में जलप्लावन, जलभराव, सूखा आदि है जिनसे प्रति वर्ष लाखों करोड़ों लोगों की फसल नष्ट हो जाती है। अध्ययन क्षेत्र में अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पानी के निकास की समुचित व्यवस्था न होने के कारण जलभराव की समस्या से पीड़ित हैं, इसके अतिरिक्त अनेक क्षेत्रों में जलस्तर ऊँचा हो जाने के कारण ऊसर भूमि के क्षेत्रफल में विस्तार हो रहा है इन समस्याओं के निवारण हेतु निम्न उपाय किए जा सकते हैं -

(अ) जल निकास की समुचित व्यवस्था -


अनियंत्रित सिंचाई और जल के कुप्रबंध के कारण जल निकास जलाक्रांति अनुचित जल प्रबंध और छीजन की समस्याएँ उत्पन्न हो गई। नहरों के कारण कुछ क्षेत्रों में हर वर्ष बाढ़ की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है अत: सिंचाई नीति का निर्माण करते समय यह आवश्यक है कि सिंचाई की नई क्षमता का विकास और वर्तमान विद्यमान क्षमता का अनुकूलतम उपयोग को ध्यान में रखा जाना चाहिए। जल संसाधन का कुशलतम उपयोग को आधार पर ही सिंचाई नीति का निर्माण किया जाना चाहिए।

(ब) भूमित जल का सदुपयोग -


सिंचाई के लिये जिन कुँओं का निर्माण किया जा चुका है उसका बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए। वर्तमान में इस साधन का पूर्ण सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। उसके प्रमुख कारण हैं - शक्ति के साधनों का अभाव, किसानों में परस्पर सहयोग का अभाव, फसलों की गहनता में कमी आदि। अत: इस दिशा में आवश्यक कदम उठाया जाना चाहिए।

(स) भूक्षरण की रोकथाम -


भूक्षरण के गंभीर परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं इसको रोकने के लिये कारगर उपाय करने होंगे। इन उपायों में वनों का विस्तार, भूमि के असमान एवं समतल भागों में वृक्षारोपण करना, चारागाहों में पशुओं को चरानें पर भली भाँति देखभाल तथा नियंत्रण आदि प्रमुख हैं।

2. ऊसर भूमि सुधार -


अध्ययन क्षेत्र के अनेक क्षेत्रों में नहरों की अनियंत्रित सिंचाई के कारण जलस्तर ऊपर उठता जा रहा है जिससे भूमि का एक बड़ा भाग ऊसर में परिवर्तित होता जा रहा है इस समस्या के निराकरण हेतु इन क्षेत्रों में नलकूपों, जिप्सम तथा पम्पिंग सेटों के द्वारा भूमिगत जल को निकालकर जलस्तर को ऊपर उठने से रोका जाना चाहिए। ऊसर सुधार हेतु जिप्सम तथा पायराइट आदि के प्रयोग के लिये विस्तृत कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए। इन क्षेत्रों में हरी खाद के साथ-साथ गोबर की खाद अत्यावश्यक है।

3. फसल प्रतिरूप तथा भूमि उपयोग में सुधार -


निसंदेह विस्तृत खेती की संभावनाएं अब बहुत सीमित रह गई हैं किंतु फिर भी बंजर भूमि पर सुधार कार्यक्रम अमल में लाकर इन्हें कृषि योग्य बनाने के लिये निरंतर प्रयास किए जाने चाहिए। अध्ययन क्षेत्र में इस मद में 11308 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि बेकार पड़ी हुई है। तथा अन्य परती भूमि के अंतर्गत 17460 हेक्टेयर भूमि पर कृषि फसल नहीं उगाई जा रही है। इस भूमि को यदि किसी प्रकार कृषि उपयोग में लाया जा सके तो लगभग 28768 हेक्टेयर भूमि पर विभिन्न फसलें ऊगाई जा सकती हैं। इसी प्रकार जलभराव के कारण लवणीय और क्षारीय भूमि पर बहुमुखी उपयोग हेतु कृषि योग्य बनाना संभव हो सकता है। इन उपायों में सिंचाई, गहरी जुताई, अपतृण का हराया जाना, रसायनों का उपयोग संप्रावहन, भूतल का कतरना, जल ग्रस्तता के लिये उपयुक्त नालियों द्वारा जल निकास की व्यवस्था करना प्रमुख है।

4. गहन कृषि का विस्तार -


यह सच है कि विस्तृत खेती की क्षमता सीमित है किंतु गहरी खेती की अपार संभावनाएं हैं जिसका उपयोग किया जाना चाहिए। कृषि की विकसित तकनीक का मूल बिंदु है फसलों की गहनता में विस्तार। अब तक एक से अधिक बार जोती गई भूमि के अंतर्गत क्षेत्र में तेज गति से वृद्धि हो रही है परंतु पिछले कुछ वर्षों से इसमें स्थायित्व सा आ गया है इस प्रवृत्ति के दो कारण रहे हैं प्रथम उन्नत कृषि आदानों के पैकेज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हुए हैं। दूसरा जब कभी पैकेज उपलब्ध भी हुए हैं तो इनकी कीमतें बहुत ऊँची रही हैं। इसलिये कृषकों को उन्नत आदानों को सस्ती दरों पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाना चाहिए भूमि की उत्पादकता तथा उर्वरता बढ़ाने के लिये अनेक कदम उठाने होंगे जैसे भू परीक्षण, भूमि को ठीक तरह से जोतना व बीज रोपना भूमि के नष्ट हो रहे तत्वों को बदलना, पर्याप्त मात्रा में उर्वरक प्रयोग करना आदि। फसलों के प्रतिरूप में भी वांछित परिवर्तनों द्वारा भी उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। अत: आवश्यक है कि उत्पादकता बढ़ाने के लिये सरकारी नीतियों में वांछनीय परिवर्तन किए जाएं। जिससे उन्नत विधियों के साथ-साथ मिश्रित फसलों को भी प्रोत्साहन प्राप्त हो।

5. मुद्रादायिनी फसलों में विस्तार -


अध्ययन क्षेत्र में मुद्रादायिनी फसलों में गन्ना तथा आलू की फसलों का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। गन्ना केवल 3021 हेक्टेयर तथा आलू 7635 हेक्टेयर क्षेत्रफल पर ही उगाया जाता है। गन्नें के क्षेत्रफल में कमी का कारण क्षेत्र में चीनी मिल का न होना है। आलू का भी उत्पादन क्षेत्रीय खाद्य आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिये ही किया जाता है क्योंकि प्रशीतन सुविधाओं का क्षेत्र में नितांत अभाव है। अत: मुद्रादायिनी फसलों के क्षेत्रफल में विस्तार को प्रोत्साहन के लिये किसानों को नकदीकरण की सुविधाएँ दी जानी चाहिए। चिकनाई की आपूर्ति लाही, सरसों द्वारा ही होती है परंतु इसका क्षेत्रफल अभी तक 2178 हेक्टेयर में ही होता है। तिलहनी फसलों के सूरजमुखी, सोयाबीन आदि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। परंतु इन फसलों का बाजार न होने के कारण विक्रय समस्या से हतोत्साहित होती है। इसी प्रकार सब्जियों के उत्पादन को बढ़ाने का प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, मसाले वाली फसलों को भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

6. कृषि से संबंधित क्रियाओं को प्रोत्साहन -


ग्रामीण विकास के लिये कृषि विकास का सर्वोपरि महत्त्व हो सकता है किंतु मात्र कृषि विकास से ही सामान्य ग्रामीण जीवन में सुधार और उसके पूरी तरह से उत्थान की सामर्थ्य नहीं होती है। ग्रामीण विकास के लिये हमें कृषि से संबंद्ध अनेक क्षेत्रों में सुधार करने की आवश्यकता पर बल देना चाहिए। संबंद्ध क्षेत्रों में प्रमुख है - पशुपालन, मत्स्य उद्योग, रेशम उत्पादन, बागवानी तथा वानिकी आदि।

(अ) पशुपालन को प्रोत्साहन -


किसी भी अर्थव्यवस्था के लिये पशुपालन बहुत महत्त्वपूर्ण होता है, खेती बाड़ी के लिये हल चलाने, कुओं से पानी निकालने, फसलों को ढोकर मंडी तक ले जाने के आदि कार्यों के लिये पशुओं का बड़ा प्रयोग किया जाता है, इसके अतिरिक्त पशु बड़े मात्रा में खाद के स्रोत, मांस के स्रोत, पशुचर्म तथा खालें, ऊन, पशुचर्बी के अतिरिक्त अन्य उत्पोत्पाद की काफी मात्रा में उपलब्ध होता है। पशुपालन रोजगार और आय का एक बहुत बड़ा साधन है, इनमें प्रमुख हैं - डेरीफार्म, मुर्गीपालन, भेड़ व सुअर पालन एवं मछली पालन।

1. डेरी फार्मिंग -


ग्रामीण अर्थव्यवस्था में डेरी उद्योग महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। डेरी उद्योग के माध्यम से निर्बल वर्ग की आर्थिक सामाजिक दशा में उल्लेखनीय सुधार लाये जा सकते हैं। डेरी उद्योग के विकास के लिये सबसे बड़ी आवश्यकता तो यह है कि दूध देने वाले पशुओं की उत्पादकता को बढ़ाया जाय जिसके लिये नश्ल सुधार ही पर्याप्त नहीं होगा बल्कि पशुपालन की रीतियों में भी सुधार करना होगा डेरी उद्योग विकास के लिये पौष्टिक चारे की व्यवस्था करना, उनके स्वास्थ्य की देखभाल का प्रबंध तथा उत्पादन का समुचित विक्रय व्यवस्था का विकास करना होगा, पशुपालकों तक पशु वैज्ञानिकों को भेजकर पशुपालन संबंधी ज्ञान के लिये उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

2. मुर्गी पालन -


मुर्गीपालन अपनी विशेषताओं के कारण ग्रामीण समुदाय के निर्बल वर्ग द्वारा बड़ी सरलता से अपनाया जा सकता है, इस काम के लिये थोड़ी पूँजी की आवश्यकता होती है, इसे विभिन्न जलवायु तथा परिस्थितियों में संचालित किया जा सकता है, इससे वर्ष भर आय प्राप्त हो सकती है। मुर्गीपालन के आधुनिक तकनीकी का विकास किया गया है किंतु यह टेक्नोलॉजी अभी तक शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है अत: इस आधुनिक तकनीकी का सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों तक विस्तार किया जाना चाहिए, जिससे न केवल अंडों के उत्पादन को बढ़ाया जा सके बल्कि मुर्गीपालन व्यवसाय को भी आधुनिक बनाया जा सके।

3. सुअर पालन -


भेड़, बकरी एवं सुअर पालन का कार्य पूरी तरह से ग्रामीण समुदाय के निर्धन परिवारों द्वारा किया जाता है। भेड़ बकरी तथा सुअर पालन के ऐसे अनेक पहलू हैं जिन पर विशेषज्ञों को ध्यान देने की आवश्यकता है। इन पहलुओं में आहार संसाधनों के विकास की विशेषकर कृषि और औद्योगिक सहउत्पादों के विकास और विपणन की व्यवस्था करना आवश्यक है। साथ ही भेड़ और बकरियों के उत्पादों को उचित मूल्य पर विक्रय की व्यवस्था करना जिससे भेड़ और बकरी पालकों को अपने परिश्रम का उचित मूल्य प्राप्त हो सके।

4. मछली पालन -


मछली पालन मुख्यत: ग्रामीण वर्ग का ही व्यवसाय है। मछली के रूप में प्राप्त खाद्य सामग्री पौष्टिकता से परिपूर्ण होती है अत: इस व्यवसाय को प्रोत्साहित करने हेतु तालाब, झीलों तथा क्षेत्रीय नदियों में मछली पालन को प्रेरित किया जाना चाहिए। यह व्यवसाय भी कम पूँजी पर अधिक लाभ देने वाला व्यवसाय है जो न केवल आय का ही साधन है अपितु पौष्टिक खाद्य सामग्री की भी आपूर्ति होती है। खाद्यान्न समस्या हल करने में यह व्यवसाय महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह कर सकता है।

(ब) रेशम उत्पादन को प्रोत्साहन -


रेशम उत्पादन भी किसानों के लिये आय का एक पूरक साधन है यह व्यवसाय श्रम प्रधान होता है अत: इस व्यवसाय में अतिरिक्त रोजगार निर्माण की भारी क्षमता है। रेशम की मांग बढ़ती जा रही है न केवल रेशमी कपड़े के रूप में बल्कि अनेक औद्योगिक क्रियाओं में भी रेशम उत्पाद को प्रोत्साहन देकर क्षेत्रीय लोगों की अतिरिक्त आय का साधन बनाया जा सकता है।

(स) खाद्य संवर्द्धन उद्योग को प्रोत्साहन -


खाद्य संवर्द्धन उद्योग में उन क्रियाओं को शामिल किया जाता है जो खाद्य पदार्थों का रूप परिवर्तन कर उन्हें लंबे समय तक उपभोग योग्य बनाते हैं। फसल काटने के बाद फलों और सब्जियों को प्राकृतिक रूप से अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। जिससे फसलोत्पादन के समय आपूर्ति बढ़ जाने के कारण कृषकों को इन पदार्थों का उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है जिससे अच्छी फसल के बाद भी कृषकों की आय अपेक्षित रूप से नहीं बढ़ पाती है। उत्पादन को इस तरह की हानि से बचाने के लिये आवश्यक है कि एक ओर फसल कटाई तकनीकों में सुधार किया जाए और प्रशीतन सुविधाएँ सरल और आसान शर्तों पर उपलब्ध करवाई जाये और उपलब्ध उत्पाद के वैकल्पिक उपयोगों की पहचान की जाए। वर्तमान परिस्थितियों में खाद्य उद्योग के विस्तार के वास्ते यह आवश्यक है कि समुचित विकास नीति का निर्माण किया जाय जो इस दिशा में आवश्यक मार्गदर्शन करे।

7. कृषि आधारित ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहन -


ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की प्रकृति शहरी क्षेत्र में पाई जाने वाली बेरोजगारी से भिन्न होती है। हम अपने सामान्य जीवन में देखते हैं कि जिस समय बीजों को रोपित करने के लिये खेत को तैयार करना होता है या पकी हुई फसल को काटना और साफ करना होता है उस समय श्रमिकों की मांग बढ़ जाती है तब कृषकों या कृषि श्रमिकों को रोजगार मिल जाता है। लेकिन बाकी समय में उन्हें कम या बिल्कुल कार्य नहीं मिल पाता है। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में प्रच्छन्न बेरोजगारी विद्यमान रहती है, इस मौसमी तथा प्रच्छन्न बेरोजगारी की तीव्रता कम करने के लिये ग्रामीण उद्योगों को प्रोत्साहन देना होगा। इन उद्योगों में प्राय: स्थानीय रूप से उपलब्ध कच्चे माल का ही प्रयोग किया जाता है इसीलिये इन उद्योगों की स्थापना और विकास की संभावनाओं को तलाशना होगा। इन उद्योगों में निम्नलिखित क्रियाओं पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

(अ) कृषि पदार्थों का विधायन -


बड़ी संख्या में लोगों को पूर्णकालिक रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिये विधायन संबंधी औद्योगिक इकाइयों की स्थापना ग्रामीण क्षेत्रों में की जानी चाहिए। इस प्रकार के उद्योगों में दूध का विधायन सूरजमुखी, सोयाबीन, सरसों, लाही से तेल निकालना खांडसारी और गुड़ निकालने वाली इकाइयाँ, फलों तथा सब्जियों का विधायन सनई का सामान बनाना उल्लेखनीय है।

(ब) कृषि उत्पादन का उपयोग करने वाले उद्योग -


कृषि के गौण उत्पादन का निर्माण उद्योगों में कच्चे माल के रूप में प्रयोग करने के संबंध में तकनीकी विकास पर्याप्त संभावनाएं उपलब्ध है इस प्रकार के उत्पादन में शीरे से अल्कोहल, धान की भूसी से गत्ता बनाना, टूटे हुये चावल से शराब बनाना, आलू से चिप्स बनाना, गन्ने की खोई से कागज तथा गत्ता बनाना आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।

(स) ग्रामीण दस्तकारी एवं उद्योगों का विकास -


ग्रामीण दस्तकारिता की वस्तुओं के निर्माण को और अधिक प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। ग्रामीण दस्तकारी का प्रयोग न केवल उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में अपितु कृषि मशीनरी एवं उपस्करों के निर्माण में भी किया जा सकता है। इनमें से कृषि यंत्रों/औजारों का निर्माण चटाई, दरी बनाना, डलिया टोकरी बनाना, रस्सी बनाना, सिलाई, कढ़ाई, पत्तल दोना का निर्माण, अचार मुरब्बा का निर्माण, बागवानी, पशुपालन, रेशम के कीड़े पालना आदि प्रमुख हैं।

8. संतुलित भोजन का ज्ञान -


जो आहार हमारे शरीर की भोजन संबंधी समस्त आवश्यकताओं की उचित प्रकार से पूर्ति करता है उसे संतुलित आहार कहते हैं। स्वास्थ्य रक्षा और दीर्घायु प्राप्त करने के लिये हमारे लिये संतुलित आहार लेना परम आवश्यक है। खेद है कि भारतीय जनता का आहार उसकी शारीरिक आवश्यकताओं के अनुसार नहीं है बहुत से लोगों को भरपेट भोजन प्राप्त नहीं होता। भारत जैसे देश में जहाँ गुणात्मक श्रेष्ठता वाले भोज पदार्थों का नितांत अभाव है, जहाँ उनकी कीमतें ऊँची हैं और लोग क्रय शक्ति के अभाव के कारण श्रेष्ठ कोटि के खाद्य पदार्थ क्रय कर पाने में असमर्थ हैं, वहाँ हर व्यक्ति संतुलित आहार पा सके, यह वर्तमान परिस्थितियों में लगभग असंभव प्रतीत होता है। किंतु अभावों के माध्यम भी यदि हमारा भोजन विषयक ज्ञान काम चलाऊ हो और हम यह जान सकें की हमारे लिये कौन सा खाद्य पदार्थ कितना महत्त्वपूर्ण है? तो लोग बिना अतिरिक्त खर्चा बढ़ाये अपने भोजन को वर्तमान रूप में ही कुछ अच्छा अवश्य बना सकते हैं। इसके लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर लोगों को संतुलित भोजन के बारे में ज्ञान कराया जाना चाहिये।

(अ) शिशु का भोजन -


शिशु की क्रियाशीलता द्वारा व्यय हुई शक्ति की पूर्ति के लिये उसकी उचित शारीरिक वृद्धि व मानसिक विकास तथा उत्तम स्वास्थ्य बनाये रखने के लिये माता का दूध ही सर्वोत्तम आहार है। आवश्यकता पड़ने पर शिशु को गाय का दूध देना चाहिये, गाय के दूध के अभाव में बकरी का दूध देना चाहिये। गाय एवं बकरी के दूध में भी शिशु के लिये आवश्यक पोषक तत्व विद्यमान रहते हैं।

(ब) वृद्धावस्था का भोजन -


शिशुओं के समान वृद्ध व्यक्तियों के भोजन का भी विशेष ध्यान रखना चाहिये। इस अवस्था में सुगमता से पचने वाला विटामिनों और प्रोटीन युक्त भोजन देना चाहिये। इसके लिये ताजा हरी पत्तेदार सब्जियाँ, दूध और फलों का रस देना चाहिये। इस अवस्था में मिर्च मसालेदार और गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिये। भोजन ऐसा होना चाहिये जिसे खानें में श्रम कम किंतु पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में शरीर में पहुँच जाए।

(स) गर्भवती महिला का भोजन -


समान दशा की तुलना में गर्भकाल में महिला को अधिक मात्रा में विटामिन डी, प्रोटीन, फास्फोरस तथा कैल्सियम युक्त भोजन मिलना चाहिये। क्योंकि इन्हीं के माध्यम से उदरस्थ भ्रूण का पोषण होता है। अत: इस काल में महिलाओं को कम से कम 750 ग्राम दूध, 200 ग्राम फल, 01 अंडा तथा 50 ग्राम मांस प्रतिदिन आवश्यक मात्रा में मिलना चाहिये। शाकाहारी महिलाओं को मांस के स्थान पर 50 ग्राम दाल की मात्रा बढ़ा देनी चाहिये।

(द) स्तनपान कराने वाली महिला का भोजन -


इस दशा में महिलाओं को पचने वाला तथा पर्याप्त पौष्टिक तत्वों से भरपूर भोजन होना चाहिये क्योंकि शिशु के पोषण के कारण इस स्थिति में महिला को भूख अधिक लगती है अत: प्रोटीन, कैलोरी तथा कैल्सियम युक्त भोजन की मात्रा बढ़ा देनी चाहिये।

(य) युवकों को भोजन -


इस अवस्था में युवक शारीरिक एवं बौद्धिक विकास करता हुआ समाज में रहकर आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करता है। अथवा विद्यालय में पढ़ता हुआ ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करता है। भोजन का सीधा प्रभाव मन, बुद्धि और इंद्रियों पर पड़ता है इसलिये इस अवस्था में भोजन संबंधी विशेष सावधानी की आवश्यकता पड़ती है। युवकों को भोजन में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये।

1. भोजन सादा पौष्टिक तथा ताजा होने के साथ-साथ अधिक गर्म न हो।
2. चना, उड़द, गेहूँ आदि का अंकुरित अन्न का प्रयोग स्वास्थ्य के लिये अच्छा है।
3. भोजन में नींबू का प्रयोग पाचन शक्ति बढ़ाता है।
4. भोजन में सी तथा डी विटामिन पर्याप्त मात्रा में होने चाहिये।
5. खट्टे, चटपटे, मशालेदार, अचार, मुरब्बा का प्रयोग कम से कम करना चाहिये।
6. गाय अथवा बकरी का दूध प्रयोग करना चाहिये।
7. भोजन के साथ देशी खांड या गुड़ लिया जा सकता है।
8. दोपहर भोजन के बाद मौसम के अनुसार ताजे फलों का सेवन स्वास्थ्य के लिये लाभकारी है।

(र) भोजन संबंधी अन्य आवश्यक सुझाव -


1. जाड़े के दिनों में अधिक भोजन करना चाहिये।
2. भोजन को धीरे-धीरे खूब चबाकर करना चाहिये।
3. भोजन एक निश्चित समय पर ही करना चाहिये।
4. सायंकालीन भोजन कम मात्रा में किया जाना चाहिये।

(ल) भोजन पकाने संबंधी सुझाव -


गृहणी जिसका अधिकांश समय रसोई घर में ही व्यतीत होता है को यह जानना आवश्यक है कि पोषक तत्वों का संतुलन पकाने के बाद भी बना रहे। अत: इस संबंध में निम्नांकित बातों का ध्यान रखना चाहिये।

1. मोटा तथा चोकर युक्त आटा खाना पकाने के कुछ समय पूर्व भली प्रकार पानी में गूथकर रखना चाहिये जिससे वह पर्याप्त मात्रा में फूल सके।
2. रोटी चूल्हे की आग में दूर से सेंकी गई स्वास्थ्य वर्धक होती है।
3. यदि रोटी को पकाते समय घी लगा दिया जाय तो स्वास्थ्य वर्धक और गुणकारी हो जाती है। परंतु यदि खाते समय रोटी पर घी लगा दिया जाता है तो भोजन गरिष्ठ हो जाता है।
4. शारीरिक श्रम करने वालों को बिना चुपड़ी रोटी ही खानी चाहिये।
5. कच्ची सब्जी खाना स्वास्थ्य के लिये अच्छा रहता है। परंतु प्रत्येक सब्जी कच्ची नहीं खाई जा सकती। टमाटर, मूली, गाजर, चुकंदर, प्याज, शलजम आदि कच्ची ही खानी चाहिये।
6. सब्जी तलकर खाने में गरिष्ठ होती है अत: उबालकर खाने में स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छी रहती है।
7. सब्जी को छौंकनें में हींग, अदरक, प्याज, हरा धनिया, काली मिर्च का प्रयोग करना चाहिये।
8. सब्जियों का यदि मोटा भाग छीलकर फेंक दिया जाता है तो उसके अधिकांश पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाते हैं।
9. चावल का यदि मांड निकाल दिया जाय तो उसके पौष्टिक तत्व समाप्त हो जाते हैं।
10. चावल को रगड़ रगड़ कर धोने से भी पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं।
11. आवश्यकता से अधिक पकानें पर भी पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं।
12. सब्जियाँ भगौने को ढक कर पकाना चाहिये अन्यथा भाप के साथ पोषक तत्व निकल जाते हैं।
13. खाने के समय ही भोजन पकाना चाहिये, रखे भोजन के स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाते हैं।
14. शीघ्र गलाने के लिये सोडे का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
15. मालपुआ, पूड़ी, कचौड़ी तथा हलुआ भूख से कुछ कम मात्रा में सेवन करना चाहिये।
16. बाजार की विभिन्न मिठाईयों के सेवन से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
17. मांस का सेवन अपने स्वास्थ्य, जलवायु को ध्यान में रखकर अल्प मात्रा में करना चाहिये।
18. कच्चे अंडे की जर्दी दूध में फेंटकर अथवा वैसे ही लेना अधिक लाभकारी है।
19. जिन व्यक्तियों को नेत्र ज्योति कम होती है उन्हें अंडे का सेवन लाभप्रद होता है।
20. मदिरा का सेवन स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है।
21. पत्तेदार सब्जियों की आपूर्ति क्षेत्रीय उत्पादन द्वारा तथा यथा संभव कच्चा सेवन करना चाहिये।

शोध अध्ययन का सार संक्षेप

शोध ग्रंथ सूची

कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ

2

अध्ययन क्षेत्र की वर्तमान स्थिति

3

सामान्य भूमि उपयोग एवं कृषि भूमि उपयोग

4

सामान्य भूमि उपयोग एवं कृषि भूमि उपयोग

5

कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

6

कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

7

कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति

8

भोजन के पोषक तत्व एवं पोषक स्तर

9

कृषक परिवारों के स्वास्थ्य का स्तर

10

कृषि उत्पादकता में वृद्धि के उपाय

11

कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव

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