सौंफ की खेती
सौंफ की खेती

लवणीय जल सिंचाई द्वारा सौंफ (फीनिकुलम वलगेयर) की खेती (Fennel (Foeniculum vulgare) cultivation by saline water irrigation)

सौंफ शरद ऋतु में बोई जाने वाली फसल है।भारत में कुल 54290 हैक्टर में सौंफ की खेती की जाती है। इसमें राजस्थान व उत्तर प्रदेश प्रमुख हैं।इसका उपयोग औषधि, अचार, चटनी, मुरब्बा आदि में किया जाता है। आयुर्वेद में सौंफ एक विशेष स्थान रखती है, इसका प्रयोग अतिसार, खूनी पेचिस, कब्ज, नजला तथा मस्तिष्क की कमजोरी जैसी बीमारियों में किया जाता है।
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सौंफ मसाले की एक प्रमुख फसल हैं। इसका उपयोग औषधि, अचार, चटनी, मुरब्बा आदि में किया जाता है। आयुर्वेद में सौंफ एक विशेष स्थान रखती है, इसका प्रयोग अतिसार, खूनी पेचिस, कब्ज, नजला तथा मस्तिष्क की कमजोरी जैसी बीमारियों में किया जाता है। भारत में कुल 54290 हैक्टर में सौंफ की खेती की जाती है। इसमें राजस्थान व उत्तर प्रदेश प्रमुख हैं।

सौंफ शरद ऋतु में बोई जाने वाली फसल है। लेकिन सौंफ में फूल आने के समय पाला पड़ने से उपज प्रभावित होती है। शुष्क एवं सामान्य ठण्डा मौसम विशेषकर जनवरी से मार्च तक इसकी उपज व गुणवत्ता के लिए बहुत लाभदायक रहता है। फूल आते समय अधिक बादल या नमी से बीमारियों को बढ़ावा मिलता है।

सौंफ की बुवाई दोमट मृदा को छोड़कर प्रायः सभी प्रकार की भूमि, जिसमें जीवांश पर्याप्त मात्रा में हों व उचित जलनिकास वाली दोमट व काली मिट्टी अच्छी रहती है। अच्छी तरह से जुताई करके 15-20 सेंमी. गहराई तक खेत की मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए। पर्याप्त नमी के लिए बुवाई पूर्व सिंचाई ( पलेवा) आवश्यक है।

आर.एफ. 101, आर. एफ. 125, आर.एफ. 143 इत्यादि।

सौंफ की बुवाई के लिए 8-10 किग्रा. स्वस्थ बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है। बुवाई अधिकतर छिड़कवां विधि से की जाती है तथा निर्धारित बीज की मात्रा एक समान छिड़ककर हल्का पाटा लगा देते हैं। लेकिन सौंफ की बुवाई रोपण विधि द्वारा या सीधे कतारों में भी की जाती है। सीधी बुवाई के लिए 8-10 कि.ग्रा. बीज एवं रोपण विधि से बुवाई के लिए जुलाई-अगस्त में 100 वर्ग मीटर क्षेत्र में पौधशाला तैयार की जाती है। उसके बाद सितम्बर के महीने में रोपण किया जाता है। इसकी बुवाई मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर तक की जाती है। बुवाई 40-50 सेंमी. की दूरी पर कतारों में हल के पीछे कूड़ में 2-3 सेंमी. की गहराई पर की जाती है। पौध को पौधशाला से सावधानी से उठाना चाहिए जिससे जड़ों को नुकसान न हो। रोपण दोपहर के बाद जब गर्मी कम हो, की जाती है तथा रोपण के तुरन्त बाद सिंचाई आवश्यक है। सीधी बुवाई में 7-8 दिन के बाद दूसरी हल्की सिंचाई करते हैं जिससे पूर्णरूप से अंकुरण हो सके। पौधशाला से खेत में रोपण के लिए संयुक्त कतारें 120 सेमी. की दूरी पर रोपें व दो संयुक्त कतारों के बीच 210 सेमी. का अन्तराल रखें। पौधे से पौधे की दूरी 25 सेमी. रखें।

सौंफ के बीज को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोयें।

सौंफ की फसल की अच्छी बढ़वार के लिए भूमि में पर्याप्त मात्रा में जैविक पदार्थ का होना आवश्यक है। यदि इसकी उपयुक्त मात्रा मिट्टी में न हो, तो 10 से 15 टन/ हेक्टेयर अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत की तैयारी से पहले डाल देनी चाहिए ।

इसके अलावा 90 किलोग्राम नत्रजन तथा 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। 30 किलोग्राम नत्रजन एवं फॉस्फोरस की पूरी मात्रा खेत की अन्तिम जुताई के समय छिड़क कर मिला देनी चाहिए। शेष बची नत्रजन को दो भागों में बांटकर 45 दिन तथा फूल आने के समय देना चाहिए।

सौंफ की फसल को अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है। बुवाई के समय यदि खेत में नमी कम हो तो बुवाई के तीन-चार दिन बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए, जिससे बीज का जमाव उचित मात्रा में हो सके। सिंचाई करते समय ध्यान रखना चाहिए कि पानी का बहाव तेज न हो अन्यथा बीज बहकर किनारे पर एकत्रित हो जायेंगे। दूसरी सिंचाई बुवाई के 12 से 15 दिन बाद करनी चाहिए जिससे बीजों का अंकुरण पूर्ण हो जाए। इसके बाद सर्दियों में 15 से 20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। सौंफ में फूल आने के बाद सिंचाई जल की कमी नहीं होनी चाहिए।

सौंफ के पौधे जब 8 से 10 सेंमी. के हो जाए तब गुड़ाई करके खरपतवार निकाल देने चाहिए। गुड़ाई करते समय यह ध्यान रखा जाए कि जहाँ बहुत से पौधे एक जगह पर हों उनमें से कमजोर पौधों को निकालकर पौधों की संख्या उपयुक्त रखनी चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार खरपतवार निकालते रहें। फूल आने के बाद गुड़ाई करते समय पौधों के पास मिट्टी चढ़ा दें, जिससे पौधे हवा द्वारा गिर न सकें।

मोयला पौधों के कोमल भाग से रस चूसता है तथा फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है। मोयला कीट बहुत छोटे आकार का होता है। यह कोमल एवं नई पत्तियों से हरा पदार्थ खुरच कर खाता है जिससे पत्तियों पर धब्बे दिखाई देने लगते हैं, और पत्ते पीले पड़कर सूख जाते हैं। इसके नियंत्रण के लिए डाईमिथोएट 30 ई.सी. या मैलाथियान 50 ई.सी. एक मिली प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। आवश्यक होने पर 15 दिन बाद पुनः छिड़काव करें।

रोग होने पर पत्तियों व टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है। बाद में यह पूरे पौधे पर फैल जाता है। नियंत्रण के लिए 20-25 कि.ग्रा. गंधक के चूर्ण का बुरकाव करें।

इस रोग के प्रभाव से तना नीचे से मुलायम हो जाता है व जड़ गल जाती है। नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति लीटर बीज की दर से बीजोपचार करके बोयें।

सौंफ के दाने गुच्छे में आते हैं व पौधों पर सब गुच्छे एक साथ नहीं पकते । अतः कटाई एक साथ नहीं हो सकती है। जैसे ही दानों का रंग हरे से पीला होने लगे गुच्छों को तोड़ लेना चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए बीजों को अधिक पीला नहीं पड़ने देना चाहिए।

उन्नत तकनीक से खेती करने पर 10 से 15 कुंटल / हैक्टर पैदावार ली जा सकती है।

सौंफ पर कई वर्षों तक विभिन्न लवणीय जल उपचार पर परीक्षण किया गया। तालिका 9 के अवलोकन से ज्ञात होता है कि सौंफ के विभिन्न उपज कारक सिंचाई जल उपचार में सार्थक थे। विभिन्न कारक पौधे की ऊँचाई (सेंमी.), क्षत्रपों की संख्या / पौधा, बीजों की संख्या / क्षत्रप, दानों का भार / क्षत्रप (ग्राम), फूलों की संख्या / क्षत्रप, बीजों की संख्या / फूल, 1000 दानों का भार (ग्राम), सार्थक रूप से सबसे अधिक नहरी जल सिंचाई में तथा सबसे कम सिंचाई जल लवणता 8 डेसी. / मी. में थे। सौंफ की उपज कुंटल / हैक्टर सार्थक रूप से सबसे अधिक नहरी जल में 11.7 कुंटल / हेक्टेयर तथा सबसे कम वैद्युत चालकता 8 डेसी. / मीटर में 92 कुंटल / हेक्टेयर प्राप्त हुई, इसी प्रकार शुद्ध आय सबसे अधिक रुपये 58,700 नहरी जल तथा सबसे कम रुपये 38,750 लवणीय जल (वैद्युत चालकता 8 डेसी. /मी) से प्राप्त हुई ( तालिका 10 ) । अतः कह सकते हैं कि लवणीय जल में थोड़ी कम उपज के साथ सौंफ की खेती 8 डेसी. / मीटर तक के लवणीय सिंचाई जल द्वारा कर सकते हैं।

तालिका 9:-

तालिका

स्रोत- अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:

प्रभारी अधिकारी

अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना

लवणग्रस्त मृदाओं का प्रबंध एवं खारे जल का कृषि में उपयोग" राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय, बिचपुरी, आगरा-283105 (उत्तर प्रदेश)

ईमेल: aicrp.salinity@gmail.com

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