तिल की खेती
तिल की खेती

लवणीय जल सिंचाई द्वारा तिल (सेसेमम इंडिकम) की खेती (Cultivation of sesame (Sesamum indicum) by saline water irrigation)

तिल खरीफ की एक महत्त्वपूर्ण तिलहनी फसल है। इसकी खेती भारत में लगभग 5,000 वर्षों से की जाती रही है। तिल एक खाद्य पोषक भोजन व खाने योग्य तेल, स्वास्थवर्धक व जैविक दवाइयों के रूप में उपयोगी है। तिल का तेल पोष्टिक, औषधीय व श्रृंगारिक प्रसाधनों व भोजन में गुणवत्ता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
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तिल और तिली के तेल से सब परिचित है। रंग के हिसाब से तिल तीन प्रकार के होते हैं, श्वेत, लाल एवं काला तिल । औषधि के लिए काले तिल से प्राप्त तेल अधिक उत्तम समझा जाता है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका व चीन के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तिलहन उत्पादक देश है। विश्व के कुल क्षेत्रफल में भारत का 19 प्रतिशत तथा उत्पादन में 10 प्रतिशत योगदान है। तिल खरीफ की एक महत्त्वपूर्ण तिलहनी फसल है। इसकी खेती भारत में लगभग 5,000 वर्षों से की जाती रही है। तिल एक खाद्य पोषक भोजन व खाने योग्य तेल, स्वास्थवर्धक व जैविक दवाइयों के रूप में उपयोगी है। तिल का तेल पोष्टिक, औषधीय व श्रृंगारिक प्रसाधनों व भोजन में गुणवत्ता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में तिल बारानी उगाया जाता है। लेकिन उच्च तकनीक अपनाकर इसकी उपज को बढ़ाया जा सकता है।

तिल के लिए ऐसी भूमियों का चयन करना चाहिए जहाँ जलभराव की समस्या नहीं हो। मानसून की वर्षा होते ही एक या दो बार जुताई करके खेत को तैयार कर लेना चाहिए।

तिल की बहुत सी प्रजातियाँ हैं लेकिन अधिक पैदावार लेने के लिए हम निम्न किस्में उगा सकते हैं। जैसे टी. सी. 25, आर.टी. 46, आर.टी. 103, आर. टी. 125, आर. टी. 127, प्रगति (एम.टी. 175) इत्यादि।

उत्तर भारत में तिल की बुवाई के लिए जून का अन्तिम तथा जुलाई का प्रथम सप्ताह अच्छा रहता है साथ ही यह वर्षा आने पर भी निर्भर करता है।

अत्यधिक शाखा वाली किस्मों के लिए 2.0-2.5 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर पर्याप्त रहता है तथा अधिक शाखा वाली किस्मों में कतारों के मध्य की दूरी 35 सेंमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंमी. रखते हुए बुवाई करते हैं। इसके विपरीत शाखा रहित किस्मों की बुवाई के लिए 4 से 5 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर पर्याप्त रहता है तथा इसमें कतार से कतार की दूरी 30 सेंमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेंमी. रखते हैं।

बुवाई करने से पहले तिल के बीज को 3.0 ग्राम थायरम या कैप्टान से प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। जीवाणु अंगमारी रोग से बचाव हेतु बीजों को 2.0 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का 10 लीटर पानी में घोल बनाकर (दो घण्टे डुबोकर ) बीजोपचार करना चाहिए।

तिल में एजोटोबैक्टर एवं पीएसबी (फॉस्फोरस घोलक जीवाणु) का उपयोग करने से 25 प्रतिशत नत्रजन एवं फॉस्फोरस उर्वरकों की बचत की जा सकती है।

जिन क्षेत्रों में सामान्य वर्षा होती है वहाँ 20 कि.ग्रा. नत्रजन व 25 कि.ग्रा. फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय बीज से 4-5 सेंमी. नीचे डालनी चाहिए। नत्रजन की शेष आधी मात्रा बुवाई के 4-5 सप्ताह बाद जब हल्की वर्षा हो जाये तब खेत में छिड़कवां विधि से डाल देनी चाहिए।

  • जहाँ वर्षा कम होती है वहाँ पर उर्वरकों की आधी मात्रा डालें।
  • फॉस्फेट उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करें।
  • जिन मृदाओं में जिंक की कमी है उनमें 25-30 कि० ग्रा० जिंक सल्फेट बुवाई के समय डाल देना चाहिए।
  • खड़ी फसल में जिंक की कमी होने पर 50 दिन की फसल में 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट, 0.25 प्रतिशत चूने के पानी के घोल में मिलाकर छिड़काव करें।

जहाँ तिल उगाना है उन मृदाओं में बुवाई से पूर्व 150 कि.ग्रा./ हैक्टर जिप्सम मिलाने से तिल की उपज तथा तेल की मात्रा बढ़ जाती है।

तिल में बुवाई के बाद कम वर्षा होने पर यदि खेत में नमी कम रह गई हो तो फलियों में दाना पड़ते समय सिंचाई अवश्य करनी चाहिए।

फसल में खरपतवारों की रोकथाम के लिए बुवाई के एक महीने बाद निराई-गुड़ाई अवश्य करें। एलाक्लोर दाने 2 कि.ग्रा./ हैक्टर या 1.5 कि.ग्रा./ हैक्टर की दर से बुवाई पूर्व प्रयोग करें।

पत्ती एवं फली छेदक, गोल मक्खी, सैन्य कीट, हांक मांथ एवं फड़का का तिल की फसल में प्रकोप प्रतिवर्ष जुलाई से अक्टूबर तक रहता है। इसकी सूंडी, पत्तियां, फूल तथा फलियों को नुकसान पहुंचाती है। इस कीट की लटों द्वारा जाला बनाने से पौधों की कोमल पत्तियां आपस में जुड़ जाती हैं जिससे पौधे की बढ़वार रूक जाती है। इनके नियंत्रण के लिए क्यूनॉलफॉस 25 ई.सी. 1-1.5 लीटर या कारबोरिल 50 प्रतिशत चूर्ण 2 कि० ग्रा० / हैक्टर की दर से प्रकोप दिखाई देते ही छिड़काव करें। जरूरत पड़ने पर 15 दिन बाद पुनः छिड़काव करें। हांक मांथ, फड़का एवं गोल मक्खी की रोकथाम के लिए मैन्कोजैब या जाइनेब 1.5 कि.ग्रा. या कैप्टान 2-2.5 कि.ग्रा. फफूंदीनाशी का प्रति हैक्टर 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।

इस रोग का प्रारम्भ छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बों से फलियों पर होता है। बाद में ये बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं तथा तने पर इसका प्रभाव भूरी धारियों के रूप में दिखाई देता है। रोकथाम के लिए मैन्कोजेब या जाइनेब 1.5 कि.ग्रा. या कैप्टान 2-2.5 कि.ग्रा. फफूंदनाशी का प्रति हैक्टर की दर से 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।

सितम्बर महीने में पत्तियों की सतह पर सफेद पाउडर जैसा जमा हो जाता है। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां पीली पड़ कर सूखने लगती है तथा झड़ जाती है। लक्षण दिखाई देते ही 20 कि.ग्रा. गंधक चूर्ण प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें।

रोगी पौधों की जड़ व तना भूरे रंग का हो जाता है। रोगी पौधों का तना, पत्तियों एवं फलियों पर छोटे-छोटे काले दाने दिखाई देते हैं। रोगी पौधे जल्दी पक जाते हैं। रोकथाम के लिए तिल बोने से पूर्व बीज को 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज थायरम या कैप्टान से उपचारित कर बोना चाहिए।

तिल की कटाई का समय बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि देरी होने पर दाने झड़ने लगते हैं । जब पौधे पीले पड़ जाये तो समझ लेना चाहिए कि फसल पक गई है। कटाई करके बंडल बांध कर सीधा खड़ा कर दें। पूरी पैदावार लेने के लिए इन बंडलों की दो बार झड़ाई करें।

तिल पर लवणीय जल सिंचाई का परीक्षण कई वर्षों तक किया गया। इस परीक्षण में सिंचाई जल के चार उपचार क्रमशः नहरी जल 4 6 एवं 8 डेसी. / मीटर सिंचाई में प्रयोग किया गया । तालिका 8 का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि तिल के उपज कारक जैसे कैप्सूल की संख्या प्रति पौधा, कैप्सूल में दानों की संख्या तथा 1000 दानों का भार (ग्राम) सार्थक रूप से नहरी जल, वैधुत चालकता 4 एवं 6 डेसी. / मीटर पर आपस में समान थे। लेकिन सार्थक रूप से सबसे कम वैद्युत चालकता 8 डेसी. / मीटर में पाये गये। इसी प्रकार तिल के बीज की पैदावार सार्थक रूप में सबसे अधिक नहरी जल 4 एवं 6 डेसी. / मीटर में थी तथा सबसे कम 8 डेसी. / मीटर से प्राप्त हुई। संबंधित उपज भी इन्हीं उपचारों में अधिक थी। तिल की फसल से सबसे अधिक शुद्ध आय रुपये 88,200 / हैक्टयर नहरी जल उपचार तथा सबसे कम रुपये 55,850 / हैक्टयर लवणीय जल 8 डेसी. / मीटर से प्राप्त हुई। परिणामों के आधार पर हम कह सकते हैं कि खारे पानी वाले क्षेत्रों में 8 डेसी./ मीटर लवणता तक तिल की खेती सफलतापूर्वक कर सकते हैं।

तालिका 8:- सिंचाई जल की गुणवत्ता का तिल की पैदावार पर प्रभाव

स्रोत-अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:
प्रभारी अधिकारी
अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना
"लवणग्रस्त मृदाओं का प्रबंध एवं खारे जल का कृषि में उपयोग" राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय, बिचपुरी, आगरा-283105 (उत्तर प्रदेश)
ईमेल: aicrp.salinity@gmail.com

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