प्राकृतिक संसाधन
प्राकृतिक संसाधन

संसाधन संरक्षण की सामान्य विवेचना की झाँकी में जल संरक्षण की उपयोगिता एवं उपाय

देश काल क्षेत्र एवं परिस्थितियों के अनुसार संसाधनों की उपलब्धता वहाँ की जनसंख्या, उसकी मांग एवं जीवन स्तर, विदोहन, उपयोग की दिशा तथा परिमाण पर निर्भर है तथा इसका अविवेकपूर्ण दोहन तथा अनियंत्रित उपयोग अनेक प्रकार की समस्याओं को जन्म दे सकता है। या तो वे सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेंगे अथवा रूप परिवर्तन अथवा प्रदूषण के फलस्वरूप निष्प्रभावी हो जायेंगे और नहीं तो पर्यावरणीय समस्या पैदा कर देंगे।
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'संसाधन' अथवा 'रिसोर्स' का दृष्टिकोण वास्तव में बहुत व्यापक है। इसका अर्थ है - लंबी अवधि का साधन । परन्तु सही अर्थों में इस अर्थ के पीछे मनुष्य मात्र की आवश्यकता की पूर्ति का दृष्टिकोण समाहित है । यह कहीं दृष्टव्य है तो कहीं अदृश्य। समय के साथ-साथ यह परिवर्तनशील है। किसी समय यदि कोई वस्तु मानव आवश्यकता की पूर्ति में सक्षम है तो अन्य किसी समय में कोई और ही वस्तु प्राकृतिक संसाधन वे साधन (तत्व, सेवाएं एवं पदार्थ ) हैं जो प्राकृतिक रूप से पृथ्वी पर विद्यमान हैं एवं किसी न किसी रूप में मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति में या तो इनका उपयोग आदि काल से करता रहा है अथवा कुछ समय पहले से करने लगा है। ऐसे अनेक दृष्टांत मौजूद हैं जिसमें यह प्रतीत होता है कि वास्तव में संसाधन होते नहीं वरन् प्रकृति, मानवीय सहयोग तथा संस्कृति विकास के सहयोग के फलस्वरूप निर्मित होते हैं। देश काल क्षेत्र एवं परिस्थितियों के अनुसार संसाधनों की उपलब्धता वहाँ की जनसंख्या, उसकी मांग एवं जीवन स्तर, विदोहन, उपयोग की दिशा तथा परिमाण पर निर्भर है तथा इसका अविवेकपूर्ण दोहन तथा अनियंत्रित उपयोग अनेक प्रकार की समस्याओं को जन्म दे सकता है। या तो वे सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेंगे अथवा रूप परिवर्तन अथवा प्रदूषण के फलस्वरूप निष्प्रभावी हो जायेंगे और नहीं तो पर्यावरणीय समस्या पैदा कर देंगे। प्रस्तुत लेख में संसाधनों के वर्गीकरण पर प्रकाश डाला गया है तथा संरक्षण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की गई है। विशेष रूप से विश्व के सर्वाधिक उपलब्ध विभिन्न उपायों की भी चर्चा इस लेख का मुख्य आकर्षण है।

यह कैसी विडम्बना है कि नाम एक रूप अनेक उत्पत्ति की दृष्टि से जहाँ चट्टान, धरती के स्वरूप, मिट्टी, जलवायु, जल एवं खनिज आदि भौतिक संसाधनों के रूप में समझे जाते हैं वहीं धरती के वनस्पति एवं जीव समुदाय जैविक संसाधन के रूप में उपयोगिता की दृष्टि से जहाँ कोयला, पेट्रोलियम, गैस, सोना, चाँदी आदि सीप संसाधन है। तो लोहा, अल्युमिनियम आदि संबर्धनीय संसाधन हैं जिन्हें रूप परिवर्तित करके बहुउपयोगी बना लिया जाता है। अपरिवर्तनीय संसाधन वे हैं जिनका बार-बार उपयोग करने के पश्चात भी पूर्णत: विनाश नहीं होता जैसे महासागरीय जल, जलवायु, सूर्यताप, उर्जा, बहता हुआ बारहमासी नदी का जल इत्यादि । उपलब्धता की दृष्टि से सर्व प्राप्य संसाधन जैसे - वायु, जल, मिट्टी, सौर उर्जा एवं वायुमंडलीय तत्व हैं तो ऐसे भी संसाधन हैं जो सामान्यतः एक बड़े क्षेत्र में प्राप्त होते हैं जैसे ल वनस्पति, पशु जीवन, चट्टाने कृषि योग्य भूमि आदि सोना, चाँदी, बहुमूल्य खनिज तथा प्राकृतिक गैस, बहुमूल्य चट्टानों, आकाशीय पिण्डों इत्यादि को दुर्लभता से प्राप्त संसाधन के रूप में लिया जाता है। रेडियो एक्टिव पदार्थों एवं प्लूटोनियम तथा अनेक कम परमाणु संख्या वाले तत्वों के समस्थानिकों तथा समभारियों को उन संसाधनों में सम्मिलित किया जा सकता है जिसका उपयोग अभी इस शताब्दी में बढ़ा है और अद्वितीय है। यदि ध्यान से देखें तो एक अन्य प्रकार का और संसाधन है, जो वास्तव में सुसुप्तावस्था में है और अभी तक शायद उनका उपयोग सम्भव नहीं हो पाया है।

संसाधनों के गैरपरियोजना के अंधाधुंध उपयोग तथा अनियंत्रित दोहनों ने पर्यावरण पर बहुत ही कुप्रभाव डाला है। इससे मानव का पारिस्थितिक तंत्र का कमजोर होना तथा विघटन के कगार पर पहुँचना ही सम्भवतः संरक्षण सिद्धान्त के सृजन में सहायक हुआ है। वास्तव में संसाधन संरक्षण का तात्पर्य संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग से है जिससे मानव के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कल्याण कार्यों में वर्तमान एवं भविष्य की दृष्टि से संसाधनों का उपयोग संभव हो सके। संरक्षण में प्राकृतिक संसाधनों का विकास, सुरक्षा, बचत तथा बरबादी से रोकना एवं विवेकपूर्ण उपयोग आदि निहित है।

जनसंख्या वृद्धि एवं उसके जीवन स्तर एवं प्राकृतिक साधनों के बीच संतुलन, अनुकूलन तथा सामन्जस्य स्थापित करना ही संसाधन संरक्षण का मुख्य लक्ष्य है।

मनुस्मृति (1-7 (99,88) ) के अनुसार जो प्राप्त नहीं है उसे प्राप्त करने की इच्छा करें, जो प्राप्त है उसकी प्रयत्न से रक्षा करें, जो रक्षित है, उसको बढ़ायें, बढ़े हुए को सुपात्र को दान दें। इसमें संरक्षण की पूर्ण संकल्पना मौजूद है। इस सम्बन्ध में ऋग्वेद के अनेकों श्लोक [0-1 (121.8)} (ऋ08 (310) ] जहाँ जल कृषि परक और कृत्रिम जल प्रणाली द्वारा शुष्क भूमि को सिंचित करके उपयोग बनाने की प्रेरणा प्रदान करते हैं वहीं यजुर्वेद (163) तथा अथर्ववेद ( 2/12, 1-44) सूखा प्रबंधन और पृथ्वी की स्तुति करते हुए इसे प्रसन्न रखने के प्रेरणा स्रोत हैं। अतः हम देखते हैं कि हमारे भारतीय मनीषियों ने तो इस तथ्य को पहले ही आत्मसात कर लिया था।

वैसे तो संसाधन संरक्षण की बात आज से लगभग 150 वर्ष पहले से ही उस समय प्रारम्भ हो गई थी जब 1864 में जी०पी० मार्श की पुस्तक "मैन एण्ड नेचर' का विमोचन हुआ था परन्तु आज का विश्व 1950 ई0 के बाद कहीं अधिक संवेदनशील लगता है और पर्यावरण संरक्षण का अध्याय जुड़ने से इसने एक आन्दोलन का रूप ले लिया है। इस आन्दोलन की पृष्ठ भूमि में धार्मिक, आर्थिक दूसरों को लाभ पहुँचाने एवं सामाजिक दृष्टिकोण की विशेष भूमिका रही है और प्रकृति पारिस्थितिक भूक्षरण, भू-उपयोग के साथ-साथ आवागमन, बाँध, वन्य साम्राज्य की संकल्पना उजागर हुई है।

संसाधन संरक्षण की चर्चा एवं उपयोगिता का आकलन इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट विज्ञान के रूप में देखा जा रहा है। संरक्षण के कुछ मूलभूत सर्वमान्य सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया जा चुका है और भू मृदा संरक्षण, वन संरक्षण, जल संरक्षण, वायु एवं हिम संरक्षण के साथ-साथ कोयला, प्राकृतिक तेल एवं गैस संरक्षण, वन्य प्राणियों तथा जल जीवों के संरक्षण जैसी अनेकानेक संरक्षण की परिचर्चाओं के बाजार गर्म दिखते हैं और विज्ञान के रूप में विकसित हो चुके हैं।

जल जिसे पृथ्वी पर लगभग इसके 71 प्रतिशत भाग पर फैले होने का गौरव प्राप्त है तथा इस गृह पर जो जीवन दिखाई पड़ता है, उसके सृजन के प्रमुख आधार होने के कारण समस्त प्राकृतिक संसाधनों से इसका स्थान कहीं ऊपर है। विपुल भंडार, असीमित प्रसार और इसके विलक्षण गुणों को कौन नहीं जानता। इसकी उपयोगिता किसे नहीं मालूम, अतः विश्व का लगभग प्रत्येक देश एवं प्राणी इस संसाधन के प्रति कहीं अधिक आकर्षित हुआ। इस संसाधन के बहुआयामी उपयोग के बहुफलक दृष्टिकोण हैं तथा इस प्रस्तुत लेख में उनकी विस्तार से चर्चा करना संभव नहीं । अत: मात्र इस विलक्षण संसाधन की उपयोगिता का संदर्भ मात्र ही प्रमुख आकर्षण केन्द्र बिन्दु के रूप में सजाने का प्रयास किया गया है।
संसाधन संरक्षण के लाभकारी उपयोग, बरबादी से रोक, विकल्प खोज, स्वामित्व-नियंत्रण, उत्पादन विकास, नागरिक प्रशिक्षण जैसे षष्टफलक उपायों द्वारा जहाँ प्राकृतिक संरक्षण की यत्र तत्र चर्चा मिलती रहती है वहीं जल संरक्षण के निम्न लिखित उपायों के महत्व को यदि हम एक मार्गदशी सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लें तो इस विपुल अपितु वास्तव में दुर्लभ प्राकृतिक संसाधन के संरक्षण की दिशा में महती योगदान दे सकेंगे। पेयजल, सिंचाई, उद्योग, उर्जा, शहरी आवश्यकता के दृष्टिगत संरक्षण की आवश्यकता एवं उपयोग की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है परन्तु आशा से बहुत ही कम । अतः आवश्यकता है उसे संपुष्ट करते हुए इसे और बारीकी से समझने, समझाने तथा वास्तविक दिशा निर्देश तय करने एवं उन पर चलते हुए इस प्राकृतिक संपदा के संरक्षण के विभिन्न उपायों को अपनाने की। जीवन के पर्याय के रूप में यह उक्ति कि "जल ही जीवन है" वास्तविक परिस्थिति की एक झलक प्रस्तुत करती है।

जल संरक्षण के कुछ निम्न लिखित उपाय सुझाये गये हैं जो वास्तव में दिशा निर्धारण में सहयोग स्वरूप हैं जिनका विस्तार पाठकगण स्वयं करने में सक्षम हैं

  • जल के संचय से संरक्षण
  • जल का लम्बे मार्गों द्वारा स्थानान्तरण द्वारा उपयोगी बनाकर संरक्षण
  • वाष्पीकरण एवं वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल हानि पर नियंत्रण द्वारा संरक्षण
  • जलापूर्ति की प्रबन्ध व्यवस्था को सुचारू एवं सुनिश्चित करके संरक्षण

सिंचाई के नवीनतम उत्कृष्ट विधियों को अपनाकर संरक्षण (तालाबों का नवीनीकरण, निस्पन्दन तालाबों का निर्माण, सिंचाई दक्षता में वृद्धि जल प्रबन्धन में सुधार में नहरों, जल प्रणाली को पक्का करके न्याय संगत वितरण प्रणाली के निर्माण) तथा इसके भविष्य के रखरखाव के रीतियों में सुधार करने से संरक्षण आदि अनेकों ऐसे विषय हैं जिनपर ध्यान देकर इससे संरक्षण पहलू को और संपुष्ट किया जा सकता है।
भूपृष्ठ, भौम जल के मिले जुले उपयोग, अच्छी सिंचाई पद्धति, स्प्रिंकर एवं ड्रिप सिंचाई, मृदा जल में ह्रास पर नियंत्रण द्वारा तथा लवणीय जल का उपयोग सुनिश्चित करके इस संसाधन का अच्छा संरक्षण संभव है। इसके पुनः उपयोग तथा उद्योगों में तकनीकी सुधार करके इसमें प्रयुक्त जल की मात्रा को कम करके इस संपदा की रक्षा संभव है। जल नीति एवं जल कर द्वारा भी संरक्षण संभव है।

विश्व के बदलते दृश्य पटल पर जहाँ संसाधनों के संरक्षण की होड़ सी लगी हुई है, पर्यावरण के संरक्षण में वायु एवं जलवायु की शुद्धिकरण तथा नियंत्रण में प्रयुक्त, प्रदूषण रहित उर्जा स्रोत के रूप में स्वीकार्य एवं सदियों से मान्यता प्राप्त जल रूपी संसाधन के सीमित दोहन एवं नियंत्रित विवेकशील उपयोग की ओर यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो स्वमेव दुर्लभ होकर अनेकानेक संसाधनों को सामान्य पहुँच से बाहर अथवा अत्यन्त दुर्लभ हो जायेगा। जीवन के प्रारम्भ और पालन के साथ-साथ, मनोरंजन, यातायात तथा उर्जा स्रोत, ताप नियामक, प्रदूषण नियंत्रक एवं सभ्यताओं के आधार स्वरूप माता के रूप में जगपालक, अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के साथ-साथ जल संरक्षण को विशेष दर्जा मिलना चाहिये एवं समस्त जल जीवन की रक्षा हेतु इसके संरक्षण के उपाय किये जाने चाहिये तभी हम अपने आगे की पीढ़ी के प्रति न्याय कर सकेंगे अन्यथा भीषण परिस्थितियों से सामना करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।

एक पत्थर, एक मूर्ति

पत्थर और मूर्ति दो शब्द हैं। एक सृष्टि का अति साधारण तत्व और दूसरा उसी साधारण तत्व से निर्मित - असाधारण कलाकृति ।

एक गांव में एक पगडण्डी कहीं दूर चली जाती थी जिसकी मंजिल सम्भवतः किसी को नहीं पता थी। वह पगडण्डी दूसरों को सुख देती क्योंकि न जाने कितने मनुष्य उस पर से गुजरते, पनघट को जाती स्त्रियां, विद्यालय को जाते हुए बच्चे, खेतों को जाते हुए किसान, मन्दिर को जाते हुए भक्तगण और न जाने कितने राही जो पगडण्डी पर चलते और चलते रहते। उसी पगडण्डी पर पड़ा था एक पत्थर वह पत्थर, जो वर्षभर एक ही जगह पड़ा इस संसार का कार्यचक्र देखता रहता था। एक ही स्थान पर मौन रहकर इसने कितने शिशुओं को युवा होते देखा, कितने युवकों को वृद्ध होते देखा और न जाने कितने बूढ़ों की अर्थियां निकलती हुई देखी लेकिन सदा की भांति मौन रहकर और उस पत्थर ने क्रूर मानव समाज की ठोकरें भी बहुत खायीं। यदि कोई बालक खेल में मगन उस पत्थर से चोट खा जाता तो उसकी मां उस पत्थर को कोसती; अगर कोई युवती पनघट जाती हुई ठोकर खा कर गिर जाती तो उस पत्थर पर अपशब्दों की बौछार करती और अगर कोई नई नवेली दुल्हन लम्बे घूंघट के कारण गिर जाती तो सारा दोष उसी पत्थर को मिलता; लेकिन वह पत्थर सबकी सुनता सहता हुआ पड़ा रहता मौन सदा की तरह।

इसी प्रकार समय बीतता गया। फिर अचानक एक मूर्तिकार उधर से आ निकला। उसे भी ठोकर लगी। मगर उस मूर्तिकार ने उस पत्थर को नहीं कोसा बल्कि वह रूका और उस बेसहारे पत्थर को निहारने लगा। शायद आज उसके जीवन में यह पहला क्षण था, जब किसी ने पत्थर की ओर देखा था। उसने पत्थर को उठाया और बना दी एक मूर्ति भगवान की और उसे स्थापित कर दिया एक मन्दिर में वही पत्थर जो कभी कोसा जाता था, जिस पर लोग कभी दृष्टि भी नहीं उठाते थे, आज उसी पत्थर की सब लोग पूजा करने लगे और अपनी भावना के पुण्य पुष्प चढ़ाने लगे, उसकी आराधना करने लगे। लोग श्रद्धा के साथ उसके सामने झुक जाते और बदले में वह पत्थर सबको अपना आशीर्वाद व वरदान देता।

स्रोत -राष्ट्रीय जल विद्यां संस्था

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