अल नीनो और भारतीय मानसून | El Nino decides the weather of India
हमारी प्रकृति अनेक रहस्यों से भरी है और इन रहस्यों के कई पहलू होते हैं जो समूची सृष्टि को प्रभावित तो करती है मगर उनके पीछे के निहित कारकों की खोज अभी अधूरी है। वैज्ञानिक इन्हें जानने की कोशिश में लगातार जुटे रहते हैं। हमारी प्रकृति की ऐसी ही एक घटना है 'अल नीनो' जो भारत के मौसम को प्रभावित करता है। आइए जानते हैं कि अल नीनो की घटना क्या होती है और कैसे यह हमारे देश के मौसम पर असर डालता है।
मई के तीसरे सप्ताह तक उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा बीते एक महीने से लगातार 40 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक तापमान झेल रहा था। अचानक ही 20 मई के आस-पास बरसात हुई व तापमान 12 से 15 डिग्री सेल्सियस तक गिर गया, लेकिन अगले ही दो दिनों में थर्मामीटर पर पारा फिर से 40 की तरफ भाग रहा था। मानसून मिशन जलवायु पूर्वानुमान (एमएमसीएफएस) के एक अध्ययन ने चेता दिया है कि इस साल जैसे अप्रैल-मई के दिन तपे, वैसे ही नवंबर और दिसंबर में भी तपेंगे। दिसंबर में तेज ठंड नहीं पड़ेगी। अक्टूबर और नवंबर में दिन का तापमान सामान्य से ज्यादा बना रहेगा और कड़ाके की ठंड जनवरी में ही पड़ेगी। मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि इसकी वजह अल नीनो है। इसका असर अक्टूबर से दिसंबर तक रहेगा। मौसम में बदलाव की पहेली अभी भी अबूझ है और हमारे यहां कैसा मौसम होगा, उसका निर्णय सात समुंदर पार, 'अल नीनो' अथवा 'ला नीनो' प्रभाव पर निर्भर होता है।
प्रकृति रहस्यों से भरी है और इसके कई ऐसे पहलू हैं जो समूची सृष्टि को प्रभावित तो करते हैं लेकिन उनके पीछे के कारकों की खोज अभी अधूरी ही है और वे अभी भी किवदंतियों और तथ्यों के बीच त्रिशंकु हैं। ऐसी ही एक घटना सन् 1600 में पश्चिमी पेरू के समुद्र तट पर मछुआरों ने दर्ज की थी, जब क्रिसमस के आस-पास सागर का जल स्तर असामान्य रूप से बढ़ता दिखा। इसी मौसमी बदलाव को स्पेनिश शब्द 'अल नीनो' परिभाषित किया गया, जिसका अर्थ होता है- छोटा
बच्चा या 'बाल-यीशु' । अल नीनो का मतलब स्पेनिश भाषा में लिटिल बॉय या क्राइस्ट चाइल्ड होता है। दक्षिण अमेरिकी मछुआरों ने पहली बार 1600 के दशक में प्रशांत महासागर में असामान्य रूप से गर्म पानी की गतिविधि देखी थी। उनके द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला पूरा नाम "अल नीनो डी नविदाद" था। चूंकि अल नीनो का असर आमतौर पर दिसंबर के आस-पास चरम पर होता है और इसी महीने ईसा मसीह का जन्म दिवस होता है, इसलिए मौसम की इस असामान्य गतिविधि को यह नाम मिला।
अल नीनी असल में मध्य और पूर्व मध्य भूमध्यरेखीय समुद्री सतह के तापमान में नियमित अंतराल के बाद होने वाली वृद्धि है जबकि 'ला नीनों' इसके विपरीत अर्थात् तापमान कम होने की मौसमी घटना को कहा जाता है। अल नीना भी स्पेनिश भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है छोटी बच्ची। ला नीनो को कभी-कभी एल विएजो, अल नीनो विरोधी भी कहा जाता है।
दक्षिणी अमेरिका से भारत तक के मौसम में बदलाव के सबसे बड़े कारण अल नीनो और अल नीना प्रभाव ही होते हैं। अल नीनो का संबंध भारत व ऑस्ट्रेलिया में गर्मी और सूखे से है, वहीं अल नीना अच्छे मानसून का वाहक है और इसे भारत के लिए वरदान कहा जा सकता है। भले ही भारत में इसका असर हो लेकिन अल नीनो और ला नीनो घटनाएं पेरू के तट (पूर्वी प्रशांत) और ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट (पश्चिमी प्रशांत) पर घटित होती हैं। हवा की गति इन प्रभावों को दूर तक ले जाती है। यहां जानना जरूरी है कि भूमध्य रेखा पर सूर्य की सीधी किरणें पड़ती हैं। इस इलाके में पूरे 12 घंटे निर्वाध सूर्य के दर्शन होते हैं और इस तरह से सूर्य की ऊष्मा अधिक समय तक धरती की सतह पर रहती है। तभी भूमध्य क्षेत्र या मध्य प्रशांत इलाके में अधिक गर्मी पड़ती है और इससे समुद्र की सतह का तापमान प्रभावित रहता है।
आमतौर पर सामान्य परिस्थिति में भूमध्यीसागरीय हवाएं पूर्व से पश्चिम (पछुआ) की और बहती हैं और गर्म हो चुके समुद्री जल को ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी समुद्री तट की ओर बहा ले जाती हैं। गर्म पानी से भाप बनती है और उससे बादल बनते हैं जिसके परिणामस्वरूप पूर्वी तट के आस-पास अच्छी बरसात होती है। नमी से लदी गर्म हवाएं जब ऊपर उठती हैं तो उनकी नमी निकल जाती है और वे ठंडी हो जाती हैं। तब क्षोभमंडल (troposphere) की पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली ठंडी हवाएं पेरू के समुद्री तट व उसके आस-पास नीचे की ओर आती हैं। तभी ऑस्ट्रेलिया के समुद्र से ऊपर उठती गर्म हवाएं इससे टकराती हैं। इससे निर्मित चक्रवात को 'वॉकर चक्रवात' कहते हैं। असल में इसकी खोज सर गिल्बर्ट वॉकर ने की थी।
अल नीनो परिस्थिति में पछुआ हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं और समुद्र का गर्म पानी लौट कर पेरू के तटों पर एकत्र हो जाता है। इस तरह समुद्र का जल स्तर 90 सेंटीमीटर तक ऊंचा हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप वाष्पीकरण होता है और इससे बरसात वाले बादल निर्मित होते हैं। इससे पेरू में तो भारी बरसात होती है लेकिन मानसूनी हवाओं पर इसके विपरीत प्रभाव के चलते ऑस्ट्रेलिया से भारत तक सूखा हो जाता है।
ला नीनो प्रभाव के दौरान भूमध्य क्षेत्र में सामान्यतया पूर्व से पश्चिम की तरफ चलने वाली अंधड़ हवाएं पेरू के समुद्री तट के गर्म पानी को ऑस्ट्रेलिया की तरफ ढकेलती हैं। इससे पेरू के समुद्री तट पर पानी का स्तर बहुत नीचे आ जाता है, जिससे समुद्र की गहराई का ठंडा पानी थोड़े से गर्म पानी को प्रतिस्थापित कर देता है। यह वह काल होता है जब पेरू के मछुआरे खूब कमाते हैं।
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार, कोविड काल भारत के मौसम के लिहाज से बहुत अच्छा रहा और यह 'ला नीनो' का दौर था। लेकिन अभी तक यह रहस्य नहीं सुलझाया जा सका है कि आने वाले दिन हमारे लिए 'बाल-यीशु' वाले हैं या 'छोटी बच्ची' वाले। अल नीनो के दौरान भारत में मानसून अक्सर कमजोर रहा है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता है। ऐसा अनुमान है कि पिछले 130 वर्षों में भारत में पड़ी सूखे की मार का 60 फीसदी अल नीनो की जुगलबंदी के साथ हुआ है। इन सालों में बरसात सामान्य से 10 प्रतिशत कम रही है। अल नीनो के नकारात्मक प्रभाव को हिंद महासागर के द्विध्रुवी प्रणाली द्वारा नकारा जाता है। यह तब होता है जब पश्चिमी और पूर्वी हिंद महासागर के समुद्र के तापमान में सकारात्मक अंतर होता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के बेहतर जीडीपी वाला भविष्य असल में पेरू के समुद्रतट पर तय होता है। जाहिर है कि हमें इस दिशा में शोध को बढ़ावा देना ही होगा।
लेखक संपर्क - श्री पंकज चतुर्वेदी,
संपादक, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत,
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