चित्तौड़

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चित्तौड़ दक्षिणी राजस्थान में चित्तौड़ जिले का प्रमुख प्रशासकीय और प्रसिद्ध नगर है। इसकी जनसंख्या 16,888 (1961) है। कपास, तिलहन और मक्का की खेती होती है। कपास से बिलौना निकालने का उद्योग भी यहाँ विकसित है। इसके पास ही चूने के पत्थर की खानें हैं। यह व्यापारिक केंद्र तथा क्षेत्र का प्रसिद्ध पर्यटक केंद्र है। (कृ. मो. गु.)

ऐतिहासिक


चित्तौड़ का विख्यात दुर्ग, राजस्थान में 24.53 अक्षांश और 74.39 देशांतर पर स्थित है। यह जमीन से लगभग 500 फुट ऊँचाईवाली एक पहाड़ी पर बना हुआ है। परंपरा से प्रसिद्ध है कि इसे चित्रांगद मोरी ने बनवाया था। आठवीं शताब्दी में गुहिलवंशी बापा ने इसे हस्तगत किया। कुछ समय तक यह परमारों, सोलंकियों और चौहानों के अधिकार में भी रहा, किंतु सन्‌ 1175 ई. के आस पास से उदयपुर राज्य के राजस्थान में विलय होने तक यह प्राय: गुहिलवंशियों के हाथ में रहा।

चित्तौड़ की गौरवगाथा सदा भारतीय जनता के मस्तक को उन्नत करती रहेगी। यहीं वीर राजपूतों ने अलाउद्दीन खिल्जी से युद्ध कर असिधारातीर्थ में स्नान किया। यहाँ महारानी पद्मिनी (दे. 'पद्मिनी') और अन्य राजपूत रमणियों ने अपने पात्व्राित्य और संमान की रक्षा के लिये जौहर की अग्नि प्रज्वलित की। सन्‌ 1326 के लगभग हम्मीर ने इसे पुन: हस्तगत किया और इसी के वंशज महाराण कुंभा ने मालवे के सुल्तान महमूद को परास्त कर सन्‌ 1449 में कीर्तिस्तंभ (दे. 'कीर्तिस्तंभ') का निर्माण करवाया। सन्‌ 1535 के लगभग बहादुरशाह गुजराती के विरुद्ध युद्ध कर महारानी कर्णावती ने फिर जौहर की अग्नि प्रज्वलित की। यह चित्तौड़ का दूसरा शाका था। दुर्ग अधिक समय तक गुजरातियों के हाथ में न रहा, 32 वर्ष बाद फिर फिर शत्रुओं ने इसे आ घेरा। बाकी राजस्थान अकबर के सामने नतमस्तक था। केवल मेवाड़ ने ही सिर नहीं झुकाया। अक्टूबर, 1567 से प्राय: फरवरी, 1568 तक राजपूतों ने मुगल सेना का डटकर सामना किया किंतु दुर्ग में भोजन की कमी पड़ गई और इसी बीच मुगल सेना ने सुरंग लगाकर दुर्ग की दीवाल उड़ा दी। इसलिये दुर्गाध्यक्ष जयमल राठौर ने अंतत: किले का दरवाजा खोलने का निश्चय किया। जयमल, पत्ता, कल्ला आदि वीरों ने इस अंतिम युद्ध में जो शौर्य प्रदर्शित किया उसे याद कर प्रत्येक राजस्थानी की छाती अब भी गर्व से फूल उठती है। हजारों स्त्रियों ने फिर जौहर की अग्नि में अपने शरीरों की आहुति दी। प्रजा ने अकबर का डटकर सामना किया था, इसदुर्ग पर अधिकर कर अकबर ने कत्लेआम की आज्ञा दी। सन्‌ 1615 में इस दुर्ग पर मेवाड़ का फिर अधिकार हुआ। किंतु औरंगजेब अत्याचार के विरोध में राजपूतों फिर तलवारे उठाईं तो औंरगज़ेब ने दो तीन साल के लिये इसे फिर हस्तगत किया। इसके बाद कोई विशेष युद्ध इस क्षेत्र में नही हुआ।

चित्तौड़ प्रसिद्ध विद्यास्थान भी रहा है। प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्र सूरि चित्रकूट के ही निवासी थे। खरतरगच्छाचार्य जिलवल्लभ सूरि ने भी चित्तौड़ को अपने धर्मप्रसार का केंद्र बनाया। अनेक कवियों का यह कार्यक्षेत्र रहा है। माघ के वंशज माहुक ने यहाँ हरमेखला की रचना की। अभिनव भरताचार्य परमगुरु महाराणा कुंभा ने संगीत, साहित्य आदि पर अनेक ग्रंथों की रचना यहीं की।

दुर्ग अनेक दर्शनीय और ऐतिहासिक स्थानों से परिपूर्ण है। पाडलपोल के निकट वीर बाघसिंह का स्मारक है। महाराणा का प्रतिनिधि बनकर इसने गुजरातियों से युद्ध किया था। भैरवपोल के निकट कल्ला और जैमल क छतरियाँ हैं। रामपोल के पास पत्ता का स्मारक पत्थर है। दुर्ग के अंदर जैन कीर्तिस्तंभ, महावीरस्वामी का मंदिर, पद्मिनी के महल, कालिका माई का मंदिर, कुछ प्राचीन बौद्ध स्तूप, समिद्वेश्वर का भव्य प्राचीन मंदिर जिसे राजा भोज परमार ने बनवाया था, महाराणा कुंभा का विशाल कीर्तिस्तंभ, शृंगारचौरी, अन्नपूर्णा मंदिर, मीरा का मंदिर अनेक दर्शनीय स्थान हैं। कालिका माई का मंदिर किसी समय सूर्यमंदिर था। इसके स्तंभों, छत्रों और द्वारादि की सुंदर खुदाई से अनुमान किया गया है कि इसका निर्माण दसवीं शताब्दी के आस पास हुआ होगा।

चित्तौड़ से माध्यमिका नाम की प्राचीन नगरी केवल छह मील है। चित्तौड़ के आस पास प्राचीन पाषाणकाल की अनेक वस्तुएँ भी मिली हैं जिनसे अनुमान किया जा सकता है कि चित्तौड़ क्षेत्र भारतीय इतिहास के आदिकाल से आबाद रहा है। (दशरथ शर्मा)

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