हल्दी (Turmeric)

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हल्दी (Turmeric) एक बहुवर्षीय पादप की जड़ से प्राप्त होती है। यह पौधा ज़िंजीबिरेसी (Zingiberacea) कुल का करकुमाडोमेस्टिका या करकुमा लौंगा (Curcuma domestica or curcuma longa) है। यह पौधा दक्षिणी एशिया का देशज है। भारत के हर प्रदेश में यह उगाई जाती है। उत्तर प्रदेश की निचली पहाड़ियों तथा तराई के भागों में विशेष रूप से इसकी खेती होती है। जड़ चीमड़ और कड़ी होती है। इसके ऊपरी भाग का रंग पीलापन या भूरापन लिए हरा होता है। इसके तोड़ने से अंदर के रेज़िन सदृश भाग का रंग नारंगी भूरे से गहरे लाल भूरे रंग का दिख पड़ता है। जड़ों को साफ कर कुछ घंटे जल में उबालते हैं तब इसे चूल्हे पर सुखाते हैं। इसके पीसने से पीला चूर्ण प्राप्त होता है जिसमें विशिष्ट सुवास और प्रबल तीखा स्वाद होता है। इसका उपयोग वस्त्रों के रँगने और मसाले के रूप में आज भी व्यापक रूप से होता है। भारत में सब शाक सब्जियों और दालों में हल्दी आवश्यक रूप से मसाले के रूप में प्रयुक्त होती है। एक समय इसका व्यवहार ओषधियों में बहुत होता था। आज भी धातु के साथ मिलाकर ठंढक के लिए चमड़े और आँखों पर लगाते हैं। चूने के साथ मिलाकर दर्द दूर करने के लिए चोटों पर चढ़ाते हैं। रसायनशाला में इससे रँगा हुआ सूखा कागज क्षारों के पहचानने में काम आता है। इसका पीला रंग कच्चा होता है जो धूप से जल्द उड़ जाता है। हल्दी का रंजक पदार्थ करक्यूमिन, C21 H20 O6 है जिसकी मात्रा हल्दी में लगभग 0.3 प्रतिशत रहती है।

इसको उपजाने के लिए भली भाँति तैयार की हुई तथा अच्छे पानी के निकासवाली हल्की पर उपजाऊ भूमि की आवश्यकता होती है जिसमें आलू के समान मेंड़ें बनाई जाती हैं और जिसपर प्रकंद के छोटे-छोटे टुकड़े अप्रैल मई में लगाए जाते हैं। मेड़ से मेड़ की दूरी डेढ़ इंच तथा पौधे से पौधे की दूरी लगभग 9 इंच से एक फुट तक रहती है। जब पौधे लगभग 9 इंच की ऊँचाई के हो जाते हैं तब मिट्टी चढ़ाई जाती है। नवंबर मास में फसल तैयार हो जाती है तब खेतों से खोदकर निकाल ली जाती है। (यावंत राय मेहता)

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