परागण

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परागण (Pollination) वैज्ञानिक अर्थ में, वर्तिकाग्र (stigma), अंडाशय (ovary) अथवा बीजांड (ovule) पर परागकण के पहुँचने की वह क्रिया है जिससे गर्भाधान के पश्चात्‌ फल और बीज बनते हैं। जब तब बिना गर्भाधान अर्थात्‌ अनिषेकजनन (parthenogenesis) से भी फल तथा बीज उत्पन्न होते हैं।

खिले फूलों में कभी कभी ही परागकोश वर्तिकाग्र से सटे मिलते हैं। अतएव जिस समय परागकण परिपक्व होकर बाहर आएँ, इन्हें वर्तिकाग्र तक पहुँचाने का कोई न कोई साधन होना चाहिए। वायु और पतिंगे इन साधनों में मुख्य हैं, यद्यपि कभी कभी जल, पक्षी तथा अन्य जंतुओं द्वारा भी परागण होता है। फूलों के अनेक भेद, इनके विविध रूप, रस, गंध इत्यादि, इन्हीं साधनों के अनुरूप होते हैं।

परागण के दो मुख्य भेद हैं : एक तो स्वपरागण (selfpollination), जिसमें किसी फूल में परागण उसी के पराग द्वारा होता है, और दूसरा परपरागण (cross pollination) अर्थात्‌ जब परागण उसी पौधे के दो फूलों, या उसी जाति के दो पौधों, के बीच होता है। जब तब संकरण (hybridisation) भी संभव है और यह दो विभिन्न जातियों के पौधों में परागण से हो जाता है। कुछ साइकैडों (cycades) और ऑर्किडों (orchids) में तो कभी कभी दो वंशों (genera) में भी संकरण हो जाता है।

स्वपैरागण केवल उभयलिंगी फूलों में ही संभव है, एकलिंगी फूलों में केवल परपरागण ही हो सकता है। बहुधा आचार्यों का मत है कि परपरागण विशेष हितकर है, यद्यपि कुछ पौधों में केवल स्वपरागण ही होता है।

परपरागण के साधनों में वायु, जंतु और जल उल्लेखनीय हैं। इन साधनों से परागित होनेवाले फूलों को क्रमश: वायुपरागित (Anemophilous or wind pollinated), प्राणिपरागित (Zoophilous) और जलपरागित (Hydrophilous) कहते हैं।

परागण करनेवाले जंतुओं में पतिंगे मुख्य हैं ओर ऐसे फूल को जो पतिंगों से परागित होते हैं, कीटपरागित (Entomophilous) कहते हैं।

वायुपरागण -


वायुपरागित फूल बहुधा अत्यंत छोटे, मौलिक तथा अनाकर्षक होते हैं। इनमें भड़कीले रंग, गंध तथा मधु का अभाव रहता है। इनके पुष्पक्रम प्राय: शूकी, या मंजरी और परागकोश बड़े एवं मध्यडोली होते हैं तथा एक ही साथ पकते हैं। पराग अधिक मात्रा में बनता है तथा हलका, शुष्क एवं चिकना होता है और वायु में सुगमता से फैल जाता है। वार्तिकाग्र बड़े, प्रशारिक्त एवं पिच्छाकार होते हैं, अतएव वायु में फैला पराग स्वत: आ फँसता है। बहुधा वायुपरागित वृक्षों में पतझड़ के पश्चात्‌ कोंपल आने के पूर्व ही फूल निकल आते हैं। अत: पत्तियों के अभाव में, परागण होने में कोई रुकावट नहीं पड़ती। वायुपरागित फूल ग्रामिनी (Graminae), अर्थात्‌ घास, बाँस, गन्ना आदि एवं पामी (Palmae), अर्थात्‌ ताड़, खजूर, नारियल आदि, में होते हैं।

कीटपरागण - परागण करनेवाले पतिंगों में भौंरे, तितली, शलभ और मधुमक्खी मुख्य हैं (चित्र 1. तथा 2.) यद्यपि कभी कभी चींटियाँ, गोबरेले (bugs) तथा मक्खी आदि भी फूलों पर जाते हैं और उनमें परागण करते हैं।मधुमक्खी और तितली द्वारा परागण दिन में खिलनेवाले फूलों में होता है। और शलभों द्वारा सूर्यास्त के पश्चात्‌ खिलनेवालों में। कीटपरागित फूलों में पतिंगों को आकर्षित करने के विशेष आयोजन होते हैं जिनसे ये अन्य फूलों से सरलतापूर्वक पहचाने जाते हैं। बहुधा ये बड़े तथा आकर्षक होते हैं और दूर से ही स्पष्ट दिखाई दे जाते हैं। यदि फूल छोटे हुए तो प्राय: इनके पुष्पक्रम बड़े तथा लुभावने होते हैं और इस विशेषता से भी ये लनायास ही दृष्टि में पड़ जाते हैं। फूलों की पंखुड़ियाँ रंगदार और भड़कीली होती हैं तथा इनमें मधुग्रंथियाँ भी होती हैं। मधुग्रंथियाँ बहुधा दल अथवा पुंकेसर के आधार पर निर्मित होती हैं और इनसे मधु रसता रहता है, जिसके लोभ से पतिंगे फूलों पर आते और उनमें परागण करते हैं। फूलों की गंध भी पतिंगों को आकर्षित करती है। अँधेरी रात में गंध ही पथप्रदर्शक होकर इन्हें फूलों पर खींच लाती है। किसी किसी फूल की गंध विसैंधी तथा घिनौनी होती है। यह विशेष प्रकृति के पतिंगों को ही आकर्षित करती है। कुछ कीटपरागित फूलों में पराग अधिक बनता है। इस मधुर पराग को पतिंगे बड़े चाव से खाते हैं। इसी के लोभ से वे इनपर मँडराते रहते हैं और परागण करते हैं। कीटपरागित फूलों के पराग लसलसे या खुरदरे होते हैं, जिससे ये पतिंगे के अंग में सहज ही फँस जाते हैं। इनके वर्तिकाग्र चिपचिपे या खुरदरे होते हैं, जिसे पतिंगे के अंग में लिपटा पराग रगड़ खाते ही पुछ जाता है।

पतिंगों के अतिरिक्त कुछ अन्य जंतु भी परागण करते हैं। ऐसे फूल प्राय: बड़े होते हैं, और इनमें पराग अधिक मात्रा में बनता है। अनेक चिड़ियाँ, चमगादड़, इत्यादि भोजन की खोज में फूलों पर मँडराते रहते हैं और इनमें परागण करते हैं। इन जंतुओं में पखी विशेष विचार करने योग्य हैं। जंतु परागित फूलों की संख्या अधिक नहीं है। कुछ ऐसे पौधे दक्षिणी गोलार्ध में मिलते हैं। नियमित रूप से परागण करनेवाले पक्षियों में नई दुनिया का हमिंग पक्षी (humming bird) और पुरानी का शकरखोरा (sun bird) और मधुचूषक (honey sucker) हैं। ये अत्यंत सुंदर, लाल (पक्षी) अथवा बया (weaver bird) सदृश छोटी छोटी पतली चोंच तथा सुहावने रंगवाले पक्षी होते हैं। जब तब कुछ बड़ी जाति के पक्षी भी परागण करते हैं। पक्षीपरागित फूलों में अफ्रीका का मार्कग्रेविया अंबूलेटा (Marcgravia umbulata) उल्लेखनीय है।

पक्षीपरागित फूल कीटपरागित फूलों के सदृश ही होते हैं एवं इनपर पतिंगे भी आते जाते और परागण करते हैं। बहुधा ये लाल, नारंगी अथवा बेमेल रंग के, जैसे नारंगी हरे वा नारंगी-नीले, होते हैं तथा इनमें मीठा, तरल रस प्रचुर मात्रा में भरा रहता है। इनके पुमंग बहुकेसरी एवं कूर्ची जैसे तथा वर्तिकाग्र बाहर को निकले होते हैं। इन फूलों के संबंध में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इनपर पक्षी मधु के लिए आते हैं अथवा इनपर आनेवाले मधुलोलुप पतिंगों के लिए।

जलपरागण -


कुद इने गिने जलमग्न पौधों में ही जलपरागण होता है। ऐसे पौधों के पराग का घनत्व पानी के घनत्व के बराबर ही होता है और ये पानी की सतह के नीचे बहते रहते हैं। रपिया (Ruppia), ज़ॉस्टीरा (Zostera) ओर वैलिसनेरिया (Vallisneria) ऐसे ही पौधों में हैं।

परागण अनुकूल अवस्थाएँ तथा प्रतियुक्तियाँ -


प्राय: पौधों में ऐसी आयोजनाएँ रहती हैं जिनसे न केवल परपरागण ही सुगम हो जाता है वरन्‌ स्वपरागण की संभावना भी नहीं रह जाती (देखें चित्र 2.)। इनमें निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं :

1. एकलिंगी अवस्था - इस दशा में या तो नर और नारी फूल एक ही पौधे पर होते हैं, जैसे कद्दू, लौकी आदि में, अथवा अलग अलग पौधों पर, जैसे पपीते, शहतूत आदि में। अत: इस रूप में केवल परपरागण ही संभव है।

2. स्वबंध्यता (Self Sterility) - कुछ पौधों में किसी फूल के पराग केवल उसी के लिए अग्रहणीय होते हैं, जिससे स्वपरागण उभयलिंगी अवस्था में भी सफल नहीं हो सकता। कुछ आर्किडों में तो यह प्रकृति इतनी प्रबल होती है कि यदि स्वपरागण हो जाए तो विषैला असर फैल जाता है और बिना गर्भाधान के फूल यों ही मुर्झा जाते हैं।

3. भिन्नकालपक्वता (Dichogamy) - यह वह अवस्था है, जिसमें किसी उभयलिंगी फूल के पुंकेसर एवं वर्तिकाग्र आगे पीछे परिपक्व होते हैं। भिन्नकालपक्वता के निम्नलिखित दो रूप हैं :

(अ) पंपूर्वता (Protandry), जिसमें पुंकेसर, वर्तिकाग्र की परिपक्व अवस्था आने के पूर्व ही पककर और अपने पराग बिखराकर, मुर्झा जाते हैं, और इसके विपरीत (ब) स्त्रीपूर्वता (Protogyny), जिसमें वर्तिकाग्र, पराग परिपक्व होने के प्रथम ही पूर्ण विकास को प्राप्त हो, पराग ग्रहण कर मुर्झा जाता है। प्रथम श्रेणी के फूलों को पुंपूर्व (protandrou) तथा दूसरी श्रेणीवालों को स्त्रीपूर्व (protygynous) कहते हैं। पहली विशेषता के फूल कंपोज़िटी (Compositae), अर्थात्‌ सूर्यमुखी आदि में, और दूसरी के सरसों एवं ऐरिस्टोलोकिया (Aristolochea) आदि में होते हैं।

4. विषम वर्तिकात्व (Heterostyly) - यह वह अवस्था है जब वर्तिका और पुंकेसर एक दूसरे के अनुपात में लंबे अथवा छोटे होते हैं। ऐसे फूल द्विरूपी (ड्डत््थ्रदृद्धद्रण्दृद्वद्म) होते हैं और ये दो प्रकार के होते हैं : प्रथम वे जिनकी वर्तिका लंबी और पुंकेसर छोटे होते हैं और दूरे वे जिनमें, इसके विपरित, छोटी वर्तिका और लंबे पुंकेसर होते हैं दोनों प्रकार के फूल अलग अलग पौधों पर होते हैं। इन अंगों की अवस्था ऐसी होती है कि परागण केवल उन्हीं फूलों के बीच हो पाता है जिनमें वर्तिका और पुंकेसर अंग समान लंबाई के हों, अर्थात्‌ लंबी वर्तिका और पुंकेसर अंग समान लंबाई के हों, अर्थात्‌ लंबी वर्तिका और लंबे पुंकेसरवाले फूलों के मध्य, अथवा छोटे पुंकेसर और छोटी वर्तिकावाले फूलों में। विषम वर्तिकावाले फूल अलसी (Linum) और प्रिमुला (Primula) में होते हैं। खट्टी बूटी अर्थात्‌ ऑक्ज़ैलिस (Oxalis) में फूल त्रिरूपधारी होते हैं। इसमें लंबी, मँझोली और छोटी तीनों वर्तिकावाले फूल होते हैं।

परपरागण और स्वपरागण से हानि और लाभ -


तुलना तथा प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि स्वपरागण की अपेक्षा परपरागण विशेष हितकर होता है। परपरागण द्वारा उपार्जित बीज प्राय: स्वपरागण से उत्पन्न बीजों की अपेक्षा भारी, बड़े तथा प्रौढ़ होते हैं। इनमें अंकुरणसामर्थ्य भी अधिक होता है एवं इनसे उत्पन्न पौधे पुष्ट और अधिक स्वस्थ होते हैं। अत: किसी वंश को बलहीन होने तथा अवनति से बचाने के लिए परपरागण अवश्यक है।

किसी किसी अवस्था में स्वपरागण भी उपयोगी होता है। इस क्रिया के लिए पौधे बाहरी साधनों पर आश्रित नहीं होते। अतएव आर्थिक विचार से पौधे के लिए यह लाभदायक है। जिन फूलों में परागकोश और वर्तिकाग्र साथ साथ पक जाते हैं, उनमें स्वपरागण सूगम हो जाता है। परपरागण का सर्वोत्तम आयोजन रहता है, परंतु इनमें ऐसी भी व्यवस्था रहती है कि यदि यह क्रिया असफल रहे तो स्वपरागण भी सुगम हो जाता है, जिससे बीज अवश्य ही बन जाते हैं।

अनुन्मील्य परागण (Cleistogamy) और अनुन्मील्य परागणी (Cleistogamous) पुष्प - कुछ पौधों में साधारण फूलों के अतिरिक्त कुछ अत्यंत छोटे, गंध-रस-हीन, कली जैसे अस्पष्ट फूल भी उत्पन्न होते हैं। ऐसे फूल परपरागण के प्रतिकूल ऋतुकाल में ही बनते हैं और यद्यपि ये अस्पष्टदली एवं अविकसित ही होते हैं, फिर भी इनमें बीज उत्पन्न हो जो हैं। इनके परागकोश और वर्तिकाग्र प्राय: सटे रहते हैं, जिससे परागरज वर्तिकाग्र पर सरलतापूर्वक पहुँच जाता है। प्राय: ऐसे फूलों में परागकण परागकोश के भीतर ही अंकुरित हो जाते हैं और वहीं से परागनली में बढ़कर बीजांड में प्रवेश करते हैं। अनुन्मील्य परागणी पुष्पों की उत्पत्ति प्राय: पौधों के जमीन के भीतरवाले तने पर बहुधा अनुकूल ऋतु के अंत में, अथवा अतिशय शीत एवं अंधकार में ही होती है। कनकौआ (Commelina), खट्टी बूटी और बनफशा (Viola) में ऐसे ही फूल होते हैं। बहुधा लोगों का अनूमान है कि जब तब भूमि के अंदर उत्पन्न होनेवाले कटहल भी इसी ढंग से परागित फूलों के परिणाम हैं।

परागण करनेवाले पतिंगों के अनुसार फूलों के निम्नलिखित भेद हैं :

1. पराग (Pollen) पुष्प - इस समूह के फूलों में पराग अधिक बनता है ओर इसी के लिए पतिंगे फूलों पर आते हैं। युका (Yucca), पोस्ता और अमलतास में परागपुष्प होते हैं।

2. वे फूल, जिनमें मधुरक्षा का यथार्थ साधन नहीं होता - ऐसे फूलों में मधु पूर्ण रूप से खुला रहता है। गैलियम (Gallium), आइवी (lvy), सौंफ और धनिया आदि में ऐसे ही फूल होते हैं।

3. वे फूल, जिनमें मधु न्यूनाधिक सुरक्षित रहता है - ऐसे फूल रेनन कुलेसिई (Ranunculaceae), अर्थात्‌ जलकांडर कुल तथा मर्टेसिई (Myrtaceae), अर्थात्‌ लवंगादि कुल, में होते हैं। इनमें मधुकोश उन्हीं पतिंगों की पहुँच में होता है जिनकी सूँड़ कम से कम 3 मिमी. लंबी हो।

4. वे फूल जिनमें मधु पूर्णत: सुरक्षित तथा गुप्त रहता है - इस श्रेणी के फूलों में मधु तक केवल वे ही पतिंगे पहुँच पाते हैं और परागण में सफल होते हैं जिनकी सूँड़ छह मिमी. तक लंबी हो। सोलेनेसिई (Solanaceae) अर्थात्‌ कंटकारी कुल और स्क्रॉफुलेरिया (Scrophuleria) में ऐसे फूल होते हैं।

5. लंबी नलीवाले फूल - ये फूल मधुमक्खी, शलभ तथा तितली के अनुरूप होते हैं और इनकी दलनली 2 मिमी. से 30 मिमी. तक लंबी होती है। जिन फूलों का परागण तितली द्वारा होता है, वे बहुधा भड़कीले लाल रंग के होते हैं और जिनमें शलभ द्वारा होता है, वे अधिकांश हलके पीले या सफेद। शलभ परागित फूल प्राय: गोधूलि के पश्चात्‌ खिलते हैं और इनमें तेज गंध होती है। जुही, चमेली, कामनी मनोकामनी, रजनीगंधा आदि ऐसे ही फूलों में हैं। ऐमरलिडेसिई (Amaryllidaceae), अर्थात्‌ सुदर्शन कुल, आइरिडेसिई (Iridaceae) अर्थात्‌ नरगिस कुल तथा ऑर्किड में भी परागण इन्हीं पतिंगों द्वारा होता है।

6. मधुमक्खी फूल (Bee Flowers) - इस समूह के फूल प्राय: एक व्यास सममित (Zygomorphic) तथा लाल, नीले या बैंगनी होते हैं। पैपिलियोनेसिई (Papilionceae), अर्थात्‌ अगस्त कुल, लैबीऐटी (Labiatae), अर्थात्‌ तुलसी कुल, में ऐसे फूल होते हैं।

7. बर्रे (ज़्aद्मद्र) पुष्प - ये फूल मधुमक्खी फूल सरीखे होते हैं, परंतु इनका रंग भूरा या हलका लाल होता है।

8. शलभ और तितली फूल (Moth and Butterfly Flowers) - इस समूह के फूलों की दलनली प्राय: 12 मिमी. से अधिक लंबी होती है और इनमें मधु शहद की मक्खियों की पहुँच के बाहर होता है। लोनीसीरा (Lonicera), तंबाकू (Nicotiana), चौधारा (Orcus), हवलदिल चाँदनी (Convolvulus purpurea) इत्यादि में परागण यहीं पतिंगे करते हैं।

9. धिनौना (Carrion Flowers) - इन फूलों में बिसाँर्यध और दुर्गंध आती है तथा इनपर असायी या अन्य सड़े गले मांस, मल और गलीज पर आनेवाली मक्खियाँ आती हैं तथा इनमें परागण करती हैं। अरिस्टोलोकिया (Aristolochia) और स्टैपीलिया (Stapellia, यह आक समूह का पौधा है) तथा अरबी, सूरन आदि में इन्हीं मक्खियों द्वारा परागण होता है। इस समूह के कुछ पौधों में, जैसे अरिस्टोलोकिया में, मक्खियों के फँसाने का प्रतिबंध भी रहता है।

उत्तेजना और परागण -


किसी किसी फूल के पुंकेसर अथवा वर्तिकाग्र उत्तेजनाशील होते हैं, जिससे परागण सुगम हो जाता है। बिछुआ (Urtica), मिमूलस (Mimulus), टोरीनिया (Torenea) और बिग्नोनिया वेनस्टा (Bignonia venusta) के वर्तिकाग्र द्विशाखित होते हैं और इनका भीतरी पृष्ठ रगड़ से चंचल हो जाता है। यदि इस क्रिया में वर्तिकाग्र पर पराग न पहुँच पाया और पतिंता यों ही आकर चला गया अथवा वर्तिकाग्र की शाखाएँ फिर खुल जाती हैं; परंतु यदि परागकण आ गए हों और परागण हो गया हो तो भुजाएँ सदैव के लिए बंद हो जाती हैं। जिन फूलों के पुंकेसर स्पर्श से चंचल हो उठते हैं उनके परागकण झरकर सुगमता से पतिंगे के अंग में लग जाते हैं, जिससे परपरागण में सुविधा हो जाती है। नागफनी (Opuntia) और सेंटॉरिया (Centaurea) ऐसे ही पौधे हैं।

विस्फोटक क्रियाविधियाँ (Explosive Mechanisms) - कुछ फूलों में परागकोश का स्फोटन विशेष ढंग से होता है और पराग उड़कर कुछ दूर तक बिखर जाते हैं, जिससे परपरागण सुगम हो जाता है। अर्टिका तथा इस समूह के कुछ अन्य पौधों में जिस समय परागकोश चिटकते हैं परागकण दूर तक फैल जाते हैं। कुछ पौधों में ये विशेष ढंग से उड़कर पतिंगों के अंग पर जा गिरते हैं। कुछ ऐसे पौधों में परागकोश मध्यडोली होते हैं और ऐसे ढंग से लगे रहते हैं कि मधु को खोजता हुआ पतिंगा ज्योंही इनसे एक ओर टकराता है, परागकोश का दूसरा सिरा झुककर पतिंगे की पीठ पर ऐसे आ लगता है कि परागकण बिखर कर पतिंगे की पीठ पर फैल जाते हैं सैल्विया (Salvia) ऐसे फूलों का उत्तम उदाहरण है।

लूट, चोरी - प्राय: फूलों में मधु सरक्षित ढंग से संचित रहता है और विशेष प्रकार के पतिंगे ही यहाँ तक पहुँच सकते हैं, फिर भी कितने ही फूलों में इसे कुछ चतुर पतिंगे तथा चिड़ियाँ जब तब यों ही चाट जाती हैं। इन लुटेरों में मधुमक्खियाँ तथा चिड़ियाँ मुख्य हैं। ये मधु को सुरक्षित रखनेवाले यंत्र के नीचे, पुंकेसर और वर्तिकाग्र का बचाकर, फूल में छेदकर उसी छेद की राह मधु चूस लेती हैं। जब एक बार यह मार्ग खुल जाता है तब बाद में आनेवाले सभी जीव स्वाभाविक परंतु अड़चनवाले मार्ग को, जिससे आने में परागण की संभावना रहती है, त्याग देते हैं और इसी कृत्रिम राह से आते जाते हैं, जिससे परागण नहीं हो पाता।

पराग को नमी से बचाने के साधन - नमी पहुँचने पर प्राय: पराग अंकुरित होने लगता है। अस्तु, फूलों में इसे पानी एवं तरी से बचाने के कुछ विशेष साधन रहते हैं। कुछ पौधों के पराग में विशेष प्रकार के रोम अथवा अन्य रचनाएँ रहती हैं, जिनसे इन पर जल का विशेष असर नहीं होता। कुछ पौधों में फूल ऐसे ढंग से लटके रहते हैं कि इनके पुंकेसर भीगने से बचे रहते हैं। ऐसे फूल लिलिएसिई (Liliaceae) कुल के कुछ पौधों में होते हैं। कुछ फूल रात को और प्रतिकूल वातावरण में बंद हो जाते हैं। इस प्रकार पराग नमी से बचा रहता है। ऐसी विशेषतावाले फूल केसर तथा ट्यूलिप (Tulip) में होते हैं।

परपरागण के कुछ अपूर्व उदाहरण - युका लिलिएसिई कुल का मरुस्थलीय परागपुष्प पौधा है। इसका पुष्पक्रम बड़ा मनोहर एवं फूल उभयलिंगी, अंडाकार, लोल तथा आकर्षक होते हैं। इसके परागकोश बड़े होते हैं और पराग अधिक मात्रा में बनता है। इसमें परागण प्रोन्यूबा (Pronuba) शलभ द्वारा होता है। प्रोन्याना युका के किसी पुष्प से पराग संचित कर उसकी गोली सी बना लेता है, फिर किसी दूसरे फूल के वर्तिकाग्र पर चढ़ उसके मध्य सावधानी से ठूस देता है। इस भाँति इस पौधे में परागण हो जाता है। अब पतिंगा वर्तिका की राह नीचे खिसक उसी फूल की गर्भाशयभित्तिका को छेदकर अपने अंडे रखता है। समय पर युका में बीज और शलभ के अंडों से डिंभ (larva) तैयार होते हैं। डिंभ युका के मृदुल बीज खाकर पलते हैं, परंतु फिर भी बीज पर्याप्त मात्रा में बच रहते हैं। इस पतिंगे ओर युका का ऐसा घनिष्ठ संबंध है कि प्राय: जिस स्थान पर युका नहीं होता, प्रोन्यूबा नहीं मिलता और जहाँ प्रोन्यूबा नहीं मिलता वहाँ युका नहीं पनपता। इन दोनों का भौगोलिक वितरण एक ही है। अंजीर (fig), मोरेसिई (Moraceae) अर्थात्‌ वट, पीपल आदि के कुल का पौधा है। इसका पुष्पक्रम सेब या नाशपाती जैसा होता है। बाजार में बिकता अंजीर पके पुष्पक्रम से ही बनता है। ऐसे पुष्पक्रम को हाइपेंथोडियम (Hypanthodium) कहते हैं। हाइपैथोडियम के शिखर पर एक महीन छेद तथा नन्हें नन्हें शल्क होते हैं, जो छेद के अंदर भी भरे रहते हैं। अंजीर में नर और नारी पुष्प एक ही पुष्पक्रम में होते हैं। नर पुष्प छेद के नीचे शिखर के समीप होते हैं। नारी पुष्प, लंबी या छोटी वर्तिकावाले, दो भाँति के होते हैं। पहले प्रकार के फूल फलद (fertile) तथा दूसरे बंध्या होते हैं। अंजीर का पुष्पक्रम आद्यबीजांड विकसित है ओर इसमें परागण एक विशिष्ट बर्रे ब्लैस्टोफेना (Blastophaga) द्वारा होता है। मादा बर्रै अंजीर पकने के पूर्व ही शिखर के छेद से दाखिल होती है और, अंडे रखने के अभिप्राय से, यह पुष्पक्रम के भीतर घूमती फिरती है। यहाँ आने के पहले यह बर्रै अन्य पुष्पव्यूह से होकर आई होती है और इसके अंग पर पराकण लगे रहते हैं। अस्तु, ये बड़ी वर्तिकावाले फूलों के वर्तिकाग्र से पुँछ जाते हैं और इन फूलों में परागण हो जाता है। अंत में बर्रै छोटी वर्तिकावाले फूलों के गर्भाशय में अंडे रख देती है। समय पर इन अंडों से बच्चे उत्पन्न हाते हैं ओर य इन फूलों की वर्तिका में संचित पदार्थ खाकर उनसे बाहर आते हैं अब तक अंजीर के पुंमंग भी पक जो हैं और जिस समय नवजात बर्रै फूलों पर भटकते हैं, इनके अंग पर पके पराग पुँछ आते हैं। अब तक अंजीर भी पक चुकता है और इसकी भित्तिका नरम पड़ जाती है, जिससे ये बर्रै इसमें अंदर से छेदकर बाहर आ जाते हैं। बाजारों के अंजीर में जो छेद प्राय: होते हैं वे इस प्रकार के ही हाते हैं। अंजीर से बाहर होने के पश्चात्‌ मादा बर्रै अन्य कच्चे अंजीर में फिर प्रवेश करती है और वे ही सारी क्रियाएँ फिर होती है। अरिस्टोलोकिया आरोही लता है। इसमें भी आद्यबीजांड विकसित फूल होते हैं। फूल का ऊपर भाग तुरही जैसा होता हैं। और इसके भीतरी पृष्ठ पर पीछे को रुख किए घने आशून रोम होते हैं। फूल से बिसायंध आती है और इसमें परागण सड़े गले मांस पर से आनेवाली मक्खियों द्वारा होता है। फूल के तुरही जैसे भागवाले स्थान पर रोमां की स्थिति ऐसी होती है कि जिस समय फूल खिलते हैं, इनमें मक्खियाँ, जो मधु के लिए आती हैं, केवल अंदर को ही जा सकती हैं बाहर नहीं निकल सकतीं। यह अवस्था लगभग तीन चार दिन तक रहती है। मक्खियाँ प्राय: दूसरे फूलों से होकर आती हैं और उनके अंगों में परागकण लिपटे होते हैं, जिससे जब ये वर्तिकाग्र से रगड़ खाते हैं तो फूल में परागण हो जाता है। बाद में इनके परागकोश पक जाते हैं और इनसे परागकण बाहर होकर फूल में घूमनेवाली मक्खियों के अंग में पुँछ जाते हैं। अंत में फूल मुर्झा जाते हैं, जिससे इनके रोम भी लच जाते हैं और मक्खियाँ आसानी से बाहर आ जाती हैं। अब ये अन्य फूलों में जाती हैं और पुन: उसी प्रकार परागण करती हैं।

सैल्विया (Salvia) लेबिएटी (Labiatae), अर्थात्‌ तुलसी कुल का, पौधा है। इसका दलपुंज दलपुंज द्विऔष्ठी (bilabiate) होता है। निचला ओष्ठ उत्कृष्ट और पतिंगों को आकर्षित करना है। यही उनके उतरने का घाट भी है। ऊपरी ओष्ठ नीचे को झुका होता है तथा वर्तिकाग्र और पुंकेसर की रक्षा भी करता है। फूल में केवल दो पुंकेसर होते हैं। इनके पुंतंतु छोटे, परंतु योजी लबे होते हैं। योजी के दोनों सिरों पर अर्थ परागकोश होते हैं। ऊपरी परागकोश फलित, तथा निचला बंध्य और ऊपरवाले की अपेक्षा छोटा और चिपटा, होता है। दोनों योजियों के निचले भाग एक दूसरे से सटे होते हैं और जिस समय पतिंगा मधु की खोज में फूल के अंदर प्रवेश करना चाहता है, इसका सिर अपने आप ही योजियों के निचले भाग को अंदर ढकेलता है, जिससे दोनों ऊपरी परागकोश इसकी पीठ पर आ गिरते हैं। इस धक्के से परागकोश फट जाते हैं और परागकण छितरकर पतिंगे की पीठ पर फैल जाते हैं। जब पतिंगा बाहर आता है तब पुंकेसर फिर अपनी पूर्वावस्था में आ जाते हैं। सैल्विया के फूल पूर्व पराग-विकसित होते हैं ओर जिस समय तक फूल नर अवस्था में रहते हैं, वर्तिका ऊपर को उठा रहती है। इससे जब पतिंगा ऐसे फूलों में घुसता है तब वर्तिकाग्र का इसके अंगों से स्पर्श नहीं होता, परंतु यही फूल जब बाद में नारी अवस्था में पहुँच जाते हैं, इनकी वर्तिका नीचे झुक जाती है और अब ज्योंही पतिंगा फूल के अंदर प्रवेश करने लगता है, वर्तिकाग्र ही उसकी पीठ से रगड़ता है, जिससे इनकी पीठ पर पसरा पराग सरलता से पुँछ आता है और परागण हो जाता है।

सं.ग्रं.- फ्रच तथा सैलिस्वरी : प्लैंट फॉर्म ऐंड फंक्शन।((स्व.) शिवकंठ पांडेय)

अन्य स्रोतों से:

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बाहरी कड़ियाँ:


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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia):

संदर्भ:


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