पर्वतों पर संकट

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हसन जावेद खान


सन् 1923 में जॉर्ज मॅलारी जो कि एक विख्यात पर्वतारोही थे, उनके एवरेस्ट पर चढ़ने के साहसी अभियान से पहले किसी ने उनसे पूछा कि आप क्यों माउंट एवरेस्ट पर जाना चाहते हैं तो जॉर्ज मॅलारी ने कहा था ”क्योंकि माउंट एवरेस्ट का अस्तित्व है।’’

असंख्य लोग प्रति वर्ष पर्वतों के शिखर पर पहुंचने का प्रयत्न करते हैं। उनमें से अनेक विपदाओं तथा विषम परिस्थितियों के कारण वापस लौट आते हैं। कुछ अपनी छुट्टियां बिताकर लौट आते हैं, कुछ अपने अभियान को सफल बना देते हैं। प्रति वर्ष दुनिया भर के अनेक लोग काल के ग्रास बन जाते हैं।

पर्वत अनेक प्राकृतिक विपदाओं से आशंकित रहते हैं। आकस्मिक रूप से मौसम में नाटकीय परिवर्तन के अतिरिक्त अन्य विपदाएं जैसे भूकंप अथवा आग उगलते ज्वालामुखी पर्वतों की परिस्थितियों को निश्चय ही प्रतिकूल बनाते हैं। पर्वतों के शिखर तथा ढलानों पर ठंडी वायु का द्रवीकरण अथवा हिमपात एवं अत्यधिक आकस्मिक विपदा का कारण बन सकते हैं। पर्वतों के सीधे ढलान से चट्टानें, मिट्टी आदि नीचे गिरकर भयंकर क्षति पहुंचाती हैं। ऐसा कभी-कभी मानव के पर्वतीय अभियान अथवा खेल-कूद के आयोजनों के कारण भी हो जाता है।

अनेक लोग पर्वतों की विषम परिस्थितियों में अपने आप को अनुकूल न बनाने के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं। पर्वतों पर अनेक लोग बिजली के गिरने से या चट्टानों के आकस्मिक रूप से नीचे गिरने से मर जाते हैं। प्रतिकूल मौसम, साधनों तथा अन्य व्यवस्थाओं का अभाव छोटी-से-छोटी दुर्घनाओं को बड़ा बना देती हैं।

अनेक अवसरों पर ऐसी ही छोटी-छोटी दुर्घटनाएं व बीमारी भी मृत्यु का कारण बन जाती हैं यदि तुरंत इलाज की व्यवस्था न हो पाए। यदि आवश्यक सावधानी न बरती जाए तो पर्वतों की अविश्वसनीय सीमा तक की विपरीत परिस्थितियां वहां के निवासियों के लिए ही नहीं अपितु सैलानियों और पर्वतारोही दलों के लिए भी घातक हो जाती हैं।

पर्वतों के निष्ठुर क्षेत्र वहां निवास करने वाले लोगों को जोखिम में डालते हैं। चेतावनी संकेतों को पालन नहीं करने वाले पर्वतीय पर्यटकों की जरा सी असवाधानी से जान भी जा सकती है।

पर्वतों की ऊंचाई और हम


ऊंचाई पर हवा के विरल होने पर वहां ऑक्सीजन की मात्रा कम होने के कारण सांस लेने में कठिनाई होती है। अभ्यस्त पर्वतारोही हो अथवा प्रथम बार अभियान पर जाने वाले हो, प्रत्येक को नई परिस्थिति के अनुसार अपने आप को अनुकूल बनाना होता है।

साधारणतः 7,000 मीटर से ऊंचे पर्वतीय अभियान के लिए कृत्रिम ऑक्सीजन का उपयोग आवश्यक हो जाता है। हालांकि कुछ पर्वतारोही बिना ऑक्सीजन उपयोग के ही माउंट एवरेस्ट जैसे अभियान को सफलतापूर्वक पूरा कर आए, लेकिन फिर भी उन्हें योजनानुसार अपने आप को प्रतिकूल परिस्थितियों में ढालना पड़ा।

2,400 मीटर की ऊंचाई पर चढ़ने से पहले, ठीक से अपने आप को अनुकूल न बनाने पर तीव्र पर्वतीय बीमारियों के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। सिरदर्द, मितली आना, थकान, चक्कर आना, सांस फूलना, भूख कम लगना, पाचन क्रिया का बिगड़ जाना और कभी-कभी अचानक मृत्यु हो जाना आदि कुछ उदाहरण हैं। पर्वतीय रोगों के अनेक रूपों में कुछ अति घातक रोग भी हैं जैसे ‘हाई एल्टिटयुड सेरेब्रल एडीमा’ और ‘हाई एल्टिटयुड पल्मोनरी एडीमा’ इन दोनों अवस्थाओं में रोगी 24 घंटों में ही मर सकता है। दर्दनाशक औषधि अथवा ‘स्टेरोयड’ का उपयोग इन रोगों में लाभप्रद हो सकता है।

पर्वतों की ऊंचाई पर हवा का घनत्व कम होने के कारण पराबैंगनी किरणों का प्रभाव भी अधिक अधिक होता है। परिणामस्वरुप तेज धूप से त्वचा का जल जाना तथा अन्य चर्म रोगों का हो जाना कोई आश्चर्य नहीं है। बदली छायी रहने पर भी भारी हिम से किरणें परिवर्तित हो कर त्वचा को जला सकती हैं।

अत्यधिक समय बर्फ में बिताने से बर्फ से परावर्तित किरणें अंधेपन का भी कारण बन सकती हैं। आंखें सूज जाती हैं, सिर में दर्द रहता है और चक्कर आने लगते हैं। इसी कारण पर्वतारोही के लिए धूप के चश्मे का उपयोग अति आवश्यक हो जाता है। सन् 2005 में पर्वतारोही व अनुसंधानकर्मी जोन सेम्पिल ने बताया कि तिब्बत के पठार पर ओज़ोन गैस की अत्यधिक मात्रा पर्वतारोहियों के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।

पर्वतीय जलवायु


पर्वतों पर घटित होने वाली अनेक दुर्घटनाएं प्रतिकूल मौसम से ही सम्बंधित रहती हैं। यह तो निश्चित ही है कि पर्वतों का मौसम आकस्मिक रुप से बदलता रहता है जो कभी-कभी अत्यन्त प्रचण्ड हो सकता है। आश्चर्य तो तब होता है जब तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से नीचे लेकिन खुला आकाश, तेज धूप तथा अन्य स्थितियों में जब तापमान थोड़ा अधिक लेकिन ठंडी हवाओं के कारण कंपकपाती ठंड पड़ती है जो कि शारीरिक विकृतियां जैसे ‘विंड बर्न’ अथवा शरीर ऊतकों का जल स्तर कम हो जाना (डिहाइड्रेशन) आदि को पैदा करती है।

पर्वतों पर काफी विस्मयकारी घटनाएं होती रहती हैं, जैसे शून्य से भी कम तापमान पर पर्वतों में तापमान आपेक्षिक रूप से कुछ गर्म होता है।

अगर आसमान साफ हो और सूरज तेजी से चमक रहा हो। इसके विपरीत ऊंचे तापमान पर भी हमें ठंड महसूस हो सकती है, अगर ठंडी हवाएं चल रही हो। परंतु ऐसा होने पर तेज हवाओं से आपकी त्वचा झुलस सकती है, जिसे ‘विंड बर्न’ कहते हैं या फिर शरीर में जल की कमी हो सकती है, जिसे ‘डिहाइड्रेशन’ यानी निर्जलीकरण कहते हैं।

पर्वतारोहियों को डिहाइड्रेशन से बचने के लिए पर्याप्त मात्रा में पेयजल रखना आवश्यक होता है। कभी-कभी आकस्मिक स्थितियों में शरीर तथा उसके ऊतकों के जल की हानि रोकने हेतु पर्वतारोही (1) विश्राम करते हैं। (2) गर्म जमीन पर न बैठ छाया में ही रहने का प्रयास करते हैं। (3) कम से कम भोजन लेते हैं। (4) धूम्रपान /मदिरा पान नहीं करते और (5) नाक से सांस लेते हैं, बातचीत कम से कम करके अपनी शक्ति का संचय करते हैं।

हिमपात अथवा भारी वर्षा के कारण पहचाने/परिचित राहों के भटकने से डर से कुतुबनुमा (कम्पास) का उपयोग पर्वत अभियान के लिये आवश्यक होता है। इसलिए कुतुबनुमा पर्वतारोहियों का एक अच्छा दोस्त साबित होता है।

हिम/बर्फ का शरीर पर दुष्प्रभाव


अभियान के समय यदि शरीर के बाहरी भाग जैसे कि उंगलियां आदि को यथा सम्भव रूप से गर्म न रखा जाये तो गहन शीत के कारण फ्रॉस्टबाइट यानी तुषार उपघात नामक बीमारी के फलस्वरुप विकृत भाग नीला पड़ जाता है और यदि समय पर उपचार न हो तो विकृत भाग सड़-गल सकता है तथा शरीर का वह भाग कटवाना भी पड़ सकता है। इस संभावित विकृति से बचने के लिये आवश्यक गर्म कपड़े का उपयोग जरूरी है।

एक संभावित विकृति ‘हाइपोथर्मिया’ (शरीर का तापमान अचानक कम हो जाना) है। ऐसा होने पर शरीर जम सा जाता है, रक्त का प्रवाह भी शिथिल पड़ जाता है और कभी-कभी मृत्यु तक हो सकती है।

इसी कारण पर्वतारोहियों को आवश्यक गर्म व ऊष्मारोधी (इन्सूलेटेड) वस्त्रों का समूचित उपयोग करना चाहिये। इसके साथ ही जलरुद्ध पोशाकों का भी समुचित प्रबन्ध करना चाहिये। गीले कपड़े तेज हवाओं में करीब 90 प्रतिशत अपनी ऊष्मारोधिता क्षमता खो देते हैं।

आकाशीय विद्युत् से उत्पन्न संकट


आकाशीय विद्युत् अधिकतर पर्वतों पर अपना घातक प्रहार कर अनेक लोगों तथा पशुओं को घायल करती है अथवा हर वर्ष सैकड़ों लोगों की मृत्यु का भी कारण बनती है। विद्युत् की तरंगें अपना प्राकृतिक रास्ता अपनाती हैं

तथा चट्टानों की दरार अथवा बड़े वृक्ष के रास्ते धरती के अन्दर चली जाती हैं। ऐसी स्थिति में पर्वतारोही विद्युत् के संचार के रास्ते में आ जाने के कारण गंभीर रूप से घायल हो सकता है अथवा मर भी सकता है। यह विद्युत् की तरंगें शरीर के जिस भाग से प्रवेश करती है और जहां से बाहर निकलती हैं, वहां असीमित ऊर्जा के कारण ऊतकों को जला देती हैं। मस्तिष्क तथा हृदय पर गहरा आघात होता है और यदि प्रक्रिया अति तीव्र हो तो तुरन्त मृत्यु भी हो सकती है।

विद्युत् से क्षति रोकने का सहज उपाय यह है कि जब पर्वतों पर बिजली कड़के और तूफान आने की संभावना हो तो पर्वतारोही को तुरन्त किसी ऊंची जगह (जैसे कि पर्वत की चोटी, ऊंची चट्टानें, अकेला पेड़ आदि) से बच कर खुले में आ जाना चाहिये जब तक कि तूफान की आशंका समाप्त न हो जाये। ऐसे समय में किसी भी जल स्त्रोत अथवा धातु की वस्तु से दूर रहना चाहिये।

अचानक बाढ़ का आ जाना


कभी-कभी अचानक बाढ़ आ जाने से भयंकर क्षति हो सकती है। कभी-कभी वर्षा किसी अन्य स्थान पर होती है लेकिन ढलान के कारण वर्षा का पानी तीव्र वेग से पत्थरों तथा पेड़ों से टकराकर उन्हें उखाड़ देता है और नुकसान का कारण बन जाता है। इसी कारण सूखी नदी में पर्वतारोहियों को कभी डेरा नहीं डालना चाहिये तथा किसी भी नदी को पार करने से पहले उसका भली-भांति निरीक्षण कर लेना चाहिये।

भूस्खलन


चट्टानों के गिरने को भूस्खलन कहते हैं। भूक्षरण अथवा मृदा अपरदन की प्रक्रिया के कारण पर्वतों का निरन्तर विघटन होता

रहता है। चट्टानों की बनावट तथा एक बिन्दु विशेष पर मौसम के प्रभाव के अनुसार चट्टानें टूट कर नीचे की ओर गिरती हैं। नीचे गिरती चट्टानें अपने साथ वनस्पतियां, वृक्ष तथा मिट्टी को भी नीचे गिराती हैं। कभी तो हाथ अथवा पैर के दबाव से ही भंगुर किस्म की चट्टानें टूट जाती हैं। इसी कारण पर्वतारोही के लिये आवश्यक है कि अपने कदम रखने से पहले चट्टानों का भली-भांति निरीक्षण कर लें। मूल सिद्धांत के अनुसार पर्वतारोही चढ़ाई सीधी न करके तिरछी चढाई करते हैं ताकि गिरने वाले पत्थर दल के अन्य लोगों पर न पड़े। अधिकतर गिरती हुई चट्टानें अपने साथ बर्फ/जल/मिट्टी भी साथ लेकर गिरती है तथा पर्वताराहियों के अभियान के समक्ष विकट चुनौती उत्पत्रा करती हैं। यह हिमालय क्षेत्र में एक सामान्य घटना है ।

हिमधाव (एवेलांश)


प्रतिवर्ष अनेक पर्वतारोही हिम स्खलन के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं। यह मुख्य रुप से दो प्रकार का होता हैः

(1) जब बर्फ/हिम की विशाल चट्टानें खिसक कर ढलान से नीचे गिरती हैं तो बहुत क्षति करती हैं। इन्हें स्लेव एवेलांश यानी शिलापट्ट हिमस्खलन कहते हैं। कभी-कभी तो विशाल स्लेब गिर कर पर्वतारोही/पर्यटकों को दबा देती हैं।

(2) यह हिम के बडे़ टुकड़े जो कि मुलायम होते हैं, गिर कर पर्वतों पर चढ़ने वालों की असुविधा का कारण बनते हैं। सामान्यतः छोटे-छोटे हिम के टुकड़े मिल कर बड़े और ठोस बर्फ की शिलाओं में बदल जाते हैं और इसके स्खलन से भारी क्षति भी संभव हो जाती है। इन्हे ‘वेट स्लाईड या प्वाइंट रिलीज’ कहते हैं।

अग्नि


पर्वतों पर आग लगने की घटना के कारण पारिस्थितिकी तंत्र के क्षतिग्रस्त होने के साथ अनेक मौतें हो सकती हैं। कभी-कभी पर्वतों पर आग भी लग जाती है जो कि सूखी हुई पत्तियों व अन्य वनस्पतियों तथा तेज हवाओं के कारण विकराल रुप धारण कर भयंकर क्षति करती है। पर्वतों के निचले स्थानों की तुलना में ऊंचे स्थानों पर आग की संभावना अधिक रहती है।

जमी बर्फ का गिरना


जमी हुई गिरती बर्फ से भी गिरती चट्टानों की तरह बचना चाहिए। सीधी चट्टानों पर बर्फ जम कर कठोर और बड़े आकार की हो जाती है यह ठंडे और तूफानी दिनों में निरंतर गिरती रहती है। लटकते हुए ग्लेशियरों से भी सावधान रहना चाहिए, क्योंकि उनकी चोंच या चोटी कुछ-कुछ अंतराल पर गिरती रहती हैं। इसकी पहचान नीचे पड़े बर्फ के टुकड़ों के द्वारा की जा सकती है। इन रास्तों से बचकर रहना श्रेयस्कर होता है।

क्रिवास (बर्फ की चट्टानों में दरारें)


हिम नदी की दरारें बनना सामान्य सी बात है। जमी हुई हिम नदी (ग्लेशियर) के निचले भागों में ऐसी दरारें बन जाती हैं। अधिकतर यह स्पष्ट दिखाई देती हैं लेकिन यदि इन दरारों पर हिमपात हो जाये तो दरारें दिखाई नहीं देती और इसलिए घातक भी हो सकती हैं। पर्वतारोही को इन छिपी हुई दरारों से सावधान होने की आवश्यकता होती है।

पर्वतीय विपदाओं से बचाव


अन्य प्राकृतिक आपदाओं में भूकंप, ज्वालामुखी का फटना, सूखा पड़ना आदि भी सम्मिलित हैं जो कि पर्वतारोहियों के अभियान को कठिन बना देती हैं। इन समस्त आपदाओं या संकटों को पूरी तरह रोक पाना असंभव है। फिर भी यदि सावधानीपूर्वक कदम उठाये जायें तो इन पर्वतीय आपदाओं को थोड़ा कम अवश्य किया जा सकता है।

सीमित विकास जहां पर पर्वतीय आपदाओं की संभावना अधिक रहती है, उन स्थानों पर विकास कार्य करने से पहले भली-भांति विवेचना करना आवश्यक है। अत्यधिक विकास कार्यों को उत्साहित नहीं करना चाहिये। विगत में हुई घटनाओं के आधार पर भौगोलिक सूचनाओं का कम्प्यूटर प्रणाली द्वारा संचालन तथा इसी आशय से संकटों का भौगोलिक चित्रा व नक्शे द्वारा प्रदर्शन करना पर्वतारोही अभियान को उचित मार्गदर्शन देगा। इस प्रकार का प्रदर्शन संवेदनशील स्थानों पर उचित निर्णय लेने में अवश्य ही सहायक होगा।

भारत में उपग्रह से प्राप्त आंकड़े तथा ऊपर से लिए गए चित्रों के आधार पर नक्शे/भौगोलिक सूचनाएं ‘पर्वतीय संकट’ को स्पष्ट रुप से चित्रित कर हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र, दक्षिण भारत में नीलगिरि पर्वत तथा सिक्किम के वनीय क्षेत्रों के अनेक भागों में पर्वतारोही अभियान को सहायता प्रदान करती है।

टिहरी बांध के आस-पास के भागों में ऐसे 71 संवेदनशील क्षेत्रों को इंगित किया गया है जहां पर भूस्खलन की अधिक संभावनाएं हैं। इस प्रकार इस प्रणाली ने नीलगिरि क्षेत्र में अनेक स्थानों को सुरक्षित बताया है तथा वहां के स्थानों को निर्माण कार्य के लिये उचित ठहराया है।

भूस्खलन संकटीय क्षेत्रों का चित्रण ‘लैडस्लाइड हेजार्ड जोनेशन’ (LHZ) 1,700 किलोमीटर के मार्गों पर किया गया है। यह लोगों को तथा संस्थानों को इस क्षेत्र के विभिन्न स्थानों पर भूस्खलन से सावधान करता है। विशेष रुप से यह चित्रण आकस्मिक संचालनों/प्रबन्धनों, स्थानीय अधिकारी वर्ग, अभियंताओं, योजना अधिकारी तथा बीमा कम्पनियों के लिये लाभदायक है। जी आई एस आधारित स्थायित्व मॉडल संभावित भूस्खलन क्षेत्रों, ऐसे क्षेत्रों का निर्धारण जहां भूमि-उपयोग या आवासीय पुनर्वास गतिविधियां आदि केन्द्रित हों, तथा प्राथमिक आपदा-क्षेत्रों को चिन्हित करने वाले मानचित्रों को विकसित करने वाले प्रबंधकों के लिए काफी उपयोगी रहेगा।

संचार व्यवस्था


आकस्मिक संकट की उचित घोषणा ही दुर्घटना प्रबंधन का आवश्यक अंग है ताकि समय रहते संकट के बारे में उचित व प्रर्याप्त जानकारी मिल पाए तथा आवश्यक निवारण भी किया जा सके। उचित घोषणा तंत्र से लोगों को अपना बचाव करने का समुचित अवसर मिल जाता है। विशेष रुप से पर्वतों के उन भागों में जहां यातायात अथवा संचार माध्यम का अभाव हो। सूचना प्रौद्योगिकी के औजार मौजूदा संचार प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है।

जल की समुचित निकासी


वर्षा के जल की समुचित निकासी जल के आवश्यक दबाव को कम कर भूस्खलन की संभावनाओं को कम करती है।

आवश्यक वनीकरण


वनों की निरन्तर कटाई व वनों का लुप्त हो जाना पर्यावरण पर दुष्प्रभाव तो डालता ही है, साथ ही भूक्षरण, मिट्टी का खिसकना

तथा बाढ़ की सम्भावना को भी प्रबल करता है। वनों का अस्तित्व कायम रखना होगा और नए सिरे से वृक्षारोपण करना होगा, क्योंकि वनों की उपस्थिति जल के बहाव व मिट्टी को खिसकने से रोकती है। वर्षा के जल, मिट्टी और चट्टानों को वृक्ष एक बांध की तरह रोकते हैं। वही जल को रोके रखने में भी समर्थ होती है।

पर्वतीय दुर्घटनाओं की जानकारी

आवश्यकता इस बात की है कि पर्वतों के स्थानीय लोगों को दुर्घटनाओं के बारे में और उनका समय रहते निवारण करने में उचित शिक्षा दी जाए। समुचित प्रशिक्षण क्रिया वहां के लोगों का जीवन सुधारने में सहायक होगी।

इस विषय में प्रयास करने पर उपयोगी परिणाम मिलने की संभावना है। लेकिन चिन्ता का विषय यह भी है कि मानवता से ही पर्वतों की पारिस्थितिकी को बहुत बड़ा खतरा रहता है।

अन्य स्रोतों से:

गुगल मैप (Google Map):

बाहरी कड़ियाँ:


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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia):

संदर्भ:


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