बारिश, बाढ़ और लोग
वर्षा ठेठ हिंदुस्तानी ॠतु है, जिसका इंतज़ार साल भर रहता है लेकिन अब यह एक कठोर ॠतु में बदल गयी है जिसमें साधारण जन पानी से लड़ते हुए ज़िंदगी की राह बनाते हैं। पावस ठेठ हिंदुस्तानी ॠतु है। एक ऐसा मौसम, जिसका इंतजार देश के किसानों से लेकर खेतों और पक्षियों तक को रहता है। प्राचीन साहित्य हो या लोक संस्कृति, जितनी रचनाएं वर्षा पर केंद्रित हैं, उतनी किसी और ॠतु पर नहीं। यहां तक कि वसंत जैसी फूलों की ॠतु भी इस मामले में सावन की बराबरी नहीं करती। हमारे शास्त्रीय संगीत में अनेक राग (मेघ और मल्हार के कई प्रकार) पावस से जुड़े हुए हैं तो लोकगीतों में तो वह प्रियजनों के घर लौटने की पुकार के रूप में हमेशा के लिए दर्ज है। सूरदास के एक पद में कहा गया है कि पावस रूठने की नहीं, मिलने की ॠतु है लेकिन यह एक बड़ी त्रासदी ही है कि आधुनिक विकास ने इतनी कोमल और रस-भीगी ॠतु को मनुष्य के लिए एक बहुत कठोर, तकलीफदेह और संघर्षपूर्ण मौसम में बदल दिया है।
अब हर साल या तो विकराल बाढ़ें आती हैं या फिर जरा सी बारिश में नदियां और नाले उफन पड़ते हैं और लोगों, पशुओं, खेतों-खलिहानों पर विपत्ति टूट पड़ती है। यह भी लोगों का जीवट ही है कि वे पानी से जूझते हुए अपनी जिंदगी का सफर जारी रखते हैं। कहीं रतजगा हो रहा है तो कहीं ऊंची जगहों की तलाश। कहीं सर पर गृहस्थी की गठरियां लादे हुए लोग पानी को चीरते हुए जा रहे हैं, तो कहीं बैलगाड़ियां और रिक्शे पानी में आधे डूब गये हैं। कहीं टोकरियों की नाव बनाकर लोग रास्ता पार कर रहे हैं तो पूर्वोत्तर राज्यों में वे उफनती नदी में ज्यादा मछलियां पाने की उम्मीद के साथ निकल पड़े हैं। जान और माल को बचा लेने के लिए अंतिम विकल्प के रूप में पलायन की योजना पर विचार होता है और नाव और नाविकों की खोज होती है।