पानी की कमी के कारण पलेवा की आश्रमशाला में छात्राएं पढ़ाई नहीं कर पा रही थीं।
पानी की कमी के कारण पलेवा की आश्रमशाला में छात्राएं पढ़ाई नहीं कर पा रही थीं।स्रोत: वॉटरएड इंडिया

कैसे पानी की व्यवस्था ने बदल दी आदिवासी छात्राओं की दुनिया

पानी की कमी के कारण न सिर्फ छात्राओं को दूर तक पानी लेने जाना पड़ता था, इसका असर उनके स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा था।
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छत्तीसगढ़ में उत्तर बस्तर के कांकेर ज़िले में पलेवा एक छोटा सा गांव है, जहां अधिकतर जनसंख्या गोंड आदिवासी परिवारों की है। इन परिवारों की प्रमुख आजीविका खेती और वनों से तेंदूपत्ता, कुसुम और महुआ वगैरह इकट्ठा करना है। गांव में गरीबी, अशिक्षा, सीमित संचार संसाधन और खेती की आधुनिक तकनीकों के प्रति जागरूकता की कमी जैसी कई समस्याएं हैं। इन्हें हल करने के प्रयास में, खासकर बच्चों की पढ़ाई के लिए, सरकार ने गांव में एक आश्रमशाला खोली, ताकि समुदाय को सशक्त बनाया जा सके।

‘आश्रमशाला’ भारत की प्राचीन शिक्षा परंपरा है। सदियों से होता आया है कि बच्चे अपने घरों से दूर जाकर गुरुजनों के सानिध्य में रहकर पढ़ाई करें। आदिवासी बच्चों के लिए पहली सरकारी आश्रमशाला की शुरुआत 1923 में गुजरात के मिराखेड़ी गांव में भील समुदाय के लिए हुई थी। आदिवासी इलाकों में स्थापित इन स्कूलों में बच्चों के रहने की व्यवस्था भी की गई। मकसद था, बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करना और उनके समाजिक स्तर में सुधार लाना।

पलेवा की आश्रमशाला गांव के केंद्र से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह आवासीय विद्यालय आस-पास के गांवों की 6 से 13 वर्ष की आयु की बालिकाओं को कक्षा 1 से 8 तक की शिक्षा प्रदान करता है। यहां इन बालिकाओं को सीखने और विकसित होने के लिए एक सुरक्षित वातावरण मिलता है, ताकि वे अपने पारंपरिक जीवन से आगे बढ़कर नए अवसर पा सकें।

जलस्तर नीचे होने के कारण पानी नहीं मिल रहा था

लेकिन विद्यालय के इस उद्देश्य को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था, जिसमें से मुख्य थी पानी की कमी। छात्राओं और शिक्षकों के आवास विद्यालय में ही थे, इसलिए रोज़मर्रा के कामों, जैसे नहाने, कपड़े धोने, खाना पकाने और साफ-सफाई के लिए काफी पानी चाहिए था। स्कूल में पानी के केवल दो स्रोत थे, एक हैंडपंप और बिजली से चलने वाला एक बोरवेल, जो इस ज़रूरत को पूरा नहीं कर पा रहे थे।

खासकर गर्मियों के महीनों में पानी की समस्या बहुत तकलीफ देती थी। गर्मियों में भूजल स्तर नीचे चला जाता था और पर्याप्त पानी जुटाना बहुत मुश्किल हो जाता था। ऐसे में स्कूल की बच्चियों समेत बाकी लोगों को दूर-दराज के कुओं से पानी लाने के लिए पैदल जाना पड़ता था। कई बार तो लड़कियों को तीन-तीन दिन तक बिना नहाए रहना पड़ता।

जल संकट से केवल असुविधा ही नहीं हो रही थी, बल्कि स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी पैदा हो रही थीं। पानी की कमी के चलते टॉयलेट और बाथरूम की सफाई ठीक से नहीं हो पाती थी, इसलिए वे धीरे-धीरे बीमारियों के अड्डे बनने लगे थे। स्कूल में हाथ धोने की उचित व्यवस्था भी नहीं थी, जो बुनियादी साफ-सफाई के लिए बेहद ज़रूरी है।

इसके अलावा, गंदे पानी की निकासी का भी सही इंतज़ाम न था। पानी आने पर नालियां खुले में बहने लगतीं, जिनसे विद्यालय में गंदगी और अस्वास्थ्यकर स्थितियां पैदा हो रही थीं। इससे छात्राओं का स्वास्थ्य प्रभावित होने लगा और अब विद्यालय का ध्यान शिक्षा की जगह इन चुनौतियों से रोज़ निपटने पर रहने लगा। 

स्वास्थ्य पर पड़ा बुरा असर

बच्चियों की सेहत पर इसका असर चिंतित करने वाला था। साल 2021-22 के शैक्षणिक सत्र में कुल 58 छात्राओं का नामांकन हुआ। उस साल बीमारियों के 125 मामले सामने आए। इनमें 42 मामले सिर्फ़ पानी से जुड़ी बीमारियों के थे, जिनमें डायरिया के 12, पेट दर्द के 14 और आंखों में संक्रमण (कंजंक्टिइटिस) के 16 मामले शामिल थे। उस साल हर छात्रा औसतन 2.15 बार बीमार हुई। इसका असर सिर्फ सेहत पर नहीं, बल्कि पढ़ाई पर भी पड़ा। छात्राएं स्कूल से बार-बार अनुपस्थित रहीं और पढ़ाई में पिछड़ने लगीं।

अगले साल, यानी 2022-23 में स्थिति और भी बदतर हो गई। छात्राओं की संख्या इस बार 70 थी और बीमारी के मामले बढ़कर 172 तक पहुंच गए। इनमें से 70 बीमारियां सीधे पानी से जुड़ी थीं। इस बार 31 मामले कंजंक्टिइटिस के थे, 14 डायरिया और 25 पेट दर्द के। इस बार हर छात्रा औसतन 2.45 बार बीमार हुई। इतनी बड़ी संख्या में बीमारियों ने आश्रमशाला को हिला दिया। ऐसा लगने लगा कि आदिवासी बच्चियों को आत्मनिर्भर और शिक्षित बनाने का सपना ही साफ पानी की कमी से संक्रमित हो रहा है।

विद्यालय प्रशासन ने मांगी मदद

जब शाला में पानी की दिक्कत बहुत ज्यादा बढ़ गई और बच्चियों का भविष्य खतरे में दिखने लगा, तब स्कूल की अधीक्षिका ने ठान लिया कि अब कुछ करना होगा। उन्होंने गांव की पंचायत में यह बात उठाई। तब उन्हें गांव की सरपंच के ज़रिए वाटरएड (WaterAid) नाम की संस्था के बारे में पता चला। यह जानकारी स्कूल के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई।

कांकेर में वाटरएड के प्रतिनिधि ने मदद के अनुरोध पर तुरंत प्रतिक्रिया दी और आश्रमशाला पहुंचकर हालात का जायज़ा लिया। उन्होंने यह आकलन किया कि क्या स्कूल में एक ‘समग्र जल प्रबंधन प्रणाली’ लागू की जा सकती है। इसके लिए टीम ने पूरी सतर्कता और विस्तार से सर्वे किया, ताकि यह तय किया जा सके कि स्कूल में तरल अपशिष्ट प्रबंधन और भूजल पुनर्भरण की योजना कैसे और कहां लागू की जा सकती है। यह आकलन आश्रमशाला की खास ज़रूरतों के मुताबिक एक ठोस समाधान तैयार करने की दिशा में अहम कदम साबित हुआ।

सामुदायिक सहयोग और निर्माण कार्य

आश्रमशाला प्रबंधन समिति के साथ एक अहम बैठक में वाटरएड ने अपना प्रस्ताव पेश किया। उन्होंने स्पष्ट तरीके से बताया कि यह योजना किस तरह शाला की तस्वीर बदल सकती है और इसका क्या फ़ायदा होगा। समिति के सदस्यों को इस योजना में उम्मीद दिखाई दी और सर्वसम्मति से इसे मंज़ूरी दे दी गई। समिति ने यह भी तय किया कि वे श्रम और सामग्री के रूप में निर्माण कार्य में 10% योगदान देंगे, ताकि इस काम में उनकी भी भागीदारी तय हो।

शाला में वर्षा जल संचयन के लिए तैयार की गई संरचना।
शाला में वर्षा जल संचयन के लिए तैयार की गई संरचना।स्रोत: वाटर एड

जैसे-जैसे निर्माण कार्य बढ़ा, छात्राओं और स्टाफ का उत्साह भी बढ़ता गया। वाटरएड ने वर्षा जल संचयन प्रणाली बनाई, जिससे भूजल स्तर ऊपर आया और स्कूल में साल भर पानी की आपूर्ति सुनिश्चित हुई। यहां सिर्फ तात्कालिक ज़रूरतों का ही नहीं, बल्कि दीर्घकालिक स्थायित्व का भी ध्यान रखा गया था।

बारिश के पानी को सहेजने के लिए रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सरचना के अलावा, इस्तेमाल किए गए पानी यानी ग्रेवाटर के प्रबंधन के लिए भी संरचना बनाई गई। अब तक जो पानी बरबाद हो रहा था अब उसे साफ कर किचन गार्डन में उपयोग किया जा सकता था। इन दोनों उपायों से न केवल पानी की कमी खत्म हुई, बल्कि स्कूल में पानी बचाने की स्थायी आदत भी शुरू हुई।

ग्रेवॉटर प्रबंधन संरचना
ग्रेवॉटर प्रबंधन संरचनास्रोत: वाटर एड

स्वच्छता और व्यवहार परिवर्तन

पानी की समस्या को हल करना तो ज़रूरी था ही। यह भी साफ था कि शाला में फैल रही बीमारियों को रोकने के लिए साफ-सफाई की स्थिति सुधारना भी उतना ही अहम है। सफाई की आदतों को समाधान का हिस्सा बनाते हुए, पूरे स्कूल कैंपस में नए हैंडवॉश स्टेशन लगाए गए, ताकि छात्राओं को हाथ धोने और सफाई बनाए रखने में कोई दिक्कत न हो।

वाटरएड जानता था कि सिर्फ पानी की व्यवस्था कर देने से काम पूरा नहीं होगा। इसलिए, उन्होंने छात्राओं के व्यवाहर में परिवर्तन लाने के लिए कुछ सत्र रखे। उन्हें साफ-सफाई की सही आदतों और माहवारी संबंधित स्वास्थ्य के बारे में जानकारी देने के लिए वर्कशॉप आयोजित की गईं, ताकि वे स्वस्थ और गरिमापूर्ण जीवन जी सकें।

दीर्घकालिक देखरेख और प्रशिक्षण

निर्माण पूरा होने पर, वाटरएड ने सभी संरचनाएं स्कूल को सौंप दीं। हालांकि, उनका साथ यहीं खत्म नहीं हुआ। उन्होंने स्कूल के कर्मचारियों को इनके इस्तेमाल और देखरेख के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण दिया। नई संरचनाओं के प्रभावी और टिकाऊ इस्तेमाल के लिए इस ज्ञान को साझा करना बेहद ज़रूरी था। अब स्कूल के कर्मचारी इस नई व्यवस्था की ज़िम्मेदारी ले सकते थे, ताकि छात्राओं को सीखने के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित माहौल दिया जा सके।

इस बदलाव से प्रेरित होकर विद्यालय प्रबंधन ने सक्रिय रूप से नई संरचनाओं की ज़िम्मेदारी उठाना शुरू किया। संरचनाओं और विद्यालय परिसर की साफ सफाई के लिए एक मासिक कार्यक्रम तय किया गया। संरचनाओं के निर्माण के दौरान भी विद्यालय ने नालियों से गाद हटाकर सफाई को प्राथमिकता देने का अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया था।

इन प्रयासों का असर तुरंत देखने को मिला। जैसा कि विद्यालय की अधीक्षिका ने इनके दूरगामी प्रभावों के बारे में कहा, “अब गंदा पानी खुले में नहीं बहता।” उनकी आखों में गर्व था और आभार भी। “जहां दलदल बना हुआ था, वहां अब बगीचा मौजूूद है।” छात्राओं के स्वास्थ्य और स्वच्छता में काफी सुधार देखने को मिला। अधीक्षिका के मुताबिक ये वाटरएड के प्रयासों का असर था। इस प्रयास से पहले पानी 220 फीट पर मिलता था, पर अब वह 80 फीट पर आ गया था।

आंकड़ों में बदलाव

छात्राओं के स्वास्थ्य के आंकड़े खुद इस बदलाव की कहानी बयान कर रहे थे: साल 2023-24 के शैक्षिणिक सत्र में नामांकन 100 तक पहुंच गया। इसके बावजूद बीमारियों के कुल मामले घट कर 127 रह गए। इनमें से कुल 20 ही पानी से संबंधित थे। इनमें 2 मामले कंजंक्टिवाइटिस के थे, 1 टाइफ़ॉइड का और 17 पेट दर्द के। बाकी मामले मुख्य रूप से मौसमी बुखार, सरदर्द और ज़ुकाम जैसी आम बीमारियों के थे। यह साफ था कि पानी और स्वच्छता की उपलब्धता ने स्थिति को काफी बदल दिया था।

इस सत्र में एक छात्रा औसतन 1.27 बार बीमार हुई। इसके अलावा, छात्राओं के रोज़मर्रा के जीवन पर और भी सकारात्मक असर हुए। अब उन्हें पानी लेने दूर तक नहीं जाना पड़ रहा था। वे अपना समय और ऊर्जा पढ़ाई में और खुद को बेहतर बनाने में लगा पा रही थीं। इस बदलाव से सिर्फ़ उनकी शिक्षा का स्तर ही नहीं सुधरा, बल्कि समूचा जीवन स्तर बेहतर हो सका। अब वे अपने बचपन को जीने के अलावा अपने सपनों को पूरा करने में जुट सकती थीं। उन्हें अब बुनियादी ज़रूरतों के बारे में फिक्र करने की ज़रूरत नहीं थी।

रचनात्मक बदलाव और पोषण

इस प्रयास का सबसे सुंदर और चौंकाने वाला नतीजा था एक फलते-फूलते (किचन गार्डन की शुरुआत। जो गंदा पानी कल तक एक समस्या बना हुआ था, अब तरल अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली की मदद से साफ करके उसे सब्ज़ियां उगाने में इस्तेमाल किया जा रहा था। 

आश्रमशाला के किचन-मेनू में अब वहीं उगाई हई लौकी, तोरई और पालक जैसी सब्जियां शामिल हैं, जिससे छात्राओं को बेहतर पोषण मिलने लगा है। साफ-सुथरे माहौल और बेहतर पोषण का असर छात्राओं के बेहतर स्वास्थ्य और सीखने की क्षमता के रूप में देखने को मिल रहा है। शिक्षकों ने बताया कि नए सत्र में छात्राओं की उपस्थिति, कक्षा में उनकी दिलचस्पी और सीखने के उत्साह में काफी सुधार हुआ है।

एक मॉडल आश्रमशाला

आश्रमशाला जिस तरह विकसित और सशक्त हुई है, इसे सतत विकास के एक अनुकरणीय मॉडल के रूप में देखा जा रहा है। पलेवा की आदर्श आदिवासी कन्या आश्रमशाला की सफलता ने पूरे समुदाय पर सकारात्मक प्रभाव डाला है। जो अभिभावक पहले अपनी बेटियों को आश्रमशाला भेजने में संकोच करते थे, अब वे इसमें एक बेहतर भविष्य देखने लगे हैं।

आज यह आश्रमशाला सामुदायिक सहयोग और यहां की छात्राओं और कर्मचारियों की अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है। जब इन छात्राओं की हंसी आस-पास के जंगलों में सरसराती पत्तियों की आवाज़ में घुलती है, तो इस संगीत में कई सपनों को हकीकत में बदलते महसूस किया जा सकता है।

शाम को उत्तर बस्तर में कांकेर की पहाड़ियों के पीछे ढलते सूरज की सुनहरी रोशनी जब आश्रमशाला और उसके हरे-भरे बगीचे को छूती है, तो मन एक उम्मीद और संतोष से भर उठता है। छत्तीसगढ़ के इस छोटे से गांव में जल और स्वच्छता उपलब्ध कराने की एक छोटी सी पहल ने जिस तरह संभावनाओं के आयाम खोले हैं, इन युवा ज़िदगियों की दिशा ही बदल गई है।

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