अब ऊसर नाहीं बा हमार किस्मत
खेतिहर की क्षमता विकसित करने के लिए कार्यक्रमों का नियोजन किया। तय किया कि प्रबंधन परियोजना को चाक चौबंद कैसे किया जाए? बनाई अनुदान योजना। खड़ी की परियोजना इकाइयां। चयनित किए गांव। अपने खेत पर खुद काम करने वाले भूमालिक को ही बनाया लाभार्थी। हर गांव में बनाई स्थल क्रियान्वयन समिति। गठित किए जलोपयोग और उत्पादक समूह। महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाए गए, ताकि आर्थिक कमजोरी ऊसर सुधार के काम में बाधा न बने।
अमेठी को ले कर एक कहावत है-
“जौ न होत अमेठी मा ऊसर, तौ अमेठी कय द इवहौ ते दूसर।’’
यदि अमेठी में ऊसर न होता तो अमेठी का देवता कोई और होता। यह कहावत बताती है कि जमीन के ऊसर-बंजर होने का गवर्नेंस से क्या रिश्ता है। यह कहावत इस नतीजे की ओर संकेत है कि जमीन ऊसर हो तो परावलंबन की मजबूरी खुद-ब-खुद हाथ बांधे रखती है। इसी मजबूरी ने आजादी के बाद भी अमेठी के रजवाड़े को लोगों के मानस में राजा-रानी बनाए रखा।
सरकारी और निजी प्रयासों से कुछ भूमि खेती योग्य हुई जरूर है; बावजूद इसके अमेठी का आज भी काफी बड़ा रकबा ऊसर-बंजर-टांड है। पूरे उत्तर प्रदेश को देखें तो ऐसी भूमि के रकबे का आंकड़ा कई लाख हेक्टेयर में है। हम चाहें तो इस पर बहस कर सकते हैं कि अच्छी-खासी उपजाऊ जमीन को ऊसर बनाने में कितना योगदान शासन-प्रशासन का है और कितना स्वयं खेत मालिकों का, लेकिन इस बात पर कोई बहस नहीं है कि ऐसी भूमि को सुधरना चाहिए।
सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी ने अपने लोकसभा चुनाव घोषणापत्र में भी ऊसर सुधार को तरजीह दी है। कहा है कि जो भूमि सुधारी जाएगी, वह उसी मजदूर को आवंटित कर दी जाएगी, जिसकी भागीदारी से ऊसर सुधार संभव होगा। हालांकि यह घोषणा कोई अनोखी नहीं है।
उ. प्र. ऊसर सुधार निगम की एक परियोजना पहले से इसी तर्ज पर काम कर रही है। इसे मुफ्त में दी गई जमीन नहीं कहा जा सकता। इसमें लाभार्थी का भी आर्थिक अंशदान होता है। ‘उ.प्र. सोडिक लैण्डरिकलेमेशन परियोजना’ –विश्व बैंक, उत्तर प्रदेश सरकार और लाभार्थी के बीच वित्तीय साझेदारी पर आधारित परियोजना है। लागत में विश्वबैंक का अंश 965.39 करोड़, उ.प्र.सरकार का अंश 241.33 और लाभार्थियों का अंशदान 126.18 करोड़ दर्शाया गया है।
सुधार निगम का दावा है कि उसके द्वारा संचालित इस परियोजना ने मार्च, 2013 तक तीन लाख, चार हजार हेक्टेयर ऊसर-बंजर धरती का चेहरा बदलकर रख दिया है। 2009 में शुरू हुआ तृतीय चरण का काम 2015 में पूरा हो जाएगा। इस चरण में सुधार के लिए प्रदेश के 29 जनपदों में एक लाख, 30 हजार हेक्टेयर ऊसर और दो जनपदों में पांच हजार हेक्टेयर बीहड़ चुना गया है। तृतीय चरण के लाभार्थियों की अनुमानित संख्या दो लाख, 40 हजार बताई गई है।
निगम का अनुमान है कि ऊसर भूमि के दो फसली भूमि में तब्दील होने पर उत्पादकता वृद्धि धान में शून्य से बढ़कर 36 कुन्तल प्रति हेक्टेयर और गेहूं में शून्य से बढ़कर 30 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है। यदि यह अनुमान सच है तो परियोजना ने उत्तर प्रदेश को अब तक 1 करोड़, 6 लाख, 40 हजार कुन्तल धान और 91 लाख, 20 हजार कुन्तल गेहूं का अतिरिक्त उत्पादन हासिल करने में अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
उपलब्धि यह भी है कि हासिल जमीन ने किसानों के मन में निराशा की जगह उम्मीदों का समंदर संजोया है- “अब अपने खेत में भी हरियाली होगी। अपनी धरती पर भी सोना बरसेगा। घर में अनाज होगा। मुट्ठी में दाम होंगे। अपनी भी बेटी पढ़ेगी.. आगे बढ़ेगी।’’ वाह! क्या सुंदर सपना है। धरती सुधर रही है। सपना सच हो रहा है।
जिला मैनपुरी का सुमेरु बाबा कहते हैं- “जमीन नाही रही। अब जमीन भई है’’ लखनऊ के कृष्ण पाल के मन में सपना जगा है कि ऊसर सुधर जाए तो धान बोएंगे; इलाके में सबसे अच्छी पैदावार करेंगे। इमलिया कहती है- “पहिले हथवा मां का रहल? ऊसरै ना। अब त गेहूं है; धान है। अब हम भूखन न मरब। जीवन कटि जाई।’’
सोचिए! क्या यह सब सहज ही संभव हुआ होगा? नहीं! यूं भी किसी भूगोल का चेहरा बदलना इतना आसान कभी नहीं होता।’’ ऊसर सुधार, मानव उद्धार’’-उत्तर प्रदेश ऊसर सुधार निगम ने इस नारे के साथ भूगोल को बदलने की कोशिशों को परवान चढ़ाने के प्रयास किए हैं। संपर्क के लिए टोल फ्री नंबर (1800-1800-18) जारी किया है। कृषि, सिंचाई, पशुपालन, पंचायती राज विभाग और रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन सेंटर को जोड़ा है।
सबसे पहले उसने लक्ष्य प्राप्ति के लिए बनाई गई एक कार्ययोजना। क्रियान्वयन के लिए बनाया ढांचा। सुधार के लिए सुझाए 21 तकनीकी कदम। प्रक्षेत्र विकास एवम् भूमि उपचार जलनिकास प्रणाली में सुधार को बनाया प्राथमिक कार्य। कृषि को टिकाऊ और पशु प्रबंधन को उन्नत बनाने में मददगार सेवाओं की शुरुआत की। उत्पादन की बिक्री सुनिश्चित करने के लिए बाजार व्यवस्था तथा संस्थागत सोच का विकास कैसे हो? यह तय किया। हाट का भी प्रावधान है।
खेतिहर की क्षमता विकसित करने के लिए कार्यक्रमों का नियोजन किया। तय किया कि प्रबंधन परियोजना को चाक चौबंद कैसे किया जाए? बनाई अनुदान योजना। खड़ी की परियोजना इकाइयां। चयनित किए गांव। अपने खेत पर खुद काम करने वाले भूमालिक को ही बनाया लाभार्थी। हर गांव में बनाई स्थल क्रियान्वयन समिति। गठित किए जलोपयोग और उत्पादक समूह। महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाए गए, ताकि आर्थिक कमजोरी ऊसर सुधार के काम में बाधा न बने। प्रदर्शनियां लगाई गईं। प्रकाशन बांटे गए। जागरूकता अभियान चले। दीवार लेखन हुआ। नारे गूंजे:
जाई के परचा में नमवा लिखवाय लेत या।
ऊसर सुधार की नीतिया तुहूं अपनाय लेयता।।
अनुदान मा बीज मिली अउर मिली डाइ।
हसिंहैं धरती मैया दुखवा जाई नसाई।।
फसल उगाएं बागवानी, खेत न छोड़े खाली।।
ये नारे प्रेरित करते हैं कि तु हम यहां यह लिखना नहीं भूल सकते कि यदि आज भूमि सुधर रही है, तो इसमें निगम से भी अहम् भूमिका उस किसान की है, जिसने निगम की योजनाओं को जमीन पर उतारा; जिसके पसीने के गिरते ही बंजर धरती जीवंत हो उठी।