अभूतपूर्व संकट
गुजरात में बीजेपी को किसानों की नाराजगी झेलनी पड़ी। इस साल होने वाले विधानसभा और अगले साल लोकसभा चुनावों में कितनी भारी पड़ेगी यह नाराजगी?
दिसम्बर 2017 में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश 52 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर चुके हैं और केन्द्र सरकार से 11,186 करोड़ रुपए के संयुक्त पैकेज की माँग कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, केरल और तमिलनाडु ने अपने 50 प्रतिशत जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है और 54,772 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद माँगी है। साफ है जिन राज्यों में चुनाव हैं वहाँ खेती पर बड़ा संकट मँडरा रहा है। पिछले साल फरवरी और अप्रैल के बीच मुआवजे और फसलों के उचित दाम की माँग को लेकर बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं। देश भर के किसान इस समय अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। उनकी नाराजगी की बानगी 23 फरवरी को दिल्ली में दिखाई देने वाली है। राष्ट्रीय किसान महासंघ के बैनर तले तमाम राज्यों के किसान दिल्ली घेराव के लिये पहुँचेंगे। ऐसा पहली बार है जब करीब 60 किसान संगठन इतनी बड़ी संख्या में सत्ता तक आवाज पहुँचाने के लिये एकजुट हुए हैं।
किसानों की यह नाराजगी क्या इस साल होने वाले विधानसभा और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों में बीजेपी को भारी पड़ सकती है? इस नाराजगी से सत्ताधारी पार्टी के नेता भी परिचित हैं। गुजरात चुनाव जीतने के बाद दिल्ली में जब जश्न मनाया गया तब एक मीटिंग के दौरान बीजेपी सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को कृषि संकट और किसानों के हालात से रूबरू कराया था। इनमें से ज्यादातर सांसदों की चिन्ता वाजिब थी क्योंकि उनका सम्बन्ध मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ से था और इन राज्यों में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं। कर्नाटक को छोड़कर बाकी इन तीन राज्यों में बीजेपी की सरकार है।
इन सांसदों के लिये गुजरात से पहुँचा सन्देश दो कारणों से चिन्ताजनक है। पहला यह कि ग्रामीण क्षेत्र सरकार से नाराज है। गुजरात में यह साफ देखा जा चुका है और दूसरा यह कि जिन चार राज्यों में चुनाव सिर पर हैं वहाँ की अधिकांश आबादी ग्रामीण ही है। इन सांसदों के लिये चिन्ता की बात यह भी है कि इन चार राज्यों के चुनावी नतीजे अगले साल लोकसभा चुनावों पर खासा असर डालेंगे। तो क्या यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण बीजेपी के खिलाफ जाएँगे?
बीजेपी के लिये ये चारों राज्य कितना महत्त्व रखते हैं यह इससे समझा जा सकता है कि बीजेपी की करीब एक तिहाई लोकसभा सीटें इन चार राज्यों से आती हैं। 2014 में हुए आम चुनावों में बीजेपी ने इन चार राज्यों में 85 प्रतिशत सीटें कब्जाई थीं। बीजेपी के लिये चिन्ता की बात यह भी है कि इन चार राज्यों में 744 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 600 ग्रामीण हैं। गुजरात की तरह इन राज्यों में भी पिछले कुछ महीनों से किसानों का प्रदर्शन चल रहा है। 2014 से इन राज्यों में फसलों के नुकसान, कृषि उत्पादों की गिरती कीमत और कर्ज माफी के लिये 98 प्रदर्शन हो चुके हैं। इन राज्यों में अधिकांश किसान कृषि के भरोसे हैं लेकिन कृषि विकस दर कम हो रही है। पिछले तीन सालों में यह विकास दर सबसे कम औसतन दो प्रतिशत रही है। इन राज्यों में किसानों पर दूसरे राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा कर्ज भी है।
चिन्ता का बड़ा कारण सूखा भी है। दिसम्बर 2017 में छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश 52 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर चुके हैं और केन्द्र सरकार से 11,186 करोड़ रुपए के संयुक्त पैकेज की माँग कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, केरल और तमिलनाडु ने अपने 50 प्रतिशत जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है और 54,772 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद माँगी है। साफ है जिन राज्यों में चुनाव हैं वहाँ खेती पर बड़ा संकट मँडरा रहा है। पिछले साल फरवरी और अप्रैल के बीच मुआवजे और फसलों के उचित दाम की माँग को लेकर बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
मध्य प्रदेश में पानी की कमी के कारण गेहूँ की बुवाई पर असर पड़ा है। इससे पहले 2017 में दक्षिण पश्चिम मानसून में औसत से पाँच प्रतिशत कम बारिश हुई थी। देश के कुल 630 जिलों में से एक तिहाई जिलों में कम बारिश हुई है।
मध्य प्रदेश में किसानों की दुर्दशा का जिक्र करने पर राष्ट्रीय किसान महासंघ के संयोजक शिव कुमार शर्मा उर्फ कक्काजी बताते हैं कि यहाँ हालात बहुत खराब हो चुके हैं। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से किसान लुट गया है। रही-सही कसर राज्य सरकार की भावान्तर योजना ने पूरी कर दी है।
कक्काजी बताते हैं कि किसानों की आवाज को दिल्ली तक पहुँचाने के लिये 23 फरवरी को लाखों की संख्या में किसान रामलीला मैदान पहुँचेंगे। राष्ट्रीय किसान महासंघ के बैनर तले तमाम राज्यों में संगठन से जुड़े पदाधिकारी और किसान इस यात्रा की तैयारियों में जुटे हैं। ब्लॉक स्तर पर रोजाना बैठकों का दौर जारी है। कक्काजी कहते हैं, हर ब्लॉक में प्रतिदिन 100 से 250 यात्राएँ हो चुकी हैं।
इस यात्रा को उन्होंने किसान सम्मान यात्रा नाम दिया है। 21 फरवरी को मध्य प्रदेश के किसान पलवल में एकत्रित होंगे और वहाँ से पैदल दिल्ली कूच करेंगे। रास्ते में किसान संगठनों से जुड़े लोग भोजन की व्यवस्था करेंगे। यूपी, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात समेत बाकी राज्यों के किसान अलग-अलग रास्तों और माध्यमों से दिल्ली पहुँचेंगे। दिल्ली के रामलीला मैदान में उनका अनिश्चितकालीन धरना चलेगा। आन्दोलन पूरी तरह से गैर राजनीतिक होगा। पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़कर सभी राज्यों के किसान दिल्ली कूच में शामिल होंगे। कक्काजी बताते हैं कि दिल्ली पहुँचने वाले किसानों की संख्या 10 से 15 लाख के बीच होगी। कश्मीर से लेकर पश्चिम बंगाल तक के किसान दिल्ली पहुँचेंगे।
राजस्थान के किसान भी सरकार से खासे नाराज हैं। पिछले साल राज्य के सीकर में हाल का सबसे बड़ा प्रदर्शन हुआ था। आन्दोलन 13 दिन 3 घंटे चला। यह पहला ऐसा आन्दोलन था जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी भाग लिया। पशुओं के व्यापार पर केन्द्र सरकार की पाबन्दी के बाद किसान उग्र हो गए थे। राजस्थान के किसानों के लिये कृषि के साथ पशुधन का भी बराबर महत्त्व है। राज्य की करीब 75 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है। प्रतिबन्ध का सबसे ज्यादा असर राजस्थान पर पड़ा क्योंकि यह ऐसा प्रदेश है जहाँ सबसे अधिक पशु मेले लगते हैं जहाँ पर हर प्रकार के पशु की बिक्री होती है।
प्रतिबन्ध के विरोध में सीकर में 50,000 किसान जुटे और उन्होंने पूर्ण कर्ज माफी, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने और पशुओं के व्यापार पर लगे प्रतिबन्ध को हटाने की माँग की। सरकार ने परवाह नहीं कि तो दस दिन बाद चक्का जाम का ऐलान किया गया। तीन दिन तक सीकर में ऐसे हालात पैदा हो गए कि सरकार को वार्ता के लिये आगे आना पड़ा।
बीजेपी ने 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में किसानों से वादा किया था कि उन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य से 50 प्रतिशत अधिक फसल की कीमत दी जाएगी। लेकिन इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। किसानों ने प्रति हेक्टेयर 13,000 रुपए खर्च किये लेकिन उनकी लागत तक नहीं निकली। उन्हें 4,800 रुपए में उपज बेचनी पड़ी। रही-सही कसर मवेशियों के व्यापार पर लगाए गए प्रतिबन्ध ने पूरी कर दी। प्रतिबनध के तीन महीने के भीतर मवेशियों की कीमत काफी कम हो गई। जो किसान खेती में नुकसान उठाने पर आमतौर मवेशियों को बेचकर काम चलाते थे उन्हें 50,000 रुपए में खरीदी गई गाय को 20,000 में बेचना पड़ा। भैंस की कीमत भी 60,000 से गिरकर 30,000 हो गई।
किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जट बताते हैं “राजस्थान के ज्यादातर हिस्सों में असामान्य बारिश से 80 प्रतिशत फसल नष्ट हो गई लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया।”
सीकर में किसान आन्दोलन की अगुवाई करने वाले व मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के पूर्व विधायक अमराराम का कहना है “कांग्रेस और बीजेपी दोनों को समान रूप से कृषि संकट के चलते चुनावों में नुकसान उठाना पड़ेगा। बीजेपी को जहाँ किसानों की अनदेखी का नुकसान उठाना पड़ेगा जबकि विपक्षी पार्टी कांग्रेस को किसानों के मुद्दों को प्रमुखता से न उठाने का खामियाजा भुगतना होगा।”
जिन राज्यों में इस साल चुनाव होने हैं, उनमें कर्नाटक ही ऐसा राज्य है जहाँ कांग्रेस सत्ता में है। यहाँ भी कृषि संकट मुख्य मुद्दा होने वाला है। पिछले कुछ सालों के मुकाबले 2017 में यहाँ अच्छा मानसून रहा है और यहाँ किसान खुश थे। उन्हें उम्मीद थी कि कपास की अच्छी फसल होगी। लेकिन बाकी राज्यों की तरह कर्नाटक में भी कर्ज में डूबे किसानों की बहुत बड़ी संख्या है। राज्य का उत्तरी हिस्सा 2014-16 के बीच पड़े सूखे से अभी उबर नहीं पाया है। मूल्य आयुक्त टीएन प्रकाश कामारेड्डी की अगुवाई में बनी रिपोर्ट बताती है कि 1990 के दशक के मध्य से शुरू हुआ आत्महत्या का सिलसिला मालेनाडु और तटीक क्षेत्रों को छोड़कर पूरे राज्य में शुरू हो गया है।
2015 में कर्नाटक में 978 किसानों ने आत्महत्या की। इनमें से 70 प्रतिशत छोटे और सीमान्त किसान थे। हालांकि कर्नाटक कृषि उत्पादों के लिये मूल्य आयोग बनाने वाला पहला राज्य है लेकिन फिर भी जिस तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की प्रणाली काम करती है उसे बदलने की जरूरत है। कई फसलों की एमएसपी तो उत्पादन लागत का 73 प्रतिशत ही है। राज्य सरकार धान की प्रत्यक्ष खरीद करती है लेकिन इसकी एमएसपी भी उत्पादन लागत का करीब 83 प्रतिशत ही है। जाहिर है कि एमएसपी के तंत्र को पूरी तरह बदलने की जरूरत है।