आदिवासियों की खेती से सीखें
देश के कई इलाकों में आदिवासी परम्परागत रूप से अब भी खेती कर रहे हैं। इनमें एक है ओडिशा का नियमगिरी पहाड़ का इलाका। सितम्बर महीने में वहाँ गया था। आदिवासियों की मिश्रित खेती से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वहाँ देखकर और आदिवासियों से उनके अनुभव सुनकर मेरा यह विश्वास और भी पक्का हो गया।
कुन्दुगुड़ा के आदि नाम के आदिवासी ने अपने आधे एकड़ खेत में 76 प्रकार की फसलें लगाई हैं जिसमें अनाज, मोटे अनाज, दलहन, तिलहन, साग- सब्जियाँ और फलदार पेड़ भी शामिल हैं।
नियमगिरी पहाड़ की तलहटी में एक आदिवासी आदि का खेत है। उसमें विविध प्रकार की रंग-बिरंगी फसलें लहलहा रही हैं। लाल, पीले और सफेद मक्के, मोतियों के दाने से जड़े बाजरा, झुमके से लटकती मड़िया, सुनहरी धान की बालियाँ, कांग, कोदो और कुटकी थीं। इसके अलावा, आलू, मिर्ची, लौकी, भिंडी, प्याज, लहसुन जैसी हरी सब्जियाँ थीं।
मैंने उसके खेत में घूम-घूमकर फसलें, पौधे, कंद-मूल, साग-सब्जियाँ देखी। देशी स्वादिष्ट मक्के के भुट्टे को चखा। बरबटी की फल्लियाँ चबाई। कई पौधों के गुण धर्म के बारे में जाना। कंद मूलों की ख़ासियत समझी।
इसी प्रकार, एक दूसरे गाँव केरंडीगुड़ा में पूरा गाँव मिश्रित खेती कर रहा है। ये सभी गाँव रायगढ़ा जिले में हैं। यहाँ के लोकनाथ नावरी ने अपने खेत में 62 प्रकार की फसलें लगाई हैं। लिविंग फार्म के कार्यकर्ता कृष्णा कहता है कि हम ढाई सौ से अधिक गाँवों में पूरी तरह मिश्रित खेती को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। यह खेती बरसों से हो रही है, हमारी परम्परा से जुड़ी है। जंगल और खेती से हमारे तीज-त्योहार जुड़े हैं।
प्रकृति प्रेम आदिवासियों का स्वभाव है और उससे उनका लगाव सामंजस्य का अनुपम उदाहरण है। उनकी आजीविका व जीवनशैली जंगल आधारित है। जंगल से जड़ी-बूटी एकत्र करना, वनोपज एकत्र करना और पारम्परिक खेती करना उनकी जीविका के साधन हैं।
यह खेती बिना रासायनिक, बिना कीटनाशक के देशी बीजों से की जा रही है। कम खर्च और बिना कर्ज के की जा रही है। देशी बीज अपने हैं, मेहनत हाथ की है और ज़मीन खुद की है। कुछ लोग किराए पर ज़मीन लेकर भी खेती कर रहे हैं।
मिश्रित खेती को प्रोत्साहित करने वाले व लिविंग फार्म से जुड़े प्रदीप पात्रा कहते हैं कि यह खेती पूरी जैविक और पर्यावरण के अनुकूल है। इसमें ज्यादा कीट प्रकोप का खतरा भी नहीं है।
कीट नियंत्रण के लिये नीम, सीताफल,अदरक आदि के पत्ते को गोमूत्र के साथ मिलाकर स्प्रे कर दिया जाता है। एक ही खेत में कई प्रकार की फसलें लगाने का लाभ यह होता है कि अगर एक फसल मार खा गई तो उसकी पूर्ति दूसरी से हो जाती है।
मिश्रित खेती से साल भर खाद्य सुरक्षा बनी रहती है। एक के बाद एक फसल पकती जाती है और उसे काटकर भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जब मैं अक्टूबर की शुरुआत में इस इलाके में था तब नवाखाई त्योहार मनाया जा रहा था। जल्दी पकने वाला धान उस समय तक आ चुका था।
एक फसल दूसरी की प्रतिस्पर्धी नहीं है बल्कि सहायक है। जैसे मक्के के पौधे पर बरबटी की बेल लिपटी है। वह उसे हवा से गिरने से बचाती है। इसी प्रकार एक पौधा दूसरे की मदद के लिये तत्पर खड़ा है। अलग-अलग पौधों की जड़ें अलग-अलग गहराई से पोषक तत्व हासिल करती हैं। फल्लीवाले पौधों के पत्तों से नाइट्रोजन मिलती है।
खेती से पैदा होने वाले कुछ अनाजों को गर्भवती महिलाओं व बीमारों को खिलाया जाता है। यानी ये अनाज बीमारी में भी उपचार के काम आते हैं। इन अनाजों में शरीर के लिये जरूरी सभी पोषक तत्व होते हैं। रेशे, लौह तत्व, कैल्शियम, विटामिन, प्रोटीन व अन्य खनिज तत्व मौजूद हैं।
इस खेती से न केवल खाद्य सुरक्षा व भोजन के लिये जरूरी पोषक तत्व मिलते हैं बल्कि इसमें जलवायु बदलाव से होने वाले नुकसानों से बचाने की क्षमता भी है। इससे मिट्टी-पानी के संरक्षण के साथ इससे जैव विविधता समृद्ध होती है व पर्यावरण का संरक्षण भी होता है।
लेकिन आदिवासियों की खेती पर एक खतरा भी मँडरा रहा है। यहाँ सागौन व नीलगिरी की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है जिससे लोगों की खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो रही है। आदि कहता है कि हम सागौन व नीलगिरी को तो नहीं खा सकते। खाने को अनाज ही चाहिए लेकिन जंगल ही हमारा जीवन है, इससे हमें भोजन मिलता है। हम इसके बिना नहीं जी सकते।
यह पूरा इलाक़ा आदिवासी बहुल है। यहाँ कुई भाषा बोलने वाले कंध आदिवासी हैं। डोंगरिया, झरनिया और कुटिया। ये सभी आदिवासी कंध हैं। डोंगरिया, जो डंगर या पहाड़ पर रहते हैं। झरनिया, जो झरने के पास रहते हैं। कुटिया कंध जो पहाड़ के निचले भाग में रहते हैं। ये सब एक ही आदिवासी समुदाय है, जो अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। और सभी आदिवासी मिश्रित खेती करते रहे हैं।
यह वही नियमगिरी पहाड़ है जहाँ के आदिवासियों ने खनन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी और जीती थी। अब भूख और कुपोषण से लड़ाई लड़ी जा रही है। बहरहाल, भूख और कुपोषण से खेती के माध्यम से यह लड़ाई भी लड़ी जा रही है।
हाल ही में मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएँ और चुनौतियाँ आ रही हैं, उससे निपटने में भी मिश्रित खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा बारिश, सूखा और कम पानी की स्थिति में यह खेती उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं