आक्रामक स्लग : भारतीय कृषि एवं स्थानीय प्रजातियों के लिए खतरा(Invasive slugs: a threat to Indian agriculture and local species)
हमारे आस-पास के पर्यावरण में बहुत सारे ऐसे जीव-जंतु पाये जाते हैं जिनके बारे में अभी ज्यादातर लोग अनजान है। हम ऐसे जीवों को अक्सर आस-पास के वातावरण में देखते तो हैं लेकिन हमें ये नहीं पता होता कि आखिर इनकी पहचान क्या है? क्या ये कोई आक्रामक प्रजाति है? हमारे पर्यावरण एवं कृषि हेतु ये हानिकारक हैं अथवा लाभदायक? ढेरों प्रश्न हमारे मन-मस्तिष्क में इन जीवों को देखकर उभरते हैं जो कि स्वाभाविक है।
पिछले कुछ वर्षों से बारिश के मौसम में आपने अपने आस-पास के परिवेश में नमीयुक्त स्थानों, गीली मिट्टी, बाग-बगीचों और नर्सरी में अक्सर एक जोंक की तरह दिखाई देने वाला एक जीव अवश्य देखा होगा। जमीन पर चलते हुए ये जीव अपने पीछे-पीछे चिपचिपा द्रव पदार्थ भी छोड़ता जाता है अतः लोग और भी हैरत में पड़ जाते हैं। इस जीव को देखकर अक्सर लोगों के मन-मस्तिष्क में ये जिज्ञासा पैदा होती है कि आखिर ये कौन-सा अनजाना अनदेखा जीव है? अधिकांश लोग भ्रमवश इसे अक्सर जोंक समझने की भूल कर बैठते हैं। बरसात के दिनों में तो ये बहुत ज्यादा ही मात्रा में दिखाई देता है। क्या आपको पता है कि ये कौन-सा जीव है? क्या ये जोंक ही है या फिर कोई अन्य प्राणी?
दरअसल ये घोंघे की प्रजाति का एक स्लग (Slug) नामक प्राणी है जिसे हम सभी अक्सर भ्रमवश जोंक (Leech) समझ बैठते हैं। चूँकि इसके शरीर पर सामान्य रूप से दिखाई देने वाले वाले घोंघे की तरह कोई कठोर खोल अथवा कवच जैसी संरचना नहीं पायी जाती इसीलिए लोग अंदाजा नहीं लगा पाते कि बिना खोल वाला भी ऐसा कोई घोंघा हो सकता है। वैज्ञानिक वर्गीकरण के तहत ये मोलस्का संघ का अकशेरूकी प्राणी है। इसके सिर के अग्रभाग पर एंटीने की तरह दो जोड़ी संरचनाएं पायी जाती हैं जिन्हें स्पर्शिका कहते हैं। इन स्पर्शिकाओं के माध्यम से ये प्रकाश और गंध का अनुमान लगाता है। स्लग बारिश के मौसम में हमें अपने बाग-बगीचों और खेतों में नम और गीली जमीन अथवा पौधों पर दिखाई देता है। इसे गार्डेन स्लग और लेदरलीफ स्लग भी कहते हैं। इसका आहार पौधों की पत्तियाँ, कंद, सब्जी, मशरूम, कवक और फल-फूल हैं अर्थात् ये वनस्पतियों के पूरे हिस्सों को अपना आहार बनाता है। इसके शरीर पर कोई कठोर खोल अथवा कवच जैसी संरचना मौजूद ना होने के कारण इसे कवच विहीन स्थलीय घोंघा भी कहते हैं। इसे अंग्रेजी भाषा में Land Slug, Shell-less slug, Land snail आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। मराठी भाषा में इसे गोगलगाय कहते हैं।
पिछले कुछ सालों से स्लग की कई प्रजातियाँ दुनियाभर के विभिन्न देशों में आक्रामक रूप से फैल रहीं हैं और तेजी से पौधों एवं फसलों को नष्ट कर रहीं हैं। भारत में आज इसकी करीब 20 प्रजातियों को बेहद आक्रामक माना गया है। ये स्लग नामक आक्रामक जीव पौधों की पत्तियों में छेंद कर भारी क्षति पहुंचाता हैं। ये वनस्पतियों के अंकुर, नये उगे पौधों को नष्ट कर देता है। कामन गार्डेन स्लग (Laevicaulis alte) जो कि अफ्रीका का मूल निवासी है हमारे भारत देश में एक बेहद आक्रामक स्लग प्रजाति है। भारत के सभी भू-भागों में इसकी आबादी आक्रामक तरीके से फैली है जो बैंगन, टमाटर, पत्तागोभी, खीरा, मूली जैसी सब्जियों को भारी नुकसान पहुंचा रही है। इसी तरह ब्राउन स्लग (एफ.अल्टे) गुड़हल, डहेलिया, गेंदा, गुलदोपहरी जैसे फूलों वाले पौधों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। स्लग की ऐसी कई विदेशी प्रजातियाँ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के जरिए आज हमारे देशों में पहुंच रहीं हैं। जैसे ही बारिश का मौसम आता है इस स्लग नामक जोंकनुमा जीव की सक्रियता बढ़ जाती है। जमीन पर चलते हुए ये अपने शरीर से एक बेहद चिपचिपा सा तरल पदार्थ छोड़ता जाता है जिस कारण से देखने में ये बेहद घिनौना प्रतीत होता है। दरअसल इसके द्वारा छोड़े जाने वाले चिपचिपे द्रव से इसे जमीन की उबड़-खाबड़ सतहों पर चलने में मदद मिलती है। इसी चिपचिपे पदार्थ की मदद से ये पौधों की टहनियों और पत्तियों पर भी चलता जाता है। इसके द्वारा छोड़ा गया चिपचिपा द्रव भी पौधों की संरचना को क्षतिग्रस्त कर देता है।
यदि समय रहते इस स्लग की आक्रामक प्रजातियों की बढ़ती संख्या पर नियंत्रण ना लगाया गया तो ये हमारी कृषि और देशी पौधों की प्रजातियों को तबाह कर देगा। एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक कैटरपिलर स्लग प्रतिवर्ष कृषि क्षेत्र को अरबों डॉलर की आर्थिक क्षति पहुंचाता है। अंकुरित पौधों, पत्तियों, फलों और सब्जियों को तबाह कर देने वाले ये स्लग उत्तर भारत, उत्तर-पूर्वी भारत, दक्षिणी भारत की फसलों और वनस्पतियों को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। कृषि के लिए हानिकारक इस स्थलीय घोंघे की कई देशों में व्यापक स्तर पर फैली प्रजातियों को नियंत्रित करने के काफी प्रयास किए जा रहे हैं। कुछ किसानों द्वारा इसे नियंत्रित करने के लिए खेतों में नमक का प्रयोग किया जाता है क्योंकि नमक का खारापन इस स्लग के नरम ऊतकों को नष्ट कर देता है लेकिन नमक मिट्टी की क्षारीयता बढ़ा सकता है इसलिए ये उपाय कृषि के अनुरूप नहीं है। राख का प्रयोग कर इसे नियंत्रित किया जा सकता है क्योंकि ये सूखी जगहों से बचने का प्रयास करता है ताकि इसके शरीर की नमी बनी रहे। सूखी राख का प्रयोग एक बेहतर विकल्प है। आयरन फास्फेट जैसे कीटनाशक भी इसके नियंत्रण में प्रभावी है लेकिन ये पर्यावरण संरक्षण की लिहाज से अनुकूल तरीका नहीं है। इसके अंडों को नष्ट कर इसकी वृद्धि को रोका जा सकता है। खेतों की जुताई और निराई-गुड़ाई से इसके अंडे नष्ट कर इस पर लगाम लगाया जा सकता है।
पिछले चार-पांच सालों से मैं लगातार बारिश के मौसम में इस जीव का आब्जर्वेशन कर रहा हूँ। प्रायः ये जमीन की गढ्ढेनुमा संरचनाओं और सड़ी-गली पत्तियों के ढेर के नीचे अपने अण्डे देता है और अपनी प्रजाति का विस्तार करता है। हमारे देश में इसकी भारतीय मूल की प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं लेकिन वो उतनी आक्रामक नहीं है जितनी की बाहरी देशों से आयी प्रजातियाँ। अपने शोध अवलोकन के दौरान एक बार में इस स्लग द्वारा दिए गए अण्डों की भारी संख्या देखकर मुझे अंदाज हो गया कि वास्तव में ये एक आक्रामक प्रजाति के तौर पर हमारे देश की कई वनस्पति प्रजातियों के लिए व्यापक संकट खड़े कर सकतीं हैं। ये एक बार में 30 से लेकर 40 तक की संख्या में अंडे देता है।
आज मानव आधुनिकता और दिखावे के चक्कर में विदेशी सजावटी पौधों का आयात कर रहा है। यही कारण है कि आयातित गमलों में फूलों के साथ ये स्लग जैसी आक्रामक प्रजातियाँ भी हमारे देश में पहुंच आती है और हमारे कृषि एवं स्थानीय जीव-जंतुओं के लिए खतरा बन जाती हैं। अतः आज हमें जागरूक होने की जरूरत है। हमें समझना होगा कि हर जीव एवं पौधों का अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र होता है लेकिन यदि वो अपने मूल क्षेत्र से नये क्षेत्रों में पहुंच जायें तो वहाँ के पर्यावरण हेतु खतरनाक साबित होती है। लोगों को चाहिए कि वो विदेशी वनस्पतियों की बजाय अपने देश के स्थानीय फूलों एवं पौधों को लगायें। सरकार द्वारा इन आक्रामक प्रजातियों के व्यापार एवं आयात सम्बन्धी कानूनी नियम कायदे बनाये जाने चाहिए। लोग पक्षी, सांप और गिरगिट जैसे जीवों का संरक्षण करें ताकि इन स्लग जैसे जीवों की आबादी को नियंत्रित किया जा सके। हमें जरूरत है कि हम पर्यावरण के प्रति सचेत हों ताकि हमारी देशज जैवविविधता, स्थानीय कृषि एवं प्रकृति के मध्य संतुलन बना रहे।