प्राकृतिक खेती ले ही सुधरेगा खेती का भविष्य (छवि: ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद)
प्राकृतिक खेती ले ही सुधरेगा खेती का भविष्य (छवि: ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद)

प्रकृति सकारात्मक खेती से सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण

प्रकृति सकारात्मक खेती से सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करें। जानिए कैसे यह प्रणाली खाद्य, पोषण और आजीविका सुरक्षा को बढ़ावा देती है। - चन्द्रभानु, वीना यादव, जयराम चौधरी
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वैश्विक खाद्य उत्पादन प्रणालियों में एक रूपांतरकारी बदलाव आवश्यक है, ताकि सभी के लिए खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि और सार्वजनिक स्वास्थ्य की गंभीर चुनौतियों का समाधान किया जा सके। भविष्य की उत्पादन प्रणालियों को केवल सीमित प्राकृतिक संसाधनों के क्षय और ह्रास से बचने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें स्थलीय और जलीय आवासों को बनाए रखने और सबके लिए समान आहार की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए जीवमंडल की क्षमता को सक्रिय रूप से बढ़ाना होगा। इसे हासिल करने और भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रकृति की विरासत को संरक्षित करने हेतु, वर्तमान की आगत सघन पारंपरिक खाद्य उत्पादन प्रणालियों को प्रकृति सकारात्मक (पुनर्योजी) प्रणालियों में परिवर्तित करना होगा। प्रकृति के महत्वपूर्ण घटकों और कार्यप्रणालियों की रक्षा, प्रबंधन और पुनर्स्थापन के माध्यम से, स्वस्थ और पोषक आहार का सतत उत्पादन कर सकते हैं। इससे लोगों को लाभ होगा, जलवायु स्थिरता को बढ़ावा मिलेगा और आजीविका तथा आर्थिक सुरक्षा बिना किसी हानिकारक प्रभाव के सुनिश्चित की जा सकेगी।

वर्तमान की अत्यधिक लागत आधारित खेती से एक ओर तो उत्पादकता बढ़ने के साथ हमारी खाद्य पोषण एवं आजीविका सुरक्षा को सुनिश्चित करने में काफी मदद मिली है। दूसरी ओर पिछले कुछ दशकों में कृषि उत्पादन के समग्र घटकों की उत्पादकता में कमी की प्रवृत्ति देखी जा रही है। खेती के वर्तमान असंतुलित स्वरूप के कारण प्राकृतिक संसाधनों जैसे मृदा, पानी एवं जैव विविधता की गुणवत्ता में काफी कमी आई है। पौधों के प्रमुख एवं गौण पोषक तत्वों की हमारी मृदा में व्यापक स्तर पर कमी, भूजल स्तर एवं जल की गुणवत्ता में भारी कमी, फसलों के नाशीजीवों एवं उनके प्राकृतिक शत्रुओं के बीच का संतुलन का बिगड़ जाना आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं। इनके कारण आज हमारी फसलों की उपज में या तो स्थिरता आ गई है या उसमें कमी देखी जा रही है। 

संसाधनों के अंधाधुंध एवं असंतुलित प्रयोग के कारण विश्व के 80 प्रतिशत जंगलों का कट जाना, धरती पर उपस्थित 70 प्रतिशत जैव विविधता का खत्म हो जाना, 52 प्रतिशत कृषि भूमि की गुणवत्ता में कमी, मीठे जल की जैव विविधता में 50 प्रतिशत की कमी, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 29 प्रतिशत की वृद्धि आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं। इनसे ज्ञात होता है कि अत्यधिक आदानों एवं भारी मशीनरी आधारित वर्तमान खेती कैसे प्राकृतिक संसाधनों को भारी नुकसान पहुंचा रही है।

इन चुनौतियों के मद्देनजर, कृषि की अच्छी तकनीकों को एक साथ लाकर, वर्तमान खाद्य उत्पादन प्रणाली को इस प्रकार संगठित करने की आवश्यकता है, जिससे कि खाद्य, पोषण एवं आजीविका सुरक्षा के साथ-साथ अपने प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा भी कर सकें। इस विचार को प्रकृति सकारात्मक (पुनर्योजी) खेती के नाम से जाना जाता है।

प्रकृति सकारात्मक खेती एक नया विचार है। इसका आरंभ वर्ष 2021 में संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक खाद्य प्रणाली सम्मेलन के दौरान हुआ। सरल शब्दों में प्रकृति सकारात्मक खेती का अर्थ खाद्य उत्पादन प्रक्रिया एवं पारिस्थितिकी तंत्र के पुनरुद्धार के मध्य संभावित तालमेल बिठाना, ताकि खेती के साथ-साथ प्रकृति और उसकी जैव विविधता दोनों का स्वरूप पहले जैसा बना रहे।

प्रकृति सकारात्मक स्तंभ

प्रकृति सकारात्मक खेती के तीन मुख्य स्तंभ हैं जिनका वर्णन नीचे दिया जा रहा है: 

1 - सुरक्षा - 

प्राकृतिक वास-स्थानों व वनों को संरक्षित करना और यहां पर खेती के अतिरिक्त फैलाव को रोककर प्रकृति को अपनी व्यवस्थाओं के अनुसार चलने देना। 

2 - प्रबंधन -

खाद्य उत्पादन प्रबंधन व्यवस्था को संतुलित तरीके से चलाना जिससे प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि, जल व जैव-विविधता इत्यादि को कम से कम या ना के बराबर नुकसान पहुंचा कर भी मानव की खाद्य, पोषण एवं आजीविका सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकें।

3 - जीर्णोद्धार

ऐसी भूमि या पारिस्थितिकी तंत्र जो मनुष्य द्वारा खाद्य उत्पादन संसाधनों जैसे-रासायनिक उर्वरकों व भारी मशीनरी आदि के अंधाधुंध प्रयोग से खराब हो चुके हैं, उन्हें पर्यावरण अनुकूल विधियों के समावेश से पुनर्जीवित करना। इसस खेती हेतु नई जमीन की अतिरिक्त आवश्यकता नहीं होगी और प्राकृतिक वास-स्थानों व वनों को संरक्षित करने में मदद मिलेगी।

प्रकृति सकारात्मक खेती के सिद्धांत

प्रकृति सकारात्मक खेती के तीन प्रमुख सिद्धांत हैं:

1 - ऊर्जा संचयन

कृषि पारिस्थितिकी दृष्टिकोण को अपनाकर तथा खाद्य उत्पादन तंत्र में जैव विविधता को बढ़ाकर ऊर्जा संचयन को विस्तारित किया जा सकता है। इससे खाद्य श्रृंखला में अधिकाधिक ऊर्जा का संचयन हो सकेगा। प्रक्षेत्र पर फसलों व उनकी प्रजातियों, लाभकारी जीव-जंतुओं व सूक्ष्म जीवों की विविधता को बढ़ाकर महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी सेवाओं जैसे-परागण, जैविक नियंत्रण, जलवायु विनियमन, मृदा संरक्षण, जल प्रदूषण व पोषक तत्वों के क्षरण को रोकने इत्यादि को बढ़ावा दे सकते हैं। इसके लिए यह संस्तुति है कि प्रत्येक वर्ग कि.मी. क्षेत्र में कम से कम 10 से 20 प्रतिशत जमीन पर अर्द्धप्राकृतिक वासस्थानों को बनाए रखना चाहिए।

2 - ऊर्जा परिसंचरण

कृषि पारिस्थितिकी तंत्र में प्रत्येक स्तर पर जैव विविधता बढ़ाने और लाभकारी व संरक्षण प्रबंधन तकनीकों को अपनाकर सूर्य से प्राप्त प्राथमिक ऊर्जा के आहार श्रृंखला के विभिन्न स्तरों में परिसंचरण को बढ़ाया जा सकता है। इससे पूरा कृषि पारिस्थितिकी तंत्र स्वयं ही टिकाऊ होगा और यहां पर बाहर के विनाशकारी आदानों (जैसे रासायनिक) के ऊपर निर्भरता भी कम होगी।

3 - रणनीति

खाद्य उत्पादन प्रबंधन के विभिन्न स्तरों पर प्रकृति सकारात्मक खेती को बढ़ावा देने हेतु निम्न रणनीति अपनायी जानी चाहिए:

  1. प्रक्षेत्र इकाइयों (खेत) के स्तर पर

  2. मिश्रित/सघन खेती को बढ़ावा देना

  3. निम्न/शून्य कर्षण को अपनाना

  4. संरक्षण व सटीक खेती

  5. केंचुआ पालन व जैविक खादों के उपयोग को बढ़ावा देना

  6. बिछावन (मल्चिंग) फसलें हरी खाद का उपयोग

  7. फसल अवशेषों का पुनर्चक्रण

  8. प्रक्षेत्र (फार्म) स्तर पर

  9. कृषि वानिकी पद्धतियों को बढ़ावा

  10. चक्रीय चराई व खेती

  11. समेकित फसल प्रबंधन

  12. मेड़ रोपण एवं प्रतिशोधक स्तर (बफर जोन) का समावेश

  13. समेकित/जैविक कृषि प्रणालियों को बढ़ावा देना

अतः खेत और प्रक्षेत्र स्तर पर यदि संरक्षण व सटीक खेती की विधियों व पद्धतियों को सम्मिलित करते हुए, समेकित /जैविक कृषि प्रणालियों को अपनाया जाये तो प्रकृति सकारात्मक खेती को बढ़ावा देने में अवश्य सफल हो पायेंगे।

भू-दृश्य (लैंडस्केप) स्तर पर जैव-विविधता व पारिस्थितिकी सेवाओं का संरक्षण सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण हेतु पारस्परिक योजना व प्रबंधन सामाजिक-आर्थिक स्तर पर सभी के लिए उचित मेहनताना व संसाधनों में भागीदारी स्वच्छ वातावरण व मानक स्वास्थ्य/सुरक्षा स्तर हेतु प्रयास अतः उपरोक्त रणनीतिक सुझावों को अपनाकर यदि राष्ट्रीय स्तर से लेकर खेत के स्तर की योजना बनाकर उसे सही से क्रियान्वित करें तो वर्तमान खाद्य उत्पादन तंत्र को प्रकृति सकारात्मक उत्पादन तंत्र में बदल पाना अवश्य संभव हो सकेगा।

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