जैविक खेती में स्वावलम्बन
जब से केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशक बनाने का चलन शुरू हुआ है तब से महिलाएँ भी इस ओर उन्मुख हो रही हैं। कुछ महीने पूर्व सकरी सरैया गाँव में आयोजित जैविक कृषक पंचायत में आए लगभग 500 लोगों में से दो सौ महिलाएँ थीं। अगर यह सिलसिला चल पड़ा तो महिलाओं को स्वरोजगार और स्वावलम्बन का ठोस आधार मिल जाएगा।बिहार में वैशाली जिले के लालगंज में पहला महिला किसान क्लब कुछ वर्षों पहले बना और इसके कामों के कारण इसकी शोहरत भी हुई। धान की रोपनी, फसल की कटाई, ढुलाई सभी जगह महिलाएँ होती हैं, लेकिन प्रबन्धन और पैसे-कौड़ी पर अधिकार पुरुषों का रहता है। घर की मालकिन कहलाने वाली औरतों के हाथ में प्रबन्धन, निर्णय और वित्तीय अधिकार अपवाद स्वरूप ही रहते हैं। लेकिन अब हालात कुछ बदल रहे हैं। रोजगार की तलाश में पुरुषों का बड़े पैमाने पर प्रवासन होने के कारण खेती-किसानी घर की महिलाओं के जिम्मे आ जाती है। बकरी पालकर गरीब महिलाएँ यहाँ तक कि निम्न-मध्यमवर्गीय महिलाएँ भी दो पैसे का जुगाड़ करती रही हैं। कुछ गाय-भैंस भी पालती हैं। गोबर का गोइठा (उपला) बनाकर भी बेचती हैं और इससे बचे पैसे से बच्चों के इलाज और अब पढ़ाई-लिखाई का इन्तजाम करती हैं। लेकिन जब से बिहार में केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशक बनाने का चलन शुरू हुआ है तब से महिलाएँ भी इस ओर उन्मुख हो रही हैं। पारू प्रखण्ड के चाँद केवारी की कलावती देवी और डुमरी की कमल देवी इसका उदाहरण हैं। कुछ महीने पूर्व मुजफ्फरपुर के सकरी सरैया गाँव में आयोजित जैविक कृषक पंचायत में आए लगभग 500 लोगों में से दो सौ महिलाएँ थीं। अगर यह सिलसिला चल पड़ा तो महिलाओं को स्वरोजगार और स्वावलम्बन का ठोस आधार मिल जाएगा।
आज सैकड़ों युवा किसान जैविक कृषि अपना रहे हैं। सुजावलपुर के अशोक कुमार, पुखरौली के कृष्णमोहन महतो, रजला के मुकेश, कृष्णा प्रसाद, सकरी सरैया के वीरेन्द्र, नरेश, सुनील जैसे सैकड़ों युवा हैं जो जोर-जोर से जैविक खेती और उसके प्रसार में जुटे हैं।
वैशाली जिले के कम्मन, छपड़ा गाँव के फुदेनी पण्डित, गोविन्दपुर के श्रीकान्त कुशवाहा और मानिकपुर के सुबोध तिवारी ने लगभग आठ साल पूर्व जब केंचुआ खाद, जैविक कीटनाशक और औषधीय पौधों का प्रयोग और प्रचार-प्रसार शुरू किया तो लोग उन्हें पागल समझते थे। उनके घर वाले भी रासायनिक खाद, दवा पर आधारित कृषि को छोड़कर जैविक खेती को अपनाने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन ऐसे पागल उत्तर बिहार के हर जिले में प्रकट होने लगे। आज ये लोग किसानों के प्रेरणास्रोत, मार्गदर्शक और प्रशिक्षक बन गए हैं। मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुंगेर, भागलपुर सभी जगह जैविक खेती का प्रसार होने लगा है। जो किसान इसे अपना रहे हैं उनकी खेती के लागत खर्च में काफी कमी आ गई है, सिंचाई का खर्च घट गया है, खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ रही है और भरपूर उत्पादन हो रहा है। मुश्तम्फापुर के मनोज कुशवाहा सरीखे युवा किसानों की तकदीर बदल रही है।
जो किसान जैविक कृषि द्वारा आलू, प्याज उपजाते हैं उनका कहना है कि उनके खेत के आलू, प्याज कोल्डस्टोरेज में रखे बिना भी ज्यादा दिन तक सुरक्षित रहते हैं, जल्दी सड़ते नहीं। पौष्टिकता, स्वाद, गुणवत्ता और स्वास्थ्य के लिए निरापद होने के कारण जैविक तरीके से उपजाए गए अनाज, फल और सब्जियों के भाव भी ज्यादा मिलते हैं।उत्तर बिहार के जिन युवा किसानों ने जैविक खेती अपनाई है उन्होंने इस बार अपने खेतों में सोना उपजाया। उनके गेहूँ की बालियाँ और मक्के के बाल (भुट्टे) पहले से बड़े थे। दाने भी काफी पुष्ट और देखने में ज्यादा सुन्दर। अमूमन गेहूँ की एक बाली में 42 से 52 दाने रहते हैं, इस बार 72 से 82 दाने थे। एक एकड़ खेत में 26 क्विण्टल 40 किलोग्राम तक गेहूँ की उपज हुई। मकई तथा अन्य फसलों में भी इसी प्रकार की वृद्धि देखी गई। इन किसानों ने पिछले दो वर्षों के दौरान रासायनिक उर्वरकों और जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग बन्द करके जैविक कृषि की शुरुआत की है। केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) और नीम की पत्तियों तथा गाय के मूत्र के संयोग से बने जैविक कीटनाशक के प्रयोग का ही परिणाम था कि मात्र दो वर्षों में ही उनके खेतों की उर्वरा शक्ति वापस लौट आई, जो लम्बे समय तक रासायनिक खाद, दवा के प्रयोग के कारण नष्ट हो रही थी। जब रासायनिक खादों का प्रयोग शुरू किया गया था तो इन खेतों में उपज एकाएक बढ़ गई थी। लेकिन धीरे-धीरे उर्वरा शक्ति क्षीण होती गई। खेती का खर्च बढ़ता गया। जैविक खेती में बहुत कम सिंचाई में ही अच्छी फसल होने लगी है क्योंकि अब मिट्टी में वर्षा जल को सोखकर उसे टिकाए रखने की क्षमता काफी बढ़ गई है।
जिन खेतों में जैविक खाद और जैविक कीटनाशक के द्वारा सब्जियाँ उगाई जा रही हैं वहाँ की सब्जियाँ ज्यादा अच्छी, स्वादिष्ट और पौष्टिक हैं। मुजफ्फरपुर, मेहसी, वैशाली तथा आसपास के इलाके में काफी लीची पैदा होती है। लीची के जिन बागानों में जैविक खाद और जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाने लगा है वहाँ की लीची का रंग, आकार, स्वाद और गुणवत्ता बेहतर है। जो किसान जैविक कृषि द्वारा आलू, प्याज उपजाते हैं उनका कहना है कि उनके खेत के आलू, प्याज कोल्डस्टोरेज में रखे बिना भी ज्यादा दिन तक सुरक्षित रहते हैं, जल्दी सड़ते नहीं। पौष्टिकता, स्वाद, गुणवत्ता और स्वास्थ्य के लिए निरापद होने के कारण जैविक तरीके से उपजाए गए अनाज, फल और सब्जियों के भाव भी ज्यादा मिलते हैं। इसलिए इस तरफ किसानों की अभिरुचि बढ़ने लगी है।
रासायनिक खाद-दवा वाली खेती ने फसल चक्र को भी बिगाड़ दिया है। एक ही फसल बार-बार लगाने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है। दाल और अनाज की फसलों को अदल-बदल कर बोने से या विभिन्न फसलों को मिश्रित रूप से बोने से खेतों की उर्वरा शक्ति कायम रहती है। दाल वाली फसलें जैसे− मसूर, चना, मूँग, अरहर आदि अपनी जड़ों में गाँठ के रूप में नाइट्रोजन जमा करती हैं। पौधे यह नाइट्रोजन वायुमण्डल से प्रकाश संश्लेषण के दौरान इकट्ठा करते हैं। जैविक कृषि की ओर अग्रसर हुए किसानों ने फिर से मिश्रित खेती या अदल-बदल कर फसलें लगाने का सिलसिला शुरू किया है। रासायनिक कृषि के कारण खेती के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व भी समाप्त होने लगे हैं। फलतः किसानों को बाजार से महंगे सूक्ष्म पोषक तत्व खरीद कर खेतों में डालना पड़ता है। मिट्टी की जाँच भी झंझट का काम है जो आम किसानों के लिए सम्भव नहीं होता जबकि केंचुआ खाद में खेती के लिए जरूरी सभी सूक्ष्म पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं।
फुदेनी पण्डित द्वारा ‘एसिनिया फटिडा’ केंचुआ से निर्मित किए जाने वाले जैविक खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटैशियम की पर्याप्त मात्रा के साथ-साथ भरपूर मात्रा में कैल्शियम, मैग्निशियम, कोबाल्ट, मोलिब्डेनम, बोरोन, सल्फर, लोहा, ताम्बा, जस्ता, मैंगनीज, जिबरैलीन, साइटोकाइनिन तथा ऑक्सीजन पाया जाता है। इसके अतिरिक्त बायो एक्टिव कम्पाउण्ड, विटामिन और एमिनो एसिड रहता है।
फसलों या फलदार वृक्षों के आसपास मधुमक्खियों के बक्से रखे जाते हैं वहाँ उपज में बीस प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है, क्योंकि मधुक्खियाँ फसलों और फलों के मंजरों के परागन में बहुत मददगार होती हैंउत्तरी और पूर्वी बिहार के युवा किसान मधुमक्खी पालन का काम भी तेजी से अपनाने लगे हैं। बिहार के सवा लाख से भी ज्यादा किसान परिवार शहद उत्पादन का पेशा अपनाकर खुशहाल हैं। इस काम में अभी से दस गुना वृद्धि हो सकती है और 10-12 लाख परिवार इससे खुशहाल हो सकते हैं। एक खास बात यह भी है कि जिन फसलों या फलदार वृक्षों के आसपास मधुमक्खियों के बक्से रखे जाते हैं वहाँ उपज में बीस प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है, क्योंकि मधुक्खियाँ फसलों और फलों के मंजरों के परागन में बहुत मददगार होती हैं लेकिन फसलों और लीची, आम आदि के मंजरों पर जहरीले रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव के कारण बड़ी संख्या में मधुमक्खियाँ मर जाती हैं। इनके अलावा तितली, केंचुए आदि सैकड़ों तरह के मित्र कीट और जीव-जन्तु भी मर जाते हैं।
मेंढक प्रतिदिन अपने शरीर के वजन के बराबर खेती के शत्रु कीटों को खा जाता है। लेकिन आज मेंढकों के जीवन पर भी आफत है। कोयल की कूक, कौए की कांव-कांव, चिड़ियों की चहचहाहट और कबूतरों की गुटुर-गूँ भी कम सुनाई पड़ती है। मोर मर रहे हैं, तोता, मैना और चील भी बहुत कम दिखाई देते हैं और गिद्ध तो दिखाई ही नहीं देते। लेकिन जिन गाँवों में जैविक कृषि होने लगी है, वहाँ खेती और मनुष्य के मित्र जीव-जन्तुओं की सुरसुराहट, चिड़ियों की चहचहाहट का मधुर संगीत फिर से सुनाई देने लगा है।
मध्यकाल से ही तिरहुत के एक बड़े इलाके में तम्बाकू की खेती हो रही है। मुगल दरबारों, अमीर-उमरा, नवाबों, जमींदारों, राजे-रजवाड़ों और रईसों के यहाँ तम्बाकू का चलन था और उसकी अच्छी कीमत मिल जाती थी। इसलिए उसकी खेती को बढ़ावा मिला। धीरे-धीरे सामान्य जन भी तम्बाकू के आदी होने लगे। किसान जानते हैं कि तम्बाकू के रूप में वे जहर खा रहे हैं लेकिन पेट की खातिर तम्बाकू उगाना पड़ता है। यहाँ ऐसा कोई समाज सुधारक भी नहीं हुआ जो तम्बाकू की उपज और उसके उपयोग के बहिष्कार के लिए लोगों को प्रेरित करता। जिन्होंने प्रयास भी किए उन्हें आंशिक सफलता ही मिल सकी।
लेकिन आज अनेक स्त्री-पुरुष किसानों ने पुदीना, लेमनग्रास, अश्वगन्धा, सफेद मूसली, शतावर, आँवला, हर्रे, बहेड़ा, जस्टीसिया, ब्राह्मी, पुनर्नवा, तुलसी जैसे सैकड़ों औषधीय पौधों की खेती शुरू कर दी है। उन्हें इसके अच्छे दाम और अच्छा मुनाफा भी मिलने लगा है। देसी और अन्तरराष्ट्रीय बाजार में इनकी बड़ी माँग है। एलोपैथिक दवाओं, खासकर एण्टीबायोटिक दवाओं के दुष्प्रभावों के चलते जड़ी-बूटियों तथा औषधीय वनस्पतियों की माँग और भी तेजी से बढ़ने वाली है। शुरू-शुरू में जब औषधीय पौधों की खेती होने लगी थी तो बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ किसानों से बहुत सस्ते में जड़ी-बूटियाँ खरीद लेती थीं। लेकिन अब अनेक कृषक आपसी सहयोग से औषधीय वनस्पतियों का प्रसंस्करण करके अच्छे भाव में बेचने लगे हैं।
जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार की ओर से सब्सिडी का भी प्रावधान है, लेकिन अफसोस की बात है कि बहुत थोड़े से किसान इससे लाभांवित हो पाते हैं। इस सब्सिडी का काफी पैसा वापस लौट जाता है तथा कुछ बिचौलिए मार लेते हैं।कहते हैं− बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा। कुछ वर्ष पूर्व असम से जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों को निर्यात की गई चाय वापस लौटा दी गई थी। उस चाय में जहरीले कीटनाशकों तथा रासायनिक खाद के अंश पाए गए थे, जिन्हें मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। नासिक से निर्यात किए गए अंगूर को भी इसी कारण लौटाया गया था। अमीर देश सब्जियों, फलों, अनाज तथा दूध आदि की जाँच के बाद निरापद पाए जाने के बाद ही उनके आयात की अनुमति देते हैं। इसलिए चाय बागान वाले अब केंचुआ खाद और जैविक कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ा रहे हैं, ताकि निर्यात सम्भव हो सके। निर्यात किए जाने वाले अंगूर, आम, केला, लीची आदि के बागानों से भी जैविक खाद और जैविक कीटनाशकों की माँग बढ़ती जा रही है। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार की ओर से सब्सिडी का भी प्रावधान है, लेकिन अफसोस की बात है कि बहुत थोड़े से किसान इससे लाभांवित हो पाते हैं। इस सब्सिडी का काफी पैसा वापस लौट जाता है तथा कुछ बिचौलिए मार लेते हैं। कुछ अपवाद को छोड़कर बैंकों का रवैया भी उदासीनतापूर्ण या नकारात्मक ही दिखाई देता है। सरकारी अधिकारी और सरकार भी सिर्फ निर्यात वाले खाद्य पदार्थों के जैविक तरीके से उत्पादन की चिन्ता करती है।
खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य प्रकार की घातक बीमारियों का प्रसार हुआ है। अन्य राज्यों से भी इसी प्रकार की रिपोर्टें आ रही हैं। अगर हम रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के उत्पादकों को दी जाने वाली भारी-भरकम सब्सिडी को सीधे किसानों के हाथों में पहुँचा सकें तो किसान अपनी सुविधा के अनुसार जैविक कृषि का विकल्प चुन लेंगे। इससे हमारा पेट्रोलियम आयात का बिल भी कम होगा, हमारी खेती भी बचेगी, हमारे किसान भी खुशहाल होंगे और हमारा स्वास्थ्य भी निरापद रहेगा। ऐसा हो सका तो जैविक कृषि के प्रसार-प्रचार में निःस्वार्थ भाव से लगे पंकज, फुलदेव पटेल, शंकर, इन्दीवर, जगत, संतोष सारंग, हेमनारायण विश्वकर्मा और विकास कुमार चरण सरीखे युवाओं के सपने भी साकार होंगे।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार हैं)