जल संकट और सिंचाई में सार्वजनिक निवेश

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भारत बहुत बड़े जल संकट से जूझ रहा है। देश के 50 प्रतिशत से अधिक जिलों में सूखे का प्रभाव चिन्हित किया गया है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखण्ड और तेलंगाना के जिले तो इससे बुरी तरह प्रभावित हैं। सभी क्षेत्रों में जल की कमी की सीमा और मात्रा अलग-अलग है और साथ ही फसलों, मवेशियों और प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले इसके प्रभाव में भी विविधता है, लगभग 33 करोड़ लोग प्रभावित हैं जिन्हें जल संकट ने हरसंभव हल तलाशने के लिये एक सूत्र में बाँध दिया है

केंद्र सरकार ने फसल के नुकसान की भरपाई के लिये सूखा राहत कार्यक्रम शुरू किया है, पानी की बेतहाशा कमी वाले इलाकों में रेलगाड़ियों से पानी भेजा गया है तथा भूजल के विवेकपूर्ण उपयोग की योजना बनायी गई है। राज्यों को इस उभरते संकट से निपटने के लिये केंद्र से वित्तीय सहायता भी मिली है।

सूखा अब बार-बार पेश आने वाली समस्या है और चिंता का प्रमुख कारण बन चुका है, क्योंकि लगभग 75 प्रतिशत पानी का उपयोग सिंचाई में किया जाता है। अधिक तापमान के साथ-साथ कम वर्षा होने से, न केवल कृषि की उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, बल्कि देश में कृषि पर निर्भर एक बड़ी आबादी की आजीविका को भी आघात पहुँचेगा। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अन्तर्गत वृहत साथ ही साथ सूक्ष्म सिंचाई में निवेश पर बल देने का प्रस्ताव पहले ही प्रस्तुत किया जा चुका है। इसलिये यह पता लगाना महत्त्वपूर्ण होगा कि मोटे तौर पर वृहद-मध्यम सिंचाई पर हुए सार्वजनिक व्यय ने सिंचाई की गहनता बढ़ाने और कृषि उत्पादकता में तेजी लाने में योगदान दिया है या नहीं। यदि नहीं, तो अब समय आ गया है। कि छोटी और सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली पर ध्यान केंद्रित करते हुए निवेश किया जाए, ऐसी तकनीकें और अन्य उपाय किये जाएँ, जिनसे पैदावार बढ़े और जल का कुशलतापूर्वक बेहतर उपयोग संभव हो सके। इससे जल से सम्बन्धित राजकोषीय नीति के साधनों जैसे नहर के पानी और भूजल के उपयोग में निवेश और सब्सिडी आदि में बदलाव आवश्यक हो जाएगा।

यह आलेख वृहद, मझौली और लघु सिंचाई योजनाओं के प्रति सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन का परिमाण निर्धारित करता है और जल की कमी से निपटने के लिये संभावित नीतिगत हस्तक्षेपों पर प्रकाश डालने के लक्ष्य के साथ इन निवेशों की सामान्य दक्षता का अनुमान लगाता है। भारत के प्रमुख राज्यों में वर्ष 1981-82 से लेकर 2013-14 तक जाँच की गई है, क्योंकि जल और कृषि दोनों राज्य के विषय हैं तथा इन क्षेत्रों पर हुए खर्च और समय के साथ हुए इनके विकास में अंतरराज्यीय स्तर पर बड़े पैमाने पर विविधताएँ देखी जा सकती हैं। (वित्तीय लेखा और कृषि सांख्यिकीः एक नजर में, भारत सरकार) सार्वजनिक व्यय पर टाइम सीरीज डेटा को एसडीपी अपस्फीति कारकों का उपयोग करते हुए 2004-05 के आधार पर वास्तविक मूल्य में परिवर्तित किया गया है। सिंचाई क्षेत्र में सिंचाई सब्सिडी की गणना वित्त लेखा से लिये गये विस्तृत आँकड़ों के आधार पर कुल संचालन और रख-रखाव की लागत और कुल राजस्व के अंतर के रूप में की जाती है। ब्याज भुगतान राजस्व प्राप्तियों में शामिल किये गये हैं।

सिंचाई में होने वाले निवेश में अंतरराज्यीय भिन्नताएँ और उनकी दक्षता

भविष्य की योजना

तालिका 1: वृहद-मझौली और लघु सिंचाई में सार्वजनिक निवेश की सामान्य दक्षता

वृहद-मझौली

लघु

राज्य

1981-89

1990-99

2000-13

1981-89

1990-99

2000-13

आंध्र प्रदेश,

0.71

0.15

2.38

0.10

0.03

0.29

असम

0.05

-0.002

0.01

0.08

0.01

0.08

गुजरात

0.43

0.73

0.99

0.003

0.07

0.29

हरियाणा

0.10

0.03

0.07

0.02

0.01

-0.02

हिमाचल प्रदेश

0.004

0.002

0.01

0.02

0.003

0.02

जम्मू-कश्मीर

0.03

-0.03

0.01

--

0.01

0.05

कर्नाटक

0.41

0.54

0.99

0.08

0.01

0.21

केरल

0.33

0.58

1.03

0.06

0.03

0.22

महाराष्ट्र

1.62

0.77

0.46

0.28

0.29

0.12

ओडिशा

0.37

0.11

0.05

0.07

-0.01

0.21

पंजाब

0.09

0.11

-0.07

-0.01

0.004

0.001

राजस्थान

0.31

0.16

-0.03

0.06

0.02

0.05

तमिलनाडु

0.18

0.07

0.17

0.01

0.02

0.06

पश्चिम बंगाल

0.11

0.04

-0.03

--

0.04

0.02

बिहार-झारखण्ड

1.22

-0.46

0.49

0.02

-0.04

0.19

म.प्र. छत्तीसगढ़

0.98

-0.09

0.93

0.35

-0.06

0.50

उ.प्र. उत्तराखण्ड

0.94

-0.22

0.62

0.35

-0.23

0.22

नोटः एमईआई 1/आईसीओआर और आईसीओआर का अनुमान वृहद-मझौली और लघु सिंचाई में पूँजीगत भण्डार का उपयोग करते हुए लगाया गया, 2004-05 के मूल्यों पर लिया गया एसपीडीए तीन वर्षों का गतिमान औसत है। आधार वर्ष के मूल्य को स्टॉक में लेते हुए और प्रत्येक वर्ष में हृास के लिये भत्ता तय करते हुए पूँजीगत व्यय को स्टॉक के रूप में लिया गया है।

अध्ययनों से पता चलता है कि सूक्ष्म सिंचाई जल की बचत करने, खेती की लागत में कमी लाने और फसल की उपज बढ़ाने में सहायक है। परम्परागत सिंचाई प्रणाली की तुलना में ड्रिप सिंचाई के माध्यम से आपूर्ति किये गये प्रति इंच जल की निवल प्राप्ति 60-80 प्रतिशत के दायरे में रही है। हालाँकि उच्च प्रारम्भिक पूँजीगत लागत, विविध मृदा स्थितियों में अभिकल्पों की उपयुक्तता, सब्सिडी प्राप्त करने में समस्याएँ और छोटी जोत कथित तौर पर इस तकनीक को अपनाए जाने को व्यापक तौर पर प्रभावित कर रहे हैं। सब्सिडी, किसानों के किसी तकनीक को स्वीकार करने के फैसले को प्रभावित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कारक है। इस नाते यदि समय पर वह न बाँटी जाए और समृद्ध किसानों द्वारा इसका उपयुक्त उपयोग न किये जाएं, तो उसका असर संसाधनों की दृष्टि से गरीब, छोटे और सीमान्त किसानों की बड़ी तादाद द्वारा इस तकनीक तक पहुँच बनाने पर हो सकता है। (विश्वनाथन व अन्य 2016) सूक्ष्म सिंचाई सम्बन्धी राष्ट्रीय मिशन को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

सिंचाई, साथ ही साथ बिजली पर अतिरिक्त व्यय पर सब्सिडी पर प्राप्ति कृषि सम्बन्धी उत्पादकता के संदर्भ में 100 प्रतिशत से भी कम रहती है (बाथला व अन्य 2015)। लेकिन सार्वजनिक व्यय का आवंटन सब्सिडी के स्थान पर निवेश में कर पाना भारत के राजनीतिक परिदृश्य को देखकर असंभव मालूम होता है। साथ ही, कुछ कृषि बहुत, गरीब राज्यों को उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत हो सकती है और इसलिए यह सब्सिडी किसानों को लुभाने का आसान रास्ता है। जल संसाधन के आवश्यकता से अधिक दोहन से बचने का एक तरीका सब्सिडी वितरण को तर्कसंगत बनाते हुए इसे वास्तव में इसकी आवश्यकता वाले राज्यों और किसानों को दिया जा सकता है।

जैसा कि गुलाटी (2016) द्वारा सुझाए गये कुछ अन्य उपायों में बिजली और साथ ही साथ नहर के जल की खपत को मापने के लिये मीटर लगाया जाना और उसके बाद किसानों को मौद्रिक मूल्य के माध्यम से ईनाम देते हुए खपत में कमी लाने को प्रोत्साहित किया जाना शामिल है, मसलन 75 प्रतिशत बचत का मूल्य, नए निवेश से आपूर्ति पर आने वाली लागत के समकक्ष होगा। एक अन्य विकल्प यह हो सकता है कि सरकार बेकार पम्प सेटों को ज्यादा ऊर्जा दक्ष पम्पों से बदल दे, जो बिजली की लगभग 30 प्रतिशत बचत कर सकते हैं। अंतिम, लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कम पानी की आवश्यकता वाली और सूखा प्रतिरोधी किस्मों की खेती को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ जल संरक्षण और तकनीक को बढ़ावा देना इस संकट से निपटने में योगदान दे सकता है।

नवगठित राज्य तेलंगाना ने एक बड़ी परियोजना काकतीय प्रारम्भ की है, जिसके तहत पारम्परिक टैंकों और झीलों में दोबारा जल भरने के माध्यम से जल संचयन और प्रबंधन किया जा रहा है। बारिश के पानी का उपयोग करने की अभिनव रणनीतियों को जानने और अपनाने के लिये हाल ही में आयोजित ‘भारत जल सप्ताह 2016’ के दौरान भारत की इजरायल के साथ भागीदारी इस दिशा में एक अन्य उपयोगी कदम है। जैसा कि हमारे प्रधानमंत्री द्वारा अपेक्षित है, यदि इन उपायों को अमल में लाया गया, तो वे सिंचित क्षेत्र बढ़ाने, कृषि उत्पादकता बनाए रखने और कृषि से होने वाली आमदनी को दोगुना करने में बेहद सफल हो सकते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकारें समयबद्ध निवेश की योजना बनाएँ और उसे मिशन माध्यम से संचालित की मजबूती के साथ प्रतिबद्धता व्यक्त करें।

संदर्भ

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- बाथला, एस., बिंगशिन वाई, थोराट एस.के. एंड जोशी पी.के. (2015):

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- भारत सरकार:

राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी (विविध अंक), केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन

- भारत सरकार:

कृषि सांख्यिकी एक नजर में (विविध अंक), कृषि मंत्रालय

- भारत सरकार:

(विविध अंक), वित्तीय लेखे, वित्त मंत्रालय

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माइक्रो इरिगेशन सिस्टम्स इन इंडिया : इमर्जेंस, स्टेट्स एंड इम्पैक्ट्स, स्प्रिंगर।

नोट


1. लघु सिंचाई के अन्तर्गत सार्वजनिक निवेश में सतही जल और भूजल दोनों योजनाएँ शामिल है। जैसेः- लिफ्ट सिंचाई, ट्यूबवेल, नलकूप, कुएँ, टैंक इत्यादि।

2. 90 के दशक में पूँजी-उपयोग दक्षता में गिरावट को कृषि आय में कमतर वृद्धि के रूप में भी देखा जा सकता है।

लेखक परिचय

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