नियमगिरी के आदिवासियों का खानपान
उन्तीस सितम्बर की दोपहर मैं मुनिगुड़ा पहुँचा। यह ओड़िशा के नियमगिरी की पर्वत शृंखला के बीच स्थित है। यहाँ दो दिन रहा। आदिवासी जन जीवन को नज़दीक से देखने के साथ मैंने उनके जंगल से खानपान को भी जाना।
वैसे जंगल और पहाड़ी प्रकृति प्रेमियों, फोटोग्राफरों और सैलानियों के आकर्षण के केन्द्र रहे हैं। लेकिन ये ही वे इलाके हैं जहाँ हमारी खेती का विकास हुआ है। इन्हीं जंगलों में रहने वाले आदिवासियों ने तमाम तरह के पेड़ पौधे और फलों, पत्तों के गुणधर्मों की खोज की है और उन्हें विकसित किया है।
जंगल आदमी समेत कई जीव-जन्तुओं को पालता पोसता है। ताजा हवा, कंद-मूल, फल, घनी छाया, ईंधन, चारा, और इमारती लकड़ी और जड़ी-बूटियों का खजाना है।
हमारे जंगल जनविहीन नहीं है, यहाँ गाँव समाज है। और ज्यादातर जंगलों में आदिवासी निवास करते हैं। उनके खानपान में जंगल से प्राप्त गैर खेती भोजन का बड़ा हिस्सा होता है।
केरंडीगुड़ा का लोकनाथ नावरी कहता है कि जंगल हमारे बच्चों को भूख से बचाता है, इसलिये हम जंगल को बचाते है। वहाँ से हमें भाजी, कंद-मूल, फल-फूल और कई प्रकार के मशरूम मिलते हैं। जिन्हें या तो सीधे खाते हैं या हांडी में पकाकर खाते हैं।
इसका एक नमूना मुझे रेलवे स्टेशन पर ही मिल गया जब वहाँ महिलाएँ टोकरी में सीताफल बेचते हुए मिलीं। वे सब जंगल से लेकर सीताफल लेकर आईं थीं और ट्रेन में बेचती थीं। एक ही सीताफल से मेरा नाश्ता हो गया।
विषमकटक के सहाड़ा गाँव का कृष्णा कहता है कि जंगल हमारा माई-बाप है। वह हमें जीवन देता है। उससे हमारे पर्व-परभणी जुड़े हुए हैं। धरती माता को हम पूजते हैं। कंद, मूल, फल, मशरूम, बाँस करील और कई प्रकार की हरी भाजी हमें जंगल से मिलती है।
आदिवासियों की जीवनशैली अमौद्रिक होती है। वे प्रकृति के ज्यादा करीब हैं। प्रकृति से उनका रिश्ता माँ-बेटे का है। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उन्हें जरूरत है। वे पेड़ पहाड़ को देवता के समान मानते हैं। उनकी जिन्दगी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। ये फलदार पेड़ व कंद-मूल उनके भूख के साथी हैं।
लिविंग फार्म के एक अध्ययन के अनुसार भूख के दिनों में आदिवासियों के लिये यह भोजन महत्त्वपूर्ण हो जाता है। उन्हें 121 प्रकार की चीजें जंगल से मिलती हैं, जिनमें कंद-मूल, मशरूम, हरी भाजियाँ, फल, फूल और शहद आदि शामिल हैं। इनमें से कुछ खाद्य सामग्री साल भर मिलती है और कुछ मौसमी होती है।
आम, आँवला, बेल, कटहल, तेंदू, शहद, महुआ, सीताफल, जामुन, शहद मिलता है। कई तरह के मशरूम मिलते हैं। जावा, चकुंदा, जाहनी, कनकड़ा, सुनसुनिया की हरी भाजी मिलती है। पीता, काठा-भारा, गनी, केतान, कंभा, मीठा, मुंडी, पलेरिका, फाला, पिटाला, रानी, सेमली-साठ, सेदुल आदि कांदा (कंद) मिलते हैं।
यह भोजन पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इससे भूख और कुपोषण की समस्या दूर होती है। खासतौर से जब लोगों के पास रोज़गार नहीं होता। हाथ में पैसा नहीं होता। खाद्य पदार्थों तक उनकी पहुँच नहीं होती। यह प्रकृति प्रदत्त भोजन सबको मुफ्त में और सहज ही उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन पिछले कुछ समय से इस इलाके में कृत्रिम वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है। यूकेलिप्टस, सागौन, बाँस को भी लगाया जा रहा है।
कुन्दुगुड़ा का आदि कहता है यूकेलिप्टस वाले मेरे पास भी आये थे। यह कहकर भगा दिया कि तुम्हारे पेड़ की भाजी भी नहीं खा सकते, खेत में लगाने से क्या फायदा? वह कहता है यहाँ के एक पेपर मिल के कारण यूकेलिप्टस लगाने का लालच दिया जा रहा है।
देशी और परम्परागत खेती को बढ़ावा देने में लगी संस्था के कार्यकर्ता प्रदीप पात्रा कहते हैं कि जंगल कम होने का सीधा असर लोगों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ता है। इसका प्रत्य़क्ष असर फल, फूल और पत्तों के अभाव में रूप में दिखाई देता है।
अप्रत्य़क्ष रूप से जलवायु बदलाव से फ़सलों पर और मवेशियों के लिये चारे-पानी के अभाव के रूप में दिखाई देता है। पर्यावरणीय असर दिखाई देते हैं। मिट्टी का कटाव होता है। खाद्य सम्प्रभुता तभी हो सकती है जब लोगों का अपने भोजन पर नियंत्रण हो।
आदिवासियों की भोजन सुरक्षा में जंगल और खेत-खलिहान से प्राप्त खाद्य पदार्थों को ही गैर खेती भोजन कहा जा सकता है। इनमें भी कई तरह के पौष्टिक पोषक तत्व हैं।
यह सब न केवल भोजन की दृष्टि से बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
समृद्ध और विविधतापूर्ण आदिवासी भोजन परम्परा बची रहे, पोषण सम्बन्धी ज्ञान बचा रहे, परम्परागत चिकित्सा पद्धति बची रहे, पर्यावरण और जैव विविधता का संरक्षण हो, यह आज की जरूरत है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं