प्राकृतिक खेती में ही बेहतरी छिपी है
प्राकृतिक खेती में ही बेहतरी छिपी है

रासायनिक ही नहीं, जैविक खेती से भी बेहतर प्राकृतिक खेती

रासायनिक और जैविक खेती के विकल्प के रूप में उभर रही है प्राकृतिक खेती। जानें कैसे यह विधि किसानों को बनाएगी स्वावलंबी और पर्यावरण को रखेगी सुरक्षित।
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प्राकृतिक खेती सबसे बेहतर : रासायनिक ही नहीं, जैविक खेती से भी आगे

देश में खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रचलन में आई रासायनिक कृषि के दुष्परिणामों से आज हम सभी अवगत हैं। रासायनिक खेती से त्रस्त होने के बाद उसके विकल्पों की तलाश प्रारंभ हुई। इस रूप में जैविक कृषि सामने आई। लेकिन अपनी जटिलता और महंगी लागत के कारण जैविक खेती विधि की उपयोगिता खेती-किसानी के लिए बहुत सीमित सिद्ध हुई है। यही कारण है कि ऐसे किसानों की संख्या बहुत अधिक है जिन्होंने विकल्प के रूप में जैविक खेती को अवश्य अपनाया, लेकिन बाद में निराश होकर पुनः रासायनिक खेती की ओर उन्मुख होने को विवश हो गए। हालांकि रासायनिक खेती की ओर लौट जाना कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि रासायनिक खेती को यदि शीघ्र तिलांजलि नहीं दी गई तो हमारे साथ-साथ सम्पूर्ण प्राकृतिक परिवेश और हमारी आने वाली पीढ़ियों तक को इसके गंभीर दुष्परिणाम भुगतने पर विवश होना पड़ेगा। प्रश्न उठता है कि फिर ऐसी कौन-सी विधि अपनाई जाए जो हमें रासायनिक खेती के कुप्रभावों से बचाने के साथ ही सहज-सरल और किसान-उपभोक्ता के लिए आर्थिक रूप से वहनीय भी हो। इसका उत्तर है गाय आधारित प्राकृतिक कृषि। इस पद्धति को अंगीकार करके रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव और जैविक खेती की जटिलता से बचते हुए किसान, उपभोक्ता, पर्यावरण और सरकार के हितों का संरक्षण किया जा सकता है। यही कारण है कि धरातल पर आज देश के अनेक राज्यों में लाखों ऐसे किसान हैं जो प्राकृतिक खेती को सफलतापूर्वक अंगीकार करके अपनी आर्थिक स्थिति सबल बनाने के साथ ही रसायनमुक्त-पोषणयुक्त खाद्यान्न का उत्पादन करते हुए इस सबके लिए मंगलकारी कृषि पद्धति के रोल माडल बन चुके हैं। 

अब आवश्यकता है कि व्यापक रूप से यह संदेश सब तक पहुंचे कि रासायनिक न जैविक, केवल प्राकृतिक खेती से ही वर्तमान और भविष्य की समस्त संबंधित समस्याओं का निदान किया जा सकता है।

लंबे गुलामी काल से आजादी मिलने के समय भारत खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था। उस समय उत्पादन में त्वरित वृद्धि के लिए रासायनिक खेती का रास्ता चुना गया। प्रारम्भ में इससे उपज और खाद्य आत्मनिर्भरता में वृद्धि भी हुई। पर धीरे-धीरे इसके दुष्परिणाम प्रकट होने लगे। उत्पादन बढ़ने के बाद भी किसान की आय में अपेक्षित वृद्धि होना तो दूर, किसान कर्ज के बोझ तले दबने लगे। भूमि उर्वरता और खाद्यान्न की पोषकता में कमी, रोग वृध्दि, भूजल के अंधाधुंध दोहन से संकटपूर्ण स्थिति तक वृद्धि, जैव विविधता का नाश, पर्यावरणीय प्रदूषण में वृद्धि, संसाधनों की परावलम्बन में वृद्धि, रोजगार की कमी, आय में कमी और पशु-कृषि की परस्पर पूरकता का नाश होना रासायनिक खेती के अन्य परिणाम हुए। परिणामतः पशु संकट, बाजार का वर्चस्व, समाज में अशांति-असंतोष और श्रम का गांव से पलायन की स्थिति उत्पन्न हो गई।

रासायनिक खेती के विकल्प की तलाश

इसके बाद रासायनिक खेती के विकल्प की तलाश शुरू हुई। जैविक खेती को रासायनिक खेती का बेहतर विकल्प मानकर रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के स्थान पर जैविक संसाधनों के प्रयोग प्रारम्भ हुये। लेकिन समय बीतने के साथ ही इससे जुड़ी जटिलताएं और समस्याएं उजागर होने लगीं। जैसे जैविक खेती में कम्पोस्ट खाद का प्रयोग आरंभ हुआ लेकिन पशुधन की कमी के कारण उसकी उपलब्धता का संकट खड़ा हो गया। इसी तरह विदेशी केंचुओं द्वारा गोबर से तैयार खाद वर्मी कम्पोस्ट में नाइट्रोजन की उपलब्धता मात्र 1.5 प्रतिशत होने से फसल में नाइट्रोजन की पूर्ति के लिए प्रति एकड़ कई टन वर्मी कम्पोस्ट की आवश्यकता प्रतीत हुई। इसके लिए जितनी अधिक मात्रा में गोबर की आवश्यकता होती है उसकी पूर्ति पशुधन के अभाव में अधिकांश किसानों के लिए असंभव साबित हुई। इतना ही नहीं, वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने की जटिल विधि एवं इसके लिए अतिशय आर्थिक और मानवीय श्रम की आवश्यकता को पूरा करना भी एक आम किसान के लिए दुष्कर साबित हुआ है। यही कारण है कि आज यह विधि केवल प्रदर्शन और नर्सरी तक सीमित रह गई है। रासायनिक खेती का एक अन्य विकल्प समझी गई नाडेप पद्धति भी इसलिए प्रचलन से बाहर हो गई क्योंकि यह अधिक श्रमसाध्य होने के कारण किसान के लिए अपर्याप्त व अव्यवहारिक सिद्ध हुई। बायोडायनामिक और सींघ खाद की भी यही कहानी है। हरी खाद एक उपयोगी विकल्प अवश्य है, लेकिन उसकी कमी यह है कि उसके लिए एक फसल का समय चाहिए। जैविक खेती में निहित उपरोक्त कमियों के परिणामस्वरूप कई कंपनियां बाजार में महंगी जैविक खाद लेकर आ गईं। परिणाम यह हुआ कि रासायनिक बाजारवाद से बचाव के नाम पर जैविक बाजारवाद आरंभ हो गया। जैविक खेती की एक कमी यह भी परिलक्षित हुई कि इसे शुरू करने के बाद आरंभिक 3 सालों तक उपज में कमी आने लगी जिससे किसान के लिए यह घाटे का सौदा बन गई। इस सबका सम्मिलित परिणाम रहा है कि वर्तमान में इस विधि का सीमित और अलाभकारी उपयोग की प्रचलन में है।

जैविक खेती से निराश

जैविक खेती से निराश किसानों के लिए पद्मश्री डॉ. सुभाष पालेकर द्वारा दशकों के अनुसंधान के बाद विकसित की गई गाय आधारित प्राकृतिक खेती सर्वोत्तम विकल्प के रूप के रूप में उभरी है। गौआधारित प्राकृतिक कृषि विधि में रासायनिक या जैविक खेती की तरह फसल को बाहर से कोई उर्वरक नहीं देना होता है, अपितु खेत की भूमि मे वह वातावरण तैयार करना होता है, जिसमें फसल को सभी आवश्यक तत्व उपलब्ध कराने वाले सूक्ष्म जीवाणु ठहर सकें, वृद्धि कर सकें। इस विधि में प्रयास रहता है कि खेत में जैव विविधता पुनः अपना कार्य कर सके और फसल के लिए अनुकूल व सुरक्षित वातावरण में वृद्धि कर सके। इस विधि में भूजल की न्यूनतम आवश्यकता होती है, नाममात्र लागत के कारण उत्पादन घाटे का सौदा नहीं होता, उपज पूर्णतः रसायनमुक्त और पोषणयुक्त होती है जिससे उपभोक्ता की रोग प्रतिरोधी क्षमता में वृद्धि होती है। गाय के गोबर-गौमूत्र ने स्वयं ही सरल ढंग से प्राकृतिक उर्वरक कीटनाशक तैयार करके किसान स्वावलम्बी और समृद्ध बन जाता है। यह विधि अंगीकार करने के उपरांत दूध न देने वाला गौधन भी केवल गोबर-गोमूत्र प्रदान करके भी अपने पालक के लिए उपयोगी बना रहता है। इससे निराश्रित पशुओं की समस्या का समाधान स्वतः हो जाता है। गौआधारित प्राकृतिक कृषि ऐसी समर्थ पद्धति है जो किसान को सब्सिडी और कर्जमाफी पर आश्रित बनाने के स्थान पर स्वावलंबी बनाने में समर्थ है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश से आंध्र प्रदेश तक और हरियाणा से हिमाचल तक अनेक युवक मल्टीनेशनल कंपनियों की भारी-भरकम जीवन खपाने वाली नौकरियों को छोड़ कर इस खेती की ओर आ रहे हैं। इस विधि से एक एकड़ पंचस्तरीय बागवानी से एक युवक अपने घर पर रह कर प्रारम्भिक वर्षों में 10 से 12 हजार रुपये की आय प्रति माह निरंतर प्राप्त कर सकता है। बाद के वर्षों में उसकी आय बढ़ कर 20 से 25 हजार तक पहुंच सकती है। वर्तमान में देश भर में अनेक स्थानों पर ऐसे कई मॉडल खड़े हो चुके हैं। इस पद्धति से वर्तमान से लेकर भविष्य तक की बहुआयामी सुरक्षा सन्निहित है। किसान, उपभोक्ता, कृषि भूमि, पर्यावरण सहित समस्त घटकों के लिए यह पद्धति मंगलकारी है।

प्राकृतिक कृषि यानी मंगल कृषि

प्राकृतिक कृषि यानी मंगल कृषि, अर्थात कल्याणकारी कृषि। अतः कृषि में मंगल का विचार करने पर ध्यान में आता है किस-किस का मंगल। ऐसा विचार करने पर निम्न मुख्य घटक क्रमशः सामने आते हैं- कृषि करने वाला किसान, कृषि भूमि, पर्यावरण, उपभोक्ता, समाज, सरकार और राष्ट्र। अब हम विचार करें कि उपरोक्त कसौटियों पर कौन सी कृषि पद्धति हमारे किसान, उपभोक्ता, समाज और देश के लिए मंगल युक्त है। यदि पूर्वाग्रह मुक्त होकर, व्यक्ति, समाज और देश हित की दृष्टि से समस्त कसौटियों पर कसा जाए तो गाय आधारित प्राकृतिक खेती सर्वोत्तम प्रमाणित हो चुकी है। यदि हमें कृषि, खाद्यान्न और पर्यावरण संबंधित चुनौतियों का समाधान करना है तो प्राकृतिक खेती को अंगीकार करना ही होगा। स्वयं लोक भारती ने भी रासायनिक खेती के विकल्प के रूप में पहले जैविक खेती को आजमाया था, लेकिन उसकी जटिलता और अव्यावहारिकता से अवगत होने के बाद वर्तमान में हम सब गाय आधारित प्राकृतिक खेती के विस्तार अभियान में जुटे हैं। यदि आपने प्राकृतिक खेती के अंतर्गत प्रकृति के सामर्थ्य का अनुभव कर लिया तो देश के लाखों किसानों की तरह आप भी यह कहने पर विवश हो जाएंगे कि रासायनिक न जैविक, केवल प्राकृतिक।

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