जलवायु परिवर्तन के परिवेश में कृषि का स्वरूप
जलवायु परिवर्तन के परिवेश में कृषि का स्वरूप

जलवायु परिवर्तन के परिवेश में कृषि का स्वरूप

आधुनिक कृषि विज्ञान, पौधों में संकरण, कीटनाशको, रासायनिक उर्वरकों और तकनीकी सुधारों ने फसलों से होने वाले उत्पादन को तेजी से बढ़ाया है. साथ ही, यह व्यापक रूप से पारिस्थितिक सन्तुलन के लिए क्षति का कारण भी बना है।  इससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव के साथ-साथ फसल उत्पादकता भी स्थिर है। 
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आज दुनिया की आबादी बढ़कर 8 अरब हो गई है. वैश्विक जनसंख्या 2037 तक 9 अरब और 2050 के आस-पास 10 अरब से ज्यादा होने का अनुमान है. देश के कृषि उत्पादन में टिकाऊपन लाने तथा बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने और पशुओं को पर्याप्त चारा-दाना उपलब्ध कराने के लिए कृषि को बहुत-सी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें जलवायु परिवर्तन एक मुख्य चुनौती है।  इसके अलावा ग्रीन हाउस गैसों और दोषपूर्ण कृषि क्रियाओं के कारण पिछले दो दशकों से मौसम में परिवर्तन तथा भूमण्डलीय तापमान में वृद्धि एक महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरा है. भूमण्डलीय तापमान बढ़ाने में मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड   और मिथेन आदि गैसें जिम्मेदार हैं।  

आधुनिक कृषि विज्ञान, पौधों में संकरण, कीटनाशको, रासायनिक उर्वरकों और तकनीकी सुधारों ने फसलों से होने वाले उत्पादन को तेजी से बढ़ाया है. साथ ही, यह व्यापक रूप से पारिस्थितिक सन्तुलन के लिए क्षति का कारण भी बना है।  इससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव के साथ-साथ फसल उत्पादकता भी स्थिर है।  इन चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए कृषि की ऐसी उन्नत तकनीकों का प्रयोग करना आवश्यक है, जिसके द्वारा अधिक व टिकाऊ उत्पादन के साथ-साथ मृदा की उर्वरा शक्ति बनी रहे तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से प्रभावित न हो।  

इस सन्दर्भ में कृषि उत्पादन की जलवायु अनुरूप अनेक उन्नत तकनीकों/ पद्धतियों में संरक्षण खेती, जैविक खेती, स्मार्ट खेती, जैविक व अजैविक तनाव के प्रति सहनशील प्रजातियों का प्रयोग, फसल चक्र में बदलाव, एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन, धान की सीधी बुवाई, ड्रिप सिंचाई, मूल्य संवर्धित उर्वरकों का प्रयोग और कृषि वानिकी की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, जिसके द्वारा कृषि उत्पादन बढ़ाने  के साथ-साथ संसाधनों का भी उचित मात्रा में उपयोग होता है तथा कृषि में टिकाऊपन बना रहता है। 

खेती में एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन, एकीकृत कीट प्रबंधन और एकीकृत खरपतवार प्रबंधन अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि इनके बहुत सारे फायदे पाए गए हैं, जिनमें फसलों की पैदावार बढ़ने के साथ-साथ संसाधनों मिट्टी , पानी, पोषक तत्व, फसल उत्पाद और वातावरण की गुणवत्ता भी बढ़ी है, जोकि कृषि की अच्छी हालत के लिए बहुत जरूरी है। ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ भावी पीढ़ियों के लिए भी अपने से अच्छा वातावरण सुनिश्चित किया जा सके। प्रस्तुत लेख में जलवायु परिवर्तन के परिवेश में कृषि के स्वरूप से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण तकनीकों का उल्लेख किया गया है।

जहाँ तक हो सके, फसलों की उन्नतशील, नवीनतम और जैविक व अजैविक तनाव के प्रति प्रतिरोधी प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए. प्रायः ऐसी फसलों के बीजों के पैकेट पर रोग-प्रतिरोधक लिखा होता है. दलहनी फसलों की अधिकांश खेती में स्थानीय किस्मों की बुवाई की जाती है, जिनमें पीला शिरा विषाणु रोग का भयंकर प्रकोप होता है. इस कारण बहुत ही कम उपज प्राप्त होती है। आज भारत खाद्य सुरक्षा से पोषण सुरक्षा की ओर बढ़ रहा है। हाल ही में फसलों की अनेक जैव बढ रहा है। हाल ही में फसला का अनक जव - फोर्टिफाइड प्रजातियों का विकास किया गया हैं। ये प्रजातियाँ परम्परागत प्रजातियों की अपेक्षा 1-5 से 3-0 गुना ज्यादा पोषक तत्वों से भरपूर हैं। फसलों की ये किस्में अधिक उपज देने वाली, उच्च गुणवत्ता वाली, दानों में प्रोटीन की अधिक मात्रा, कम अवधि वाली, पीला शिरा विषाणु रोग रोधी और लागत साधनों के प्रति संवेदी है, जिनकी बाजार में अधिक माँग है।  बारानी क्षेत्रों के लिए कम समय में पकने वाली सूखा सहनशील प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए. फसलों की उन्नतशील/संकर प्रजातियों का चुनाव स्थानीय प्रजातियों की अपेक्षा 20-25 प्रतिशत अधिक उपज दिला सकता है, क्योंकि ये उन्नत/संकर किस्में न केवल अधिक उपज देती है, बल्कि ये विभिन्न जैविक बौर अजैविक तनावों के प्रति प्रतिरोधी भी है।बीजों की अंकुरण क्षमता कम-से-कम 80 प्रतिशत अवश्य हो।

जैविक खेती से तात्पर्य फसल उत्पादन की उस पद्धति से है, जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशियों, व्याधिनाशियों, शाकनाशियों, पादप वृद्धि नियामकों और पशुओं के भोजन में किसी भी रसायन का प्रयोग नहीं किया जाता है, बल्कि उचित फसल चक्र, फसल अवशेष, पशुओं का गोबर व मलमूत्र, फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश, हरी खाद और अन्य जैविक तरीकों द्वारा भूमि की उपजाऊ शक्ति बनाए रखकर पौधों को पोषक तत्वों की - प्राप्ति कराना एवं जैविक विधियों द्वारा कीट पतंगों और खरपतवारों का नियंत्रण किया जाता है। जैविक खेती एक पर्यावरण अनुकूल  कृषि प्रणाली है। इसमे खाद्यान्नों, फलों और सब्जियों की पैदावार के दौरान उनका आकार
बढाने या वक्त से पहले पकाने के लिए किसी  प्रकार के रसायन या पादप नियामकों का प्रयोग भी नहीं किया जाता है। जैविक खेती का  उद्देश्य रसायन मुक्त उत्पादों और लाभकारी जैविक साम्रगी का प्रयोग करके मृदा स्वास्थ्य में सुधार और टिकाऊ फसल उत्पादन को बढावा देना है।  इससे उच्च गुणवत्ता वाली फसलों के उत्पादन के लिए मृदा को स्वस्थ और पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त बनाया जासकता है। जैविक खेती/ एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन जलवायु परिवर्तन के जोखिम को भी कम करने में सहायक है। 

जलवायु परिवर्तन, पानी की कमी और जमीन के उपजाऊपन में गिरावट के कारण खेती का काम जोखिमपूर्ण और जटिल हो गया है. कृषि से जुडी शोध और विकास प्रणाली के जरिए भारत में स्मार्ट खेती का आधारभूत ढाँचा तैयार किया जा रहा है। स्मार्ट खेती एक वैश्विक पहल है, जिसका मकसद बेहतर और नवीन तकनीक के माध्यम से कृषि का बेहतर और टिकाऊ मॉडल तैयार करना है। कृषि प्रबंधन सूचना प्रणाली, कृत्रिम बुद्धिमता, ड्रोन, स्वच्छ ऊर्जा, नैनो तकनीक और भौगोलिक सूचना प्रणाली के माध्यम से कृषि से जुड़े क्षेत्रों में बदलाव लाया जा सकता है. इस तकनीक से किसानों को मृदा, पानी, सिंचाई के तरीके, खाद के बेहतर प्रयोग और फसल में कीटों व बीमारियों की पहचान करने में मदद मिलती है। अधिक सिंचाई से फसलों को नुकसान हो सकता है. साथ ही महत्वपूर्ण जल संसाधन की बर्बादी हो सकती है, अतः विभिन्न फसलों के लिए स्थापित मानकों के अनुसार सिंचाई करें। इस तरह बिजली व डीजल को भी बचत की जा सकती है।

देश की बढ़ती आबादी की खाद्यान्न आपूर्ति के लिए संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन किया जा रहा है। यदि समय रहते हमने प्राकृतिक संसाधनों को प्रमुख रूप से मृदा एवं जल संरक्षण पर विशेष जोर नहीं दिया, तो भविष्य में गम्भीर खाद्य समस्या का सामना करना पड़ सकता है। इस सम्बन्ध में, पर्यावरण संरक्षण, मृदा उपजाऊपन एवं उत्पादन बढ़ाने में संरक्षण खेती की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। संरक्षण खेती से तात्पर्य संसाधन सरंक्षण की ऐसी तकनीक से है, जिसमें अच्छी फसल की पैदावार का स्तर बने रहने के साथ-साथ संसाधनों की गुणवत्ता भी बनी रहे, ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ भावी पीढ़ियों के लिए भी अपने से अच्छा वातावरण सुनिश्चित किया जा सके। वर्तमान परिवेश को देखते हुए संरक्षण खेती अत्यंत आवश्यक हैं, क्योंकि इसके प्रयोग से बहुत सारे फायदे पाए गए हैं। भविष्य में खाद्यान्न आपूर्ति, पर्यावरण संरक्षण, कृषि उत्पादों की गुणवत्ता, पौष्टिकता, उत्पादकता और संसाधन-उपयोग दक्षता बढ़ाने हेतु सीमित भूमि में मृदा उर्वरता और जल प्रबंधन जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा, जिससे, जलवायु परिवर्तन, भुखमरी और कुपोषण जैसी गम्भीर समस्याओं से मुक्ति मिल सके। 

मोटे अनाज स्वास्थ्यवर्धक ही नहीं, बल्कि पर्यावरण को भी बेहतर बनाए रखने में मदद करते हैं. हमारे देश में मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, कोदों और मंडवा जैसे कई मोटे अनाजों की खेती की जाती है। ये मोटे अनाज आयरन, जिंक, कॉपर व प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। साथ ही धान व गेहूँ जैसी फसलों की तरह ग्रीन हाउस गैसों के बनने का कारण भी नहीं बनते हैं, गेहूँ व धान जैसी फसलों को उगाने में यूरिया का अत्यधिक प्रयोग किया जाता है। यूरिया जब विघटित होता है, तो यह नाइट्रस ऑक्साइड, नाइट्रेट, अमोनिया और अन्य तत्वों में बदल जाता है। 

नाइट्रस ऑक्साइड हवा में घुलकर स्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाती है। इससे सांस की गम्भीर बीमारियाँ हो सकती हैं। यह एसिड रेन का कारण भी बनती है। यह गैस वातावरण के तापमान में भी काफी तेजी से बढ़ोतरी करती है, जबकि मोटे अनाजों की खेती के लिए यूरिया की कोई खास जरूरत नहीं होती है। यह कम पानी वाली जमीन में भी आसानी से उगाई जा सकती है. इस कारण ये पर्यावरण के लिए ज्यादा बेहतर होती है। पिछले कई दशको से मोटे अनाजों की खेती के अर्न्तगत क्षेत्र में लगातार कमी आ रही है। एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 1966 में देश करीब 4.5 करोड हेक्टेयर में मोटे अनाजों की खेती होती थी. जो आज घटकर 3.5 करोड हेक्टेयर रह गया है. इसका प्रमुख कारण किसानों द्वारा धान व गेहूँ की खेती पर जोर देना है.

जल एक सीमित संसाधन है। देश में कृषि हेतु उपलब्ध कुल जल का लगभग 50 प्रतिशत भाग धान उगाने हेतु प्रयोग में लाया जाता है। धान उत्पादन की इस विधि में धान  इसलिए धान के खेतों में वायुवीय वातावरण बना रहता है जिसके परिणामस्वरूप विनाइट्रीकरण की क्रिया द्वारा नाइट्रोजन के ह्रास को रोका जा सकता है। साथ ही इस विधि में धान के खेतों से ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन भी नगण्य होता है।  जलमग्न धान की फसल में दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का नुकसान मुख्य रूप से अमोनिया वाष्पीकरण, विनाइट्रीकरण व लीचिंग द्वारा होता है, जो अन्ततः हमारे पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। धान उगाने की एरोबिक विधि में उपयुक्त सभी समस्याओं  से छुटकारा पाया जा सकता है। इस विधि के उपयोग से पर्यावरण प्रदूषण में भी कमी लाई जा सकती है। दूसरी तरफ धान की फसल में नाइट्रोजन उपयोग दक्षता एवं उत्पादकता में भी वृद्धि की जा सकती है। अतः द भारत के कम पानी वाले क्षेत्रों में इस तकनीक को उपयोगी बनाने की नितान्त आवश्यकता है। जिससे हमारे प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन न हो।  इस विधि से धान की खेती करने पर लगभग 30-50 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत भी होती है। इस विधि का महत्वपूर्ण पहलू पर्यावरण सुधार है। प्राकृतिक संसाधनों ने का बेहतर प्रयोग और अन्य आदानों जैसे- उर्वरक व कीटनाशकों का कम प्रयोग होने से यह विधि पर्यावरण हितैषी भी है। साथ ही भूमि बों में जैव-विविधता भी बढ़ती है। इसके अलावा में दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का लीचिंग द्वारा नाइट्रेट के रूप में कम-से-कम ह्रास होता है। किसानों के बीच इस तकनीक को लोकप्रिय  बनाने के लिए पंजाब व हरियाणा सरकारों ने वर्ष 2023 में बड़े क्षेत्र में एरोबिक विधि से धान को लगाने का लक्ष्य रखा है।

नीम लेपित यूरिया का प्रयोग करने से न केवल उपज में बढ़ोत्तरी होती है, बल्कि यूरिया पर होने वाले खर्च में भी कमी की जा सकती है। नीम लेपित यूरिया का प्रयोग करने से यूरिया के प्रयोग में कमी आएगी, क्योंकि यह यूरिया में उपस्थित नाइट्रोजन का मृदा में लीचिंग व डीनाइट्रीफिकेशन क्रिया को कम करता है। पानी जमाव वाले क्षेत्रों में कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट व यूरिया का प्रयोग करने से ये पानी में घुलकर मृदा की निचली सतहों में चले जाते हैं, जो पौधों को उपलब्ध नहीं हो पाता है। इन क्षेत्रों में नीम लेपित यूरिया के प्रयोग से नाइट्रोजन उपयोग दक्षता को बढ़ाया जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों में यूरिया का रिसाव निचली परतों में कम-से-कम होता है। इसके अलावा गंधक और जिंक लेपित यूरिया का प्रयोग करके भी नाइट्रोजन उपयोग दक्षता को बढ़ाया जा सकता है। साथ ही यह पर्यावरण हितैषी तकनीक भी है। यूरिया उर्वरक के ये सभी अवयव बाजार में आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।  यह सस्ता भी है तथा इसकी प्रयोगविधि भी बहुत सुगम व आसान है।  हाल ही में नैनो यूरिया के प्रभाव का परीक्षण करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में कुल 94 से अधिक फसलों पर लगभग 11,000 कृषि क्षेत्र परीक्षण भी कर लिए गए हैं। इन परीक्षणों में फसलों की उपज में औसतन 8 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई।

साधारणतया किसान भाई फसल उत्पादन में फसल अवशेषों के योगदान को नजर अन्दाज कर देते हैं। उत्तर पश्चिम भारत में धान-गेहूँ फसल चक्र के अन्तर्गत फसल अवशेषों का प्रयोग आम बात है।  कृषि में मशीनीकरण और बढ़ती उत्पादकता की वजह से फसल अवशेषों की अत्यधिक मात्रा उत्पादित होती जा रही है। फसल कटाई उपरान्त दाने निकालने के बाद प्रायः किसान भाई फसल अवशेषों को जला देते हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और पश्चिम उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश के अन्य भागो में भी यह काफी प्रचलित है। फसल अवशेषों का खेती में प्रयोग करके मृदा में कार्बनिक कार्बन की मात्रा में सुधार किया जा सकता है। इसी प्रकार सब्जियों के फल तोड़ने के बाद इनके तने, पत्तियाँ और जड़ें खेत में रह जाती हैं, जिनको जलाने के बजाए जुताई करके मृदा में दबाने से खेत के उपजाऊपन में सुधार होता है। फसल अवशेषों में खलियाँ, पुआल, भूसा व फार्म अवशिष्ट प्रमुख हैं।  यद्यपि फसल अवशेष का पोषक तत्व प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान है, परन्तु अधिकांशतः फसल अवशेषों को खेत में जला दिया जाता है या खेत से बाहर फेंक दिया जाता है। फसल अवशेष पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने के साथ-साथ मृदा की भौतिक, रासायनिक और जैविक क्रियाओं पर भी अनुकूल प्रभाव डालते हैं। फसल अवशेष क्षारीय मृदाओं के पीएच को कम करके उन्हें खेती योग्य बनाने में भी मदद करते हैं। 

खेतों में सिंचाई के लिए ज्यादातर कच्ची नालियों का प्रयोग किया जाता है, जिससे लगभग 30-40 प्रतिशत जल रिसाव के कारण बेकार चला जाता है। साथ ही खरपतवारों व जलमग्नता की समस्या पैदा होती है। उप सतही ड्रिप सिंचाई प्रणाली के द्वारा कम पानी से अधिक क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है।  इससे एक तरफ तो जल की बर्बादी को रोका जा सकता है, तो दूसरी तरफ यह तकनीक पर्यावरण हितैषी है। देश के अनेक कृषि अनुसंधान संस्थानों जैसे सीएसएसआरआई, करनाल और आईएआरआई, नई दिल्ली में उप-सतही ड्रिप उर्वरीकरण के तहत  धान, गेहूँ व मक्का की फसलों में प्रयोग किए जा रहे हैं, जिनसे उत्साहवर्धक एवं सार्थक परिणाम मिल रहे हैं. उपर्युक्त फसलों में उप-सतही ड्रिप उर्वरीकरण के अन्तर्गत जल उपयोग दक्षता और उर्वरक उपयोग दक्षता बढ़ने के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल में सार्थक कमी देखी गई। इस विधि द्वारा उर्वरकों को कम मात्रा में और कम अन्तराल पर पूर्वनियोजित सिंचाई के साथ दे सकते हैं।  इससे उर्वरक उपयोग दक्षता बढ़ने के साथ-साथ पौधों को आवश्यकतानुसार पोषक तत्व मिल जाते हैं साथ ही महँगे उर्वरकों का अपव्यय भी कम होता है। इस विधि से जल और उर्वरक पौधों के मध्य न पहुँचकर सीधे पौधों की जड़ों तक पहुँचते हैं।  इसलिए फसल में खरपतवार भी कम पनपते हैं.

देश के कुल क्षेत्रफल का 24.62 प्रतिशत वन क्षेत्र है।  पिछले 2 वर्षों के दौरान देश में जंगलों का सबसे ज्यादा विस्तार हुआ है। पेड़-पौधों के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो कुछ हम खाते है, उसका 80 प्रतिशत पौधों से प्राप्त होता है, जो हम सांस लेते हैं उसके लिए भी 80 प्रतिशत ऑक्सीजन पौधों से ही प्राप्त होती है।  कृषि वानिकी भूमि प्रबन्धन की ऐसी पद्धति है, जिसके अन्तर्गत एक ही भू-खण्ड पर फसलों के साथ बहुउद्देशीय पेड़ों-झाड़ियों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन को भी लगातार या क्रमबद्ध तरीकों से किया जाता है।  इससे न केवल भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जाता है, बल्कि क्षेत्र की पारिस्थितिकी, सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। कृषि-वानिकी से न केवल खाद्यान्नों, चारा, ईंधन, फलों, सब्जियों व लकड़ी उत्पादन बढ़ता है, बल्कि भूमि के प्रति इकाई क्षेत्र से होने वाली आय में भी वृद्धि होती है, जो अंततः जैव विविधता को बढ़ावा देने के साथ-साथ एक सुदृढ़ एवं स्वच्छ पर्यावरण प्रदान करता है।

भविष्य में खाद्यान्न आपूर्ति, पर्यावरण संरक्षण, कृषि उत्पादों की गुणवत्ता एवं पौष्टिकता के लिए हमें खेती में पर्यावरण हितैषी तकनीकों का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा, जिससे ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, भुखमरी और कुपोषण जैसी गम्भीर समस्याओं से मुक्ति मिल सके। अन्त में हम कह सकते हैं कि बचाव उपचार से कहीं ज्यादा अच्छा है। 

स्रोत :-

India Water Portal Hindi
hindi.indiawaterportal.org