पराली प्रबंधन के लिए सार्थक प्रयासों की आवश्यकता
भारत सहित पूरी दुनिया के लगभग 80 प्रतिशत किसान धान की पराली जलाते हैं, जिससे गंभीर वायु प्रदूषण फैलता है जो हर साल घनी आबादी और ज्यादा औद्योगिक घनत्व वाले भारत के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अक्टूबर-नवंबर महीने में हवा की गति कम होने और हिमालय से ठंडी हवा आने से बहुत ज्यादा गंभीर हो जाता है। इस वायु प्रदूषण समस्या के समाधान के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें हजारों करोड़ रुपए खर्चने के बाद भी विफल रही हैं।
सरकार द्वारा फसल विविधीकरण के सभी प्रयासों के बावजूद धान-गेहूं फसल चक्र पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में लगभग 70 लाख हेक्टेयर भूमि पर अपनाया जा रहा है, क्योंकि इन क्षेत्रों में मौसम अनुकूलता और आर्थिक तौर पर गन्ने की खेती के अलावा धान-गेहूं फसल चक्र ही किसानों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद है।
धान की पराली आमतौर पशु चारे के लिए उपयोगी नहीं होने और अगली फसल की बुआई की तैयारी में मात्र 20 दिन से कम समय मिलने के कारण, धान की कटाई के बाद पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में बड़ी मात्रा में किसान पराली जलाते हैं। इससे अक्टूबर- नवम्बर महीने में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सहित जम्मू से कोलकता तक के बहुत बड़े क्षेत्र में वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या पैदा होती है, जिस कारण पर्यावरण को नुकसान तो पहुंचता ही है, मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी प्रभावित होती है।
पराली जलाने की घटनाओं को रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश सरकारें/वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग, किसानों पर जुर्माना लगाने, बायो-डीकंपोजर से पराली गलाने, जैसे अव्यवहारिक प्रयास कर रही हैं जिनके अभी तक कोई सार्थक परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। धान पराली व फसल अवशेष प्रबंधन पर सभी अनुसंधान और तकनीकी रिपोर्ट इस बात पर एकमत है कि मशीनीकरण द्वारा फसल अवशेषों को खेत से बाहर निकाल कर उद्योगों आदि में उपयोग करना इसका सर्वोतम समाधान है। जैसा कि अमेरिका आदि देशों में वर्षों से हो रहा है। लेकिन भारत में भूमि की छोटी जोत होने से किसानों के लिए भारी मशीन खरीदना सम्भव नहीं है। ऐसी हालत में धान कटाई के बाद पराली को भूमि में मिलाना ही व्यवहारिक समाधान बनता है। लेकिन यह तभी सम्भव हो सकेगा, जब पराली को भूमि के अन्दर दबाने और गलने के लिए 45-50 दिन समय मिलेगा।
इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों और राष्ट्रीय नीतिकारों को उत्तर पश्चिम भारत के लिए धान की खेती के लिए किसान और पर्यावरण हितेषी नई तकनीक और बुआई कलेंडर आदि विकसित करने होंगे। पराली प्रदूषण और भूजल बर्बादी रोकने के लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली किस्में एक सस्ता और कारगर उपाय है। धान फसल की कटाई और रबी फसलों जैसे गेहूं, सरसों, आलू आदि की बुआई की तैयारी में कम समय मिलने के कारण ही किसान मजबूरन धान की पराली जलाते हैं जिसके लिए राष्ट्रीय नीतिकारों को पराली प्रदूषण और भूजल बर्बादी रोकने के लिए धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली धान किस्मों (जैसे पी.आर.-126, पी.बी.-1509 आदि) को प्रोत्साहन एक कारगर उपाय साबित होगा और लम्बी अवधि की किस्मों पूसा-44 आदि पर कानूनी प्रतिबंध जरुरी है। सरकार इन प्रदेशों में अगर धान की सरकारी खरीद की समय सारणी 15 सितम्बर से 10 अक्टूबर तक का समय निश्चित करे, तो किसान स्वयं धान की सीधी बिजाई पद्धति में कम अवधि वाली धान किस्मों को ही अपनाएंगे। इससे लगभग एक तिहाई भूजल, ऊर्जा (बिजली- डीजल- मजदूरी) और खेती लागत में बचत के साथ पर्यावरण प्रदूषण भी कम होगा।