पूर्वी भारत के वर्षा आधारित क्षेत्रों में अनानास की खेती
पूर्वी भारत में 12.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र वर्षा आधारित धान की खेती के अंतर्गत है। इन वर्षा आधारित क्षेत्रों में अधिकांशतः भूमि वर्षा के बाद रबी मौसम में सिंचाई सुविधाओं की कमी के कारण मुख्य रूप से परती खंड दी जाती है। इस कारण इस भूमि का खेती के लिए उचित उपयोग नहीं हो पाता है। इसी प्रकार की समान परिस्थिति ओडिशा राज्य में भी मौजूद है। दूसरी तरफ धान की फसल के लिये रबी के मौसम में 3000 मिमी, मक्का की फसल के लिए 500 मिमी एवं सब्जियों को उगाने के लिये 800 मिमी जल को आवश्यकता पड़ती है जिनको आजकल सिंचाई जल की कमी की वजह से उगा पाना बहुत मुश्किल है। लेकिन इसके विपरीत आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण अनानास की फसल को बहुत कम जल की आवश्यकता होती है और जल की कमी की इसी वजह के कारण इन क्षेत्रों में इस फसल को आसानी से उगाया जा सकता है अनानास की फसल में एक विशेष प्रकार का कैसुलेसियन एसिड मेटाबोलिज्म (CAM) तंत्र पाया जाता है जिसके कारण यह फसल कम सिंचाई जल का भी दक्ष उपयोग कर लेती है। इसी कारण की वजह से इसको जल उपयोगी दक्ष फसल भी कहा जा सकता है। ओडिसा राज्य एवं पूर्वी भारत के अन्य क्षेत्रों में सिचाई जल की कम आवश्यकता के कारण अनानास की खेती की अनुकूलनशीलता बहुत अधिक प्रचलित है। यह फसल कम से कम सिचाई जल पर भी जीवित रह सकती है या यूं कह सकते है कि इसमें सिचाई जल देना या प्रयोग करना भी जरूरी नहीं है। यह केवल वर्षा जल से ही अपनी सिंचाई की आवश्यकता को पूरी कर सकती है। अतः खरीफ धान के बाद रबी के मौसम में जो भूमि परती रहती है उसमें इस 12 महीने से अधिक अवधि वाली अनानास की फसल को विभिन्न उचित सस्य प्रबंधन विधियों के साथ अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मध्यम एवं ऊँची भूमि परिस्थितियों के तहत बहुत अच्छी तरह से उगाया जा सकता है।
इसमें सर्वप्रथम 500 गर्म वजन वाले सकर्स को पॉलीथीन बैग (5 किलो ग्राम मिट्टी क्षमता) में अप्रैल महीने के दौरान रोपित किया जाना चाहिये जिसमें रेत, सिल्ट एवं उर्वरकों के बेसल प्रयोग का मिश्रण भरा होता है। अनानास के पौधों की पॉलीथीन बैगों में तब तक वृद्धि होनी देनी चाहिये जब तक खरीफ धान की कटाई के बाद खेत तैयार हो जायें। धान की कटाई के बाद अच्छी तरह से जुताई द्वारा तैयार खेत में अनानास के पौधों का रोपण जिनकी वृद्धि लगभग महीने तक पॉलीथीन बैग में हुई हो करना चाहिये। इन पौधों का रोपण मध्य दिसंबर तक कर देना सबसे अच्छा रहता है। इन पौधों का रोपण 60 सेमी ऊँची उड़ी हुई क्यारी में करना अच्छा रहता है जिससे खेत में जल भराव की समस्या नहीं आती है। इस फसल में विभिन्न सस्य प्रबंधन विधियों को भी उपचार के रूप में अपनाया जाता है जैसे कि पौधे की पुरानी पत्तियों को हटाना, पुराने सकर्स को हटाना, कोई उपचार नहीं, 50 पीपीएम की दर से पौधों में प्लानोफिक्स का छिड़काव एवं पौधों को छायादार स्थान पर उगाना आदि। इन सभी प्रबंधन विधियों से अनानास के पौधों की वृद्धि एवं विकास अच्छा होता है
जब सभी पौधों में 40 पत्तियाँ आ जाये या लगभग 50 दिनों के रोपण के बाद पौधों में शीघ्र फूल लाने के लिये एथेफोन हार्मोन का प्रयोग करना चाहिये। इसके लिये एक मिश्रण बनाया जाता है जिसमें 2% यूरिया, 0.04% केल्सियम कार्बोनेट एवं 20 पीपीएम एथेफोन हार्मोन होता है। इस मिश्रण के 50 मिली लीटर घोल को प्रति पीधे में पौधे के बीच वाले भाग में जहाँ से फूल आने है वहाँ प्रयोग किया जाता है। इस हार्मोन के प्रयोग के 30 दिन बाद फूल जाने शुरू हो जाते हैं। सही समय पर सही मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग भी महत्वपूर्ण होता है। खेत में से खरपतवारों का नियंत्रण भी सही समय पर करना उचित है। हार्मोन प्रयोग के लगभग 135-150 दिन बाद अनानास की फसल के फल पक जाते हैं और उनकी कटाई की जा सकती है। इस प्रकार इस विधि से धान-अनानास फसल पद्धति को अपनाकर हम खरीफ धान की उपज (4 टन/हेक्टेयर) भी प्राप्त कर सकते हैं साथ ही साथ 17 टन प्रति हेक्टेयर के रूप में अनानास की फल उपज भी प्राप्त कर सकते हैं। अतः किसानों की आस में दोगुनी वृद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये यह एक बहुत ही अच्छी तकनीक साबित हो सकती है।
वर्तमान में किये गये अनुसंधान के तथ्य यह दर्शाते हैं कि पूर्वी भारत विशेषतया ओडिशा में अनानास की फसल उगाने वाले किसान आजकल कई समस्याओं का सामना कर रहे है जैसे रसायन और जैव उर्वरकों की उच्च लागत, वित्तीय सहायता की कमी, श्रम की अधिक लागत, उपजाऊ भूमि की अनुपलब्धता, फसल में फूलों के आने की अनियमितता आदि । अतः उत्पादकों की उर्वरकों के अतिरिक्त और असंतुलित प्रयोग से बचाने एवं उचित समय पर हार्मोन के छिड़काव के लिये शिक्षित होने पर जोर दिया जाना चाहिये। इसके साथ ही खेती की आधुनिक तकनीक के अनुसार अनानास की उत्पादकता में वृद्धि करने के लिये कोशिश करनी चाहिए।