संवहनीय खेती : फसल स्वरूप का पानी की उपलब्धता के अनुरूप निर्धारण

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खेती की समुचित प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, फसल पश्चात प्रसंस्करण तथा गुणवत्ता में वृद्धि के जरिए मौजूदा पारम्परिक कृषि में सुधार मुमकिन है। इससे खेती न सिर्फ लम्बे समय में संवहनीय बनेगी बल्कि उत्पादन को उपभोक्तावाद से जोड़कर इसे लाभकारी व्यवसाय भी बनाया जा सकेगा। दीर्घकालिक रूप से खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता बनाए रखने के लिये धान-गेहूँ रोटेशन प्रणाली की उपज क्षमता और पर्यावरण अनुकूलता में साथ-साथ सुधार लाने में संवहनीय कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

भारत की 75 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। वह अब भी कृषि पर ही निर्भर है। देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 43 प्रतिशत हिस्सा कृषि से सम्बन्धित गतिविधियों के लिये इस्तेमाल किया जाता है। वर्ष 2016-17 में भारत का अनुमानित खाद्यान्न उत्पादन 27.5 करोड़ टन था। मगर भारतीय कृषि उत्पादन प्रणाली अब भी चुनौतियों का सामना कर रही हैं। ये चुनौतियाँ भविष्य के संसाधन आधार यानी पारिस्थितिकी को नुकसान पहुँचाए बिना लगातार बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिये खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की हैं। भारत में कृषि और इससे सम्बन्धित अन्य क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करना कई वजहों से महत्त्वपूर्ण है। ये क्षेत्र बढ़ती आबादी को रोजगार और संवहनीय आजीविका मुहैया कराने में अहम भूमिका निभाते रहेंगे। लेकिन भारतीय कृषि पानी की तंगी, प्रति व्यक्ति खेती योग्य जमीन में कमी, खेती के साजो-सामान की बढ़ती कीमतों, कृषि उत्पादों के विपणन नेटवर्क और मूल्य संवर्द्धन के अवसरों के अभाव तथा बाजार मूल्यों में उतार-चढ़ाव जैसी अनेक समस्याओं का सामना कर रही है।

खेती की समुचित प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, फसल पश्चात प्रसंस्करण तथा गुणवत्ता में वृद्धि के जरिए मौजूदा पारम्परिक कृषि में सुधार मुमकिन है। इससे खेती न सिर्फ लम्बे समय में संवहनीय बनेगी बल्कि उत्पादन को उपभोक्तावाद से जोड़कर इसे लाभकारी व्यवसाय भी बनाया जा सकेगा। धान-गेहूँ फसल प्रणाली भारतीय खाद्य सुरक्षा के लिये रीढ़ की हड्डी है। भारत के खाद्यान्न उत्पादन में 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा इन्हीं दो फसलों का है। सिंचाई जल के एक बड़े हिस्से का इस्तेमाल भी इन्हीं फसलों के लिये किया जाता है। लिहाजा, दीर्घकालिक रूप से खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता बनाए रखने के लिये धान-गेहूँ रोटेशन प्रणाली की उपज क्षमता और पर्यावरण अनुकूलता में साथ-साथ सुधार लाने में संवहनीय कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

संवहनीय कृषि का मतलब खेती का ऐसा तौर-तरीका है जो स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुरूप हो। इसमें जीवों और उनके पर्यावरण के बीच सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। आसान शब्दों में कहें तो संवहनीय कृषि वैसी खेती है जिसका लक्ष्य आने वाली पीढ़ियों के लिये संसाधनों के आधार को खतरे में डाले बिना मौजूदा पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करना हो। संवहनीयता हासिल करने के लिये एक समग्र और सुनियोजित दृष्टिकोण जरूरी है। संवहनीय कृषि प्रणालियाँ संसाधन का संरक्षण करने वाली, सामाजाकि तौर पर उपयोगी, वाणिज्यिक रूप से प्रतिस्पर्धी और पर्यावरण के नजरिए से दुरुस्त होनी चाहिए। ऐसी प्रणालियों का लक्ष्य मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुँचाए बिना गुणवत्तापूर्ण और पोषक भोजन का उत्पादन होता है।

इसलिये इनमें सिंथेटिक उर्वरकों, कीटनाशकों, वृद्धि नियंत्रकों और पशु चारा एडिटिव का इस्तेमाल नहीं किया जाता। ये प्रणालियाँ भूमि की उर्वरता और उत्पादकता बनाए रखने के लिये फसल चक्रण, फसल अवशिष्टों, पशु उर्वरकों, फलियों, हरी खादों, जैविक कचरों, समुचित मैकेनिकल खेती और खनिज वाली चट्टानों पर निर्भर रहती हैं। कृषि उत्पादकता बरकरार रखने के लिये निम्नलिखित तरीके हैं-

संरक्षण कृषि, ऑर्गेनिक खेती, समेकित पोषण प्रबंधन प्रणाली और खेत अवशिष्ट प्रबंधन के जरिए मिट्टी का प्रबंधन।

सिंचाई के सही तरीके, सूक्ष्म सिंचाई, जीवनरक्षक सिंचाई, गीली घास के इस्तेमाल, एंटी ट्रांसपेरेंट इत्यादि सक्षम जल संसाधन प्रबंधन तकनीकों का उपयोग।

फसल प्रबन्धन में सही समय पर रोपनी, उपयुक्त फसलों और किस्मों को रोटेशन में लगाना, अन्तर फसल, मिश्रित फसल तथा समेकित कीट प्रबन्धन इत्यादि शामिल हैं।

खेती यानी फसलों और फसल प्रणालियों की संवहनीयता मुख्य तौर से स्वीकार्य गुणवत्ता वाले पानी की पर्याप्त उपलब्धता पर निर्भर करती है। भारतीय कृषि में पानी की माँग को पूरा करने का प्राथमिक स्रोत वर्षा है। देश में सालाना 1085 मिलीमीटर वर्षा होती है। यह वर्षा लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी के बराबर है। भारत में वर्षा का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा दक्षिण-पश्चिमी मानसून से आता है। उत्तर-पूर्वी मानसून का योगदान 3 प्रतिशत से भी कम है। वर्षा का बाकी हिस्सा मानसून-पूर्व और पश्चात की गतिविधियों से आता है।

तालिका-1 : भारत में मौसम के हिसाब से वार्षिक वर्षा वितरण

वर्षा का प्रकार

समय

परिमाण (मिमी)

वार्षिक वर्षा में प्रतिशत हिस्सा

मानसून पूर्व

मार्च-मई

112.8

10.4

दक्षिण-पश्चिमी मानसून

जून-सितम्बर

799.6

73.7

मानसून पश्चात

अक्टूबर-दिसम्बर

144.3

13.3

उत्तर-पूर्वी मानसून

जनवरी-फरवरी

028.2

02.6

कुल

1085*

100.0

कुल सालाना वर्षा- 1085 मिमी (दीर्घकालिक औसत, 1950 से 1994)

वर्षा के वितरण और इसकी उपलब्धता में क्षेत्रीय असमानता के निर्धारण में विद्यमान स्थितियों और आगे बढ़ते मानसून के मार्ग के महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सालाना वर्षा के औसत को आधार मानें तो देश के 30 प्रतिशत क्षेत्र में 750 मिमी से कम, 42 प्रतिशत में 750 से 1150 मिमी तक और 20 प्रतिशत में 1150 से 2000 मिमी तक वर्षा होती है। सिर्फ आठ प्रतिशत क्षेत्र में सालाना 2000 मिमी से अधिक बारिश होती है। इस तरह 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में 750 मिमी से अधिक वर्षा होती है। केन्द्रीय जल आयोग के आँकड़ों के अनुसार वर्षा से प्राकृतिक प्रवाह तथा नदियों और झरनों में पिघलते बर्फ के रूप में देश में जल संसाधन क्षमता 18.69 करोड़ हेक्टेयर मीटर है। भौगोलिक स्थिति की सीमाओं तथा स्थान और समय के लिहाज से संसाधन के असमान वितरण के कारण इस 18.69 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से सिर्फ 11.23 करोड़ हेक्टेयर मीटर का लाभकारी इस्तेमाल किया जा सकता है।

इसमें से 6.9 करोड़ हेक्टेयर मीटर सतही और 4.33 करोड़ हेक्टेयर मीटर भूमिगत जल संसाधन है। इस 11.23 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी का इस्तेमाल सिंचाई तथा घरेलू और औद्योगिक उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है। इस तरह सिंचाई के वास्ते पानी की उपलब्धता अपर्याप्त रहेगी। इसलिये पानी के इस्तेमाल की दक्षता बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है। अगर भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर रहना है तो पानी की हर बूँद को बचाना होगा। कृषि की संवहनीयता के लिये पानी का इस्तेमाल बेहद सूझबूझ के साथ करने की जरूरत है।

कृषि में संवहनीय जल प्रबन्धन का मकसद परिमाण और गुणवत्ता दोनों के लिहाज से पानी की उपलब्धता और जरूरत में सन्तुलन कायम करना है। यह सन्तुलन स्थान और समय के दायरे में तथा तार्किक खर्च और स्वीकार्य पर्यावरणीय प्रभाव के साथ होना चाहिए। जल माँग प्रबन्धन में अधिक ध्यान सिंचाई के समयबद्धता पर दिया गया है। सिंचाई कब हो और इसमें कितने पानी का इस्तेमाल किया जाए, इस सवाल को महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसमें सिंचाई के तरीके की भूमिका गौण है। सिंचाई कितनी और कब-कब की जाए यह फसल विकास के चरणों, पानी की तंगी के प्रति फसल को संवेदनशीलता, जलवायु की स्थिति तथा जमीन में जल की उपलब्धता जैसे मानदंडों पर निर्भर करता है। लेकिन सिंचाई कितने अन्तराल पर हो, यह इसकी पद्धति पर निर्भर करता है।

इसलिये सिंचाई की समय-सारिणी और इसकी पद्धति दोनों आपस में जुड़े हैं। कृषि उत्पादन को अधिकतम-स्तर तक ले जाने और जल संरक्षण का यही एकमात्र तरीका है। सिंचाई प्रणाली की संवहनीयता में इसी से सुधार लाया जा सकता है। ज्यादातर मामलों में खेत के स्तर पर सिंचाई की समय-सारिणी कितनी प्रभावी होगी, यह किसान के कौशल पर निर्भर करता है। सिंचाई की समय-सारिणी बनाने के तौर-तरीकों में बहुत फर्क होता है तथा उपयुक्ता और प्रभावोत्पादकता के सम्बन्ध में उनकी विशिष्टताएँ अलग-अलग होती हैं। भूमिजल मापन, इसके भंडार के अनुमान, फसल विकास के महत्त्वपूर्ण चरणों और पौधा तनाव के संकेतकों के आधार पर विभिन्न तरीकों को अपनाते हुए सिंचाई के समय और परिमाण का निर्धारण किया जाता है। इस प्रक्रिया में सामान्य नियमों से लेकर बेहद जटिल मॉडलों का सहारा लिया जा सकता है।

फसल उत्पादन में पानी की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इसलिये नमी की कमी की स्थिति में वैसी संवहनीय फसल प्रणाली अपनाई जानी चाहिए जिसमें जमीन की आर्द्रता का कुशलता से इस्तेमाल करते हुए भूमिगत जल का अधिकतम संरक्षण सम्भव हो। ज्यादातर खुष्क क्षेत्रों में परम्परागत फसलों और फसल संरचनाओं में इन पहलुओं का ध्यान नहीं रखा जाता है। नतीजतन सामान्य और इससे अधिक बारिश के समय सिर्फ सन्तोषजनक उत्पादन होता है। लेकिन असामान्य वर्षा या नमी की कमी की स्थिति में फसल नाकाम रहने या उपज बहुत कम होने की वजह से किसानों की आर्थिक स्थिति अस्थिर हो जाती है। इसलिये फसलों, उनकी किस्मों और फसल प्रणालियों के चुनाव और उनके प्रबन्धन में वर्षा की विभिन्न स्थितियों में पानी के ज्यादा-से-ज्यादा कुशलतापूर्वक इस्तेमाल का लक्ष्य रखा जाना चाहिए। किसी औसत किसान के लिये आज की जरूरत विभिन्न परिपक्वता काल वाली फसलें, फसल छतरी और ज्यादा उपज क्षमता वाली फसल प्रणाली है। इस लिहाज से लाल चना, ग्वार, फ्रेंच बीन, अरंडी, कंगनी, मूँगफली, बाजरा, रागी, सरसों और सूरजमुखी की एकल फसल प्रणाली सबसे अनुकूल है। मगर मृदा और जल संरक्षण, भूमिगत पानी के पूर्ण इस्तेमाल तथा भूमि की उर्वरता बनाए रखने के लिये मिट्टी की प्रकृति, कुल वर्षा और क्षेत्र में बारिश की शुरुआत के समय को ध्यान में रखते हुए कई फसल प्रणालियाँ सम्भव हैं।

तालिका - 2 : वर्षा की शुरुआत पर आधारित फसल स्वरूप

वर्षा की शुरुआत का समय

लगाई जाने वाली फसलें

जून का दूसरा पखवाड़ा

बाजरा, मूँगफली, सूरजमुखी, अरंडी, अरहर

जुलाई का पहला पखवाड़ा

बाजरा, अरंडी, अरहर

जुलाई का दूसरा पखवाड़ा

सूरजमुखी, अरंडी, अरहर

अगस्त का पहला पखवाड़ा

सूरजमुखी, अरंडी, अरहर

अगस्त का दूसरा पखवाड़ा

सूरजमुखी, अरंडी, अरहर

सितम्बर का पहला पखवाड़ा

फसल के रूप में रबी ज्वार

फसल प्रणाली कृषि और जलवायु के कारकों पर निर्भर करती है। लेकिन दोहरी फसल, अंतर-फसल और मिश्रित फसल प्रणालियों को अपनाना निःसंदेह फायदेमंद है। इन प्रणालियों से जमीन के इस्तेमाल की कुशलता में वृद्धि होती है। खुष्क भूमि क्षेत्रों में दोहरी फसल प्रणाली ज्यादा लाभकारी और किफायती होती है। वास्तव में इस तरह के क्षेत्रों के लिये अलग-अलग परिपक्वता काल, फसल छतरी और अधिक उत्पादन की क्षमता वाली फसल प्रणाली आज की जरूरत है।

तालिका - 3 : खुष्क भूमि खेती में दोहरी फसल प्रणाली

खरीफ

रबी

वर्षा सिंचित

बाजरा/कोदो/धान/ज्वार

अलसी/मसूर/सफेद सरसों

सोयाबीन/हरा चना/काला चना

कुसुम/रबी ज्वार

सूरजमुखी

काबुली चना

सीमित सिंचाई

बाजरा

काबुली चना, कुसुम

ज्वार/मक्का/धान

सूरजमुखी/मसूर

ज्वार

काबुली चना/गेहूँ/सरसों/सूरजमुखी

सोयाबीन

काबुली चना/गेहूँ/सूरजमुखी

हरा चना/काला चना

कुसुम/रबी ज्वार

सूरजमुखी

काबुली चना

अरहर/ग्वारफली

काबुली चना

फसल प्रणाली का लक्ष्य खेती में कार्य-कुशलता को बढ़ाना है ताकि उपलब्ध भौतिक संसाधनों से पैदावार के लाभों में इजाफा किया जा सके। वर्षा से सिंचाई की स्थिति में फसलों और फसल प्रणालियों का चयन मिट्टी की गहराई और जड़ के क्षेत्र में जमीन में नमी की मौजूदगी पर भी निर्भर करता है। फसल सुविधाएँ ज्यादा लम्बे समय तक उपलब्ध होने से अन्तर-फसल, मिश्रित फसल और दोहरी फसल या क्रमिक फसल की सुविधा मिलती है। अन्तर-फसल से मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ाने, जमीनी नमी को बनाए रखने, खरपतवारों, कीटों और रोगों को घटाने, सालभर चारा उपलब्ध कराने और अतिरिक्त धन हासिल करने में मदद मिलती है।

तालिका 4 : मिट्टी की गहराई और नमी के आधार पर फसलें और फसल प्रणालियाँ

मिट्टी की गहराई

उपलब्ध नमी (मिमी)

फसल काल (दिन)

फसल/फसली प्रणाली

उथली

100 से कम

90 से कम

बाजरा, ज्वार, सोयाबीन, दलहन और कोदो की एकल फसल

मध्यम

100-150

150

सोयाबीन, ज्वार/बाजरा/सोयाबीन/मक्का/अरंडी+अरहर की एकल फसल

गहरी

200 से अधिक

180 से ज्यादा

धान-तिलहन/दलहन, कपास + सोयाबीन, ज्वार/मक्का-काबुली चना, अरहर आधारित फसल प्रणाली

भारत के प्रमुख फसल स्वरूप

धान-आधारित फसल स्वरूप

धान-गेहूँ प्रणाली

धान-धान प्रणाली

धान-तिलहन/दलहन प्रणाली

बाजरा-आधारित फसल प्रणाली

मक्का-गेहूँ प्रणाली

गन्ना-गेहूँ प्रणाली

कपास-गेहूँ प्रणाली

फली-आधारित फसल प्रणाली

उपसंहार

लेखक परिचय

डॉ. वाई.एस. शिवे और डॉ. टीकम सिंह


लेखक द्वय क्रमशः भा.कृ.अ.सं., नई दिल्ली में कृषि विज्ञान विभाग में प्रमुख वैज्ञानिक एवं प्रोफेसर और कृषि अनुसंधान विभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। ई-मेल : ysshivay@hotmail.com, ई-मेल : tiku_agron@yahoo.co.in

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