विकल्प की उपेक्षा
गेहूँ और साधारण चावल पर लगभग पूरी तरह आश्रित हो चुके पंजाब के किसानों के लिये क्या बासमती एक बेहतर विकल्प है? यह जानने के लिये डाउन टू अर्थ ने पंजाब के लुधियाना, जालंधर, कपूरथला, अमृतसर और तरण तारण जिलों के गाँवों में जाकर वस्तुस्थिति का जायजा लिया और पाया कि किसान बासमती से मुनाफा पाने की स्थिति में तो है लेकिन इसके अनिश्चित दाम इसकी पैदावार में सबसे बड़ी बाधा है। अगर सरकारी खरीद सुनिश्चित हो और यह एमएसपी के दायरे में आ जाये तो किसान खुशी-खुशी इसे उगाएगा। राज्य के किसान लम्बे समय से एमएसपी की माँग कर रहे हैं। फिलहाल ऐसा नहीं है, इसलिये पंजाब के किसानों का यूरिया और पानी की बचत करने वाले बासमती से मोहभंग होने लगा है।
हरित क्रान्ति से पहले चावल पंजाब की परम्परागत फसल नहीं थी। देश की खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिये पंजाब में चावल की खेती पर जोर दिया गया। इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने के कारण किसान इसे उगाने लगे। अन्य परम्परागत फसलें चावल को टक्कर नहीं दे पाईं और पिछड़ती चली गईं। इस तरह पंजाब चावल के जाल में उलझता गया।
सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार
लुधियाना के धांद्रा गाँव के अजमेर सिंह का कहना है कि बासमती की उपज सामान्य चावल से करीब आधी होती है लेकिन अच्छा दाम मिलने की उम्मीद से किसान इसे उगा लेते हैं लेकिन कई बार सामान्य चावल से कम दाम पर व्यापारियों को बासमती बेचना पड़ता है। वह बताते हैं कि बासमती की फसल 120 दिन में तैयार हो जाती है जबकि सामान्य चावल को तैयार होने में 160 से 170 दिन लगते हैं। इस लिहाज से भी बासमती की खेती किसानों के लिये उपयुक्त है।
तरण तारण जिले के कोट धरमचंद खुर्द गाँव में रहने वाले करमवीर सिंह पिछले 35 साल से बासमती की खेती कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि 2011-12 में 4,500 से 5,000 रुपए प्रति क्विंटल बासमती का रेट था। 2013 में 3,000 और 2015 में 1,500 रुपए के हिसाब से बासमती बेचना पड़ा। कोट सिवियां दा गाँव के तस्वीर सिंह के अनुसार, ‘बासमती का दाम 2,000 रुपए से नीचे जाता है तो किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती।
लुधियाना धांद्रा गाँव के राजेंदर सिंह का कहना है कि हरित क्रान्ति के वक्त पर सरकार का पूरा जोर गेहूँ और चावल की खेती पर था। सरकारी नीतियों के कारण बाकी परम्परागत फसलों की उपेक्षा हुई। वह मानते हैं “चावल की खेती में ज्यादा पानी लगता है और बिजली मुफ्त होने के कारण किसान जमीन से पानी निकाल रहे हैं लेकिन यह किसानों की मजबूरी है। उनके पास कोई दूसरा विकल्प सरकार ने नहीं छोड़ा है। जिन फसलों को पानी कम लगता है, उन्हें सरकार खरीदती नहीं है।” इसी गाँव में रहने वाले रणजीत सिंह बिना संकोच स्वीकार करते हैं कि भूमिगत कीटनाशकों और उर्वरकों के इस्तेमाल से प्रदूषित हो रहा है। 80 फुट पर पानी है लेकिन वह न तो पीने लायक है और न खेती लायक।
पंजाब में भारतीय किसान यूनियन के महासचिव हरेंद्र लाखोवाल ने डाउन टू अर्थ को बताया, “पंजाब का किसान कर्ज में डूबा है। बासमती के अलावा सभी फसलों का एमएसपी सुनिश्चित हो और किसानों को फसलों का लाभदायक मूल्य मिले। यूनियन ने पंजाब सरकार को सभी फसलों का एमएसपी निर्धारित करने के लिये अल्टीमेटम दिया है। अगर इस माँग को नहीं माना जाता है तो यूनियन 13 मार्च को दिल्ली पहुँचकर आन्दोलन करेगी।” उनकी माँग है कि सरकार एमएसपी के अलावा किसानों का कर्ज माफ करे और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के मुताबिक लागत का डेढ़ गुणा दाम किसानों को दे। किसान नेता धर्मेंद्र मलिक कहते हैं, “सरकार सन्तुलित खेती की बात करती है लेकिन जब एमएसपी की बात आती है तो सरकार पीछे हट जाती है। बासमती भी तो चावल की किस्म है, फिर सरकार को इसका एमएसपी देने में क्यों दिक्कत है, यह समझ से परे है। बासमती की खेती करने वाले पंजाब के किसानों का तभी भला होगा जब सरकार द्वारा इसकी सीधी खरीद होगी।” बलजिंदर कौर सिदाना का कहना है कि जमीन से पानी निकालने का सिलसिला यूँ ही जारी रहता है तो यह पंजाब के लिये बहुत खतरनाक होगा। पंजाब को बचाने के लिये कोई-न-कोई रास्ता निकालना ही होगा।
पंजाब को संकट से उबार सकता है मक्का
“चावल की खेती के लिये जमीन से इसी गति से पानी निकलता रहा तो आने वाले कुछ सालों में स्थिति भयावह होगी। 15-20 साल में सबसे उत्पादक राज्य की जमीन बंजर हो जाएगी।” लुधियाना दाना मंडी के चेयरमैन शरतचंद्र की यह बातें पंजाब में गम्भीर कृषि संकट की ओर इशारा करती हैं। दरअसल जिस गति से पंजाब में संचाई के काम में भूजल का प्रयोग साल-दर-साल बढ़ा है, उसने पर्यावरणविदों और कृषि के जानकारों को चावल का विकल्प तलाशने पर मजबूर कर दिया है। हरित क्रान्ति का खामियाजा जिस फसल को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा, उनमें मक्का भी शामिल है। 1973-74 में पंजाब की 9.76 प्रतिशत कृषि भूमि पर मक्के की खेती होती थी। 1993-1994 में यह 2.56 प्रतिशत रह गई। 2013-14 में यह और घटकर 1.68 प्रतिशत तक पहुँच गई है।
क्या मक्का पंजाब को कृषि संकट से उबारने में मददगार हो सकता है? जानकार इसका जवाब हाँ में देते हैं। इस फसल में काफी हद तक पानी बचाया जा सकता है। इण्डियन जर्नल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड डवलपमेंट में प्रकाशित बलजिंदर कौर सिदाना का शोधपत्र बताता है कि मक्का मिट्टी की गुणवत्ता को बरकरार रखने में मददगार है। यह कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों की खपत भी कम करता है। इसके अलावा इसकी फसल चावल के मुकाबले कम अवधि में तैयार हो जाती है। मक्का महज 90 दिनों में पक जाता है जबकि धान को तैयार होने में करीब 145 दिन लगते हैं। शोध बताता है कि किसान मक्के की खेती करके मिट्टी को खराब होने के साथ-साथ चावल के मुकाबले 74 प्रतिशत पानी और 70 प्रतिशत बिजली की बचत कर सकते हैं।
एमएसपी है पर खरीद नहीं
“जब से होश सम्भाला है, मैंने अपने गाँव में मक्के की खेती नहीं देखी।” अमृतसर के कोट सिंविया दा में अपने घर के बाहर खाट पर बैठे 30 साल के तस्वीर सिंह से जब हमने पूछा कि उन्होंने कब से मक्के की खेती नहीं की है तो वह अपनी माँ से पूछकर बताते हैं 25-30 साल पहले यहाँ खूब मक्का होता था। मक्के के अलावा बाजरा, अरहर, मूँग, कपास भी खूब होता था। गेहूँ और चावल ने सभी फसलों को खत्म कर दिया। तरण तारण जिले के कोट धरमचंद्र खुर्द गाँव के बलवंत सिंह बताते हैं, “1975-76 में किसान मक्का उगाते थे। अब मक्का नहीं उगाते क्योंकि इसकी लागत तक नहीं निकल पाती। अगर इसके सही दाम मिलने लगे तो किसान हँसकर मक्का लगाएगा।” लुधियाना जिले के तलमंडी खुर्द के किसान रणजोत सिंह के अनुसार, मक्के का खरीदार नहीं है। अगर किसान कभी मक्का उगा भी लेता है तो उसे मंडी में औने-पौने दाम पर बेचना पड़ता है। आढ़तिए नमी का बहाना बनाकर कम दाम देते हैं। वह मानते हैं कि खेती किसानों के लिये जुए जैसा है, जिसमें नुकसान का खतरा ही अधिक रहता है।
लुधियाना जिले के ही हलवारा गाँव के अंतोनी मक्के का पूरा गणित समझाते हुए बताते हैं “मक्के का उत्पादन बढ़ाने के लिये जरूरी है कि उसकी माँग बढ़े और किसानों का हित सधे। मक्के की चावल से प्रतियोगिता है। इसका उत्पादन चावल के करीब नहीं पहुँच पाता। इस वक्त 1,425 रुपए मक्के की एमएसपी है। लोग एमएसपी देखकर अक्सर मक्का उगा लेते हैं लेकिन बाजार जाकर उन्हें 80-900 रुपए का दाम ही मिलता है।” उनका कहना है कि इसमें चावल से ज्यादा मेहनत है। चावल को जानवरों से नुकसान नहीं पहुँचता लेकिन मक्के को खतरा रहता है। मक्का की फसल को एक बार पानी देना भूल गए तो उत्पादन में बड़ी गिरावट होती है, लेकिन चावल के साथ ऐसा नहीं है। मक्के के साथ खरपतवार भी अधिक उगती है। बारिश कम या ज्यादा होने पर मक्के की फसल प्रभावित होती है, तेज हवा से भी इसे नुकसान पहुँचता है लेकिन चावल को इससे फर्क नहीं पड़ता। इसके अलावा मक्के को सुखाने के बेहतर तंत्र विकसित नहीं हो पाये हैं। इन्हीं कारणों से 1975-76 में 5.77 लाख हेक्टेयर में उगाया जाने वाला मक्का फिलहाल 1.16 लाख हेक्टेयर पर पहुँच गया है। ऐसा नहीं है मक्के का उत्पादन कम है। 1970-71 में इसका उत्पादन 8 लाख 61 हजार टन था जो अब भी 4 लाख 45 हजार टन के आस-पास है। पहले एक हेक्टेयर में 12 क्विंटल मक्के की पैदावार होती थी जो इस वक्त बढ़कर 38 क्विंटल से ज्यादा हो गई है। यानी मक्के की पैदावार में तीन गुणा से अधिक वृद्धि हुई है। यह बढ़ोत्तरी उन्नत किस्म के बीजों की बदौलत सम्भव हुई है।
बलजिंदर कौर सिदाना का कहना है कि अगर मक्के पर सरकार थोड़ा भी ध्यान दे यानी इसकी खरीद सुनिश्चित कर दे तो यह फसल बहुत जल्दी रफ्तार पकड़ सकती है। इस फसल में क्षमता है कि यह पानी की प्यासी फसल यानी चावल का बेहतर विकल्प बन सकती है। उनका कहना है कि गेहूँ और चावल के इन्फ्रास्ट्रक्चर, एमएसपी, जन वितरण प्रणाली, खरीद प्रक्रिया, सब्सिडी आदि कारण रहे जिन्होंने मक्के को हतोत्साहित किया। अगर मक्के के किसान को भी ये लाभ मिलने लगें तो निश्चित रूप मक्के का रकबा बढ़ेगा। वह बताती हैं, “इसमें सन्देह नहीं है कि मक्का पर्यावरण हितैषी फसल है। मक्के को केवल चार सिंचाई की जरूरत होती है जबकि चावल को 25 सिंचाई लगती है। 2,500-3,500 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर पानी मक्के में लगता है जबकि चावल को 10,000-13,000 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर पानी की जरूरत होती है। मक्के का पैदावार भी अच्छी है लेकिन अच्छी गुणवत्ता के बीज महंगे हैं। सरकार को इनकी खरीद पर सब्सिडी देनी चाहिए। अभी ज्यादातर बीज निजी कम्पनियाँ मुहैया कराती हैं। बाजार और स्टोरेज की सुविधा देकर किसानों को प्रोत्साहित किया जा सकता है। लेकिन सबसे जरूरी है कि एमएसपी दी जाये।”