वॉटर हार्वेस्टिंग : कृषि विकास की पूँजी

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पानी की बर्बादी नहीं होने देने का संकल्प और पानी का संचयन करने की जिजीविषा दिखानी होगी। चूँकि विकासशील देशों या कहें कि मॉनसून पर निर्भर देशों के लिये पानी का प्रबंधन निहायत जरूरी हो जाता है। सो, भारत के लिये यह सिस्टम उसकी इस चिंता को दूर कर सकने में पूरी तरह सक्षम है। उत्तर भारत के बहुत सारे राज्य मॉनसून के समय वर्षा से प्रभावित होते हैं, जबकि देश के सौ जिले सूखे की मार झेलते हैं या बुरी तरह पानी से वंचित रहते हैं। इन दोनों समस्याओं का समेकित हल निकालने के साथ-साथ हम कृषि के विकास को भी बढ़ावा दे सकते हैं। और इसमें वॉटर हार्वेस्टिंग एक मुख्य भूमिका अदा कर सकता है।

गौरतलब है कि भारत का करीब 68 प्रतिशत क्षेत्र वर्षा पर आधारित कृषि से जुड़ा है। यदि हम-गाँवों में जो छोटे-छोटे तालाब, पोखर, जोहड़ आदि हुआ करते थे या हैं-को गहरा करके उनमें वर्षा के जल की मात्रा को संग्रहित कर सकें तो सूखे या ऑक्सीजन में कृषि और उससे सम्बंधित क्रियाकलाप के लिये उन्हें उपयोग किया जा सकता है। इस सम्बंध में हमें दो उदाहरण को उद्धृत करना जरूरी है। पहला-राजस्थान के अलवर जिले का है, जहाँ पर जोहड़ बनाकर लोगों ने कृषि भूमि का विस्तार किया है। जहाँ 10-15 फीसद कृषि भूमि थी, वह बढ़कर 50-60 फीसद तक हो चुकी है। और लोगों की आय को बढ़ाने में बहुत अहम भूमिका अदा कर रही है। दूसरा उदाहरण-रालेगण सिद्धि गाँव का है, जहाँ अन्ना हजारे ने वर्षा के जल को रोक कर और बहुत सारे दूसरे पारम्परिक व नये तरीके अपनाकर कृषि में काफी बढ़ोत्तरी की है।

इस तरह के बहुत सारे उदाहरण छोटे-छोटे टापू की तरह हैं। जरूरत बस इस बात की है कि हम इसे मॉस मूवमेंट यानी बड़े पैमाने पर अपना कर घर-घर में हरियाली ला सकें। इसके लिये बहुत सारी तकनीक विकसित की जा रही है, जो वर्षा की मात्रा पर आधारित हैं। जैसे; सूखा क्षेत्रों में, पठारी क्षेत्रों में, पहाड़ी क्षेत्रों में अलग-अलग तकनीकें हैं। राज्य और केंद्र सरकार का यह दायित्व है कि इन तकनीक को जनता में प्रसारित करें जिससे इनका फायदा किसानों को हो सके। इस दिशा में कुछ सरकारी मदद की भी आवश्यकता हो तो इसको किया जा सकता है। इसमें एक ओर ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे देश में पोषण की कमी को ध्यान में रखते हुए इन वॉटर हाव्रेस्टिंग पौंड (जल संचयन तालाब) में मछली पालन को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। यहाँ तक कि गर्मी के सीजन में इस संचयित जल का इस्तेमाल पीने के रूप में भी किया जा सकता है। वर्षाजल संग्रह का प्रावधान नये बनने वाले सरकारी व निजी भवनों के लिये अब अनिवार्य हो गया है।

एक तरफ भूजल स्तर गिर रहा है और जलस्रोत सूख रहे हैं, तो दूसरी तरफ आबादी में वृद्धि से पानी की मांग में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। वैज्ञानिक आगाह कर रहे हैं कि तेजी से बदल रहे पर्यावरण की वजह से एक दिन पानी बेहद नीचे चला जाएगा और आम जनता को आसानी से मयस्सर नहीं होगा। इस समस्या का निदान ही वर्षाजल संग्रह है। कई राज्य सरकारों ने अपने यहाँ ‘रूफ-टॉप रेनवॉटर हार्वेस्टिंग’ को अनिवार्य कर दिया गया है। उत्तराखंड में इसे प्रचलन में लाया गया है। नये बनने वाले सभी सरकारी और निजी भवनों के लिये इस व्यवस्था को लागू करने का शासनादेश जारी कर दिया गया है। अब नये घर का मानचित्र वर्षाजल संग्रह के सुनिश्चित प्रबंध होने पर ही स्वीकृत किया जाएगा। इतना ही नहीं, पेयजल संकट क्षेत्र स्थित पुराने सरकारी भवनों में वर्षाजल संग्रह के निर्देश दिए गए हैं।

सरकार का यह कदम निश्चित तौर पर प्रशंसनीय है। लेकिन इसके लिये खुद जनता को आगे आना होगा और ‘जल ही जीवन है’ की महत्ता को समझना होगा। पानी की बर्बादी नहीं होने देने का संकल्प और पानी का संचयन करने की जिजीविषा दिखानी होगी। चूँकि विकासशील देशों या कहें कि मॉनसून पर निर्भर देशों के लिये पानी का प्रबंधन निहायत जरूरी हो जाता है। सो, भारत के लिये यह सिस्टम उसकी इस चिंता को दूर कर सकने में पूरी तरह सक्षम है। पानी के स्रोत खोजने में रिमोट सेंसिग की भी मदद ली जा सकती है। साथ ही, प्राकृतिक आपदा को कम करने में भी काफी मदद भी मिल सकती है। कुल मिलाकर वॉटर हाव्रेस्टिंग प्लांट स्थापित करके रसातल में जा रहे पानी का संरक्षण हमें कई परेशानियों से निजात दिला सकता है, विशेषकर किसानों को पानी की कमी की वजह से जो दिक्कतें दरपेश आती हैं, उस लिहाज से यह तंत्र रामबाण की तरह है।

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