गाय आधारित प्राकृतिक खेती : स्वावलंबी किसान और पर्यावरण का ध्यान
रासायनिक खेती ने जितना हमें दिया है, उससे बहुत अधिक हमसे लिया है। किसान भी इसके दुष्प्रभावों से अवगत हैं, लेकिन जब तक उन्हें लागत और लाभ, दोनों पैमानों पर सिद्ध किसी कृषि विधि का विकल्प नहीं मिलता, रासायनिक खेती करना उनकी विवशता है। लोक भारती निरंतर ऐसी कृषि विधि की तलाश में थी। वर्ष 2010 लोक भारती द्वारा कई पद्धतियों को आजमाया जा रहा था, लेकिन जैविक कृषि में प्रयोग होने वाली उन पद्धतियों से पूर्णतः संतुष्टि और समाधान प्राप्त नहीं हो पा रहा था, जिनका प्रयोग उस समय रासायनिक कृषि के विकल्प के रूप में किया जा रहा था। उदाहरण के रूप में जब कृषि वैज्ञनिकों से इस सम्बन्ध में बात होती तो वे कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट में उपलब्ध पहले एन.पी. के. को फसल के लिए आवश्यक एन.पी.के से गुणा करते और बताते कि इतने टन या ट्राली कम्पोस्ट की आवश्यकता फसल के लिए होगी। वहीं वे यह भी बताते थे कि प्रारम्भिक तीन वर्षों में उपज घटेगी और चौथे वर्ष फसल से जैविक उत्पाद पूर्ण रूप में प्राप्त होगा। लगातार तीन वर्ष तक हानिकारक खेती करने के लिए किसी भी किसान का स्वाभाविक रूप से तैयार होना कठिन था। अतः लोक भारती निरन्तर सही विकल्प खोजने में संलग्न थी। वर्ष 2011 में सुभाष पालेकर जी से शून्य लागत प्राकृतिक कृषि के सिद्धान्त पर चर्चा हुई और उसके बाद रासायनिक कृषि के विकल्प के रूप में जिस कृषि पद्धति की लोक भारती को तलाश थी, वह प्राकृतिक कृषि पद्धति के रूप में प्राप्त हो गई, जिसे सुभाष पालेकर प्राकृतिक कृषि के रूप में भी जाना जाता है और लोक भारती व सामान्य समाज की भाषा में उसे ही गौ आधारित प्राकृतिक कृषि के नाम से जानते हैं। इस पद्धति की अनेक महत्वपूर्ण विशेषतायें हैं जिनके कारण लोक भारती ने इस पद्धति को स्वीकार किया और निरन्तर इसके विस्तार के लिए कार्य कर रही है।
गौ आधारित प्राकृतिक कृषि पद्धति की प्रमुख विशेषतायें निम्नवत हैं-
देसी गौवंश आधार, लाभ अपार-
इसके केन्द्र में देशी गौवंश है, जिसके गोबर व मूत्र से इस खेती की अधिकांश व्यवस्थायें सम्पन्न होती हैं। इस खेती पद्धति के प्रयोग से देशी गौवंश का जहां संरक्षण सुनिश्चित होगा, वहीं किसान के परिवार और कृषि भूमि के सुपोषण की सुरक्षा व संवर्धन होता रहेगा।
कृषक स्वावलम्बन-
इस पद्धति में खेती के लिए कोई भी वस्तु किसान को बाजार से खरीदने की आवश्यकता नहीं है। जीवामृत, घनजीवामृत आदि प्राकृतिक खाद-उर्वरक बनाने के लिए आवश्यक सभी कुछ सामान एक किसान के पास सहज रूप से उपलब्ध होता है। इनसे बहुत ही सरल तरीके से स्वयं खाद-उर्वरक बनाकर किसान खेती में उनका प्रयोग करता है। अर्थात यह पद्धति किसान को खेती के लिए बाजार पर निर्भर नहीं बनाती, बल्कि उसे स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनाती है। बाजारवाद के चंगुल से किसान की मुक्ति इस पद्धति से संभव है। स्वदेशी पद्धति प्राकृतिक खेती पद्धति पूर्णतः भारतीय व भारतीय परिवेश के अनुकूल व उपयोगी है।
पर्यावरण संरक्षक गाय आधारित प्राकृतिक खेती पद्धति में कोई ऐसा कार्य नहीं होता है जो पर्यावरण के प्रतिकूल हो, अपितु प्राकृतिक खेती करने से पर्यावरण का संरक्षण ही होता है।
जैव विविधता संरक्षक -
रासायनिक खेती में जहां जैव विविधता को व्यापक हानि होती है, वहीं प्राकृतिक विधि से खेती करने से जैव विविधता का संरक्षण व संवर्धन होता है।
भूमि सुपोषक
कृषि भूमि के लिए आवश्यक है उसकी उर्वरता या सुपोषण। प्राकृतिक कृषि पद्धति का मूल सिद्धान्त भूमि सुपोषण ही है, जिसके अंतर्गत भूमि में कार्बन अनुपात, सूक्ष्म जीवाणुओं की पर्याप्त उपलब्धता, भूमि में पोलापन, केंचुओं की सक्रिय उपस्थिति, भूमि में पर्याप्त नमी व आवश्यक हवा संचार (वाफसा) की सुगम स्थिति का होना है।
जल संरक्षक
इस विधि से खेती होने पर खेत में स्वाभाविक रूप से केंचुवों की संख्या अपने आप बढ़ जाती है, जो अनवरत भूमि में गहराई तक लाखों छिद्र बनाते हैं, जिससे वर्षा जल भूगर्भ में चला जाता है और नाली, बेड़ के कारण सिंचाई में पानी कम लगता है। नाली व वेड़ पर आच्छादन होने से नमी देर तक ठहरती है। पानी की बचत होती है।
परम्परागत स्वदेशी बीजों का संरक्षण
इस विधि में हमारे देशी व परम्परागत बीजों का ही प्रयोग होता है, अतः प्राकृतिक खेती करने से स्वतः ही उनका संरक्षण व संवर्धन होता है।
आरोग्यवर्धक
इस विधि से प्राप्त अन्न, दाल, फल, सब्जी, तिलहन आदि सभी में अधिक पौष्टिकता व शरीर में रोगरोधी शक्ति के विकास की अधिक क्षमता होती है। अतः इस विधि के कृषि उत्पादन का उपभोग करने वाले व्यक्ति स्वाभाविक रूप से रोग मुक्त व स्वस्थ रहते हैं।
उत्पादन में वृद्धि-
रासायनिक कृषि की तुलना में जैविक खेती करने पर उत्पादन में कमी आती है, परन्तु गौ आधारित प्राकृतिक कृषि में पहले वर्ष से ही उत्पादन पूरा होता है और सहफसली होने से कुल उत्पादन में वृद्धि ही होती है।
प्राकृतिक आपदाओं में फसल सुरक्षा
अधिक वर्षा, सूखा आदि का इस पद्धति की खेती पर न्यूनतम प्रभाव होता है। यदि किसी कारण एक फसल को कोई हानि हो भी जाये तो उसकी सहफसली क्षति की पूर्ति कर देती है।
आर्थिक दृष्टि से लाभकारी
इस पद्धति के कृषि उपज की मानव स्वास्थ्य के लिए अधिक लाभकारी होने के कारण अधिक मांग रहती है। उपभोक्ता उनका अधिक मूल्य को भी सहर्ष तैयार रहता है जिससे किसान को आर्थिक दृष्टि से लाभ रहता है।
गौ आधारित प्राकतिक खेती के कुछ अन्य प्रमुख लाभ निम्नवत हैं-
गन्ने की खेती-
इस विधि से जितने खेत में पहले रासायनिक गन्ना 4-4 फिट की दूरी पर करते थे, उतने खेत में अब 8 फिट पर गन्ना होने पर भी उपज उतनी ही मिल जाती है, जितनी पहले मिलती थी। लेकिन अब उपज के साथ गन्ने की रिकवरी दर जो पहले 6 प्रतिशत होती थी अब 12 प्रतिशत हो जाती है। अर्थात उपज पहले जैसी लेकिन उससे मिलने वाली शक्कर पहले से 3 प्रतिशत अधिक। इसके अतिरिक्त गन्ने की दो लाइनों के मध्य 8 फिट की जगह में उड़द, मूंग, मूंगफली, सब्जियां तथा गन्ना बड़ा होने पर अदरक, हल्दी आदि अतिरिक्त फसलें हो जाती हैं, जिनकी आय से गन्ने पर होने वाला पूरा व्यय निकल आता है और गन्ने की फसल बचत के रूप में मिल जाती है। इसके अतिरिक्त नाली, बेड और आच्छादन होने से पानी की खपत बहुत कम लगभग एक चौथाई रह जाती है। इस विधि से बोया गन्ना लगातार कई वर्ष चलता है, उपज भी पूरी और जुताई से मुक्ति।
बहुफसली खेती-
रासायनिक विधि में धान, गेहूं, गन्ना, सोयाबीन या कपास जैसी कुछ फसलें ही होती हैं। दलहन और तिलहन हमें बाहर से मंगाने पड़ते हैं। खाद-उर्वरक और उनके निर्माण के लिए आवश्यक कच्चा माल भी बाहर से ही मंगाना होता है। प्राकृतिक पद्धति अपनाने से खाद, कीटनाशक और दलहन व तिलहन आयात करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
पंचस्तरीय बागबानी -
इस पद्धति मे एक खेत में पंचस्तरीय बागबानी मॉडल के अंतर्गत एक साथ कंद वर्गीय, बेल वर्गीय, छोटी बढ़त वाली, झाड़ी वर्गीय, मद्धम आकार एवं ऊंचे पेड़ वाली फसलें एक साथ होती हैं, जिससे किसान को हर समय काम और हर समय आय होती रहती है। पंचस्तरीय बागबानी लगाने के 2-3 साल बाद एक एकड़ से प्रतिमाह 15 से 20 हजार रुपये तक नियमित आय हो सकती है। इससे छोटे किसान को अपना पेट भरने और जरूरतें पूरी करने के लिए बड़े शहर जाकर छोटी-मोटी नौकरी करने की विवशता समाप्त हो जाएगी।
लोक भारती के लिए यह गहन संतोष का विषय है कि देशभर में अब लाखों किसान गौ आधारित प्राकृतिक खेती को अपना रहे हैं और सर्वे भवन्तु सुखिनः के सिद्धांत पर चलते हुए स्वयं, उपभोक्ता और पर्यावरण सभी का कल्याण कर रहे हैं। लोक भारती द्वारा अब तक लगभग 25 हजार किसानों को प्राकृतिक कृषि पद्धति का प्रशिक्षण दिया जा चुका है। वर्तमान में ये किसान सफलतापूर्वक किसी केमिकल या महंगे जैविक खाद-कीटनाशक का लेशमात्र प्रयोग किए बिना मात्र अपनी देशी गाय के गोबर-गोमूत्र, गुड़, बेसन और वनस्पतियों से स्वयं किसान द्वारा घर पर तैयार जीवामृत, घनजीवामृत एवं दशपर्णी अर्क का प्रयोग करते हुए लाभकारी प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। लोक भारती द्वारा इन किसानों को निरंतर प्रोत्साहन और मार्गदर्शन प्रदान किया जाता है। यह श्रृंखला लगातार बढ़ती रहने वाली है।