जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव

जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव

जलवायु परिवर्तन अप्रत्यक्ष रूप से भी कृषि को प्रभावित करता है जैसे खरपतवार को बढ़ाकर, फसलों और खरपतवार के बीच स्पर्द्धा को तीव्र करना, कीट-पतंगों तथा रोगजनकों की श्रेणी का विस्तार करना इत्यादि । लेखकगण  - पवन कुमार, नरेंदर कुमार, अमित कुमार 
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जलवायु परिवर्तन क्या होता है ?

जलवायु परिवर्तन का अर्थ है वातावरण में दीर्घकालिक बदलाव, जिसमें तापमान, वर्षा, हवा की गति और मौसम के अन्य पैटर्न में परिवर्तन शामिल हैं। यह प्राकृतिक कारणों या मानव गतिविधियों जैसे प्रदूषण, उद्योगीकरण और वनों की कटाई के कारण हो सकता है, जिससे पृथ्वी का पर्यावरण प्रभावित होता है।

वर्तमान में जलवायु परिवर्तन की स्थिति गंभीर दिशा में पहुंच रही है और पूरे विश्व में इसका असर देखने को मिल रहा है। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन का पर्यावरण के सभी पहलुओं के साथ-साथ वैश्विक आबादी के स्वास्थ्य और कल्याण पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है। 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन की अगुवाई में तैयार रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के भौतिक संकेतों जैसे भूमि और समुद्र के तापमान में वृद्धि, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि और बर्फ के पिघलने के अलावा सामाजिक-आर्थिक विकास, मानव स्वास्थ्य, प्रवास और विस्थापन, खाद्य सुरक्षा और भूमि तथा समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र पर प्रभाव का दस्तावेजीकरण किया गया है। जीवाश्म ईंधन के दहन से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है जो पृथ्वी के चारों ओर लिपटे एक आवरण की तरह काम करता है। यह सूर्य की ऊष्मा को जब्त करता है और तापमान बढ़ाता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण 

बढ़ता तापमान हिम गलन में तेजी ला रहा है, जिससे समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है और बाढ़ एवं कटाव की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। 

जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव 

जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित करता है। जलवायु में परिवर्तन भूजल पुनर्भरण, जल चक्र, मिट्टी की नमी, पशुधन और जलीय प्रजातियों को प्रभावित करेगा। जलवायु में परिवर्तन से कीटों और रोगों की घटनाओं में वृद्धि होती है, जिससे फसल उत्पादन में भारी नुकसान होता है। 

जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि क्षेत्र और भी कई तरह से प्रभावित हो सकता है, जैसे कि :

  1.  * जलवायु परिवर्तन मृदा में होने वाली प्रक्रियाओं एवं मृदा- जल के संतुलन को प्रभावित करता है। मृदा जल के संतुलन में अभाव आने के कारणवश सूखी मिट्टी और शुष्क होती जाएगी, जिससे सिंचाई के लिये पानी की मांग बढ़ जाएगी। 

  2. * जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे और बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि हो रही है, जिससे फसलें नष्ट हो जाती हैं। 

  3. * कीटों और बीमारियों का प्रकोपः तापमान में वृद्धि से कीटों और रोगों का प्रसार तेज होता है, जिससे फसलें प्रभावित होती हैं और उत्पादन घटता है। 

  4. * खाद्य सुरक्षा पर खतरा - कृषि उत्पादन में कमी से खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ता है, जिससे विशेष रूप से गरीब और विकासशील देशों की आबादी प्रभावित होती है। 

  5. * कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि से कुछ फसलों जैसे कि गेहूं तथा चावल, जिनमें प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया सी- 3 माध्यम से होती है, के लिये लाभदायक है, क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तीव्र करती है एवं वाष्पीकरण के द्वारा होने वाली हानियों को कम करती है। परंतु इसके बावजूद कुछ मुख्य खाद्यान्न फसलों जैसे गेहूं की उपज में महत्वपूर्ण गिरावट पाई गई है, जिसका कारण है तापमान में वृद्धि। उच्च तापमान फसलों की वृद्धि की अवधि को कम करता है, श्वसन क्रिया को तीव्र करता है तथा वर्षा में कमी लाता है। 

  6. * उच्च तापमान, अनियमित वर्षा, बाढ़, अकाल, चक्रवात आदि की संख्या में बढ़ोतरी, कृषि जैव विविधता के लिये भी संकट पैदा कर रहा है। बढ़ते तापमान और असमय बारिश से फसलों की वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे पैदावार में कमी आती है। 

  7. * बागवानी फसलें अन्य फसलों की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन के प्रति अतिसंवेदनशील होती हैं। 

  8. * उच्च तापमान सब्जियों की पैदावार को भी प्रभावित करता है। 

  9. * जलवायु परिवर्तन अप्रत्यक्ष रूप से भी कृषि को प्रभावित करता है जैसे खरपतवार को बढ़ाकर, फसलों और खरपतवार के बीच स्पर्धा को तीव्र करना, कीट-पतंगों तथा रोगजनकों की श्रेणी का विस्तार करना इत्यादि। 

जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभाव को कम कैसे किया जाए ? 

  1. * जैविक एवं समग्रित खेती में रसायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से मृदा की उत्पादकता घटती है। अतः हमें जैविक खेती करने की तकनीकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए। 

  2. * जलवायु अनुकूल फसलें - ऐसी फसलों का चयन और विकास किया जाना चाहिए, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सहन कर सकें। सूखा-प्रतिरोधी, लवण-प्रतिरोधी और अत्याधिक तापमान सहने वाली फसलों को अपनाना प्रभावी होगा। 

  3. * प्रणालीगत सुधार : किसानों को समय पर मौसम की जानकारी, फसल बीमा और कृषि विज्ञान के नए तरीकों की जानकारी देकर उन्हें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सशक्त किया जा सकता है। 

  4. * समुदाय आधारित संसाधन प्रबंधन स्थानीय स्थानीय स्तर पर जल, भूमि और वनों के संरक्षण में सामुदायिक भागीदारी से दीर्घकालिक समाधान हो सकता है। 

  5. * कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परिवर्तन के खतरों से निजात पा सकते हैं। फसल बीमा के विकल्पों को मुहैय्या करना, ताकि लघु एवं सीमांत किसान इनका लाभ उठा सकें। 

  6. * जल प्रबंधन : सूखे या अनियमित वर्षा की स्थिति में, सिंचाई के लिए जल संग्रहण और जलसंवर्धन तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है। वर्षा जल संचयन और ड्रिप सिंचाई जैसी तकनीकों को बढ़ावा दिया जा सकता है। 

  7. * वाटर शैड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा जल को सिंचित कर सिंचाई के रुप में प्रयोग कर सकते हैं। इससे हमें जहां एक ओर सिंचाई की सुविधा मिलेगी। वहीं दूसरी ओर भू-जल पुनर्भरण में भी मदद मिलती है। 

  8. * फसल उत्पादन में नयी तकनीकों का विकास-जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमें फसलों के प्रारूप एवं उनके बीज बोने के समय में भी परिवर्तन करना होगा। पारम्परिक ज्ञान एवं नयी तकनीकों के समन्वयन तथा समावेश द्वारा वर्षा जल संरक्षण एवं कृषि जल का उपयोग मिश्रित खेती व इंटरक्रॉपिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता है।

  9. * एकल कृषि के बजाये समग्र खेती में जोखिम कम होता है। समग्र खेती में अनेक फसलों का उत्पादन किया जाता है, जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त हो जाये तो दूसरी फसल से किसान की रोजी-रोटी चल सकती है।

लेखकों के बारेे में  -  1. पवन कुमार, 2. नरेंदर कुमार और अमित कुमार 

1 - कृषि विज्ञान केंद्र, जींद, 2 - कृषि विज्ञान केंद्र, सिरसा, कृषि विज्ञान केंद्र, कैथल, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार

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