सतत एवं सन्तुलित विकास के लिये प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षणोन्मुखी उपयोग आवश्यक होता है। लेकिन वर्तमान सदी में औद्योगिक विकास ने जहाँ इस तथ्य की अनदेखी करते हुए संसाधनों का अविवेकपूर्ण ढंग से अधिकाधिक दोहन किया और संरक्षण की दिशा में कोई व्यावहारिक परिणाममूलक कार्य योजना प्रस्तुत नहीं की, वहीं उपभोक्तावाद को चरम पर पहुँचाकर संरक्षणवादी विचार को ही विलुप्तप्राय कर दिया। इसका परिणाम हमारे सामने पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरणी असन्तुलन के रूप में आया है। इससे प्राकृतिक संसाधन लगातार सिकुड़ते चले गए हैं और मनुष्य सहित समूचे प्राणी-जगत की आजीविका और जीवनशैली बुरी तरह प्रभावित हो गई है।
इस कारण यह पृथ्वी जो सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट कृति है और जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें अपने बच्चों के भरण-पोषण की असीमित क्षमता विद्यमान है, की उत्कृष्टता और क्षमता पर भी प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं। हमारा देश भी इस संकट से जूझ रहा है। हमारे बहुमूल्य वन तेजी से कम होते चले गए हैं जिसके दुष्परिणाम अनेक रूपों में हमें देखने और भोगने पड़ रहे हैं।
कृषि आर्थिकी पर प्रमुखतः आधारित हमारे देश में कम-से-कम एक-तिहाई भौगोलिक क्षेत्र वनाच्छादित होना आवश्यक है। इसलिये देश की आजादी के बाद सन 1952 में राष्ट्रीय वन नीति घोषित की गई। किन्तु उसके लिये आवश्यक आर्थिकी योजनागत, वैधानिक आधारभूत संरचना नहीं किये जाने के साथ ही लोगों को जोड़ने की उपेक्षा करने से तय लक्ष्य पूरे करना तो दूर उपलब्ध वनों तथा वन भूमि बचाने में भी सफलता प्राप्त नहीं है।
मध्य प्रदेश के भोपाल में स्थित माधवराव सप्रे स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय ने पिछले वर्ष प्राकृतिक संसाधनों की गिरती स्थिति जैसी ज्वलन्त समस्या पर ध्यान केन्द्रित करने के लिये ‘समाज का प्रकृति एजेंडा’ पर चर्चा-चिन्तन कर इस दिशा में एक सार्थक पहल की है। मैं आशा करता हूँ कि इस विचार-विमर्श से प्रकृति के मूल घटकों के साथ ही उन लोगों की तरफ भी ध्यान आकृष्ट करने में मदद मिलेगी जिनका अस्तित्व ही जल, जमीन और जंगलों के सिकुड़ने के साथ संकट में पड़ गया है।
यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं जब पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों तथा जनजातीय समाजों में प्राकृतिक संसाधनों के युक्तियुक्त उपयोग को अपने जीवन का सबसे बड़ा और मजबूत आधार मानने की समृद्ध परम्परा थी। इन समाजों ने प्रकृति के संरक्षण को अपनी संस्कृति, परम्पराओं, ज्ञान का अभिन्न हिस्सा बनाते हुए उससे समुचित तादात्म्य स्थापित कर जीवनयापन करने की पद्धति विकसित कर ली थी। इसमें इन समाजों की कार्यनिष्ठा, विवेक, धैर्य और सन्तोष के गुणधर्म समाविष्ट थे, जो उन्हें एक पूर्ण स्वावलम्बी समाज के रूप में प्रतिष्ठित करते थे।
अभी दो सदियों पहले तक भारतीय उप महाद्वीप में ऐसे कई भू-भाग थे, जो काफी समृद्ध और स्वावलम्बी थे। हिमालय से सह्याद्रि तक, उससे आगे हिन्द महासागर के छोर तक और दण्डकारण्य से लेकर दहाणू तक इन क्षेत्रों की समृद्धि और स्वावलम्बन का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। इसी के बल पर यहाँ के लोगों की जीवनशैली, संस्कृति, शौर्य और स्वाभिमान की अनेक परम्पराएँ और गाथाएँ प्रचलित हैं। इन क्षेत्रों की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक उन्नति के मूल में समृद्ध और स्वावलम्बी आर्थिकी ही बड़ा कारण रही है। यह मूलतः प्रकृति से संचालित थी, जिसमें जंगलों की संरचना मुख्य थी।
भारत के पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों तथा जानजातीय समाजों की आबादी अधिकांशतः उन राज्यों और क्षेत्रों में पड़ती है जो वनों और खनिजों के कारण देश की समृद्धि का बहुत बड़ा आधार हैं। लेकिन इन संसाधनों के उपयोग में ग्रामीण समाज बहुत सचेत और संवेदनशील रहते थे। इस बात को देश के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है। मुझे याद है कि जल-जंगल और जमीन के बारे में पहले गाँव के लोग बहुत सावधान रहते थे।
उत्तराखण्ड में हमारे गाँव की खेती से जुड़ा हुआ एक जंगल है जो कि गाँव की पश्चिमोत्तर दिशा में है। बांज के वृक्षों की प्रधानता के कारण बंज्याणी कहलाता है। लगभग नौ दशक पहले अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप इसके संरक्षण की पहल आरम्भ हुई। इसकी सुरक्षा और रख-रखाव, अतिक्रमण करने वालों को दण्डित तथा उसके उत्पादों के वितरण करने के अधिकार से सम्पन्न गाँव की अपनी पंचायत जैसी व्यवस्था थी। उसके आदेशों-निर्देशों का पालन न करने वालों को आर्थिक दण्ड और कई बार सामाजिक बहिष्कार तक का दण्ड भोगना पड़ता था। इन नियमों का सख्ती से पालन किये जाने का ही परिणाम था कि बंज्याणी आज भी अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल है। तेजी से बढ़ते नगर गोपेश्वर में बंज्याणी के जंगल का अस्तित्व बचे रहना लोक वन प्रबन्धन और लोक परम्परा का अच्छा उदाहरण है।
मुझे मेघालय एवं मणिपुर के देव वनों को देखने एवं समझने का कई बार अवसर मिला। ये देववन दो-चार पेड़ों के नहीं कहीं-कहीं तो सैकड़ों एकड़ में फैले हुए हैं, जो आज भी सुरक्षित हैं। मुझे शिलांग से लगभग 25 किलोमीटर दूर मोफलॉग के पास देववन देखने का अवसर मिला था। वहाँ पर ताम्ब्रो लिंगदो ने विस्तार से जानकारी दी कि किस प्रकार आज भी इस 75 वर्ग हेक्टेयर क्षेत्र में फैले देववन के नियमों का पालन किया जाता है। यह जंगल इतना घना है कि सूर्य की किरणें धरती में नहीं पड़ती हैं। इसी प्रकार का देववन चेरापूँजी के पास भी देखने को मिला जो सम्पूर्णता लिये हुए हैं।
मुझे आन्ध्र प्रदेश के पौडू और उत्तर पूर्व में झूम क्षेत्रों में कास्तकारी से जुड़ी मान्यताओं को समझने का मौका मिला। इसमें पौडू के आस-पास के जंगल और जमीन के संरक्षण की बातें समाहित हैं। वहीं इस पर अवलम्बित लोगों की विवशता के बावजूद परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा गया है। विवशतापूर्वक पौडू करने के बारे में ईस्ट गोदावरी के वाल्दका गाँव के पास एक कौण्डा रेड्डी ने बताया कि हमारा कोण्डा क्षेत्र बहुत ऊबड़-खाबड़ है। यहाँ पर खेती करना बहुत मुश्किल है। इसलिये पौडू करते हैं। खेती करना आसान है। पौडू करना आसान नहीं है।
हम मानते हैं कि यह अच्छा नहीं है। फिर भी हमें आजीविका के लिये पौडू करना पड़ता है। इस सबके बावजूद पौडू करने से पहले पौडू के वनों को बचाने से पूर्व हम उनकी पूजा करते हैं। ऊँची आवाज में चिल्लाते हैं कि ओ चीम लारा: पामू लारा शत-कोटी जीव लारा, डोकू लारा, मिन्दी लारा, माँ कोण्डकू अग्नि पेडू तनू नय कोण्डी। ओ चींटियों ओ सांपों और शत-कोटी जीवों, हम यहाँ आग लगा रहे हैं अपने पेट पूर्ति के लिये, आप यहाँ से भाग जाइए।
उत्तराखण्ड में परम्परागत गाँव के अपने वनों के बाद सन 1931 में वन पंचायत बनाकर सामूहिक व्यवस्थापना के लिये ग्रामीणों को हस्तान्तरित किया गया। आज उत्तराखण्ड में हजारों वन पंचायतें कार्यरत हैं। यद्यपि पिछले दो दशकों से उसके कार्य में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ा है जिसमें सुधार की आवश्यकता है।
मुझे कोरापुट में ओडिशा राज्य की 80 की लगभग वन सुरक्षा समितियों एवं गैर सरकारी संस्थाओं के साथ सन 2005 में बातचीत करने का अवसर मिला था। उसमें पता चला कि राज्य में दस हजार के लगभग स्वप्रेरित वन सुरक्षा समितियाँ हैं। आर.सी.डी.सी. भुवनेश्वर के श्री मनोज पटनायक बता रहे थे कि इन स्वप्रेरित समितियों के सफल ग्राम हैं। लेकिन उन्हें मान्यता देने में विभाग आनाकानी कर रहा है। इसी प्रकार महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले में वृक्ष मित्र मिले थे। श्री मोहन हिराबाई हिरालाव के कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था। वहाँ मेढ़ा लेखा गाँव में वन संरक्षण-संवर्धन एवं उपयोग का आदर्श देखने को मिला था, जो ग्राम वन की दिशा में अग्रगामी कदम है। इस प्रकार देश में अलग-अलग राज्यों में अपने-अपने ढंग से जंगलों के संरक्षण संवर्धन के उदाहरण हैं।
वनों के ऊपर लोगों के परम्परागत अधिकार एवं कर्तव्य के साथ जो समृद्ध परम्पराएँ एवं व्यवहार हैं, उसके पूर्व की जो जानकारी मिली है उसको समझना भी आवश्यक है। अंग्रेजों के आने से पूर्व हमारे देश में छोटे-बड़े रजवाड़े थे। उस काल में जंगल मुख्य रूप से तीन प्रकार के थे। पहले रजवाड़ों एवं जमींदारों के अधीन जंगल थे जो आम लोगों के लिये वर्जित थे। ये मुख्यतः राजाओं के शिकारगाह होते थे। दूसरे प्रकार के गाँव के अपने कास्तकारी के जंगल थे जो अलग-अलग गाँवों की सीमा के अन्दर उनकी आवश्यकता की पूर्ति के साथ ही वनोपज पर आधारित ग्रामोद्योग की कच्ची सामग्री उपलब्ध कराते थे। तीसरे देववन थे। देववन वे थे जिन्हें लोगों ने देवताओं को अर्पित कर दिया था। ग्रामवासी इन वनों से किसी भी प्रकार की उपज नहीं लेते थे। यह परम्परा न केवल जंगल तक सीमित थी अपितु बुग्यालों और औरण भी इसके अन्तर्गत आते थे।
अंग्रेजों के आधिपत्य में सन 1855 से वनों को नियंत्रण में लेने की कार्यवाही हुई। सन 1865 में पहला वन कानून बना, जो अलग-अलग चरणों में कठोर होता गया। इसके कारण जंगलों पर अवलम्बित लोगों को वनों से अलग-थलग कर देने का सिलसिला शुरू हो गया। अंग्रेजों ने भारत के जैविक उत्पादों के दोहन के साथ ही वनों को उजाड़ने का कार्य भी शुरू किया।
उत्तर-पूर्वी भारत में बिना मुआवजा दिये आदिवासियों को बेदखल किया गया। उनकी जमीनों पर चाय बागान बनाए गए। इन बागानों में काम करने वाले श्रमिकों को जो मजदूरी दी जाती थी, उसको देखते हुए उन श्रमिकों को गुलाम कहना सही होगा। इसके बाद भी वन-विनाश और लोगों की जमीन और जंगल, दोनों पर अतिक्रमण जारी रहा। इससे जो लोग प्राकृतिक संसाधनों पर अवलम्बित थे, वनों के ह्रास से वे बदहाली की स्थिति में आ गए। आजादी के बाद यह काम और तेजी से बढ़ा। बड़े बाँध, विद्युत परियोजनाओं, कारखानों और खदानों के लिये मोटर सड़कों के जाल से एक ओर जमीन तो दूसरी ओर जंगलों का बेतहाशा विनाश हुआ। इसके साथ ही इन पर अवलम्बित लोगों को उजाड़ने का काम भी जारी रहा, जो कि वर्तमान में भी जारी है।
मुझे सन 1986 में गोदावरी में आई प्रलयंकारी बाढ़ एवं सन 1991 के आन्ध्र प्रदेश के समुद्री तूफान के बाद पूर्वी गोदावरी, पश्चिमी गोदावरी और विशाखापत्तनम जनपदों के प्रभावित इलाकों, जिनमें मुख्य रूप से एजेंसी एरिया की यात्रा भी थी, के दौरान पता चला कि ओडिशा में आन्ध्र प्रदेश की सीमा से सटे हुए क्षेत्र में अपर सिलेरू, लोअर सिलेरू और मुचकंदा बाँधों के लिये लोगों को अपनी जमीनों से उजाड़ा गया।
उन्हें भूमि का मुआवजा या तो दिया ही नहीं गया, जिन्हें दिया भी गया, वह इतना कम था कि वह फिर से अपने को स्थापित नहीं कर सके। इसका नतीजा यह हुआ कि जब तक बाँध का निर्माण कार्य चलता रहा, उसके इर्द-गिर्द उन्हें मजदूरी मिली, लेकिन जैसे ही निर्माण कार्य पूरा हुआ, वे कंगाली की स्थिति में आ गए। उनके पुनर्वास की जिम्मेदारी न ओडिशा सरकार ने ली और न ही आन्ध्र सरकार ने। इस प्रकार वे लोग आन्ध्र की सीमा के जंगलों में गुजर-बसर करने लगे। जब उन पर जंगलात की जमीन पर काश्तकारी करने के एवज में विभागीय दमन शुरू हुआ तो उनके बचाव में पीपुल्स वार ग्रुप जैसे संगठन आगे आये और एक-दूसरे को संरक्षण दिया।
लोगों ने बताया कि इन पहाड़ी और आदिवासी इलाकों में राजमुन्द्री के कागज के कारखानों और रम्बचौडवरम की प्लाईवुड फैक्टरी के लिये इन जंगलों से बड़ी संख्या में लोकोपयोगी पेड़ों का कटान हुआ। इन इलाकों में जंगली आम, कटहल और इमली जैसे पेड़ों के फल लोगों के मुख्य खाद्य हैं। इनके विनाश का सीधा प्रभाव लोगों के खाद्य पर पड़ा।
कई जगह प्राकृतिक जंगलों को पूरी तरह से काटकर उनके स्थान पर सफेदा, चीड़, बबूल, टीकवुड आदि का रोपण किया गया। इस सबका प्रभाव यह हुआ कि एक ओर भूस्खलन बढ़ा तो दूसरी ओर जो वन उपज लोगों की आजीविका के मुख्य साधन थे, उनके विनाश से लोग बदहाली की स्थिति में आ गए। इसके अलावा इन कागज और रेयन के कारखानों के लिये बम्बू का भी बेतहाशा ढंग से कटान किया गया।
यह बाँस कागज के कारखानों के लिये 263 रुपए प्रति टन के भाव से बेचा जाता था, जबकि खुले में 1500 रुपए प्रति टन के हिसाब से इसकी कीमत मिलती थी। इसी प्रकार प्राकृतिक जंगलों से ऐसी वनस्पति मिलती थी, जिससे झाड़ू बनाकर वे बाजार में बेचते और नमक तेल के लिये पैसे जुटाते थे। जंगलों के तहस-नहस होने से झोपड़ी बनाने के लिये लकड़ी के संकट के साथ-साथ बाँस एवं खाद्य का भी संकट पैदा हो गया। इन सबसे उत्तेजित होकर यहाँ के आदिवासी युवाओं ने सन 1987 में शक्ति नामक संगठन की पहल पर प्रदर्शन भी किया था।
हमारे देश में कागज उद्योग ने देश के जंगलों को निर्ममता के साथ उजाड़ा है। इसी प्रकार हिमालयी राज्यों में जैसे-जैसे अन्तर्वर्ती क्षेत्रों में मोटर सड़कों का जाल बिछा, उसके आस-पास के जंगलों का भी बेतहाशा विनाश हुआ। देखते ही देखते कई वन क्षेत्र वीरान हो गए। इस कारण एक ओर भू-क्षरण, भूस्खलन से नदियाँ बौखलाईं, लोगों की तबाही हुई, वहीं दूसरी ओर लोगों की रोजाना की जरूरतों के लिये जो वन उपज प्राप्त होती थी, उस पर नियंत्रण बढ़ता गया।
इसी के कारण सन 1970 के बाद मध्य हिमालय की अलकनंदा घाटी में लोगों के जंगलात द्वारा परम्परागत अधिकारों पर अतिक्रमण कर आपत्ति उठाते हुए चिपको आन्दोलन शुरू कर उत्तर प्रदेश सरकार की वन नीति को कटघरे में खड़ा किया गया था। क्योंकि इस इलाके में सन 1959 से 1969 के बीच बड़े पैमाने पर नदियों के संवेदनशील क्षेत्रों में वन विभाग की कार्ययोजना के आधार पर वनों का कटान हुआ था जिसके बाद सन 1970 में इन संवेदनशील नदियों में प्रलयंकारी बाढ़ आई थी।
एक बात यह भी समझनी चाहिए कि वनस्पति उपज में काष्ठ के अलावा वनौषधि, रिंगाल, बाँस, लीसा आदि बड़े कारखानों को सस्ते भाव में दिया गया। बल्कि उनको दोहन की खुली छूट दी गई। कह सकते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी का मुख्य आधार अमीर हैं। चाहे वे ग्राम स्तर के हों या देश के भीतर अमीरों के समूहों ने अपने कारखानों की भूख मिटाने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का जितना ज्यादा उपयोग किया, उतना ही ज्यादा दुष्प्रभाव उन पर परम्परा से आश्रित लोगों पर बढ़ता चला गया।
इस प्रकार दूसरी बात जो समझ में आई, वह यह कि प्राकृतिक संसाधनों के विनाश का सबसे बुरा असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है। मुझे देश में सामाजिक कार्यों में रत संस्थाओं और मित्रों के साथ गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, सतलज, गोदावरी, इन्द्रावती, तुंगभद्रा-सिलेरू, पश्चिमी घाट-पूर्वी घाट, पुरलियाँ (अयोध्या पहाड़) की यात्राओं का अनुभव है कि अपने देश में गरीबी दूर करना इसलिये असम्भव लग रहा है क्योंकि अपने पर्यावरण एवं वनों की ठीक से व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं।
भारत के कुल भूभाग की गणना करें तो इसके 32,87,263 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में 7,01,673 वर्ग किमी में वन फैले हैं, जो 21.34 प्रतिशत हैं। इसमें 3,00,395 वर्ग किलोमीटर खुले जंगल के अन्तर्गत हैं जो कि वर्षों तक उपचार चाहते हैं। इसी प्रकार आदिवासी एवं जनजातीय 27 राज्यों के 189 जिलों के 11,11,705 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के अन्तर्गत 4,51,223 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र हैं जो कुल 40.59 प्रतिशत बैठता है। लेकिन इन वन क्षेत्र के अन्तर्गत 1,83,429 वर्ग किलोमीटर खुले छितरे वन हैं जिनको वर्षों तक उपचार की आवश्यकता है। ताकि इन क्षेत्रों में हरियाली पुनर्स्थापित हो।
विचारणीय यह है कि जो क्षेत्र एक सदी पहले तक वनों के कारण समृद्ध एवं स्वावलम्बी थे, अभी वन विनाश के कारण अत्यन्त निर्धनता वाले बन गए हैं। बताया गया है कि 75 प्रतिशत अत्यन्त निर्धन लोग देश के झारखण्ड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल क्षेत्र से हैं।
लोग और वनस्पति उपज
जंगलों एवं वानस्पतिक उपज के विनाश का सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों पर पड़ता है। इससे कई क्षेत्रों में तो वे इस प्रक्रिया के चलते बदहाली और कंगाली की स्थिति में पहुँच गए हैं। गाँव में काम करने वाले मित्रों एवं संस्थाओं तथा मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि हमारे देश में गरीबी दूर करना इसलिये कठिन है कि हम अपने जंगलों एवं वनस्पतियों का ठीक से प्रबन्ध नहीं कर पा रहे हैं। जंगल और वनस्पतियों के सन्तुलन के गड़बड़ाने से गरीबी और सघन होती नजर आती है। कारण साफ है, लेकिन हमारे नीति-नियन्ता स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं। बताया जाता है कि हमारे देश के एक लाख सत्तर हजार से अधिक गाँव जंगलों के बीच में या जंगलों के आस-पास हैं। इनकी अधिकांश आबादी जंगलों पर आधारित है और उनमें से अधिकांश की आर्थिकी वन उपज के साथ सीधी जुड़ी है। एक तरह से देखा जाये तो उनका सारा जीवन वानस्पतिक उपज पर आधारित है। अन्न, चारा, घास, जलावन, पत्ते, छिलके, मकान और पशुशाला के लिये लकड़ी-बल्लियाँ आदि, वनौषधि, जड़ी-बूटियाँ, कन्द-मूल, रेशा, फल, सूखे मेवे, साग-सब्जी, सभी वानस्पतिक उपज ही हैं।
जीवन का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण आधार पानी है। यह वनस्पति उपज नहीं है। परन्तु इसकी प्राप्ति भी आस-पास की वनस्पति के घनत्व पर निर्भर है। बारिश की बूँदें जब धरती पर आ धमकती हैं तो विनाशक भी हो सकती हैं और कल्याणकारी भी। किन्तु यह इस बात पर निर्भर है कि वहाँ वनस्पति का स्वरूप कैसा है? वहाँ की धरती में इनकी बूँदों को अपने में समाहित करने की शक्ति है?
यह इस बात पर निर्भर है कि वहाँ के लोग इस भूमि का प्रबन्धन कैसे करते हैं। इस प्रकार वन और सघन वनस्पति पानी के विशाल जीवित स्पंज हैं। वनों और वर्षा के उत्पादक सम्बन्धों की चर्चा करते समय इसमें कोई विवाद नहीं है कि वन स्वच्छ ताजे पानी की विश्वसनीय आपूर्ति उपलब्ध कराते हैं। न केवल पानी को छानते हैं और साफ करते हैं, मृदा क्षरण रोकने, जलाशयों में अवसादन घटाने और भूस्खलन और बाढ़ को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वनों के द्वारा भूजल-भण्डारों के पुनर्भरण में सहायता मिलती है।
हमारी अधिकांश नदियों को हिमनदों और भूजल भण्डारों से जल प्राप्त होता है। वन इन जल भण्डारों का पुनर्भरण करते हैं। इस प्रकार जंगल एक बार नष्ट हो जाता है तो ये भूजल भण्डार भर नहीं पाते जिससे स्रोत सूख जाते हैं। सदाबहार झरने मात्र बरसात के दिनों में प्रवाहित होते हैं। वानस्पतिक आवरण के नष्ट होने से पानी का सन्तुलन बुरी तरह गड़बड़ा जाता है।
हमारा देश मानसूनी वर्षा पर अवलम्बित है। बारिश में नियमितता और सन्तुलन नहीं है। मानसून के दिनों में इतना ज्यादा पानी बरस जाता है कि बाढ़ आने लगती है और गर्मी के मौसम में लोग पानी की बूँद-बूँद के लिये तरस जाते हैं।
वनों पर लोगों की खाद्य सुरक्षा भी निर्भर है। वन टिकाऊ, कृषि उत्पादन के लिये अनुकूलन परिस्थिति पैदा करते हैं। कृषि क्षेत्रों से जुड़े वनों से नमी एवं पोषक तत्व खेतों को मिलते हैं। इसलिये बसाहटें वहीं बसीं जहाँ न केवल जीवनयापन की आधारभूत सुविधाएँ – जल, जंगल, जमीन की तात्कालिक सुविधाएँ थीं, बल्कि उनके संरक्षण और विकास की व्यापक सम्भावनाएँ मौजूद थीं। इस प्रकार की बसाहटों के बहुमुखी लाभ थे।
जंगल न केवल ईंधन, चारे, जंगली फल-सब्जियाँ, इमारती और कृषि यंत्रों को लकड़ी उपलब्ध कराते हैं बल्कि मृदा और जलसंरक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। पत्तियों-टहनियों की खाद खेतों को प्राप्त होती है, जो जैविक उर्वरता बनाए रखने में मददगार सिद्ध होती है। उत्तराखण्ड, हिमाचल आदि राज्यों के कई गाँवों में जंगल खेतों से इस प्रकार जुड़े हुए देखे जा सकते हैं। वनों की निगरानी बहुत सावधानी से की जाती है। क्योंकि लोगों को मालूम है कि इससे खेतों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी।
वन और महिलाएँ
वनों के उजड़ने के कारण पहाड़ी और जनजातीय समुदायों की संस्कृति और आर्थिकी पर तो आघात पहुँचता ही है, क्योंकि वे पूरी तरह से वनोपज पर निर्भर हैं, लेकिन सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ता है। खासकर वे महिलाएँ जो गरीब हैं। इन क्षेत्रों में गृहस्थी के संचालन की मुख्य धुरी महिलाएँ ही हैं।
भारतीय परिवारों में परम्परा से कार्य-विभाजन का प्रचलन रहा है। इसमें ईंधन, चारा, पानी लाने के कार्य महिलाओं के जिम्मे हैं। जंगल नष्ट होता है, तो महिलाओं को जलावन, चारा और पानी जैसी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पहले से ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। बच्चों की देखभाल, खेतों में काम, पशुओं की देखभाल तो उनके जिम्मे है ही, पहाड़ी और आदिवासी इलाकों में तो 14 से 18 घंटे तक महिलाएँ काम में जुटी रहती हैं। सुबह से शाम तक उनका कार्य-चक्र एक-सा रहता है।
उत्तराखण्ड में कई महिलाओं और पुरुषों का नाम ‘बौणी देवी’ या ‘बौणा राम’ है। यह इसलिये कि उनका जन्म जंगल (बौण) में हुआ था। उनकी माँ घास के लिये जंगल गई थी, वहीं उनका जन्म हो गया, वन्य जीवों की भाँति। आज भी उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में घास या लकड़ी काटते हुए चट्टान से या पेड़ से गिरकर मौत होना आम बात है।
यह भी एक कारण है कि चिपको आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका अग्रणी रही। चमोली जिले के फूलों की घाटी के निचले भाग में स्थित भ्यूण्डार गाँव की महिलाओं को अपने मिश्रित वन को बचाने के लिये सन 1977 में चिपको आन्दोलन चलाना पड़ा। जबकि पेड़ काटने वाले मजदूर और ठेकेदार उनके मायके की तरफ के लोग ही थे।
इसी प्रकार सन 1980 में चमोली जिले के ही डुंग्री-पैंतोली के बांज के जंगल को बचाने के लिये महिलाओं को आन्दोलन करना पड़ा। उन्होंने जिला प्रशासन से सीधा सवाल किया कि जब जंगल का सारा कारोबार उन्हें करना पड़ता है, तो जंगल का सौदा करते हुए उन्हें क्यों नहीं पूछा जाता? उन्हें प्रशासन के अलावा अपने पुरुषों के खिलाफ आन्दोलन करना पड़ा। यह एक तरफ से कार्य के साथ अधिकार का भी सवाल था। इसी तरह बछेर में सूखे पेड़ की कटाई रोकने के लिये भी गाँव की महिलाओं को आगे आना पड़ा था। नौटी-नन्दासैण में बांज के जंगल का मुद्दा चीड़ की घुसपैठ रोकने में महिलाओं ने ही आन्दोलन के द्वारा हल किया।
महिलाओं के जंगलों के साथ जो अन्तरसम्बन्ध हैं, उन्हें चिपको आन्दोलन की मातृ संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल ने समझने का प्रयास किया। संस्था की पहल पर ही तीन दशक पूर्व पेड़ बचाने के साथ ही नंगे-वीरान इलाकों में पेड़ लगाने का काम लोक कार्यक्रम के रूप में शुरू हुआ जो आज भी जारी है।
संस्था ने पर्यावरण संवर्धन शिविरों का आयोजन किया। इन शिविरों में वानिकी के प्रति लोगों को जागरूक और संगठित किया। उन्हें पौधे एवं घेरबाड़ हेतु सहायता देकर बहुद्देशीय वनीकरण के लिये प्रेरित किया। गाँवों के आस-पास खाली पड़ी जमीन पर स्थानीय उपयोग के वृक्षों और घासों का रोपण एवं संरक्षण करके सबसे पहले लोगों की घास-चारा और लकड़ी की समस्या का समाधान करने की कोशिश की गई। इसमें महिलाओं ने ज्यादा रुचि ली। क्योंकि उन्हें लगा कि इससे उनकी कठिनाई कुछ कम हो सकती है।
इसके साथ ही उनकी आर्थिकी सुधारने के लिये कृषि-वानिकी के विचार का प्रसार किया गया। इसमें उन्नत कृषि, बागवानी, कृषि सुरक्षा का मिला-जुला कार्यक्रम शामिल था। इस कार्यक्रम को लोगों को प्रेरित कर उन्हीं के द्वारा तैयार कराया गया। इसलिये लोगों ने महसूस किया कि यह उनका कार्यक्रम है। इसकी सफलता उनके हितों के साथ जुड़ी है। गाँव में महिला मंगल दलों का गठन किया गया तथा उनके माध्यम से ये कार्यक्रम आगे बढ़ाए गए।
गाँव की बेकार पड़ी जमीन पर, जो लगातार क्षरित हो रही थी, वन उगाने तथा उसका लाभ स्वयं लेने से मिल रही सुविधाओं से ग्रामीण महिलाएँ ज्यादा उत्साहित थीं। दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल का मूल विचार यह था कि जब लोगों को अपने समीप ही जरूरत भर की घास-लकड़ी मिल जाएगी तो उन्हें दूसरे जंगलों में नहीं जाना पड़ेगा। इससे जहाँ एक ओर जंगलों पर लगातार बढ़ रहा बोझ घटेगा, वहीं महिलाओं के त्रास भी कम होंगे।
हमारा अनुभव है कि महिलाएँ इस काम में लगन से जुटती हैं और पुरुष जो भी अड़चन डालते हैं, उनका डटकर मुकाबला करती हैं। कार्य को मंजिल तक पहुँचाती हैं। इसके फलस्वरूप वनीकरण के बाद ज्यादा-से-ज्यादा पेड़ उसी क्षेत्र में जीवित रहते हैं, जहाँ महिलाओं ने कार्य की जिम्मेदारी उठाई है। हमारे अनुभव हैं कि पेड़ों का चयन करने में जहाँ महिलाएँ घास-चारा, जलावन और दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले पेड़ों को प्राथमिकता देती हैं, वहीं पुरुष नकद आय दिलाने वाले पेड़ लगाने को प्राथमिकता देते हैं। इसलिये वनों की सुरक्षा की दृष्टि से सामाजिक स्थिति से उपयोगी और सन्तुलन बनाने वाला तबका महिलाओं का ही है।
जंगलों के विनाश के परिणामों को यदि देखें तो पता चलेगा कि इसका तुरन्त और रोजमर्रा की जन्दगी पर असर जिन लोगों पर पड़ा है, वे हैं पर्वतीय आदिवासी गाँवों के कारीगर, घुमन्तू लोग और भूमिहीन किसान। इन परिवारों की महिलाओं का वनों की कमी के कारण केवल जीवन-स्तर ही प्रभावित होकर नहीं रह जाता, बल्कि उनके सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक मूल्य प्रभावित होते हैं और उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है।
आज तो पर्यावरण और वनों के संरक्षण की बात हो रही है। वनों के बिगाड़ और विकास के किस्से अखबार वाले प्रमुखता से छापते हैं। आये दिन वनों के अच्छे प्रबन्धन के बारे में सम्पादकीय लेखों में माँग की जाती है। सरकारों के बयानों में वनों की सुरक्षा के बारे में बराबर जोर दिया जा रहा है। वनों के संवर्धन और सुरक्षा के बारे में सरकारी कार्यक्रम बने हैं और बन रहे हैं। जंगलों को सुरक्षित रखने के कई नए कानून भी बने हैं। इधर के वर्षों में न्यायालय भी वनों की सुरक्षा के प्रति सक्रिय एवं चिन्तित दिखाई देता है।
लेकिन इन सारी चिन्ताओं में एक बड़ी कमी है कि विकास कार्यों और वनों के आपसी सम्बन्ध को पूरी तरह ध्यान में रखकर योजनाएँ नहीं बन रही हैं। जो कार्यक्रम बन भी रहे हैं, वे तदर्थ किस्म के लगते हैं। हमारे वन विकास तंत्र में इस सोच एवं प्रक्रिया को बदलने की कोशिश कहीं नहीं है कि लोगों को वनों से इस प्रकार जोड़ा जाये कि वनों के विकास में उनकी स्वतः स्फूर्त भागीदारी हो और वनों से उनकी वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति हो। वनों से रोजगार के अवसरों में समुचित वृद्धि हो जिससे गरीबी निवारण हो सकें एवं वनों के संरक्षण-संवर्धन के बीच सन्तुलन हो तथा भूमि, जल और वनों की उत्पादन क्षमता माँग के अनुरूप बढ़ सके।
वनों के उत्पादन में सुधार एवं वन क्षेत्र के लोगों का वानिकी से सीधा सम्बन्ध
आज देश के सामने वनों के पुनर्जीवन से बढ़कर दूसरा कोई महत्त्वपूर्ण काम नहीं है। जब हम लोगों और उनके पर्यावरण एवं वनों के बीच अच्छे सम्बन्ध कायम कर सकेंगे, तभी जंगलों की पुनर्स्थापना हो सकेगी। आज एक लाख सत्तर हजार के करीब गाँव ऐसे हैं जो वनों के बीच या वनों पर अवलम्बित हैं। इन ग्रामों में करोड़ों लोग वास करते हैं। उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत वन उपज ही है। उनकी गरीबी-समृद्धि वनों पर निर्भर है।
इनमें से देश के 75 प्रतिशत अत्यन्त गरीब हैं जो देश के मध्य भाग में स्थित आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा में हैं। इन राज्यों में आदिवासियों की आबादी करीब पाँच करोड़ है। हजारों वर्ग किलोमीटर में छितरे वन हैं। इनमें उत्पादकता बढ़ाने की नितान्त आवश्यकता है। इस प्रकार के वनों की पुनर्स्थापना करोड़ों आदिवासियों, वनवासियों के अस्तित्व का आधार बन सकती है। इन्हें करोड़ों रुपए कमाने का साधन बनने से बचाना होगा। इसलिये हमारे लिये एक ही प्रमुख काम है कि अपने जंगलों को समृद्ध करें और उन्हें वहाँ के निवासियों की आजीविका से जोड़ें। तभी गरीबी और बेरोजगारी की समस्या का हल निकल सकेगा।
हमारे पास करोड़ों वर्ग हेक्टेयर भूमि वीरान पड़ी है। जंगलों के अन्तर्गत 3,00,395 वर्ग किमी भूमि में छितरे वन हैं। इसमें से आदिवासी जिलों में ही 1,83,429 वर्ग किमी क्षेत्र खुले वन के अन्तर्गत आता है। दूसरी ओर वनस्पति उपज के उत्पादन की इतनी ज्यादा जरूरत है कि देश की मानव शक्ति को भूमि की शक्ति की ओर मोड़कर पर्यावरण संवर्धन, गरीबी और बेरोजगारी तीनों को एक साथ किया जा सकता है। जितना ज्यादा वनोपज का उत्पादन होगा, उतने ही की खपत हो जाएगी और इससे गरीबों को प्रत्यक्ष रोजगार और आय प्राप्त होगी। इससे भूक्षरण, भूस्खलन नदियों द्वारा धारा-परिवर्तन, बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं की समस्याएँ भी कम होंगी।
यदि हम कुल प्राकृतिक उत्पादन के विचार को स्वीकारते हैं तो हम देखेंगे कि यह गरीबों के लिये कुल राष्ट्रीय उत्पादन से कहीं ज्यादा लाभकारी और महत्त्वपूर्ण होगा। वर्तमान में कुल राष्ट्रीय उत्पादन, जो औसत के आधार पर बड़े-बड़े पूँजीपतियों की औसत आय के साथ जोड़कर दिखाया जाता है, उसमें गरीब तो कहीं ठहर नहीं पाता। वे तो कुल प्राकृतिक संसाधनों पर अवलम्बित हैं जो दिनोंदिन दुर्लभ होते जा रहे हैं।
गाँवों में गृहस्थी को चलाने के लिये जो न्यूनतम आवश्यकताएँ हैं, उनकी पूर्ति के लिये वन उपजों की विविधता जरूरी है। हर गाँव की सीमा में वे सब वस्तुएँ उपलब्ध हों, जो हर गरीब परिवार की आवश्यकता है। जैसे जलावन, चारा-पत्ती, मकान बनाने का सामान, शिल्पकारों के लिये औजार एवं रिंगाल-वाबड़ आदि घास।
हमारे यहाँ पहले यह बात मन में बैठी थी कि बड़े-बड़े सूखा और अकाल में भी यहाँ के जंगलों में इतनी क्षमता है कि वहाँ से प्राप्त वनोपज से लोग छह माह तक भरण-पोषण कर सकते हैं। जंगलों के बीच में या उसके आस-पास के अधिकांश गाँवों में हम पहले देखते थे कि वहाँ पेड़-पौधे, घास-चारा, पशु, पानी का प्रबन्ध आदि सब मौजूद है। यह ऐसा प्रबन्ध था जो गाँवों को संकट से बचा लेता था। आज इस व्यवस्था को गड़बड़ा देने की बजाय हमें इसका पुनरुद्धार करना होगा। इसके लिये नए सिरे से शुरुआत करनी होगी।
हर गाँव में ऐसी ही समन्वित व्यवस्था बनानी होगी जहाँ वनोपज के समृद्ध भण्डार हों। ग्राम वन की हमारी कल्पना यह है कि देश के प्रत्येक गाँव का अपना वन हो, जिसके लिये राजस्व भूमि और ऐसी भूमि जहाँ उपलब्ध न हो, वहाँ आरक्षित वनों से भी भूमि लेकर ग्राम वन बनाए जाने चाहिए। उसके संचालन के लिये वन पंचायत गठित की जानी चाहिए। ग्राम का अभिप्राय ऐसी बसाहट (बस्ती) से है, जिसमें लोग ग्रामीण इकाई के रूप में निवास करते हैं तथा ग्राम समुदाय संलग्न ग्राम वन से अपनी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। वे भूमि, वन, जल जैसे आधारभूत संसाधनों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हों। उनकी आजीविका का बड़ा भाग इन्हीं आधारभूत संसाधनों पर निर्भर हो। वे उस ग्राम में कृषि, पशुपालन, परम्परागत ग्रामोद्योगों में संलग्न हों और परम्परागत रूप से अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हों।
ग्राम वन बनाने और उसे विकसित करने के लिये आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व हो। उनके संचालन के लिये वन पंचायत हो। वन पंचायत को ग्राम वन के विकास, विस्तार, उपयोग, लाभ, वितरण आदि की योजनाएँ बनाने तथा उन्हें क्रियान्वित करने के समुचित अधिकार हों। सरकारी तंत्र केवल तकनीकी, मार्गदर्शन, संसाधन उपलब्ध कराने और उनकी क्षमता का विकास करने तक सीमित रहे। ग्राम वन से ग्राम समुदाय अपनी आजीविका हेतु आवश्यक वनोपज तैयार करेगा और उनका समतापूर्ण वितरण एवं सदुपयोग करेगा।
ग्राम वन के विकास एवं उपयोग का सर्वाधिकार वन पंचायत को हो जो उस ग्राम के सभी वयस्क ग्रामवासियों से मिलकर गठित हो। जिसमें ग्राम की वयस्क जनसंख्या का आनुपातिक प्रतिनिधित्व हो। उसमें महिलाओं, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़े वर्गों को उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
वन पंचायत में वही व्यक्ति सदस्य हो जिसका कार्य क्षेत्र उस ग्राम की सीमा के अन्तर्गत हो और जो ग्रामीण कार्यों जैसे कृषि, पशुपालन, ग्रामोद्योग, वन कर्म से ही प्रमुख रूप से अपनी जीविका चलाता हो तथा वनों के प्रबन्धन में अपनी भूमिका निभा रहा हो। यह प्रावधान अनिवार्य रूप से हो कि जैसे ही उसका कार्य क्षेत्र अथवा ग्रामीण कार्यों से उसकी संलग्नता समाप्त हो, उसकी वन पंचायत सदस्यता स्वतः ही समाप्त हो जाये, वनों का सीमांकन उच्च प्राथमिकता से हो और इसके लिये एक समयबद्ध कार्यक्रम तय किया जाये। गाँवों के समीपवर्ती वनों को उनकी सम्बद्धता और न्यूनतम आवश्यकता सम्बन्धी मानक निर्धारित करते हुए ग्राम वनों में परिवर्तित किया जाये। ग्राम वनों के बाहर अवशेष वन सरकारी वन हो सकते हैं।
वर्तमान अव्यवस्थित और मानकों के परे गठित ग्राम वनों का भी सीमांकन हो। अवशेष वन सरकारी वन हो सकते हैं।
ग्राम समुदायों के परम्परागत वनाधिकारों को वनों की वहनीय क्षमता तथा ग्राम समुदायों की न्यूनतम अनिवार्य आवश्यकताओं के अनुरूप पुनर्निर्धारित किया जाये। आदिवासियों की झूमखेती जैसी परम्पराओं को यथा शक्य संरक्षण देते हुए ऐसे कार्यक्रम बनाए जाएँ जिनसे उनको वनों की उत्पादकता बढ़ाने में लगाया जा सके।
वनों को ग्राम समुदायों की आर्थिकी एवं जीवनयापन के आवश्यक साधनों जैसे चारा, ईंधन, ग्रामोद्योग हेतु काष्ठ एवं वन्य पदार्थों के एकत्रीकरण जैसे परम्परागत उपयोगों से आगे बढ़ाकर कच्चा माल, वनौषधियों जैसी बाजारी माँगों के सन्दर्भ में देखा जाना जरूरी है। इसके अनुरूप कार्य योजनाएँ ग्राम समुदायों से लोक कार्यक्रम के रूप में बनवाकर क्रियान्वयन हो तो उसके अधिक सकारात्मक परिणाम निकल सकते हैं।
वनों के बंजर भूखण्डों, बंजर, कृषि योग्य बंजर भूमि, जिसका उपयोग कृषि के लिये नहीं हो पा रहा है, सड़कों, रेल पटरियों, नहरों आदि के किनारे पड़ी भूमि को वन पंचायतों, ग्राम समुदायों, ग्रामीणों के ग्राम स्तरीय संगठनों अथवा व्यक्तिगत कृषकों को केवल कृषि-वानिकी कार्यों के लिये दिया जाये। वानिकी, कृषि-वानिकी एवं कच्चा माल उत्पादन की कार्य योजनाएँ बनाकर उनके सफल क्रियान्वयन के लिये बीज, पौध, तकनीकी मार्गदर्शन तथा वित्तीय सहायता तथा उत्पादों के संग्रहण, वर्गीकरण, विपणन, प्रसंस्करण का मजबूत तंत्र विकसित कर उचित मूल्य उपलब्ध कराने की गारंटी दी जाये।
इसके लिये वन प्रबन्धन में मौलिक बदलाव लाते हुए वनाधिकारियों का चिन्तन एवं दृष्टिकोण बदला जाना चाहिए। ग्राम समुदायों के प्रति यह दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है कि वे वनों के हितैषी और संवर्धक हैं। क्योंकि वन उनके अस्तित्व का आधार हैं और ग्राम समुदायों ने अपने विवेक से वनों का अनेक प्रकार से संरक्षण और संवर्धन किया है। देश के प्रायः सभी भागों में समृद्ध ग्राम वन एवं देववन, ओरण आदि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
भारत में पंचायत राज व्यवस्था की समृद्ध परम्परा है। पिछले दशकों से ग्राम वनों की उपलब्धियाँ इसका जीवन्त प्रमाण हैं। पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देकर इस देश की संसद ने पंचायत परम्परा की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया है। लेकिन वन पंचायतों और अन्य ग्रामीण संगठनों को इन पंचायतों में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। ग्राम पंचायतों का आकार भी बड़ा है। वे कई गाँव से मिलकर गठित होती हैं। इन छोटे-छोटे गाँवों के वन, जलस्रोत और खेती की अपनी विशिष्टताएँ हैं। अतः प्रत्येक गाँव अथवा बसाहट की अपनी परम्परा के अनुरूप वन तथा उसके प्रबन्धन के लिये वन पंचायत हो और वह पदेन गाँव पंचायत का सदस्य हो। गाँव पंचायत, वन पंचायत के कार्यों में हस्तक्षेप न करें। वन पंचायत की अपनी पृथक पहचान और अधिकारिकता हो, ऐसी व्यवस्था पंचायत राज कानून में की जानी आवश्यक है।
ग्राम वन समितियों के ब्लॉक, जिला, राज्य एवं केन्द्र स्तरीय संघ गठित किये जाएँ जिनकी नियमित बैठकें एवं विचार-विनिमय हो। इस प्रकार हर गाँव के अपने वन बनाए जाएँगे, तो गाँव-गाँव में प्राकृतिक सम्पदा का उत्पादन बढ़ेगा। अभी तक कुल राष्ट्रीय उत्पादन तो बढ़ा है लेकिन कुल प्राकृतिक उत्पादन घटा है। इस तरफ तो ध्यान ही नहीं है। यह इससे भी परिलक्षित होता है कि वन संसाधनों को बढ़ाने के लिये जो व्यय राज्य और केन्द्र सरकार करती है, वह मात्र एक प्रतिशत के आस-पास है।
इसलिये भारत की गरीबी एवं जलवायु परिवर्तन की ज्वलन्त समस्या का समाधान यही है कि गाँवों और उसके आस-पास जो हरियाली एवं वनोपज उपलब्ध है, उसको बढ़ाएँ और उसका लाभ सबको समान रूप से मिले, ऐसा प्रबन्ध करें। अपने देश को सघन हरियाली से ढँकना वास्तविक हरित क्रान्ति है। इसे आगे बढ़ाने के लिये योजनाकारों, अर्थ शास्त्रियों, वन विशेषज्ञों और वन व्यवस्थापकों को मिल-जुलकर प्रयास और चिन्तन करना होगा। इस प्रकार वनों पर आधारित एक समग्र विकास सम्बन्धी नीति और कार्यक्रम तैयार करना बहुत जरूरी है।
अगर हम गाँवों में बड़े पैमाने पर रोजगार और समानता पैदा करने में असफल होते हैं तो गाँव ही नहीं, शहर भी बर्बाद होंगे। गाँव छोड़कर जो लोग शहरों में जाते हैं, उनमें ज्यादातर लोग सचमुच में रोजगार के लिये जाते हैं और यह संख्या बाँध, खान, वन विनाश, बाढ़, सूखा आदि पर्यावरणी बिगाड़ से संत्रस्त हो, विस्थापित होने वालों से कहीं अधिक है। वनों को समृद्ध और समर्थ बनाकर करोड़ों लोगों को सम्मानजनक और स्वावलम्बन आधारित रोजगार उपलब्ध कराना कठिन कार्य तो जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं। इसके लिये निर्णयकारी साहस से परिपूर्ण दृष्टि और राजनीतिक दृढ़ता, इच्छाशक्ति और प्रबन्धन कौशल चाहिए।
सन्दर्भ
1. भट्ट चण्डी प्रसाद- पहाड़ी – रमेश – प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण एवं विकास के कुछ मौलिक बिन्दु-अप्रकाशित
2. गाडगिल माधव – गुहा रामचन्द्र – हालत-ए-हिन्दुस्तान – पहाड़ परिक्रमा नैनीताल
3. स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट – 2015, फॉरेस्ट ऑफ सर्वे ऑफ इण्डिया – पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार, देहरादून
4. नेशनल फॉरेस्ट कमीशन रिपोर्ट – 2006, भारत सरकार, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, नई दिल्ली
5. भट्ट चण्डी प्रसाद – पर्वत-पर्वत बस्ती-बस्ती – एक सम्मान