भूकंप
22 Sep 2013
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लगभग प्रत्येक व्यक्ति को पृथ्वी के कांपने संबंधी विपदा का अक्षरशः अनुभव होगा। लेकिन प्रत्येक बार जब भूकंप आता है तो हमारे मस्तिष्क में अनेक सवाल उठते हैं। भूकंप क्यों आता है? क्या भूकंप की भविष्यवाणी की जा सकती है? क्यों भूकंप कुछ क्षेत्रों में ही आते हैं? भूकंपों की तीव्रता में परिवर्तन क्यों होता है? क्यों कुछ भूकंपों के दौरान हल्का कंपन होता है? और क्यों कुछ भूकंपों से भारी उथल-पुथल होती है? किस प्रकार भूकंप से होने वाली क्षति को न्यूनतम किया जा सकता है? क्या इमारतों को गिरने से रोका जा सकता है? पिछला भूकंप कब आया था? अगला भूकंप कब और कहां आएगा?

“अभी तक वैज्ञानिक इस बात को भली-भांति नहीं समझ सके हैं कि हमारे ग्रह की आरंभिक अवस्था को अनावृत करने के लिए भूविज्ञान की सभी शाखाओं को प्रमाण उपलब्ध कराने में योगदान देना चाहिए और इस विषय की सच्चाई को केवल इन सभी प्रमाणों को मिलाकर ही समझा जा सकता है। हम यहां सत्य का निर्धारण भूविज्ञान संबंधी शाखाओं को खंगाल कर ही कर सकते हैं। कहने का आशय यह है कि हमें ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करना है, जिसमें सभी ज्ञात तथ्य उचित रूप से व्यवस्थित हों और वह संभाव्यता की अधिकतम सीमा को अभिव्यक्त करते हों। इसके अलावा हमें इस संभावना के लिए भी हमेशा तैयार रहना चाहिए कि हर नई खोज, चाहे उसका परिणाम जो भी हो, हमारे पूर्व निष्कर्षों को भी बदल सकती है।”

‘दि ओरिजिन्स ऑफ कांटिनेंट्स एंड ओशंस’ में अल्फ्रेड लोथर वैगनर (शन् 1929)
पृथ्वी के भूपटल में उत्पन्न तनाव का, उसकी सतह पर अचानक मुक्त होने के कारण पृथ्वी की सतह का हिलना या कांपना, भूकंप कहलाता है। भूकंप प्राकृतिक आपदाओं में से सबसे विनाशकारी विपदा है जिससे मानवीय जीवन की हानि हो सकती है। आमतौर पर भूकंप का प्रभाव अत्यंत विस्तृत क्षेत्र में होता है। भूकंप, व्यक्तियों को घायल करने और उनकी मौत का कारण बनने के साथ ही व्यापक स्तर पर तबाही का कारण बनता है। इस तबाही के अचानक और तीव्र गति से होने के कारण जनमानस को इससे बचाव का समय नहीं मिल पाता है।

बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों के दौरान पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर 26 बड़े भूकंप आए, जिससे वैश्विक स्तर पर करीब डेढ़ लाख लोगों की असमय मौत हुई। यह दुर्भाग्य ही है कि भूकंप का परिणाम अत्यंत व्यापक होने के बावजूद अभी तक इसके बारे में सही-सही भविष्यवाणी करने में सफलता नहीं मिली है। इसी कारण से इस आपदा की संभावित प्रतिक्रिया के अनुसार ही कुछ कदम उठाए जाते हैं।

विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत भूकंप का अध्ययन किया जाता है, भूकंप विज्ञान (सिस्मोलॉजी) कहलाती है और भूकंप विज्ञान का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को भूकंपविज्ञानी कहते हैं। अंग्रेजी शब्द ‘सिस्मोलॉजी’ में ‘सिस्मो’ उपसर्ग ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ भूकंप है। भूकंपविज्ञानी भूकंप के परिमाण को आधार मानकर उसकी व्यापकता को मापते हैं। भूकंप के परिमाण को मापने की अनेक विधियां हैं।

लगभग प्रत्येक व्यक्ति को पृथ्वी के कांपने संबंधी विपदा का अक्षरशः अनुभव होगा। लेकिन प्रत्येक बार जब भूकंप आता है तो हमारे मस्तिष्क में अनेक सवाल उठते हैं। भूकंप क्यों आता है? क्या भूकंप की भविष्यवाणी की जा सकती है? क्यों भूकंप कुछ क्षेत्रों में ही आते हैं? भूकंपों की तीव्रता में परिवर्तन क्यों होता है? क्यों कुछ भूकंपों के दौरान हल्का कंपन होता है? और क्यों कुछ भूकंपों से भारी उथल-पुथल होती है? किस प्रकार भूकंप से होने वाली क्षति को न्यूनतम किया जा सकता है? क्या इमारतों को गिरने से रोका जा सकता है? पिछला भूकंप कब आया था? अगला भूकंप कब और कहां आएगा? समाचार पत्रों में दिए गए किसी भूकंपों के केंद्र या अधिकेंद्र से हमारा क्या आशय है? यद्यपि वैज्ञानिकों ने भूकंप की पूरी प्रक्रिया को समझ लिया है और उन्होंने वैश्विक स्तर पर भूकंप की पुनरावृत्ति की व्याख्या करने की एक पद्धति विकसित की है। इस प्रकार अनेक गतिविधियों से वैज्ञानिक समुदाय भूकंप के कारण और उसके स्वरूप को जानने का प्रयास कर रहे हैं।

भूकंप के भयानक और विनाशकारी परिणामों के कारण यह परिघटना अनेक काल्पनिक कथाओं और मिथकों का विषय बनी हुई है। प्राचीन काल से ही विभिन्न सभ्यताओं ने धरती के हिलने या कांपने को समझने के लिए विभिन्न काल्पनिक कथाओं से कई मिथकों का सहारा लिया है।

भूकंपों से संबंधित पौराणिक कथाएं, किंवदंती और धारणाएं


प्राचीन भारत में ऐसा माना जाता था कि पृथ्वी एक कछुए की पीठ पर खड़े चार हाथियों पर टिकी है और यह कछुआ भी एक सांप के फन पर संतुलन बनाए खड़ा है। जब इनमें से कोई जानवर हिलता है तब धरती के कंपित होने के कारण भूकंप आता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार पृथ्वी आठ हाथियों के सिरों पर टिकी है और जब इनमें से कोई एक थक कर अपना सिर हिलाता है तब भूकंप आता है।

नार्स या स्केडिनेवियन की प्रौराणिक कथा के अनुसार भूकंप कलह और बुराई के देवता ‘लोकी’ के प्रचंड संघर्ष के कारण आता है। लोकी को सुंदरता और प्रकाश के देवता ‘बालडर’ को मारने के कारण दंडित किया जाता है। लोकी को कसकर बांध कर एक जहरीले सर्प के साथ एक गुफा के अंदर कैद कर दिया जाता है। जहरीला सर्प लोकी के सिर पर जहर छोड़ता रहता है। लोकी के पास उसकी पत्नी ‘सिग्याम’ सर्प के जहर को झेलने के लिए एक प्याला लिए खड़ी होती है जिससे लोकी के चेहरे पर जहर न टपके। सर्प के जहर से प्याले के भर जाने पर जब सिग्याम प्याला खाली करने के लिए हटती है तब लोकी के चेहरे पर जहर के टपकने से वह झटके से अपना सिरा हिलाता है और जहर से बचने का प्रयास करने के साथ छटपटाता भी है। लोकी के ऐसा करने के कारण धरती के कांपने से भूकंप आता है।

ग्रीक की पौराणिक कथा के अनुसार जब धरती पर कुछ बुरा घटता है तब देवता जीयस दंड के रूप में बिजली उत्पन्न करते हैं, जिससे धरती के कंपित होने से भूकंप की उत्पत्ति होती है।

एक जापानी किंवदंती के अनुसार भूकंप के लिए धरती के अंदर रहने वाली मांजू नामक विशाल कैटफिश (अशल्क मीन) जिम्मेदार हैं।

350 ईसा पूर्व ग्रीक विचारक अरस्तू (384 ईसा पूर्व से 322 ईसा पूर्व) ने भूकंप के संबंध में यह विचार प्रस्तुत किया था भूमिगत गुफाओं में हवाओं के बहने के कारण भूकंप आता है। ओविड नामक रोमन कवि (43 ईसा पूर्व से 17 ईसवी) के अनुसार पृथ्वी का सूर्य के अत्यंत समीप आना भूकंप का कारण है। इस स्थिति में सूर्य की विस्मयी विकिरणों के कारण धरती कांप उठती है।

अब हम जानते हैं कि भूकंप मानवीय प्रभाव या उनके नियंत्रण से मुक्त विश्वव्यापी विवर्तनिक प्लेटों का परिणाम है। हम भूकंप को रोक तो नहीं सकते, लेकिन हम इस विपदा को पहचान कर सुरक्षित संरचना वाली इमारतों का निर्माण करने के साथ जनमानस में भूकंप से सुरक्षा की शिक्षा का प्रसार कर इसके विनाशकारी प्रभावों में काफी हद तक कमी कर सकते हैं। चलिए भूकंप क्या है इस प्रश्न से शुरुआत की जाए।

भूकंप क्या है?


भूकंप को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि “पृथ्वी के भूपटल में उत्पन्न तनाव के आकस्मिक मुक्त होने से धरती की सतह के हिलने की घटना भूकंप कहलाती है”। इस तनाव के कारण हल्का सा कंपन उत्पन्न होने पर पृथ्वी में व्यापक स्तर पर उथल-पुथल विस्तृत क्षेत्र में तबाही का कारण बन सकती है।

जस बिंदु पर भूकंप उत्पन्न होता है उसे भूकंपी केंद्रबिंदु और उसके ठीक ऊपर पृथ्वी की सतह पर स्थित बिंदु को अधिकेंद्र अथवा अंतःकेंद्र के नाम से जाना जाता है। अधिकेंद्र की स्थिति को उस स्थान के अक्षांशों और देशांतरों के द्वारा व्यक्त किया जाता है।

भूकंप के समय एक हल्का सा झटका महसूस होता है। फिर कुछ अंतराल के बाद एक लहरदार या झटकेदार कंपन महसूस होता है, जो पहले झटके से अधिक प्रबल होता है। छोटे भूकंपों के दौरान भूमि कुछ सेकंड तक कांपती है, लेकिन बड़े भूकंपों में यह अवधि एक मिनट से भी अधिक हो सकती है। सन् 1964 में अलास्का में आए भूकंप के दौरान धरती लगभग तीन मिनट तक कंपित होती रही थी।

भूकंप के कारण धरती के कांपने की अवधि विभिन्न कारणों जैसे अधिकेंद्र से दूरी, मिट्टी की स्थिति, इमारतों की ऊंचाई और उनके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री पर निर्भर करती है।

कितनी जल्दी आते हैं भूकंप?


भूकंप एक सामान्य घटना है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में लगभग प्रत्येक 87 सेकंड में कहीं न कहीं धरती हल्के से कांपती है। इन झटकों को महसूस तो किया जा सकता है लेकिन ये इतने शक्तिशाली नहीं होते कि इनसे किसी प्रकार की क्षति हो सके। प्रति वर्ष धरती पर औसतन 800 भूकंप ऐसे आते हैं जिनसे कोई नुकसान नहीं होता है। इनके अतिरिक्त धरती पर प्रति वर्ष 18 बड़े भूकंप आने के साथ एक अतितीव्र भूकंप भी आता है।

बिरले ही भूकंप की घटना थोड़े ही समय अंतराल के दौरान भूकंपों के विभिन्न समूह रूप में हो सकती है। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यू मैड्रिड में सात सप्ताह (16 दिसंबर 1811, 7 फरवरी और 23 फरवरी 1812) के दौरान भूकंप की तीन तीव्र घटनाएँ घटित हुई थी। इसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया के टेनेट क्रीक में 22 जनवरी, 1988 को 12 घंटे की अवधि के दौरान भूकंप की तीन तीव्र घटनाएँ घटित हुई थीं।

किसी बड़े भूकंप से पहले अथवा बाद में विभिन्न तीव्रता के कंपन उत्पन्न होते हैं। भूकंपविज्ञानियों ने इस परिघटना की व्याख्या करने के लिए अग्रलिखित तीन शब्दों का उपयोग किया है:

1. पूर्ववर्ती आघात,
2. मुख्य आघात, और
3. पश्चवर्ती आघात।

किसी भी भूकंप समूह के सबसे बड़े भूकंप को, जिसका परिमाण सर्वाधिक हो, मुख्य आघात कहते हैं। मुख्य आघात से पहले के कंपन को पूर्ववर्ती आघात और मुख्य आघात के बाद आने वाले कंपनों को पश्चवर्ती आघात कहा जाता है।

भूकंप के प्रकार


भूकंप को मुख्यतः दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है :-
1. प्राकृतिक कारणों से आने वाले भूकंप, और
2. मानव गतिविधियों से भूकंप।

प्राकृतिक कारणों से आने वाले भूकंप


प्राकृतिक रूप से आने वाले भूकंप विवर्तनिक भूकंप भी कहलाते हैं क्योंकि ये पृथ्वी के विवर्तनिक गुण से संबंधित होते हैं। प्राकृतिक रूप से आने वाले अधिकतर भूकंप भ्रंश (फाल्ट) के साथ आते हैं। भ्रंश भूपटल में हलचल के कारण उत्पन्न होने वाली दरार या टूटन है। ये भ्रंश कुछ मिलीमीटर से कई हजार किलोमीटर तक लंबे हो सकते हैं। भूविज्ञान कालक्रम के दौरान अधिकतर भ्रंश दोहरे विस्थापनों का निर्माण करते हैं।

मानवीय गतिविधियाँ भी भूकंप को प्रेरित कर सकती हैं। गहरे कुओं से तेल निकालना, गहरे कुओं में अपशिष्ट पदार्थ या कोई तरल भरना अथवा निकालना, जल की विशाल मात्रा को रखने वाले विशाल बांधों का निर्माण करना और नाभिकीय विस्फोट जैसी विनाशकारी घटना के समान गतिविधियाँ मानव प्रेरित भूकंप का कारण हो सकती हैं।यदि भ्रंश लम्बवत होता है तब भ्रंश को सामान्य भ्रंश कहा जाता है जहां प्रत्येक तरफ की चट्टानें एक-दूसरे से विपरीत गति करती हैं। विलोम भ्रंश में एक किनारा दूसरे किनारे पर चढ़ जाता है। निम्न कोण का विलोम भ्रंश, क्षेप (थ्रस्ट) कहलाता है। दोनों किनारों में एक-दूसरे के सापेक्ष गति होने पर पार्श्वीय भ्रंश या चीर भ्रंश का निर्माण होता है।

विवर्तनिक भूकंप को पुनः दो उपभागों आंतरिक प्लेट भूकंप और अंतर प्लेट भूकंप में वर्गीकृत किया गया है। जब कोई भूकंप विवर्तनिक प्लेट की सीमा के साथ होता है तो उसे आंतरिक प्लेट भूकंप कहते हैं। अधिकतर विवर्तनिक भूकंप प्रायः इसी श्रेणी के होते हैं। अंतर प्लेट भूकंप प्लेट के अंदर और प्लेट सीमा से दूर आते हैं।

भूकंप, महाद्वीप के स्थायी महाद्वीप क्षेत्र कहलाने वाले पुराने और अधिक स्थायी भाग में भी आते रहते हैं।

ज्वालामुखी के मैग्मा में होने वाली हलचल भी प्राकृतिक रूप से आने वाले भूकंपों का कारण हो सकती है। इस प्रकार के भूकंप ज्वालामुखी विस्फोट की अग्रिम चेतावनी देने वाले होते हैं।

मानव गतिविधियों से प्रेरित भूकंप


मानवीय गतिविधियाँ भी भूकंप को प्रेरित कर सकती हैं। गहरे कुओं से तेल निकालना, गहरे कुओं में अपशिष्ट पदार्थ या कोई तरल भरना अथवा निकालना, जल की विशाल मात्रा को रखने वाले विशाल बांधों का निर्माण करना और नाभिकीय विस्फोट जैसी विनाशकारी घटना के समान गतिविधियाँ मानव प्रेरित भूकंप का कारण हो सकती हैं।

कृत्रिम जलाशय के कारण आने वाले बड़े भूकंपों में से एक भूकंप सन् 1967 में महाराष्ट्र के कोयना क्षेत्र में आया था। भूकंप का कारण बनी एक और कुख्यात मानवीय गतिविधि संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलरेडो स्थित राकी माउटेंन पर डेनवेर क्षेत्र में तरल पदार्थ को गहरे कुओं में प्रवेश कराए जाने से संबंधित रही है।

भूकंप कैसे पैदा होते हैं?


प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी की बाहरी पर्त या भूपटल की बनावट बड़ी और छोटी कठोर प्लेटों से बनी चौखटी आरी (जिग्सॉ) जैसी होती है। इन प्लेटों की मोटाई सैकड़ों किलोमीटर तक हो सकती है। संभवतः प्रावार के नीचे संवहन धाराओं के प्रभाव से ये प्लेटें एक-दूसरे के सापेक्ष गति करती हैं। पृथ्वी को अनेक भूकंपी प्लेटों में बांटा गया है। इन प्लेटों के अंतर पर, जहां प्लेटें टकराती या एक-दूसरे से दूर जाती हैं वहां बड़े भूमिखंड पाए जाते हैं। इन प्लेटों की गति काफी धीमी होती है। अधिकतर तीव्र भूकंप वहीं आते हैं, जहां ये प्लेटें आपस में मिलती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि प्लेटों के किनारे आपस में एक दूसरे में फंस जाती हैं जिससे यह गति नहीं कर पाती और इनके मध्य दबाव उत्पन्न होता है। नतीजतन प्लेटें एक-दूसरे को प्रचंड झटका देकर खिसकती है और धरती प्रचंड रूप से कंपित होती है। इस प्रक्रिया में विशाल भ्रंशों के कारण पृथ्वी की भूपटल पर्त फट जाती है।

किसी क्षेत्र में एक बार भ्रंशों के उत्पन्न हो जाने पर वह क्षेत्र कमजोर हो जाता है। भूकंप वस्तुतः पृथ्वी के अंदर संचित तनाव के बाहर निकलने का माध्यम है, जो सामान्यतया इन भ्रंशों के दायरे में ही सीमित होते हैं। जब पृथ्वी के अंदर का तनाव मौजूद भ्रंशों से दूर स्थित किसी अन्य स्थान पर निस्तारित होता है, तब नए भ्रंश उत्पन्न होते हैं।

भूकंप की शक्ति का कैसे पता लगाएं?


परिमाण और तीव्रता किसी भूकंप की प्रबलता मापने के दो तरीके हैं। भूकंप के परिमाण का मापन भूकंप-लेखी में दर्ज भू-तरंगों के आधार पर किया जाता है। भूकंप-लेखी भूकंप का पता लगाने वाला उपकरण है। किसी भूकंप की प्रबलता भूकंप-लेखी में दर्ज हुए संकेतों के अधिकतम आयाम एवं भूकंप स्थल से उपकरण की दूरी के आधार पर निर्धारित की जाती है।

परिमाण का मापन


रिक्टर पैमाने (रिक्टर स्केल) पर भूकंप के परिमाण का मापन भूकंप द्वारा प्रसारित भूकंपी ऊर्जा द्वारा किया जाता है। सन् 1935 में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत अमेरिकी भौतिकविद चार्ल्स एफ, रिक्टर ने विश्व की रिक्टर पैमाने से परिचित कराया था। उनके इस योगदान के लिए बाद में इस पैमाने का नामकरण रिक्टर पैमाने किया गया है। रिक्टर ने यह पैमाना सैकड़ों भूकंपों के अध्ययन से ज्ञात प्रतिरूपों के आधार पर विकसित किया था।

रिक्टर पैमाना


रिक्टर पैमानें पर निर्धारित परिमाण के आधार पर भूकंपों का वर्गीकरण नीचे दिया गया है।

तीव्रता

प्रभाव

2.0 से कम

सामान्यतः महसूस नहीं किया जा सकता लेकिन पैमाने पर अंकित हो जाता है।

2.0 से 2.9

अनुभव किए जाने की संभावना रहती है।

3.0 से 3.9

कुछ लोग महसूस कर लेते हैं।

4.0 से 4.9

अधिकतर लोग महसूस कर लेते हैं।

5.0 से 5.9

नुकसानदेह आघात।

6.0 से 6.9

आवासीय इलाकों में विनाशकारी प्रभाव।

7.0 से 7.9

बड़े भूकंप, इनके कारण बहुत हानि होती है।

8.0 से अधिक

प्रबल भूकंप, अधिकेंद्र के निकट भारी तबाही होती है।



रिक्टर पैमाना आरंभ तो एक इकाई से होता है लेकिन इसका कोई अंतिम छोर तय नहीं किया गया है, वैसे अब तक ज्ञात सर्वाधिक प्रबल भूकंप की तीव्रता 8.8 से 8.9 के मध्य मापी गई है। चूंकि रिक्टर पैमाने का आधार लघु गणकीय होता है, इसलिए इसकी प्रत्येक इकाई उसके ठीक पहले वाली इकाई से दस गुनी अधिक होती है। रिक्टर पैमाना भूकंप के प्रभाव को तो नहीं मापता है, यह पैमाना तो भूकंप-लेखी द्वारा भूकंप के दौरान मुक्त हुई ऊर्जा के आधार पर भूकंप की शक्ति का निर्धारण करता है।

अभी तक भारत में आए सर्वाधिक प्रबलता के भूकंप का परिमाण रिक्टर पैमाने पर 8.7 मापा गया है, यह भूकंप 12 जून, 1897 को शिलांग प्लेट में आया था। रिक्टर परिमाण का प्रभाव भूकंप के अधिकेंद्र वाले समीपवर्ती क्षेत्रों में महसूस किया जाता है। भूकंप के सर्वाधिक ज्ञात प्रबल झटके का परिमाण 8.8 से 8.9 के परास (रेंज) तक देखा गया है।

भूकंप की तीव्रता


भूकंप की तीव्रता का मापन भूकंप का व्यक्तियों, इमारतों, और भूमि पर दृष्टिगोचर होने वाले प्रभावों की व्यापकता के आधार पर किया जाता है। किसी विशिष्ट क्षेत्र में भूकंप की प्रबलता भूकंप द्वारा पृथ्वी में होने वाली हलचल की प्रबलता के आधार पर मापी जाती है, जिसका निर्धारण जीव-जंतुओं, मानवों, इमारतों, फर्नीचरों और प्राकृतिक परिवेश में आए बदलावों के आधार पर किया जाता है। किसी विशिष्ट भूकंप के परिमाण के अद्वितीय होने के विपरीत भूकंप की तीव्रता उस स्थान से अधिकेंद्र की दूरी, उद्गम केंद्र की गहराई, स्थानीय भूमि विन्यास और भ्रंश की गति के प्रकार पर निर्भर करती है।

भूकंप की तीव्रता मापने के लिए बारह अंकों में वर्गीकृत संशोधित मर्कली तीव्रता पैमाने का व्यापक उपयोग किया जाता है। आरंभिक मर्कली पैमाने का विकास सन् 1902 में इटली के भूकंप विज्ञानी गिउसेपे मर्कली ने किया था। मर्कली पैमाना में मानवों और अन्य जीवों पर भूकंप के प्रभाव को दर्ज किया गया था। सन् 1931 में अमेरिकी भूकंप वैज्ञानिक हैरी वुड और फ्रेंक नॉयमान ने संशोधित मर्कली पैमाना प्रस्तुत किया। भूकंप की तीव्रता मापने के मर्कली पैमाने में I से लेकर XII तक रोमन अंकों का प्रयोग किया जाता है।

संशोधित मर्कली पैमाना


I. केवल कुछ लोगों के अलावा अन्य लोग इसे अनुभव नहीं कर पाते हैं।
II. आराम कर रहे, विशेषकर ऊपरी मंजिलों में मौजूद, लोगों को इसका अनुभव होता है। ढीले-ढाले ढंग से लटकाई गई वस्तुएँ हिल सकती हैं।
III. मकान के अंदर विशेषकर ऊपरी मंजिल में रहने वाले अधिकांश व्यक्ति इसे महसूस करते हैं। भूकंप के समय पास से ट्रक गुजरने जैसा स्पंदन होता है। भूकंप के दौरान खड़ी हुई कारें हल्के से हिल सकती हैं।
IV. दिन के समय इसे घर के अंदर बहुत से लोग एवं बाहर कुछ लोग महसूस कर सकते हैं। इससे रात में कुछ लोग उठ सकते हैं। तश्करियों, खिड़की, दरवाज़े शोर करने लगते हैं और दीवारों के चटखने की आवाजें आने लगती हैं। ऐसा महसूस होता है कि कोई भारी ट्रक किसी इमारत से टकरा गया हो। खड़ी हुई मोटर-कारों में कंपन अधिक होता है।
V. लगभग सभी लोग इसे अनुभव करते हैं। कई लोग सोते से जाग उठते हैं। कुछ तश्तरियां और खिड़कियां टूट सकती हैं। लोलक (पेंडुलम) वाली घड़ियां रुक जाती हैं।
VI. सभी महसूस करते हैं। कई लोग बाहर की ओर दौड़ते हैं। अनेक लोग भयभीत हो जाते हैं। कुछ भारी फर्नीचर हिलने लगते हैं और इस दौरान प्लास्टरों के टूटकर गिरने की एवं चिमनियों के क्षतिग्रस्त होने के कुछ घटनाएँ भी घटित होती हैं। हल्का नुकसान होता है।
VII. सभी लोग बाहर की ओर दौड़ते हैं। अच्छे ढंग से बने भवनों को नहीं के बराबर नुकसान पहुँचता है। औसत स्तर के अच्छे निर्माण को थोड़ा-सा नुकसान होता है। लेकिन खराब ढंग से निर्मित इमारतों को पर्याप्त क्षति होती है। कुछ चिमनियां टूट जाती हैं। कार चला रहे लोगों को इसका अनुभव होता है।
VIII. विशेष प्रकार से निर्मित किए गए निर्माण को कुछ क्षति पहुँचती है। साधारण ढंग से बनी विशाल इमारतें व्यापक रूप से क्षतीग्रस्त होती हैं। खराब ढंग से बनी इमारतें सर्वाधिक क्षतिग्रस्त होती है। खम्भे, स्मारक, दीवारें गिर सकती हैं। भारी फर्निचर उलट जाते हैं। कम मात्रा में रेत और मिट्टी निष्कासित होती है। कुओं के जल स्तर में परिवर्तन होता है। कार चालक घबरा जाते हैं।
IX. विशेष ढंग से बनाई गई इमारतें भी क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। इमारतों के बुनियादें हिल जाती हैं। भूमि में दरारें स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। भूमिगत पाइप टूट जाते हैं।
X. इसमें अच्छे निर्माण भी नींव सहित धवस्त हो जाते हैं। अधिकांश इमारतें और ढांचागत संरचनाएं नींव समेत नष्ट हो जाती हैं। भूमि पर बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं। रेल की पटरियां मुड़ जाती हैं। नदियों के किनारों और ढलानों पर भूस्खलन होता है। पानी किनारों को तोड़कर फैल जाता है।
XI. इसमें शायद ही कोई निर्माण बचा रह पाता है। पुल नष्ट हो जाते हैं। ज़मीन में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। भूमिगत पाइप लाइनें पूर्णतः बेकार हो जाती हैं। नदियों के किनारों और ढलानों पर भूस्खलन होता है। रेल की पटरियां काफी मुड़ जाती हैं।
XII. इस श्रेणी का भूकंप पूर्ण विनाश करता है। भूमि पर तरंगें देखी जा सकती हैं। इसमें दृष्टिगत होने वाली समस्त रेखीय और धरातलीय आकृतियां विरुपति हो जाती हैं। वस्तुएं हवा में उछल जाती हैं।

मर्कली पैमाने पर 12 की तीव्रता वाले भूकंप से चट्टानों के बड़े पैमाने पर गिरने के अलावा नई झीलों के बनने से उस स्थान की स्थलाकृति भी बदल सकती है।

इतिहास में अभी तक के सर्वाधिक विनाशकारी भूकंप की तीव्रता 9 थी। यह भूकंप सन् 1556 में चीन के साक्षी प्रांत में आया था और जिसमें करीब 8,30,000 लोगों की मौत हुई थी।

एमएसके (MSK) पैमाना


सन् 1964 के आरंभ में यूरोप और भारत में भूकंपी तीव्रता के मापने के लिए मेडवेडेव-स्पोन्हुअर-कार्निक (MSK) पैमाने का व्यापक उपयोग हुआ। यह पैमाना समान परास के रोमन अंकों में I (न्यूनतम) से लेकर XII (अधिकतम) तक वितरित है।

भूकंप के दौरान धरती के कांपने का मापन करने वाला उपकरण भूकंप-लेखी कहलाता है। भूकंप-लेखी, भू-स्पंदन को अंकित करने वाला उपकरण है। भूकंप को मापने की इस आरंभिक युक्ति की खोज चीनी दार्शनिक चांग हेंग द्वारा 132 ईसा में की गई थी। यह उपकरण वस्तुतः एक बड़ा घड़ा था। इस उपकरण में बाहर की ओर ड्रैगन के आठ सिर बने हुए थे, जो कुतुबनुमा की आठों मुख्य दिशाओं, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, उत्तरपूर्व, दक्षिण-पूर्व, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम की ओर उन्मुख थे। यह एक आधार से जुड़ा रहता था। परिमाण और तीव्रता में आधारभूत अंतर को समझना आवश्यक है। परिमाण द्वारा भ्रंश विभंग (फॉल्ट रेंप्चर) यानी फटाव से उत्पन्न विकृति ऊर्जा के कारण आने वाले भूकंप की व्यापकता को मापते हैं। यह किसी भूकंप के परिमाण का एक मान है। भूकंप की तीव्रता किसी स्थान की कंपन प्रबलता की माप होती है। यह देखा गया है कि भूकंप से दूर स्थित स्थानों के बजाय उत्केंद्र बिंदु या उद्गम स्थल पर कंपन अधिक होता है। इसलिए किसी निश्चित परिमाण वाले भूकंप के दौरान विभिन्न स्थानों पर विभिन्न तीव्रता स्तर का अनुभव किया जा सकता है।

भूकंप प्रभावित क्षेत्र


भूकंप किसी भी क्षेत्र में और किसी भी समय आ सकता है। प्रशांत-चक्रीय भूकंप पट्टी के नाम से प्रसिद्ध अश्वाकार क्षेत्र में विश्व के अधिकतर भूकंप आते हैं। करीब चालीस हजार किलोमीटर लंबा यह क्षेत्र प्रशांत अग्नि वलय या अग्नि वलय के नाम से भी जाना जाता है।

वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के ऐसे तीन विशाल क्षेत्रों की पहचान की है, जहां अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक भूकंप आते हैं।

क्षेत्र I


विश्व का पहला भूकंप क्षेत्र प्रशांत-चक्रीय भूकंप पट्टी है। पृथ्वी पर घटित होने वाली कुल भूकंपी घटनाओं में से 81 प्रतिशत भूकंपी घटनाएँ इसी क्षेत्र में घटित होती हैं। प्रशांत महासागर के किनारे पर पाई जाने वाली यह पट्टी चिली से उत्तर की ओर बढ़ कर दक्षिण अमेरिका के समुद्री किनारे से होते हुए मध्य अमेरिका, मैक्सिको, अमेरिका के पश्चिमी किनारे, जापान के एल्यूशियन द्वीप समूह, फिलीपीन द्वीप समूह, न्यू गिनी, दक्षिण-पश्चिम प्रशांत महासागर में स्थित द्वीप समूह और न्यूजीलैंड तक जाती है।

क्षेत्र II


भूकंप के प्रति दूसरी अति संवेदनशील पट्टी में अल्पाइड क्षेत्र शामिल है। इस क्षेत्र में विश्व के 17 प्रतिशत भूकंप आते हैं। यह पट्टी जावा से होती हुई सुमात्रा, हिमालय, भूमध्य सागर और अटलांटिक क्षेत्र तक विस्तारित है। यह विश्व का दूसरा सबसे अधिक भूकंप प्रभावित क्षेत्र है।

क्षेत्र III


तीसरी महत्वपूर्ण भूकंपी पट्टी जलमग्न मध्य-अटलांटिक कटक का अनुसरण करती है।

भूकंप को किस प्रकार मापें


भूकंप के दौरान धरती के कांपने का मापन करने वाला उपकरण भूकंप-लेखी कहलाता है। भूकंप-लेखी, भू-स्पंदन को अंकित करने वाला उपकरण है। भूकंप को मापने की इस आरंभिक युक्ति की खोज चीनी दार्शनिक चांग हेंग द्वारा 132 ईसा में की गई थी। यह उपकरण वस्तुतः एक बड़ा घड़ा था। इस उपकरण में बाहर की ओर ड्रैगन के आठ सिर बने हुए थे, जो कुतुबनुमा की आठों मुख्य दिशाओं, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, उत्तरपूर्व, दक्षिण-पूर्व, उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम की ओर उन्मुख थे। यह एक आधार से जुड़ा रहता था। प्रत्येक ड्रैगन के सिर के नीचे मेढ़क का एक बच्चा बना हुआ था। मेढ़क के खुले हुए मुंह ड्रैगन के सिरों की ओर थे। भूकंप आने पर उनमें से कोई एक अथवा कई ड्रैगनों के मुंह से एक-एक गेंद निकल कर नीचे बैठे मेढ़क के बच्चों के मुंह में गिरती थी। भूमि के कंपन की दिशा का निर्धारण इस बात से किया जाता है कि गेंद किस ड्रैगन के मुंह से निकली है।

वर्तमान भूकंप-लेखी (सिस्मोग्राफ) उपकरण का आविष्कार टोकियो के ‘इम्पीरियल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग’ में भूविज्ञान के प्रोफेसर जॉन मिल्न (1850 से 1913) ने सन् 1880 में किया। यह उपकरण छोटा होने के कारण विश्व के विभिन्न स्थानों में स्थापित किया जा सकता था। इस उपकरण से भूकंप के भौगोलिक वर्गीकरण के संबंध में प्रारंभिक आंकड़े प्राप्त करने में काफी मदद मिली। एक जटिल भूकंपलेखी में तीन मुख्य अवयव संवेदक (सेन्सर), रिकार्डर और समयसूचक टाइमर) होते हैं।

भूकंप-लेखी द्वारा भूकंप की स्थिति और परिमाण की गणना भूकंप-अभिलेखी (सिस्मोग्राम) में लिपिबद्ध में समांतर अक्ष समय को प्रदर्शित करता है, जिसकी गणना सेकंड में की जाती है। सामान्यतया भूकंप अभिलेखी में भूमि विस्थापन को दर्शाने वाले लंबवत अक्ष को मिलीमीटर में मापते हैं।

किसी भूकंप-मापी (सिस्मोमीटर) की सहायता से भूकंप-अभिलेखी तैयार करने के कई तरीके हैं जैसे किसी ड्रम के आस-पास लिपटे हुए कागज़ पर किसी पेन की सहायता से लकीरें खींची जाती हैं अथवा घूमता हुआ कोई प्रकाशपुंज किसी घूमती हुई फोटोग्राफी फिल्म पर अपना प्रभाव चिन्हित कर सकता है और विशिष्ट प्रक्रिया से विद्युत चुंबकीय प्रणाली विद्युत धारा को इस प्रकार उत्पन्न कर सकती है, जिससे उसे इलेक्ट्रानिक प्रणाली से टेप पर अंकित किया जा सकता है। स्थानीय व्यवधान एवं शोर आदि के कारण होने वाली अत्यंत लघु कुलबुलाहट को छोड़कर भूकंप के न होने पर भूकंप-अभिलेखी एक सरल रेखा होती है।

अधिकतर आधुनिक भूकंप-लेखी नाज़ुक लटकते हुए द्रव्यमान के जड़त्व और भूमि पर अंकित बिंदु से द्रव्यमान के विस्थापन पर आधारित होते हैं। भूमि पर दो बिंदुओं के बीच सापेक्ष विस्थापन अन्य माप का आधार होता है। अंकित स्थान से अधिकेंद्र की दूरी में आवश्यकतानुसार संशोधन की जरूरत भी होती है।

रिक्टर द्वारा विकसित की गई भूकंप मापने की यह पद्धति कुछ निश्चित आवृत्तियों एवं विस्तार क्षेत्रों के लिए ही उपयुक्त है। रिक्टर पैमाना 6.8 से अधिक तीव्रता वाले भूकंपों के बारे में यथार्थ रूप से जानकारी नहीं देता है। अतः विश्व भर में फैले भूकंप-लेखी केंद्रों की बढ़ती संख्या का लाभ उठाने के लिए एवं परिमाण मापने के लिए कायिक तरंग परिमाण, तलीय तरंग परिमाण और आघूर्ण परिमाण जैसे नए पैमानों को विकसित किया गया है। ये पैमानें मुख्यतः रिक्टर द्वारा विकसित की गई अवधारणा का ही विस्तारित रूप है।

आघूर्ण परिमाण द्वारा भूकंप की प्रबलता का उचित अनुमान लगाया जा सकता है। आघूर्ण एक भौतिक परिमाण है जो भ्रंश के सरकाव व सरके हुए भ्रंश क्षेत्र के समानुपाती होता है। आघूर्ण को भूकंप-अभिलेखी और भू-गणितीय पैमानों से मापा जा सकता है। यह भूकंप के दौरान मुक्त हुई कुल ऊर्जा से संबद्ध होता है। परिमाण मापने के अन्य पैमानों से भिन्न, आघूर्ण पैमाने द्वारा भूकंप का अनुमान उसके परिमाण के पूर्ण परास तक प्राप्त होता है। यह पैमाना तीव्रता की कोई उच्च या निम्न सीमा नहीं रखता है। इस पैमाने पर बहुत ही कम तीव्रता के भूकंप का मान या तो शून्य होगा या फिर ऋणात्मक।

विश्व भूकंप आवृत्ति


प्रकार

परिणाम

आवृत्ति औसत

विशाल

8 से अधिक

1

मुख्य

7-7.9

18

शक्तिशाली

6.9

120

मध्यम

5-5.9

180

हल्का

4-4.9

6200 (अनुमानित)

गोण

3-3.9

49000 (अनुमानित)



सन् 1954 में गुटनबर्ड और चार्ल्स फ्रांसिस रिक्टर ने ‘दि सिस्मिसिटी ऑफ दि अर्थ’ मोनोग्राफ को प्रकाशित किया। यह पहला सूचीपत्र था, जिसमें विश्वव्यापी भूकंपी क्षेत्रों का विस्तृत विवरण था। गुटनबर्ड और रिक्टर की सूची में भारतीय क्षेत्र का पहला उपकरणीय सूचक भूकंप सन् 1904 में 4 अप्रैल को कांगड़ा क्षेत्र में आया भूकंप था।

गुटनबर्ड-रिक्टर सिद्धांत किसी क्षेत्र और किसी समय में आए कुल भूकंप एवं उसके परिमाण के बीच संबंधों को व्यक्त करता है।

भूकंपी नक्शा


भूकंप वैज्ञानिकों ने किसी विशिष्ट क्षेत्र या स्थान पर विभिन्न स्तर के भूकंपी प्रभाव को दर्शाने के लिए विशेष नक्शे तैयार किए हैं। इन नक्शों को समभूकंपी नक्शों का नाम दिया गया है। ये नक्शे भूमि के कंपन की तीव्रता, कंपन के आयाम आदि विभिन्न भूकंपी प्रभावों के संदर्भ में समान भूकंपी क्षेत्रों के निर्धारण में उपयोग किए जाते हैं। इन नक्शों को भूकंपी संकट नक्शे भी कहा जाता है। इमारत कूटों (कोडों) के अंतर्गत इमारतों के संरचनात्मक अवयवों का भूकंपी विश्लेषण करने के लिए भूकंपी क्षेत्र नक्शों में परिवर्तित करते हैं। इस प्रकार यह नक्शे किसी क्षेत्र के विभिन्न संकट स्तरों वाले भूकंपी संकट की व्याख्या करता है।

भारत का भूकंपी क्षेत्र


भारत को पांच विभिन्न भूकंपी क्षेत्रों में बांटा गया है। इन क्षेत्रों को भूकंप की व्यापकता के घटते स्तर के अनुसार क्षेत्र I से लेकर क्षेत्र V तक वर्गीकृत किया गया है।

1. क्षेत्र I जहां को खतरा नहीं है।
2. क्षेत्र II जहां कम खतरा है।
3. क्षेत्र III जहां औसत खतरा है।
4. क्षेत्र IV जहां अधिक खतरा है।
5. क्षेत्र V जहां बहुत अधिक खतरा है।

भारतीय मौसम विभाग द्वारा तैयार किए गए एक सूचीपत्र (कैटलाग) में भारत में आए भूकंपों में से 1200 भूकंपों को सूचीबद्ध किया गाया है।

भूकंपी तरंगें


भूकंप के दौरान तरंगों के रूप में विशाल मात्रा में मुक्त होने वाली विकृति ऊर्जा को भूकंपी ऊर्जा कहा जाता है। भूकंपी तरंगें भूमि या उसकी सतह के साथ संचरित होती हैं। भूकंपी तरंगों को विश्व भर में अनुभव किया जा सकता है। भूकंपी तरंगों की भौतिकी अति जटिल होती है। यह तरंगें सभी दिशाओं में संचरण करती हुई प्रत्येक अवरोधों से प्रत्यावर्तित और परिवर्तित होती है। ये तरंगें, जो पृथ्वी के आधार के साथ सभी दिशाओं में फैलती हैं, पिंड या काय तरंगें कहलाती हैं। इनके अलावा पृथ्वी सतह के निकट तक सीमित रहने वाली तरंगों को पृष्ठीय तरंगें कहा जाता है।

पी तरंगों के कारण ही भवनों में सर्वप्रथम कंपन होता है। पी तरंगों के बाद ही किसी संरचना के पार्श्वीय भाग को स्पंदित करने वाली एस तरंगों के प्रभाव को अनुभव किया जा सकता है। चूंकि इमारतों को लंबवत कंपनों की तुलना में अनुप्रस्थ कंपन आसानी से क्षतिग्रस्त करती हैं। अतः पी तरंगें अधिक विनाशकारी है। रैले तरंगें और लव तरंगें सबसे अंत में आती है। जहां पी और एस तरंगों के कारण उच्च आवृत्ति के कंपन उत्पन्न होते हैं, वहीं रैले और लव तरंगों के कारण कम आवृत्ति वाले कंपन उत्पन्न होते हैं। पिंड तरंगें दो प्रकार की होती है: पहली प्राथमिक तरंग या पी तरंग और दूसरी द्वितीयक तरंग या एस तरंग। पृष्ठीय तरंगें दो तरंगों, लव तरंग और रैले तरंग से मिलकर बनती है। पी तरंगें सर्वाधिक तीव्र होती हैं और ये तरंगें एस तरंगों, लव तरंगों और रैले तरंगों का अनुसरण करने वाली होती हैं।

पी तरंगों में चट्टानों के कण माध्यम में आगे-पीछे कम्पन करते हैं। हमें सबसे पहले पी तरंगों का अनुभव होता है।

एस तरंगों (जिन्हें अनुप्रस्थ पृष्ठीय तरंग भी कहा जाता है) के द्वारा चट्टानों के कण ऊपर-नीचे और पार्श्वीय रूप से कंपन करते हैं। एस तरंगें तरल से संचरित नहीं होती हैं।

जब पी और एस तरंगें सतह पर पहुँचती हैं तब उनकी अधिकतर ऊर्जा वापस धरती के आंतरिक भाग में पहुंच सकती है। इस ऊर्जा का कुछ भाग चट्टानों और मिट्टी की विभिन्न पर्तों से परावर्तित होकर वापस सतह पर आ जाता है।

रैले तरंगों को यह नाम इन तरंगों की उपस्थिति का अनुमान लगाने वाले वैज्ञानिक लार्ड रैले (1842-1919) के नाम पर दिया गया है। यह तरंगें सतह के ऊपर गति करती हुई चट्टानों के कणों को दीर्घवृत्तीय गति प्रदान करती हैं।

लव तरंगों का नामकरण ऑगस्टस एडवर्ड हंज लव के नाम पर रखा गया है। लव तरंगें चट्टानों के कणों को अपने फैलाव की दिशा से लंबवत विस्थापित करती है और इन तरंगों में कोई लंबवत और अनुप्रस्थ घटक नहीं होता है।

पी तरंगों के कारण ही भवनों में सर्वप्रथम कंपन होता है। पी तरंगों के बाद ही किसी संरचना के पार्श्वीय भाग को स्पंदित करने वाली एस तरंगों के प्रभाव को अनुभव किया जा सकता है। चूंकि इमारतों को लंबवत कंपनों की तुलना में अनुप्रस्थ कंपन आसानी से क्षतिग्रस्त करती हैं। अतः पी तरंगें अधिक विनाशकारी है। रैले तरंगें और लव तरंगें सबसे अंत में आती है। जहां पी और एस तरंगों के कारण उच्च आवृत्ति के कंपन उत्पन्न होते हैं, वहीं रैले और लव तरंगों के कारण कम आवृत्ति वाले कंपन उत्पन्न होते हैं। सूक्ष्म और तीव्र वेग वाली होने के कारण पी एवं एस तरंगें झटकों और धक्कों के लिए जिम्मेदार होती है। पृष्ठीय तरंगें लंबी और धीमी होती हैं और यह लहरदार (रोलिंग) प्रभाव उत्पन्न करती हैं। भूकंपी तरंगों की गति विभिन्न प्रकार की चट्टानों में अलग-अलग होती हैं। जहां पृष्ठीय तरंगें अधिक समय तक बनी रहती हैं वहीं पिंड तरंगें कुछ ही समय में समाप्त हो जाती हैं।

भूकंप क्षति


रिक्टर पैमाने पर आए समान परिमाण के भूकंप के कारण हुई तबाही में अंतर हो सकता है। इसका कारण यह है कि भूकंप से होने वाली क्षति एक से अधिक कारकों पर निर्भर होती है। भूकंप के केंद्र-बिंदु की गहराई ऐसा ही एक महत्वपूर्ण कारक है। यदि भूकंप काफी गहराई में जन्म लेता है तो इससे सतही नुकसान कम ही होता है। 26 जनवरी, 2001 को गुजरात में आया भूकंप का केंद्र-बिंदु अपेक्षाकृत कम गहराई अर्थात उथले स्तर पर स्थित था। इस भूकंप की गहराई 25 किलोमीटर से भी कम होने से इसकी प्रबलता भी कम थी। इसी प्रकार 1999 के मार्च महीनें में गढ़वाल क्षेत्र में आया भूकंप का केंद्र-विंदु भी कम गहराई पर स्थित था।

भूकंप का प्रभाव


सुग्राही भूकंप-लेखी द्वारा प्रतिदिन विश्व के अनेक भागों में आए भूकंपों
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