गाँवों के लिये पीने का पानी (Rural Water discourse)

5 Mar 2017
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प्रस्तुत लेख में ग्रामीण क्षेत्रों में पीने के पानी की पूर्ति के लिये किए जा रहे प्रयासों की चर्चा की गई है। लेखक ने इस दिशा में राष्ट्रीय पेयजल मिशन द्वारा की गई पहल और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कार्य योजना के तहत वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद की प्रयोगशालाओं में किए जा रहे विभिन्न अनुसंधान कार्यों की जानकारी दी है। लेखक का विचार है कि वैज्ञानिक जानकारी से समर्थित एक समन्वित जल प्रबंध कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की जरूरतों का एक अच्छा समाधान हो सकता है।

इस दिशा में किए गए ठोस प्रयासों के फलस्वरूप 31 मार्च, 1990 तक कुल 5,83,003 गाँवों में से 5,74,564 गाँवों में पीने का साफ पानी उपलब्ध कराया जा चुका था।

पानी हमारे जीवन के लिये बहुत ही जरूरी है। मानव-जाति का अस्तित्व ही इस पर निर्भर करता है। यद्यपि धरती में महासागरों के जल के एक-तिहाई के बराबर जल प्रदान करने की क्षमता है, लेकिन पीने के साफ पानी की पर्याप्त मात्रा में पूर्ति अधिकांश विकासशील देशों की एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भारत में भूमि जल स्वच्छ पेयजल का प्रमुख स्रोत है। भारत सरकार ने त्वरित ग्रामीण जला-पूर्ति कार्यक्रम (एआरडब्ल्यूएसपी) के माध्यम से गाँवों में पीने का पानी उपलब्ध कराने को उच्च प्राथमिकता दी है। राज्य सरकारें अपने न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रमों के माध्यम से इस काम में सहयोग कर रही हैं। पिछले दशक (1980-90) में विश्व का सबसे बड़ा ग्रामीण जल पूर्ति कार्यक्रम चलाया गया। इस क्षेत्र के लिये औसत वार्षिक परिव्यय 800 करोड़ रुपए था। इस दिशा में किए गए ठोस प्रयासों के फलस्वरूप 31 मार्च, 1990 तक कुल 5,83,003 गाँवों में से 5,74,564 गाँवों में पीने का साफ पानी उपलब्ध कराया जा चुका था। केवल 8,439 गाँव ऐसे हैं जहाँ अभी पीने के स्वच्छ जल का स्रोत उपलब्ध नहीं है।

आठवीं योजना में इस क्षेत्र के लिये अधिक परिव्यय की व्यवस्था किए जाने के साथ-साथ आशा की जाती है कि बाकी बचे गाँवों में भी, जहाँ समस्या काफी जटिल है, शीघ्र ही पीने का पानी उपलब्ध हो जाएगा। गिनी कृमि के उन्मूलन तथा दाँतों व हड्डियों के विकारों की रोकथाम के लिये समुचित तकनीक अपनाए जाने को उच्च प्राथमिकता दी गई है। राज्यों के ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य और जन स्वास्थ्य इंजीनियरी विभागों के साथ घनिष्ठ तालमेल करके सभी राज्यों में गिनी कृमि का उन्मूलन किया जा सकता है। तमिलनाडु और गुजरात में यह सफलतापूर्वक किया जा चुका है। वैज्ञानिक स्रोत का पता लगाने और जल की गुणवत्ता पर निगरानी रखने के लिये प्रयोगशालाएँ बनाने के काम को समुचित प्राथमिकता देनी होगी। गाँवों में पेयजल की पूर्ति के लिये किए जा रहे विभिन्न प्रयासों में तालमेल बनाने के लिये ग्रामीण विकास विभाग केन्द्रीय एजेंसी है।

पहलकदमी


पिछले दशक में, विशेषकर सातवीं योजना के दौरान राष्ट्रीय पेयजल मिशन ने पीने के पानी को अधिक विस्तृत क्षेत्र तक पहुँचाने के अलावा निम्नलिखित क्षेत्रों में कई नए कदम उठाए हैं :

1. लागत में कमी लाने के लिये वैज्ञानिक स्रोत का पता लगाना।

2. जल की गुणवत्ता की जाँच के लिये आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराकर जल की गुणवत्ता पर बल देना।

3. (क) सुरक्षित जल की पूर्ति करके गिनीकृमि का उन्मूलन करने; (ख) डिफ्लोराइडेशन संयंत्र लगाकर फालतू फ्लोराइड को हटाने; (ग) लौह तत्वों को हटाने के लिये संयंत्र स्थापित करके फालतू लौह तत्वों को दूर करने; (घ) संयंत्र लगाकर क्षारता दूर करने जैसे रासायनिक और जीवाण्विक दूषण समाप्ति के कार्यों को करने के लिये विशेष अभियान चलाना।

4. लघु मिशन के तहत चुने हुए 55 जिलों में निरन्तर जलापूर्ति और प्रबंध पर बल देते हुए जल प्रबंध के प्रति समन्वित नीति अपनाने में अग्रणी कार्य करना। इसके तहत वर्षाजल को इकट्ठा करने और पानी एकत्र करने के लिये समुचित ढाँचों के निर्माण को बढ़ावा देने का काम किया जाता है।

5. भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा बनाए गए नियमों के माध्यम से ग्रामीण जल-पूर्ति गतिविधियों/आदानों का मानकीकरण करना।

6. एक प्रबन्ध प्रणाली और कम्प्यूटरीकृत रिंग मॉनीटरिंग व्यवस्था का विकास करना।

7. पंचायतों व जल उपभोक्ता समितियों को बड़े पैमाने पर शामिल करके सामुदायिक सहभागिता, और गैर- सरकारी संगठनों की अधिक सह-भागिता को बढ़ावा देना तथा चुने हुए क्षेत्रों में समुदाय आधारित मॉडल पर प्रयोग करना।

लघु और अति लघु पन-बिजली परियोजनाओं के लिये कार्य योजना का उद्देश्य विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में लघु और अति लघु पन-बिजली घरों का विकास करना है ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली पहुँचाई जा सके, ग्रामीण उद्योग को बढ़ावा मिले और रोजगार के अवसर पैदा हों।

8. जलापूर्ति निवेश को सामुदायिक स्तर पर बेहतर स्वास्थ्य स्तर प्रदान करने वाले माध्यम के रूप में परिवर्तित करने वाले प्रेरक तत्वों के रूप में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका को मान्यता देकर जलापूर्ति प्रबंध में महिलाओं की भूमिका का विस्तार करने का प्रयास करना।

9. सॉफ्टवेयर (समुचित जानकारी) सम्बन्धी अन्तर को दूर करने के लिये जलापूर्ति प्रबंध में संचार और सामाजिक चेतना की भूमिका का विकास करना।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी की कार्य योजना


विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र के लिये कार्य योजना को लागू करने के एक भाग के रूप में आगामी वर्षों में शुरू की जाने वाली परियोजनाएँ और गतिविधियाँ निर्धारित की हैं। जल प्रबंध सम्बन्धी विज्ञान और प्रौद्योगिकी कार्य योजना को तीन भागों में बाँटा जा सकता है- (1) जल सम्बन्धी लक्ष्य तैयार करना, जल का खारापन दूर करना, जल प्राप्त करना और उसका भण्डारण, (2) लघु और अति लघु पन-बिजली परियोजनाएँ और (3) सिंचाई प्रबंध तथा जल-संरक्षण।

लघु और अति लघु पन-बिजली परियोजनाओं के लिये कार्य योजना का उद्देश्य विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में लघु और अति लघु पन-बिजली घरों का विकास करना है ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली पहुँचाई जा सके, ग्रामीण उद्योग को बढ़ावा मिले और रोजगार के अवसर पैदा हों सकें जल प्रबंध, जल लक्ष्य निर्धारण और जल की संभावनाओं का पता लगाने के लिये भू-भौतिकी तकनीकों, विशेषकर कठोर चट्टानों और दुर्गम इलाकों में स्रोत का पता लगाने के लिये विद्युत जाँच तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। भू-भौतिकी आंकड़ों की तेजी से व्याख्या करने के लिये कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया जाएगा। कड़ी चट्टान वाले क्षेत्रों में कुँओं से अधिक पानी प्राप्त करने क लिये हाइड्रोलिक फ्रेक्चरिंम स्टिमुलेशन तकनीक (बोरवेल) का विकास करना होगा। इसका उद्देश्य आन्ध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के अनेक कड़ी चट्टानों वाले प्रदेशों में पानी के कुओं को उद्दीप्त करना, उद्दीपन के बाद कुँओं से प्राप्त जल का मूल्यांकन करना तथा विशेष भौगोलिक स्थितियों में उद्दीपन प्रौद्योगिकी को लागू करने और उनकी उपयोगिता के बारे में सामान्य जानकारी प्राप्त करना है। आयात किए गए हाइड्रो-फ्रेक्चरिंग उपकरणों को स्थापित किया जाएगा और उनकी जाँच की जाएगी। उद्दीपन सम्बन्धी प्रयोग करके भारतीय विशेषज्ञों को प्रशिक्षित किया जाएगा। भौगोलिक और जल सतह की स्थिति पर निर्भर करते हुए 8 से 24 गुना अधिक पानी प्राप्त किए जाने की आशा है। पानी के कुँओं के उद्दीपन के कार्य के डिजाइनिंग के लिये उद्दीपन करना तथा जल के कुँओं की लागत किसानों की सामर्थ्य में लाना सम्भव होगा। इस तकनीक से सूखे की आशंका वाले क्षेत्रों में पीने का पानी उपलब्ध कराना भी सम्भव होगा।

वर्षा का पानी प्राप्त करने और उसका भण्डार करने की तकनीकों को व्यावहारिक इस्तेमाल 100 ढाँचों का निर्माण करके, प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा जनशक्ति का विकास करके, 1.5 मीटर की ऊँचाई वाले फेरोसीमेंट चेक बाँध बनाने का प्रदर्शन करके और भूमिगत टंकियों और कठोर भूमि में सीधे ही फेरोसीमेंट का पलस्तर करने का प्रदर्शन करके किया जाएगा। अपक्षारीकरण प्रौद्योगिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत खारे और समुद्री पानी का खारापन दूर करने के लिये विलोम परिसरण (रिवर्स ओसमोसिस) और वैद्युत-अपोहन (इलेक्ट्रोडायलिसेस) प्रौद्योगिकियों की व्यावहारिक जानकारी दी जाएगी। इस कार्यक्रम का उद्देश्य लक्ष्यद्वीप और अंडमान निकोबार द्वीप समूह के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की मीठे पानी की आवश्यकताओं को पूरा करना है।

सुरक्षित पेयजल की लगातार उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिये जल के शद्धिकरण और जल संरक्षण की संसाधन प्रौद्योगिकियों को अपनाना होगा। इसके लिये निम्नलिखित कार्यक्रम निर्धारित किए गए हैं- (क) आयातित उपशमकों के स्थान पर गैर-विषाक्त पदार्थों का इस्तेमाल करके गिनी कृमि का नियंत्रण करना; और (ख) 40 किलोमीटर प्रतिघंटे के वायु वेग को सहन करने के लिये एलकोक्सी इथेनॉल मिश्रणों का उपयोग करके जल वाष्पीकरण का नियंत्रण करना। विस्तार कार्य शुरू किया जा चुका है और आशा की जाती है कि यह काम मार्च, 1991 तक पूरा हो जाएगा। पीने के पानी की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिये पेयजल जाँच किट और चलती-फिरती जाँच प्रयोगशालायें शुरू की गई हैं। इसके अतिरिक्त पानी के अपव्यय को रोकने के लिये कम गहरे कुँओं में सुधरे हुए हैण्डपम्प और जल की सीमित निकासी वाले किफायती नल भी लगाए जा रहे हैं। इन सब उपायों से ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में पीने के अच्छे पानी की पूर्ति सुनिश्चित होगी। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की कुछ प्रयोगशालाएँ भी इस कार्य में योगदान कर रही हैं।

सीएसआईआर का योगदान


चलती-फिरती जल जाँच प्रयोगशाला का उपयोग ग्रामीण, विशेषकर दूरदराज के क्षेत्रों में पीने के पानी की गुणवत्ता की जाँच करने; दूषण के स्रोत का पता लगाने; पर्याप्त जल वाले नये स्रोतों का पता लगाने और उनकी व्यावहारिकता निर्धारित करने के लिये सर्वेक्षण करने; जिला और ग्राम स्तर पर जल की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने सम्बन्धी प्रशिक्षण देने तथा जल के प्रदूषण, इसके स्रोतों और निवारक उपायों के बारे में अधिकाधिक लोगों को समुचित जानकारी देने के लिये किया जाता है।

विगत वर्षों के दौरान सीएसआईआर की प्रयोगशालाओं ने जलस्रोतों का पता लगाने, जल की गुणवत्ता के मूल्यांकन, गुणवत्ता में सुधार के लिये जल के संसाधन तथा जल के संरक्षण, भण्डारण और वितरण के लिये आवश्यक आंकड़े तैयार किए हैं और विधियों का विकास किया है। हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय-भू-भौतिकी अनुसंधान संस्थान ने डी.सी. अर्थ रेजिस्टिविटी मीटर, रिफ्रेक्शन सिस्मिक टाइमर और बोर होल लॉगर जैसे स्रोत का पता लगाने वाले उपकरणों का विकास किया है। औद्योगिक विष विज्ञान अनुसंधान कन्द्र, लखनऊ ने आई.टी.आर.सी. पेयजल विश्लेषण किट और पानी की जाँच करने वाली चलती फिरती प्रयोगशालाओं का विकास किया है। आई.टी.आर.सी. के पेयजल विश्लेषण किट के दो भाग हैं। क्लोरिमीटर और टाइट्रेशन किट का इस्तेमाल जल में फ्लोराइड, नाइट्रेट और लौह तत्वों के विश्लेषण के लिये किया जाता है। इन्क्यूबेटरों का इस्तेमाल जल के जीवाणु विश्लेषण के लिये किया जाता है। यह विश्लेषण जल को महीन झिल्लियों में छानकर या अनेक ट्यूबों की विधि से तीन बार विश्लेषण करके किया जाता है। चलती-फिरती जल जाँच प्रयोगशाला का उपयोग ग्रामीण, विशेषकर दूरदराज के क्षेत्रों में पीने के पानी की गुणवत्ता की जाँच करने; दूषण के स्रोत का पता लगाने; पर्याप्त जल वाले नये स्रोतों का पता लगाने और उनकी व्यावहारिकता निर्धारित करने के लिये सर्वेक्षण करने; जिला और ग्राम स्तर पर जल की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने सम्बन्धी प्रशिक्षण देने तथा जल के प्रदूषण, इसके स्रोतों और निवारक उपायों के बारे में अधिकाधिक लोगों को समुचित जानकारी देने के लिये किया जाता है।

चलती-फिरती वातानुकूलित जल जाँच प्रयोगशाला संवाहकता, पीएच और विलीन ऑक्सीजन तथा तापमान को मापने के उपकरणों से सज्जित होती है। इन सब कार्यों के लिये प्रयोगशाला में उपलब्ध एक छोटा किट बहुत काम आता है। पानी के गंदलेपन की जाँच टर्बिडिमीटर द्वारा की जाती है। फ्लोराइड, लौह तत्वों, सल्फेट, नाइट्रेट का क्लोरीमीट्रिक विश्लेषण से पता लगाया जाता है। पानी के खारेपन, कठोरता और अपशिष्ट क्लोरीन का विश्लेषण टाइट्रेशन विधि से किया जाता है। आवश्यकता होने पर क्लोरोमीट्रिक विधियों से मैग्नीज, सीसा, तांबा, क्रोमियम, अमोनिया, नाइट्रेट, फास्फेट, संखिया और सायनाइड का भी पता लगाया जा सकता है। अनेक ट्यूब या झिल्ली निस्पन्दन तकनीक से जीवाणु विश्लेषण के लिये पूरी कॉलीफोर्म गणना और विष्ठा कॉलीफार्म गणना की जा सकती है। नागपुर स्थित राष्ट्रीय पर्यावरणीय इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (एनईईआरआई) ने भी पेयजल विश्लेषण किट, टाइट्रेमीट्रिक विश्लेषक और डिजिटल मिनी टर्बीडिटीमीटर का विकास किया है। इस संस्थान ने जल की गुणवत्ता के मूल्यांकन तथा जल के भौतिक-रसायन, जीवाणु और जैविक विश्लेषण के लिये चलती-फिरती जाँच प्रयोगशाला का विकास किया है और पर्यावरण सम्बन्धी विषयों पर श्रव्य व दृश्य माध्यमों की सहायता से सामग्री भी तैयार की है।

केन्द्रीय इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (सीईईआरआई) पिलानी ने इलेक्ट्रॉनिक से नियंत्रित वहनीय इन्क्यूबेटर का विकास किया है। इस इनक्यूबेटर को कार या जीप की बैटरी से चलाया जा सकता है। गर्मी पैदा करने वाले एलिमेंट आसानी से उपलब्ध हैं। इनके इलेक्ट्रॉनिक कन्ट्रोल साधारण डिजाइन के हैं और इनका संचालन और रख-रखाव बहुत सरल है। इसका प्रयोग जीवाणु-दूषण की जाँच करने के लिये किया जाता है।

विलोम परिसरण


भारत के भू-पृष्ठ में फ्लोराइड युक्त खनिजों की प्रचुरता है। जैसा कि अनुमान लगाया गया है, हमारी 85 प्रतिशत जनसंख्या पीने के पानी के लिये भूजल पर ही निर्भर करती है। इसलिये फ्लोरोसिस जैसे जलीय रोगों की रोकथाम के काम को प्राथमिकता देनी होगी। 3. पानी के खारेपन को दूर करने तथा रसायनों के जमाव तथा गैसीय मिश्रणों को हटाने के लिये विलोम परिसरण (रिवर्स ओसमोसिस) तकनीक को बहुत ही लाभदायक पाया गया है। केन्द्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसंधान संस्थान (सीएसएमसीआरआई) ने एक विलोम परिसरण संयंत्र का विकास किया है। इसने पानी के खारेपन को दूर करने के लिये एक प्रौद्योगिकी का विकास किया है। यह प्रौद्योगिकी ठोस पदार्थों को अर्धपारगम्य झिल्लियों से गुजारे जाने के सिद्धान्त पर आधारित है। इसके लिये सेलुलोस एसिटेट झिल्ली उपयुक्त पाई गई है। विलोम परिसरण इस सिद्धान्त पर आधारित है कि जल (विलायक) को दबाव के साथ अर्ध पारगम्य झिल्लियों में से गुजारा जाता है तो विलीन नमक निस्सारित या निक्षेपित पदार्थ में रह जाता है। खारे पानी को दबाव के साथ रेत के फिल्टर में से गुजारा जाता है। जो अधिकांश निलम्बित अंशों को हटा देता है।

इसके बाद इसे उपयुक्त पीएच से युक्त करने के लिये रसायनों से संसाधित किया जाता है। खारे पानी को 30-35 किलोग्राम सेंटीमीटर के दबाव के साथ घुमावदार कुंडली में एसिटेट झिल्ली से गुजारा जाता है। इस झिल्ली पर रासायनिक लेप लगा होता है। बीएचईएल, अनुसंधान और विकास हैदराबाद, हिन्दुस्तान शिपयार्ड, विशाखापत्तनम और ऐरो टेक्नोलॉजी अहमदाबाद को यह तकनीकी जानकारी वाणिज्य रूप से विकसित करने के लिये उपलब्ध करा दी गई है। अब तक सीएसएमसीआरआई के मालेकोदुमुलुर रामनाथ पुरम, तमिलनाडु में विलोम परिसरण का 30 हजार लीटर, दैनिक क्षमता का एक संयंत्र; पुथागरम, मद्रास में 50 हजार लीटर, दैनिक क्षमता का एक संयंत्र; गिलेडुपाडु, पूर्व गोदावरी, आन्ध्र प्रदेश, में 50 हजार लीटर, दैनिक क्षमता के दो संयंत्र; लोलावास, पाली, राजस्थान में 30 हजार लीटर, दैनिक क्षमता का एक; थाईलैंड में 30 हजार लीटर, दैनिक क्षमता का एक संयंत्र स्थापित किया है। संस्थान ने गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु और थाईलैंड में 15 हजार लीटर, दैनिक क्षमता वाले विलोम परिसरण के चलते-फिरते संयंत्र भी स्थापित किए हैं।

खारेपन को दूर करने के लिये वैद्युत अपोहन (इलेक्ट्रोडायलिसिस) संयंत्रों का भी इस्तेमाल किया जाता है। वैद्युत अपोहन आयन को सीधे विद्युत करेंट के प्रभाव से झिल्ली के पार एक मिश्रण से गुजारने के लिये गतिमान करना है। इस प्रक्रिया की जानकारी सीएसएमसीआरआई के पास उपलब्ध है और मैसर्स न्यूकेम प्लास्टिक, फरीदाबाद और मैसर्स थमेक्स (प्रा.) लिमिटेड, पुणे इस प्रक्रिया को व्यापारिक स्तर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। नागपुर स्थित एनईईआरआई ने अतिरिक्त लौह तत्वों को दूर करने के लिये रेत निस्पन्दन की धीमी तकनीक, जल को फ्लोराइडमुक्त करने की तकनीक (नालगोंडा में) का विकास किया है। पुणे स्थित राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला (एनसीएल) ने नियंत्रित निर्मुक्ति (सीआर) डिस्पेंसर की एक नई प्रणाली का विकास किया है जो जलीय पारिस्थितिकी प्रणाली में, अत्यधिक मात्रा में विषैले तत्वों का बार-बार इस्तेमाल करने की आवश्यकता के बिना ही, घातक डिंभकनाशी तत्वों के न्यूनतम संकेन्द्रण को सुनिश्चित करती है। एनसीएल सैटेलाइट डिस्पेंसर के नाम से प्रचलित यह प्रक्रिया रोगवाहकों की रोकथाम में भी सहायक हो सकती है। इसे वास्तविक प्रभावित क्षेत्रों में प्रयोग के रूप में इस्तेमाल करके देखा जाना है। केन्द्रीय यांत्रिक इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (सीएमईआरआई) और यांत्रिक इंजीनियरी अनुसंधान और विकास संगठन (एमईआरएडीओ) जल की किफायत करने वाले एक नल का विकास कर रहे हैं। इस नल से सार्वजनिक नलों से पानी की होने वाली बर्बादी को रोका जा सकेगा। आमतौर पर सार्वजनिक नलों को इस्तेमाल के बाद खुला छोड़ दिया जाता है।

इंडिया मार्क-II


भारत में अनुसंधान और विकास के प्रयासों का एक उल्लेखनीय परिणाम इंडिया मार्क-2 डीपवैल हैण्डपम्प है। विश्व के विभिन्न देशों ने लगभग हर औद्योगीकृत देशों में उपलब्ध हैण्डपम्पों की स्पर्धा में इसे स्वीकार किया गया है। भारत में लगभग 15 लाख इंडिया मार्क-2 हैण्डपम्प 26 करोड़ से अधिक लोगों को पानी उपलब्ध करा रहे हैं। यह पम्प भूमि में 30-40 फुट गहराई से पानी खींच सकता है। यह एक सुधरा हुआ डिजाइन है जिसे यूनिसेफ ने गाँवों में पानी की पूर्ति के लिये स्वीकार किया है। मार्क-2 को बेहतर बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। सघन अनुसंधान और विकास तथा क्षेत्र परीक्षणों के बाद इंडिया मार्क-3 ‘वीएलओएम’ हैण्डपम्प तैयार किया जा रहा है। ‘वीएलओएम’ की स्थापना और रख-रखाव के मानकों का विकास भारतीय मानक ब्यूरो ने किया है।

मान चित्रण


ग्रामीण विकास विभाग को पानी की कमी की समस्या से प्रभावित गाँवों के 1.6 किलोमीटर के घेरे वाले क्षेत्र में भूजल के स्रोतों का मानचित्रण करने का काम सौंपा गया। इसके लिये आईआरए। ए के विम्बन का उपयोग किया गया और इसके सर्वेक्षण से पता लगाए गए जलस्रोतों में 90 प्रतिशत स्रोत सही पाए गए। सहायक आंकड़े प्राप्त करने के लिये भू-भौतिक सर्वेक्षण किए गए हैं। पहले चरण में अब तक 200 जिलों में यह काम किया जा चुका है। केन्द्र और राज्य, दोनों स्तरों पर सम्बन्धित अधिकारियों को रिपोर्टें भेज दी गई हैं। जलस्रोतों का पता लगाने के लिये उपलब्ध इस अत्यधिक उन्नत तकनीक से समय, शक्ति और धन की काफी बचत हुई है। आईआरएस द्वारा किए गए सुदूर संवेदी कार्य और अन्य साधनों से भूजल की संरचनाओं का पता लगाकर 60 हजार कुँओं के बोर करने में मदद मिली।

बीएआरसी अपक्षारीकरण संयंत्र


बम्बई स्थित भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (बीएआरसी) भी राष्ट्रीय पेयजल मिशन की गतिविधियों से जुड़ा हुआ है। उपप्रणाली द्वारा संतोषजनक परीक्षण किए जाने के बाद एक बहुचरण वाला फ्लैश (एमएसएफ) अपक्षारीकरण संयंत्र चालू किया जा रहा है। जहाज पर रखे इस अपक्षारीकरण संयंत्र के कामकाज सम्बन्धी आंकड़ों से यह संकेत मिलता है कि डिजाइन सम्बन्धी लक्ष्यों की उपलब्धियाँ और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिये उपलब्ध है। दोहरे उद्देश्य वाले एमएसएफ अपक्षारीकरण संयंत्र के लिये तकनीकी-आर्थिक मूल्यांकन किए गए हैं। यह संयंत्र कुडनकुलम के प्रस्तावित परमाणु बिजली केन्द्र से संबद्ध होगा। थर्मोकम्प्रैशन आधारित अपक्षारीकरण प्रणाली की सम्भाव्यता सम्बन्धी विश्लेषण किया जा चुका है।

निम्नस्तर के रेडियो धर्मिता वाले अपशिष्ट संसाधन के लिये विलोम परिसरण (आर ओ) का प्रायोगिक संयंत्र सफलतापूर्वक चालू कर दिया गया है। प्रयोग द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि विलोम परिसरण वर्तमान प्रक्रियाओं की अपेक्षा दूषण को ज्यादा समाप्त करने वाला और इसकी मात्रा को घटाने वाला होता है। वाष्पीकरण इसका अपवाद है क्योंकि वह ऊर्जा की सघनता वाला होता है। अधिक रेडियो धर्मिता वाले अपशिष्ट पदार्थों के संसाधन और परमाणु उद्योगों में अन्य कार्यों के लिये अधिक कुशलता वाली सिंथेटिक पॉलिमरिक झिल्लियाँ प्राप्त करने के प्रयासों में एरोमेटिक पोलिमाइड किस्म की झिल्लियों का सफलतापूर्वक विकास कर लिया है। ये झिल्लियाँ 99.4 प्रतिशत तक विलीन तत्वों को हटा देती हैं। पॉलिमर का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा रहा है। और इन झिल्लियों का उपयोग करने वाले प्रायोगिक संयंत्र के अध्ययन करने की योजना बनाई जा रही है। ये झिल्लियाँ इकहरे रास्ते वाले समुद्री पानी के खारेपन को दूर करने के लिये भी प्रभावशाली हैं और जहाज पर रखी जाने वाली विलोम परिसरण इकाई इस समय निर्माणाधीन है। अनेक विलोम परिसरण प्रदर्शन इकाइयाँ तैयार की जा चुकी हैं और देश में लगाई गई विज्ञान और प्रौद्योगिकी सम्बन्धी विभिन्न प्रदर्शनियों में इन्हें दिखाया जा चुका है। एक उन्नत विलोम परिसरण मॉडयूल का विकास करने और समुद्री पानी के विलोम परिसरण का संयंत्र लगाने का काम प्रगति पर है। राष्ट्रीय पेयजल मिशन कार्यक्रम के तहत राज्य सरकारों से आए प्रशिक्षणार्थियों के लिये पिछले वर्ष जल की गुणवत्ता की जाँच सम्बन्धी दो प्रशिक्षण पाठ्यक्रम चलाए गए।

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि समन्वित और सम्पूर्ण प्रक्रिया को वास्तव में व्यावहारिक रूप में प्रयोग में करने से ही परिचालन सम्बन्धी सभी असफलताएँ समाप्त होंगी, पर्यावरण के प्रदूषण में उल्लेखनीय कमी होगी और सुरक्षा सम्बन्धी खतरे कम होंगे। एक समन्वित जल प्रबंध कार्यक्रम बेहतर स्वास्थ्य और अधिकाधिक समय के लिये स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने, गरीबी को कम करने और पर्यावरण संरक्षण में सहायक हो सकता है। उन्नत वैज्ञानिक जानकारी का इस्तेमाल करके भारत मानव जाति की एक बहुत ही जटिल समस्या का समाधान करने में संसार के लिये एक आदर्श बन सकता है।

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