जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव एवं वर्तमान प्रदूषण रहित चुनौतियां (भाग 1)
वर्तमान में जलवायु परिवर्तन का बढ़ता स्तर मानवीय स्वास्थ्य के लिए दिन-प्रतिदिन चिंता का सबब बनता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन का सीधा असर मानवीय स्वास्थ्य पर पड़ रहा है जिससे अनेक बीमारियां जन्म ले रही हैं। जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर एशिया के क्षेत्रों पर पड़ेगा क्योंकि यहाँ ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था कृषि व प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करती है। ऐसे में भारत जैसे देशों को जलवायु परिवर्तन को लेकर ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है। मानव शरीर रूपी मशीन को प्राकृतिक रूप से चलने के लिए पृथ्वी, जल, आग, आकाश व वायु रूपी पांच तत्वों को संतुलित करने की जरूरत पड़ती है।
इन तत्वों का असंतुलन मनुष्य के शरीर में व्याधियों को उत्पन्न करता है। जलवायु की जब हम बात करते हैं तो इसमें मुख्य रूप से दो तत्वों की बात होती है। पहला जल व दूसरा वायु, इन दोनों तत्वों का संतुलन में रहना मानव स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन किसी क्षेत्र विशेष की औसत दशाएं है। यह उस क्षेत्र के मौसम में सामान्य परिवर्तन, दशाएं और ऋतुओं के चक्र की दशाओं का योग है। अगर हम पृथ्वी की बात करें तो वर्तमान में इसे हम सात जलवायु प्रदेशों में बांट सकते हैं। इन प्रदेशों की जलवायु की स्थिति को समझने के बाद यह पता चलता है कि प्रत्येक जलवायु प्रदेश के तापमान व वर्षा की उपलब्धता में अंतर उन्हें एक दूसरे से अलग करता है। इन प्रदेशों की स्वाभाविक प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न होने की स्थिति में यहां के लोगों को तमाम तरह की बीमारियों से जूझना पड़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन व मानवीय स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव
जलवायु परिवर्तन की बदलती दशाओं का सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल ने 2001 में 21वीं सदी में इसके प्रभाव को लेकर अपनी आशंका जाहिर की थी। इस रिपोर्ट में कुछ प्रमुख तथ्य निम्नवत हैं-
1- जलवायु परिवर्तन से मिट्टी पर पड़े प्रभाव का सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में वृद्धि होती है और वाष्पीकरण का संतुलन खराब हो जाता है व हमारी मिट्टी की आर्द्रता असंतुलित हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप हमें सूखे की मार झेलनी पड़ सकती है। अगर यह स्थिति लगातार बनी रही तो मिट्टी मरुस्थल में तब्दील हो जाती है। मिट्टी एक समय ऊसर व बंजर हो जाती है। अर्थात हमारे पास भोज्य पदार्थ के उत्पादन के लिए पर्याप्त उर्वर भूमि नहीं बचेगी और हमें भूख व कुपोषण की चपेट में आकर अपनी जान गवांनी पड़ेगी। हालांकि यह स्थिति अभी भी बनी हुई है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण इसका स्वरूप और विकराल हो सकता है। इतना ही नहीं 'काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर' द्वारा जारी एक शोध में कहा गया है कि वैश्विक तापमान वृद्धि से पैदा हुए मुद्दों का युद्धस्तर पर निवारण नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक गेहूं, चावल और मक्के की 200 अरब डॉलर की फसलों को नुकसान हो सकता है।
2 - ग्लेशियरों पर पड़े प्रभाव का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
शोध पत्रिका 'नेचर' में प्रकाशित अपने शोध में मिशेल कोप्पस ने लिखा है कि 'अंटार्कटिका की तुलना में पेंटागोनिया में ग्लेशियर 100 से 1000 गुना तेजी से अपक्षरित हो रहे हैं। तेजी से बढ़ रहे ग्लेशियर अनुप्रवाह घाटियों और महाद्वीपीय समतल पर अधिक गाद इकट्ठा कर देते हैं। मछली पालन, बांधों और पर्वतीय इलाकों में रह रहे लोगों के लिए पेयजल की उपलब्धता पर इसका प्रभाव संभव है। वहीं एशियाई विकास बैंक का अनुमान है कि इस सदी के अंत तक समुद्री जल स्तर 40 सेंटीमीटर बढ़ जाएगा। इससे समुद्री इलाकों में रहने वाले लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा। इंडोनेशिया, थाईलैंड जैसे देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6.7 फीसदी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। वहीं वैश्विक घरेलू उत्पाद के स्तर पर इसी दौरान 2.6 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का मानवीय स्वास्थ्य पर बढ़ता खतरा
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते स्तर का मानवीय स्वास्थ्य पर खतरा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जिससे अनेक बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं। अमेरिकी मीटीऑरलाजिकल सोसायटी के बुलेटिन में विशेष परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित "स्टेट ऑफ द क्लाइमेट इन 2016" रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है। कुल 58 देशों के 413 वैज्ञानिकों के योगदान से यह रिपोर्ट तैयार की गई थी। नेशनल रिकार्डस द्वारा साल 1901 से लेकर अब तक दर्ज किए गए आंकड़ों में साल 2014 एवं 2016 सबसे गर्म साल के रूप में सामने आये हैं। जलवायु परिवर्तन भयावहता व इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के जन स्वास्थ्य पर्यावरण तथा सामाजिक मानक विभाग ने लिखा है- विश्व यदि इसी रफ्तार से चलता रहा तो आने वाले 80 वर्षों में सतह के तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि की आशंका है। इस बार गर्मी में पाकिस्तान व भारत में हमने जिस तरह से गर्म हवाओं को महसूस किया है और जिसके कारण वहां पर 5000 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई है और हजारों की तादाद में लोग गर्मी से संबंधित बीमारियों से जूझने के लिए मजबूर हुए हैं, आने वाले समय में हमें इससे भी ज्यादा गर्म हवाओं से जूझना पड़ेगा। समुद्री तूफान, चक्रवात, बाढ़, जंगल में आग जैसे जलवायु परिवर्तनीय कारकों ने पहले ही पश्चिमी संयुक्त राष्ट्र में 80 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन को तबाह कर दिया है। आगे के दौर में स्थिति और भी खराब होने वाली है। सूखे के समय में हमें कुपोषण से जूझना पड़ेगा व बाढ़ हमारी भोजन-प्रदाई फसलों को नष्ट करेगी। जलवायु परिवर्तन आने वाले दिनों में मलेरिया, डेंगू व अन्य संक्रामक बीमारियों का वाहक बनेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौतों में मलेरिया का योगदान सबसे ज्यादा है।
जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्परिणामों को रेखांकित करते हुए 'लांसेट कमीशन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज-2015' ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन से 9 अरब लोगों की वैश्विक आबादी के लिए पिछली आधी सदी में मिले विकास एवं वैश्विक स्वास्थ्य संबंधी लाभों का नष्ट होने का खतरा है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव मौसम की अतिशय घटनाओं खासकर लू, बाढ़, सूखे और आंधी की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता की वजह से पड़ रहा है। इसमें कहा गया कि संक्रामक रोगों के स्वरूपों में बदलाव, वायु प्रदूषण, खाद्य असुरक्षा एवं कुपोषण, अनैच्छिक विस्थापन और संघर्षों से अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पैदा हो रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण जल-जनित बीमारियों से पूरा विश्व परेशान है। डब्लूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार 74 करोड़ 8 लाख लोग 2012 तक स्वच्छता सुविधाओं के अभाव में जी रहे थे। 2012 तक खुले में शौच करने वालों की तादाद एक अरब से ज्यादा थी। तापमान व समुद्री तल के बढ़ने से बाढ़ जलभराव के कारण पेयजल में रासायनिक अपशिष्टों के सम्मिश्रण की वजह से जलजनित रोगों के होने की आशंका बढ़ जाती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण मानव स्वास्थ्य पर जल प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव
पब्लिक हेल्थ इन्वायरमेंट जिनेवा 2009 की रिपोर्ट से भारतीय पर्यावरणीय कारणों से होने वाली बीमारियों की जानकारी मिलती है। डब्लूएचओ द्वारा जारी इनवायरमेंट बर्डन डिजिज की श्रेणी के अंतर्गत जारी भारतीय प्रोफाइल में बताया गया है कि पानी स्वच्छता व हाइजीन के अभाव में डायरिया के कारण भारत में 454400 मौतें हुईं।
जलवायु परिवर्तन के कारण मानव स्वास्थ्य पर जल प्रदूषण का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जल प्रदूषण के कारण पौधों एवं मानव सहित समस्त जन्तु समुदाय को अकथनीय तथा असाध्य क्षति का सामना करना पड़ता है। जल प्रदूषण के सबसे अधिक शिकार मनुष्य तथा सूक्ष्म जीव होते हैं। प्रदूषित जल के कारण संक्रामक रोगों तथा कई प्रकार के खतरनाक रोगों यथा हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी ज्वर, टायफाइड, पेचिस का अविर्भाव होता है। ठोस प्रदूषकों से युक्त जल का सेवन करने से कई प्राणघातक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एस्बेस्टस से युक्त जल सेवन से एस्बेस्टोसिस नामक जानलेवा रोग हो जाता है। इसके द्वारा फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
पारा युक्त जल से मिनामाटा रोग उत्पन्न होता है। पेयजल में नाइट्रेट की अधिकता से ब्लू बेबी सिण्ड्रोम, कैडिमियम की अधिकता से इटाई-इटाई रोग तथा आर्सेनिक अधिकता से ब्लैक फुट नामक बीमारी हो जाती है। विषाक्त रसायनों से प्रदूषित जल के कारण जलीय पौधों तथा जन्तुओं की मृत्यु हो जाती है। नदियों, झीलों तथा तालाबों के प्रदूषित जल द्वारा सिंचाई करने से फसलें नष्ट हो जाती हैं। अत्यधिक प्रदूषित जल के कारण मृदा भी प्रदूषित हो जाती है। उनकी उर्वरता घट जाती है तथा उपयोगी मृदावासी सूक्ष्म जीव यथा वैक्टीरिया नेमोटेड तथा केंचुआ आदि मर जाते हैं। रेत के अत्यधिक भार से युक्त जल से फसलों की सिंचाई करने से मिट्टियों की उत्पादकता घट जाती है तथा उनकी जल की मांग बढ़ जाती है। अधिक लवणता वाले जल से सिंचाई करने पर मृदा में क्षारीयता बढ जाती है। नदियों तथा झीलों, तालाबों के जल में अजैविक तथा जैविक पोषक तत्वों के सांद्रण में वृद्धि होने से युट्रोफिकेशन या सुपोषण हो जाता है। जिस कारण जलीय भागों में पौधों तथा जन्तुओं की संख्या नियंत्रण सीमा से भी अधिक हो जाती है। इसके विपरीत जल में विषाक्त रसायनों तथा भारी धात्विक पदार्थ के सान्द्रण में वृद्धि होने से पौधे एवं जन्तु विनष्ट हो जाते हैं। सागर के तटवर्तीय जलीय भागों में खनिज तेल के रिसाव से उत्पन्न ऑयल स्लिक तथा कारखानों के विषाक्त अपशिष्टों के विसर्जन के कारण अधिकांश सागरीय जीव मर जाते हैं। जिस कारण पारिस्थितिकीय विनाश की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और जलवायु परिवर्तन का खतरा भी बढ़ता जाता है।
जलवायु परिवर्तन एवं आर्सेनिक संदूषण : लीशमनियासिस दवाओं की प्रतिरोधकता का प्रमुख कारण
जलवायु परिवर्तन के कारण आर्सेनिक संदूषण एक जटिल समस्या है। जल की आपूर्ति में आर्सेनिक संदूषण के मिले होने के कारण मनुष्यों में होने वाला रोग भारतीय उप-महाद्वीप में लोगों के मरने का एक प्रमुख कारण है। आश्चर्यजनक यह है कि दवा उपचार के क्षेत्र में प्रगति के बावजूद यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा परजीवी हत्यारा है। आंत लीशमनियासिस से पूरी दुनिया में लगभग 5 लाख लोग हर साल प्रभावित होते हैं और उनमें से दस में से एक की मृत्यु हो जाती है।
इस रोग के उपचार के लिए दवाओं का एक समूह है जिसे एंटीमोनियल प्रिपरेशन के नाम से जाना जाता है। हालाकि 20वीं शताब्दी के अंत में बिहार में जहां इस बीमारी से प्रभावित भारत के लगभग 90 प्रतिशत लोग रहते हैं, अलोच्य रोग के उपचार में इस दवा की प्रभावशीलता काफी कम रही जिसके कारण उपचार के लिए इस दवा के उपयोग की संस्तुति कम कर दी गई। डंडी और एबरडीन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पानी की आपूर्ति में आर्सेनिक संदूषण, दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां एण्टिमोनियल दवाओं, जिसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल आंत लीशमनियासिस रोग के इलाज के लिए किया जाता है, की प्रतिरोधकता के साथ पीने के पानी में आर्सेनिक संदूषण पाया जाता है। बिहार में भूजल से होने वाले पानी की आपूर्ति में स्वाभाविक रूप से आर्सेनिक संदूषण पाया गया है। प्रयोग के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि पानी का आर्सेनिक संदूषण डण्टिमनी संदूषण सबंधी उपचार के लिए लीशमैनियस परजीवी में प्रतिरोधी का निर्माण कर सकते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार बिहार में भूजल आपूर्ति में आर्सेनिक संदूषण का होना चिंता का विषय है। बहुत से गांव आर्सेनिक संदूषित पानी ही पीते हैं। क्योंकि उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। आर्सेनिक प्रदूषण के संबंध में लोगों को जानकारी कम होने के कारण वे इसके खतरे को समझ नहीं पा रहे हैं और उपशमन परियोजनाएं उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, जिनकी इसकी जरूरत है।