झारखंड राज्य में मृदा स्वास्थ्य की स्थिति समस्या एवं निदान
12 Aug 2018
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Maize

झारखंड राज्य कृषि क्षेत्र में काफी पिछड़ा हुआ है। इस राज्य को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने हेतु वर्तमान उपज को बढ़ाकर दोगुना करना होगा। इसके लिये मृदा स्वास्थ्य की स्थिति एवं उनकी समस्याओं का जानकारी होना अतिआवश्यक है ताकि, प्रदेश के किसान कम लागत में अच्छी उपज प्राप्त कर सके।

झारखंड प्रदेश में लगभग 10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि, अम्लीय भूमि (पी.एच. 5.5 से कम) के अन्तर्गत आती है। यदि हम विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्र में पड़ने वाली जिलों में अम्लीय भूमि की स्थिति को देखें तो उत्तरी पूर्वी पठारी जोन (जोन IV) के अन्तर्गत जामताड़ा, धनबाद, बोकारो, गिरीडीह, हजारीबाग एवं राँची के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 50 प्रतिशत से अधिक भूमि अम्लीय समस्या से ग्रसित है। इसी तरह पश्चिमी पठारी जोन (जोन V) में सिमडेगा, गुमला एवं लोहरदगा में 69-72 प्रतिशत तक अम्लीय भूमि की समस्या है, जबकि पलामू, गढ़वा एवं लातेहार में अम्लीय भूमि का क्षेत्रफल 16 प्रतिशत से कम है दक्षिण-पूर्वी जोन (जोन VI) में अम्लीय भूमि की समस्या सबसे ज्यादा है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले तीनों जिलों-सरायकेला, पूर्वी एवं पश्चिम सिंहभूम में अम्लीय भूमि का क्षेत्रफल 70 प्रतिशत के करीब है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि झारखंड प्रदेश में अम्लियता प्रमुख समस्या है।

अम्लीय भूमि की समस्या का प्रभाव
अम्लीय भूमि में गेहूँ, मक्का, दलहन एवं तिलहनी फसलों की उपज संतोषप्रद नहीं हो पाती है। इस प्रकार की भूमि में अनेक पोषक तत्वों की उपलब्धता में कमी हो जाती है। अधिक मृदा अम्लियता के कारण एल्युमिनियम, मैगनीज एवं लोहा अधिक घुलनशील हो जाते हैं और पौधों को अधिक मात्रा में उपलब्ध होने के कारण उत्पादन पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। अम्लीय भूमि में मुख्यतः फास्फेट, सल्फर, कैल्शियम एवं बोरॉन की कमी होती है। इसके अलावा सूक्ष्म जीवों की संख्या एवं कार्यकुशलता में भी कमी आ जाती है, जिसके कारण नाइट्रोजन का स्थिरीकरण व कार्बनिक पदार्थों का विघटन कम हो जाता है। इस प्रकार की अम्लीय समस्याग्रस्त भूमि में पौधों के लिये आवश्यक पोषक तत्वों में असंतुलन पोषक तत्वों में असंतुलन के कारण पैदावार में कमी हो जाती है।

अम्लीय भूमि का सुधार
ऐसी भूमि जिसका पी.एच. मान 5.5 से नीचे हो, अधिक पैदावार हेतु उनका उचित प्रबंधन जरूरी है। इसके लिये ऐसे पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए, जो भूमि की अम्लियता को उदासीन कर विभिन्न तत्वों की उपलब्धता बढ़ा सके। इसके लिये बाजारू चूना खेतों में डालने के काम में लाया जाता है। जब फसलों की बुआई के लिये कुंड खोला जाए, उसमें चूने का महीन चूर्ण 3-4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से डालने के बाद उसे ढक देना चाहिए। उसके बाद फसलों के लिये अनुशंसित उर्वरकों एवं बीज की बुआई करनी चाहिए। चूने के स्थान पर बेसिक स्लैग, प्रेस मड, डोलोमाइट, पेपर मिल एवं स्लज इत्यादि का भी प्रयोग किया जा सकता है और इसके लिये लगभग दोगुनी मात्रा का व्यवस्था करना होगा।

मुख्य पोषक तत्वों की कमी
झारखंड प्रदेश में मुख्य पोषक तत्वों में मुख्य रूप से फास्फोरस एवं सल्फर की कमी पाई जाती है। कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के लगभग 66 प्रतिशत भाग में फास्फोरस एवं 38 प्रतिशत भाग में सल्फर की कमी पाई गई है पोटेशियम की स्थिति कुल भौगोलिक क्षेत्र के 51 प्रतिशत भाग में निम्न से मध्यम (108-280 प्रति हेक्टेयर) तक तथा नाइट्रोजन की स्थिति 70 प्रतिशत भाग में निम्न से मध्यम (280-560 प्रति हेक्टेयर) पाई गई है जबकि कार्बन 47 प्रतिशत भाग में मध्यम (0.5-0.75 प्रतिशत) स्थिति में पाई गई है।

यदि मुख्य पोषक तत्वों की स्थिति पर हम जिलावार गौर करें तो हम पाते हैं कि झारखंड क्षेत्र के आधा से ज्यादा जिलों में फास्फोरस की कमी है। गुमला, पूर्वी सिंहभूम सिमडेगा, गोड्डा, सरायकेला एवं पश्चिमी सिंहभूमि में 80 प्रतिशत से अधिक मिट्टी में फास्फोरस की उपलब्धता बहुत कम है। पश्चिम सिंहभूम, लातेहार एवं लोहरदगा जिलों में सल्फर की कमी 60-80 प्रतिशत तक है गढ़वा, हजारीबाग, गुमला देवघर, गोड्डा, राँची, सरायकेला पाकुड़, दुमका, पूर्वी सिंहभूम, साहेबगंज में 30 से 58 प्रतिशत तक की भूमि में सल्फर की कमी पाई गयी है अन्य जिलों में इसकी उपलब्धता संतोषजनक है। उपलब्ध पोटेशियम की कमी पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम एवं धनबाद के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 30 से 50 प्रतिशत तक की भूमि में है। अन्य जिलों में कमी का स्तर 5 से 25 प्रतिशत तक है। उपलब्ध नाइट्रोजन की स्थिति कुछ जिलों (गुमला, देवघर, सिमडेगा एवं लोहरदगा) को छोड़कर सभी जिलों में मध्यम है। जैविक कार्बन की स्थिति नाइट्रोजन के जैसा ही है।

स्फूर (फास्फोरस) की कमी विशेषतः दलहनी एवं तिलहनी फसलों की उपज को प्रभावित करता है। फसल विलम्ब से पकते हैं एवं बीजों या फलों के विकास में कमी आती है। ऐसे क्षेत्र जहाँ पर स्फूर की कमी हो, मिट्टी जाँच प्रतिवेदन के आधार पर सिंगल सुपर फास्फेट या डी.ए.पी. का प्रयोग करना चाहिए। लाल एवं लैटिरिटिक मिट्टियों में जिसका पी.एच. मान 5.5 से कम हो रॉक फॉस्फेट का उपयोग काफी लाभदायक होता है।

जिन जिलों में सल्फर की कमी ज्यादा पाई गई है वहाँ पर एस.एस.पी. का प्रयोग कर इसकी कमी पूरी की जा सकती है। इसके अलावा फास्फोरस जिप्सम का प्रयोग भी सल्फर की कमी को दूर करने में लाभदायक है। दलहनी एवं तिलहनी फसलों में सल्फर युक्त खाद का प्रयोग लाभदायी होता है।

पोटाश पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिये आवश्यक है। यह पौधों को कीट-व्याधि से बचाने में मदद करता है। साथ ही साथ सूखे की स्थिति में फसल की जल उपयोगी क्षमता को बढ़ाता है। ऐसा माना जाता है कि झारखंड की मिट्टियों में पोटाश पर्याप्त मात्र में है, परन्तु वास्तव में स्थिति ऐसी नहीं है। अतः पोटाश उर्वरक के रूप में म्यूरेट ऑफ पोटाश (पोटेशियम क्लोराइड) का उपयोग करना चाहिए।

नाइट्रोजन पौधों की बढ़वार हेतु बहुत आवश्यक तत्व है, परन्तु इसका असंतुलित व्यवहार मिट्टी के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। अतः किसान को फसलों के आधार पर नाइट्रोजन के साथ-साथ अन्य पोषक तत्वों स्फूर, पोटाश का भी प्रयोग करना चाहिए।

सूक्ष्म पोषक तत्वों की स्थितिः
झारखंड के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 45 प्रतिशत भाग में बोरॉन, 4 प्रतिशत भाग में कॉपर तथा 7 प्रतिशत में जिंक की कमी पाई गई है। यदि सूक्ष्म पोषक तत्वों की स्थिति पर हम जिलावार गौर करें तो हम पाते हैं कि सरायकेला, पलामू, गढ़वा, लोहरदगा, पूर्वी सिंहभूम एवं लातेहार जिले में बोरॉन की कमी कुल भौगोलिक क्षेत्र के 50 प्रतिशत भाग में पाई गई है। शेष अन्य जिलों में इसकी कमी का स्तर 20-45 प्रतिशत तक है।

जिंक की कमी मुख्यतः चार जिलों - पाकुड़, लोहरदगा, गिरिडीह एवं कोडरमा में पाई गई है। इसकी कमी की स्थिति इन जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 14-17 प्रतिशत भूमि में है। तांबा की कमी लगभग नगण्य है एवं अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे- लोहा, मैगनीज मिट्टी में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

सब्जियों की खेती में बोरॉन युक्त उर्वरकों का काफी महत्व है। इसकी कमी से पौधों की नई पत्तियों के मध्य शिरायें रंगहीन हो जाती है और धीरे-धीरे पूरी पत्ती सूख जाती है। प्रभावित पौधों के तने खोखले होकर अन्दर से सड़ने लगते है। प्रभावित फूलों से दुर्गंध आती है और वे बाजार योग्य नहीं रहते। इसकी पूर्ति के लिये 10 दिन बाद 14 कि.ग्रा. बोरेक्स अथवा 9 कि.ग्रा. बोरिक अम्ल पौधों के चारों ओर डालकर मिट्टी में मिला देना चाहिए। शीतकाल में बोरेक्स अथवा बोरिक अम्ल का प्रयोग अच्छा रहता है क्योंकि अवशिष्टों का असर अगले तीन मौसमों तक बना रहता है। बोरॉन के पर्णीय छिड़काव के लिये 1.25 ग्रा. बोरिक एसिड 1.0 मि.ली. टीपाल एवं 12.0 ग्रा. कैल्शियम क्लोराइ का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर रोपाई के 10 दिन बाद से प्रारम्भ करते हुए 10 से 12 दिनों के अन्तर पर 3 बार प्रयोग करना चाहिए।

तालिका 1 झारखंड राज्य के विभिन्न जिलों में मृदा क्रिया (मृदा पी.एच.) की स्थिति

जिला

अत्यधिक अम्लीय

मध्यम से निम्न अम्लीय (पी.एच.5.5 से 6.5 तक)

बोकारो

64.8

24.5

चतरा

19.8

46.6

देवघर

38.5

56.9

धनबाद

57.5

33.1

दुमका

48.5

42.4

गढ़वा

5.5

37.5

पूर्वी सिंहभूम

63.6

20.8

गिरिडीह

56.1

36.6

गोड्डा

28.3

56.1

गुमला

66.8

27.5

हजारीबाग

52.7

35.5

जामताड़ा

62.2

23.7

लातेहार

23.4

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