2006 में बाड़मेर के न्यू कोटड़ा में आई बाढ़ में हजारों घर तबाह हो गए थे। इसके बाद बेहद कम वक्त में इन मकानों को बनाया गया। ये मकान हर मौसम के अनुकूल हैं और बाढ़ व भूकम्प से भी सुरक्षित रखते हैं।

इस गाँव की स्थापना 2006 में आई भीषण बाढ़ के बाद की गई थी जिसमें बाड़मेर के कई गाँवों में भारी तबाही हुई थी। इस बाढ़ से 103 लोगों की जानें गईं थीं तथा मवेशियों और फसलों को काफी नुकसान पहुँचा था। अपुष्ट रिपोर्टों के मुताबिक, बाढ़ से लगभग 5,200 मकान तबाह हुए जिनमें से अधिकांश मिट्टी से बने थे। इससे बेघर हुए लोगों ने ऊँचे टीलों और स्कूलों में शरण ली। सबसे ज्यादा वे लोग प्रभावित हुए जिनके पास फिर से अपने मकान बनाने के बहुत कम साधन उपलब्ध थे।
इन्हीं में से एक गाँव था जलेला जिसे दोबारा बसाने में दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन सस्टेनेबल एनवायरनमेंट एंड इकोलॉजिकल डेवलपमेंट सोसायटी (सीड्स) ने मदद की। यह संगठन आपदा से प्रभावित परिवारों के लिये काम करता है। सीड्स की मुख्य संचालन अधिकारी शिवांगी चावड़ा कहती हैं, “कई परिवार पहले से भी कठिन परिस्थितियों में फँस चुके थे जो प्रकृति के प्रकोप के कारण पैदा हुईं थीं।” इस संगठन ने जिला प्रशासन की मदद से प्रभावित गाँवों में 300 मकान बनाए। जलेला को न्यू कोटड़ा के रूप में पूरी तरह पुनर्निर्मित किया गया जिसके लिये जिला प्रशासन ने भूमि उपलब्ध कराई। इस परियोजना को बाड़मेर आश्रय योजना नाम दिया गया। सीड्स ने बाढ़ से तबाह हुए जलस्रोतों के निर्माण के लिये काम किया। इसने बारिश के पानी को एकत्र करने के लिये भूमिगत कुओं को निर्माण कराया जिसमें 32,000 लीटर पानी एकत्रित किया जा सकता है।
बाड़मेर आश्रम योजना के लिये परियोजना की परिकल्पना बनाने में दो महीने का वक्त लगा। कार्यान्वयन प्रक्रिया में और चार महीने लगे तथा परियोजना पूरी होने में छः महीने का समय लगा जिसमें 1,88,21,619 रुपए की लागत आई. इस मकान के निर्माण में लगभग 40,000 रुपए लगे। वित्तीय सहायता यूरोपीय कम्युनिटी और ह्यूमैनिटेरियन ऑफिस (एको) और लन्दन स्थित गैर-लाभकारी क्रिश्चियन एड से प्राप्त हुई। तकनीकी विशेषज्ञता और सामाजिक सहायता तथा संरचना के निर्माण की लागत सीड्स ने वहन की।

न्यू कोटड़ा स्थित घरों का आकार सिलेंडर की तरह है। इससे बाढ़ की स्थिति में पानी कोनों में जमा नहीं होता बल्कि चारों तरफ बँट जाता है जिससे घर मजबूती के साथ खड़ा रहता है। सीड्स ने मकानों के निर्माण के लिये स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल किया। मकान की नींव चार फुट गहरी बनाई गई जो इसकी मजबूती को और बढ़ा देती है। इसके अलावा खिड़कियों के चारों ओर बैंक उपलब्ध कराए गए हैं ताकि घर की इस सबसे कमजोर कड़ी में मजबूती आ सके।
जिन ईंटों का इस्तेमाल किया गया है उनमें बड़े-बड़े छेद हैं और उन्हें इस प्रकार रखा गया है जिससे उनके बीच थोड़ी जगह खाली बची रहे। छेदों और खाली जगह से वाष्पीकरण होता रहता है जिससे मकान में ठंडक रहती है। ईंटे ताप रोधी भी होती हैं जिससे बाहर की गर्मी को अन्दर आने में अधिक समय लगता है। इन घरों की छत बाँस, बाजरे के तने और स्थानीय घास, सानिया से बनी हुई है। इससे ऊष्मा को अन्दर आने में और बाहर जाने में अधिक समय लगता है जिससे घर ग्रीष्मकाल में ठंडे और सर्दियों में गर्म रहते हैं। इनके दरवाजे भी अन्दर की ओर नहीं बल्कि बाहर की ओर खुलते हैं ताकि आपातकालीन स्थिति में बाहर निकलने में आसानी हो।
सीड्स के वरिष्ठ प्रबन्धक और इंजीनियर मिहिर जोशी का कहना है, “ये मकान लोगों को बदलती हुई जलवायु के अनुसार, खुद को ढालने में मदद कर सकते हैं।” यहाँ रहने वाले दायम खान भी इस बात को मानते हैं। वह कहते हैं, “यदि हमारे पास ऐसे मकान हों तो बाढ़ से होने वाली तबाही को कम करने में मदद मिलेगी।”
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