मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी का गड़बड़झाला

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क्या मनरेगा को जस का तस छोड़ा जा सकता है? मनरेगा के मामले में नागरिक-संगठन आखिर इतना हल्ला किस बात पर मचा रहे हैं? क्या ग्रामीण इलाके के सामाजिक कार्यकर्ता बहुत ज्यादा की मांग कर रहे हैं? क्या यूपीए- II वह सारा कुछ वापस लेने पर तुली है जो यूपीए- I ने चुनावों से पहले दिया था?

चुनौती सामने है, मनरेगा गहरे संकट में है। अरुणा राय और ज्यां द्रेज सरीखे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्यों का आरोप (देखें नीचे दी गई लिंक) है कि ग्रामीण मजदूरों की मौजूदा मजदूरी गुजरते हर दिन के साथ घटते जा रही है और इस क्रम में संविधानप्रदत्त न्यूनतम मजदूरी के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। विरोध में नागरिक संगठन आवाज उठा रहे हैं क्योंकि ग्रामीण विकास मंत्रि की सरबराही में एक ताकतवर लॉबी मनरेगा-योजना के भीतर से श्रमप्रधान हिस्से को कम करके निर्माण-सामग्री वाले हिस्से पर जोर देना चाहती है और नागरिक संगठनों को लग रहा है कि इस बदलाव के जरिए मजदूरों के हिस्से की रकम निर्माण सामग्री की आपूर्ति करने वाले ठेकेदारों को बांटने की जुगत भिड़ायी जा रही है जबकि ठेकेदार इस योजना से अबतक बाहर रखे गए हैं। नागरिक संगठन मनरेगा कानून के अन्तर्गत सामाजिक अंकेक्षण को अपरिहार्य घोषित करने वाले प्रावधान-सेक्शन 13 बी में किए जाने वाले संशोधन के भी खिलाफ हैं। इस प्रावधान के तहत कहा गया है कि ग्राम सभा अपने कार्यों का मूल्यांकन करेगी। (राजस्थान में सरपंच किस तरह से मनरेगा की रकम में घोलमेल कर रहे हैं इसकी विस्तृत जानकारी के लिए देखें इन्कुल्सिव मीडिया फॉर चेंज की एक पोस्ट, http://www.im4change.org/news-alert/the-biggest-mnrega-scam-in-rajasthan-1911.html)

मनरेगा भारत के सामाजिक क्षेत्र में लागू की गई सर्वाधिक रचनात्मक पहलकदमियों में से एक है और जहां भी इस पर ठीक-ठाक अमल हुआ है वहां नतीजे चमत्कारिक हैं। गुजरे कुछ सालों में तकरीबन 9 करोड़ बैंकखाते खुले हैं और अबतक 12 करोड़ जॉबकार्ड जारी किए गए हैं। मनरेगा के अन्तर्गत मजदूरी करने वाले स्त्री-पुरुष दोनों को बराबर की मजदूरी मिलती है। जहां मनरेगा पर तनिक बेहतर तरीके से अमल हुआ है वहां मनरेगा के कारण पलायन और भुखमरी को रोकने में एक सीमा तक कामयाबी मिली है। (विस्तार के लिए देखें: http://www.im4change.org/empowerment/right-to-work-mg-nrega-39.html)

इस योजना में एक अंदरुनी कमी यह है कि इसमें खाद्य-पदार्थों की महंगाई के इस वक्त में मजदूरों की मजदूरी के मोल को घटने से रोकने के लिए कोई इंतजाम नहीं है। जिस तरह सरकारी कर्मचारियों के वेतन को कंज्यूमर प्राईस इंडेक्स से जोड़कर तय किया जाता है वैसा ही हम खेतिहर मजदूरों की मजदूरी के साथ क्यों नहीं कर सकते? गुजरे दो सालों में, वेतनभोगी हर तबके मसलन राज्य और केंद्र स्तर के मंत्रि, सांसद-विधायक और सरपंच तक के वेतन में बढोत्तरी हुई है जबकि मनरेगा के तहत काम करने वाले मेहनतकश की कमाई मुद्रा-स्फीति के कारण कमते जा रही है। नीचे दी गई तालिका(जयपुर में जारी मजदूर हक यात्रा और धरना के आयोजन स्थल पर प्रदर्शित) में हर स्तर के कामगार के मेहनताने की तुलना(साल 2008 से) की गई है। इससे बाकी लोगों के मेहनताने से मजदूर के मेहनताने के बीच के फर्क का साफ-साफ पता चलता है।

मासिक वेतन

Job Category

Salary in 2008 (in Rs per month)

Salary in 2010 (in Rs per month)

Collector 55,201 93,425
Junior Engineer 33,926 46,128
Teacher 22,300 30,318
Patwari 21.115 28,706
Sarpanch 500 3,000
MG-NREGA worker 100 (daily) 100 (daily)

मुद्रास्फीति

Commodity

Price of commodities in 2008 (in Rs per kg)

Price of commodities in 2010 (in Rs per kg)

Gur 12 33
Sugar 17 36
Dal (mix) 32 72
Oil (Til) 72 120
Wheat (Ata) 11 18
Vegetables 20 35

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