Anna hazare
Anna hazare

पानी समस्या - हमारे प्रेरक

Published on
8 min read


आज बहुत ही अच्छा दिन है क्योंकि आज इतने सारे लोग पानी और वनों पर चर्चा करने के लिये इकट्ठे हुए हैं। सभी का मानना है कि यह चर्चा समय काटने के लिये नहीं है। यह चर्चा अच्छे लोगों को जोड़कर कुछ अच्छा करने के लिये है। इस चर्चा के माध्यम से आज हम जल स्वावलम्बन से जुड़ी कुछ उजली कहानियों की बानगी देखेंगे। ये कहानियाँ उन लोगों की हैं जो आम जन थे। उन्होंने अपने कामों तथा समाज के सहयोग से हाशिये पर बैठे लोगों तथा समाज की उम्मीदें जगाई हैं। उम्मीदों को पूरा किया था। लोगों की कसौटी पर खरे उतरे थे। उनकी कहानियाँ आश्वस्त करती हैं कि सोच बदल कर जल कष्ट को जल आपूर्ति की कारगर संभावना में बदला जा सकता है। इसलिये आज हम कुछ उजली संभावनाओं के क्षितिज भी तलाशेंगे। यह चर्चा मुख्य रूप से समाज को उसकी ताकत तथा बुद्धिबल की याद दिलाने के लिये भी आयोजित की गई है। समाज के बुद्धिबल और क्षमता को याद कराने के लिये सबसे पहले हम, रामायण के उस प्रसंग को याद करें जिसमें सीता का पता लगाने गई सुग्रीव की वानर सेना समुद्र तट पर असहाय होकर बैठी है। उसका लक्ष्य समुद्र पार लंका पहुँचना है। लक्ष्य की 400 योजन की दूरी के सामने बलवान वानर भी लाचारी जता रहे हैं। उनको लगता है, वो बहुत कम दूरी तक ही छलांग लगा सकते हैं। समुद्र पार करना उनके बस की बात नहीं है। तब जामवंत, हनुमान को उनके बुद्धिबल और ताकत की याद दिलाने के लिये कहते हैं -

‘‘कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।
पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना।।’’



हनुमान को अपना बिसराया बल याद आ जाता है। वे एक ही छलांग में समुद्र लांघ जाते हैं। लंका पहुँचकर सीता का पता लगा लेते हैं। उनसे मिल भी लेते हैं। राम को सीता का पता भी बता देते हैं। इसी प्रकार, महाभारत के युद्ध में अर्जुन उहापोह में हैं। अपने सगे सम्बन्धियों और गुरू से युद्ध करें कि नहीं करें के असमंजस ने उन्हें किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया था। ऐसी परिस्थितियों में श्रीकृष्ण ने उन्हें कर्म की शिक्षा दी और कर्तव्य की याद दिलाई। अर्जुन उठ खड़े हुए। युद्ध में विजयी हुए। वही हालत आज हमारे समाज की है। पानी और जंगल के मामले में शायद हम भी जामवंतों, हनुमान तथा कृष्ण जैसे प्रेरकों को खोजना चाहते हैं। आइए मिलकर आधुनिक युग के जामवंतों, हनुमानों तथा कृष्ण को अपने आस-पास खोजें। आवश्यकता पड़े तो उनका मार्गदर्शन प्राप्त करें। अनुभव, ज्ञान और सीख साझा करें। अपनी क्षमता तथा बुद्धिबल का उपयोग करें।

हमारे प्रेरक - उनका योगदान और संदेश

गांधीजी का ग्राम स्वराज

अनुपम मिश्र - तालाबों के पुरोधा

‘आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूँदें।’

उनकी जल साधना यात्रा होशंगाबाद जिले में मिट्टी बचाओ आन्दोलन से प्रारंभ हुई थी। वे तत्कालीन उत्तरप्रदेश के चिपको आन्दोलन से भी जुड़े थे। अनुपम मिश्र ने परम्परागत तालाबों के बारे में अपनी किताब आज भी खरे हैं तालाब में लिखा था कि -

‘‘सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे इकाई थी बनवाने वालों की तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा, हजार बनती थी।’’

‘‘जहाँ सदियों से तालाब बनते रहे हैं, हजारों की संख्या में बने हैं - वहाँ तालाब बनाने का पूरा विवरण न होना शुरू में अटपटा लग सकता है, पर यह सहज स्थिति है। तालाब कैसे बनाएँ के बदले चारों तरफ तालाब ऐसे बनाएँ का चलन था।’’



अनुपम मिश्र की नजर में परम्परागत ज्ञान को समाज की धरोहर बनाने का यह भारतीय तरीका था। यह तरीका लोगों को शिक्षित करता था। उनके कौशल का समग्र विकास करता था। उनका आत्मविश्वास जगाता था। उन्हें काबिल बनाता था। यही ज्ञान तथा काबलियत, समाज को पूरी जिम्मेदारी से भागीदारी का अवसर देती थी।

अनुपम की किताबों से प्रेरणा लेकर हजारों लोगों ने बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात में अनेक नये तालाब बनवाए। पुराने बदहाल तालाबों को ठीक किया। उन्होंने जीवन भर मानवता और प्रकृति के बीच गहरे रिश्ते को बनाने, भारत के परम्परागत जल प्रबन्ध और स्थानीय हुनरमंद लोगों को सामने लाने का काम किया। उनका मानना था कि पानी का काम सरकारी तंत्र तथा सरकारी धन से नहीं अपितु समाज की सक्रिय भागीदारी से ही हो सकता है। वे नदियों की भी बहुत चिन्ता करते थे। वे नदियों की आजादी के पक्षधर थे। उनका मानना था कि गन्दी नदियों को पुनः नदी बनाने के लिये उनका पर्यावरणी प्रवाह लौटाना होगा। वही एकमात्र रास्ता है।

अन्ना हजारे का करिश्मा

राजेन्द्र सिंह - आधुनिक भागीरथ

राजस्थान की सात सूखी नदियों के जीवन्त होने की कहानी

समाज का अभिनव प्रजातांत्रिक प्रयोग - अरवरी जल संसद

‘देव का देवरा’

में 10 जून, 2000 को अरवरी नदी की संसद का पहला सत्र लगाया गया। इस बैठक में अरवरी नदी के किनारे बसे 70 गाँवों के लोग सम्मिलित हुये। इन लोगों ने सूखे की स्थिति पर अपने नजरिये से गंभीर विचार विमर्श किया। उन्हें लगा कि पानी और हरियाली बचाने का काम नौकरशाही के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। उन्होंने इस काम का जिम्मा अपने हाथ में लेने का फैसला लिया। उन्होंने यह भी फैसला लिया कि आगे से जंगल से केवल सूखी लकड़ी ही बीन कर लाई जायेगी। कुल्हाड़ी लेकर जंगल जाने वाले पर जुर्माना लगाया जायेगा। जंगल कटते देखने वाले और उसकी शिकायत नहीं करने वालों पर भी दंड की राशि तय की गई। जुर्माना नहीं देने वालों पर सबसे अधिक दंड तय किया गया। अब, अरवरी नदी के समाज के अभिनव प्रजातांत्रिक प्रयोग की कहानी थोड़ा विस्तार से।

अरवरी जल संसद की कहानी, एक छोटी सी नदी के सूखने और समाज के प्रयासों से उसके जिन्दा होने की कहानी है। नदी के जिन्दा होने का कमाल वैज्ञानिक नहीं अपितु समाज की परम्परागत समझ तथा देशज ज्ञान की बदौलत हुआ है। पहले, हम इस नदी के सूखने के कारणों को संक्षेप में समझ लें फिर समाज के उन देशज प्रयासों की बात करेंगे जो एक सूखी नदी को जिन्दा करने के लिये जिम्मेदार हैं। कहानी इस प्रकार है-

अठाहरवीं सदी में अरवरी नदी राजस्थान के अलवर जिले में प्रतापगढ़ नाले के नाम से जानी जाती थी। उस कालखंड में वह सदानीरा थी। उसके केचमेंट में घने जंगल थे। लोग पशुपालन करते थे। पानी की मांग बहुत कम थी। धीरे-धीरे समय बदला, परिवार बढ़े और बढ़ती खेती ने जंगल की जमीन को निगलना शुरू किया। इस बदलाव ने पानी की खपत को तेजी से बढ़ाया। बढ़ती खपत ने जमीन के नीचे के पानी को लक्ष्मण रेखा पार करने के लिये मजबूर किया।

अरवरी नदी के सूखने की कहानी झिरी गाँव से शुरू होती है। इस गाँव में सन 1960 के आस-पास संगमरमर की खुदाई शुरू हुई। इसके लिये खदानों में जमा पानी को निकाला गया। लगातार चलने वाली इस प्रक्रिया ने पानी की कमी को बढ़ाया। सन 1960 के बाद के सालों में अरवरी नदी सूख गई। धीरे-धीरे जलसंकट आस-पास के गाँवों में फैल गया। जल संकट के कारण, पशुओं को आवारा छोड़ने की परिस्थितियाँ बनने लगीं। नौजवान रोजी-रोटी के लिये जयपुर, सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली की ओर पलायन करने लगे। बचे खुचे लोगों ने विधान सभा के सामने धरना दिया। मुख्यमंत्री तक गुहार लगाई। समस्या का निदान नहीं मिला। समाज की आस टूटी और निराशा हाथ आई। इसी समय तरुण भारत संघ ने इस इलाके को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। गाँव के बड़े-बूढ़ों ने उनसे, सब काम छोड़, पानी का काम करने को कहा। जोहड़ बनाने का काम शुरू हुआ। एक के बाद एक जोहड़ बने। ये सब जोहड़ छोटे-छोटे थे। नदी से दूर, पहाड़ियों की तलहटी से प्रारंभ किए गये थे। पहली ही बरसात में वे लबालब भरे। अरवरी नदी सूखी रही पर कुओं में पानी लौटने लगा। लौटते पानी ने लोगों की आस भी लौटाई। सफलता ने लोगों को रास्ता दिखाया। उन्हें एकजुट किया। उनका आत्मबल बढ़ा। सन 1990 में अरवरी नदी में पहली बार, अक्टूबर माह तक पानी बहता दिखा।

अरवरी जल संसद की कहानी, राजस्थान के एक अति पिछड़े इलाके में कम पढ़े-लिखे किन्तु संगठित लोगों द्वारा अपने प्रयासों एवं संकल्पों की ताकत से लिखी कहानी है। यह कहानी पानी के उपयोग में आत्मसंयम का संदेश देती है। यह पानी, जंगल एवं जैवविविधता के पुनर्वास, निरापद खेती और सुनिश्चित आजीविका की विलक्षण कहानी है। इस कहानी की पूरी पटकथा ग्रामीणों ने लिखी है।इस घटना से लोगों का भरोसा मजबूत हुआ। हौसलों को ताकत मिली। काम और आगे बढ़ा। सन 1995 आते-आते पूरी अरवरी नदी जिन्दा हो गई। अब अरवरी सदानीरा है। लोगों के मन में सवाल कौंधने लगे - अरवरी नदी को आगे भी सदानीरा कैसे बनाये रखा जाये? उन्हें लग रहा था कि यदि सही इन्तजाम नहीं किया तो नदी फिर सूख जायेगी। गाँव वालों ने अरवरी नदी के पानी को साफ सुथरा बनाये रखने तथा जलचरों को बचाने और केचमेंट के जंगल को सुरक्षित रखने, स्थानीय समाज की भूमिका और समाज के अधिकारों के बारे में सोच विचार प्रारंभ किया। उन्होंने उपरोक्त मुद्दे पर देश के विद्वानों और पढ़े लिखे लोगों की राय जानने के लिये अरवरी नदी के किनारे बसे हमीरपुर गाँव में 19 दिसम्बर, 1998 को जन सुनवाई कराई। जनसुनवाई में विश्व जल आयोग के तत्कालीन आयुक्त अनिल अग्रवाल, राजस्थान के पूर्व मुख्य सचिव एम. एल. मेहता, हिमाचल के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गुलाब गुप्ता, राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति टी. के. उन्नीकृष्णन, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के तत्कालीन सचिव एस. रिजवी जैसे अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया। जन सुनवाई में मुद्दई, गवाह, वकील, जज, विचारक, नियंता सब मौजूद थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता जस्टिस गुलाब गुप्ता ने की। गाँव वालों ने अपनी बेवाक राय जाहिर की और बाहर से आये लोगों को ध्यान से सुना।

जन सुनवाई के दौरान राय बनी कि ........... कानून और सरकार कुछ भी कहें, पर मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। अतः संसाधनों पर पहला हक बचाने वाले का है। पहले वही उपभोग करे, उसी का मालिकाना हक हो। 26 जनवरी 1999 को प्रसिद्ध गाँधीवादी सर्वोदयी नेता सिद्धराज ढड्ढा की अध्यक्षता में हमीरपुर गाँव में संकल्प ग्रहण समारोह आयोजित हुआ और 70 गाँवों की अरवरी संसद अस्तित्व में आई। अरवरी संसद, हकीकत में एक जिन्दा नदी की जीवन्त संसद है। लोगों ने अपनी संसद के निम्नलिखित उद्देश्य तय किये -

- प्राकृतिक संसाधनों का संवर्धन करना।
- समाज की सहजता को तोड़े बिना अन्याय का प्रतिकार करना।
- समाज में स्वाभिमान, अनुशासन, निर्भयता, रचनात्मकता तथा दायित्वपूर्ण व्यवहार के संस्कारों को मजबूत करना।
- स्वावलम्बी समाज की रचना के लिये विचारणीय बिन्दुओं को लोगों के बीच ले जाना। उन पर कार्यवाही करना।
- निर्णय प्रक्रिया में समाज के अन्तिम व्यक्ति की भी भागीदारी सुनिश्चित करना।
- ग्राम सभा की दायित्वपूर्ति में संसद सहयोगी की भूमिका अदा करेगी, लेकिन जहाँ ग्राम सभा, तमाम प्रयासों के बावजूद निष्क्रिय बनी रहेगी वहाँ संसद स्वयं पहल करेगी।

अरवरी संसद के दायित्व निम्नानुसार हैं -

अरवरी नदी का सांसद कौन होगा -

किसान बासप्पा की एकला चलो कहानी

कहानी पेरूमेट्टी पंचायत और कोका कोला की

नदी के पानी की बिक्री का प्रतिकार करता समाज

सुन्दरलाल बहुगुणा

रवि चोपड़ा

बलबीर सिंह सींचेवाल

उजली संभावनाओं का उषाकाल

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org