पर्यावरण प्रदूषण (Environment Pollution)
प्राचीन काल में प्रकृति और मानव के बीच भावनात्मक संबंध था। मानव अत्यंत कृतज्ञ भाव से प्रकृति के उपहारों को ग्रहण करता था। प्रकृति के किसी भी अवयव को क्षति पहुँचाना पाप समझा जाता था। बढ़ती जनसंख्या एवं भौतिक विकास के फलस्वरूप प्रकृति का असीमित दोहन प्रारम्भ हुआ। भूमि से हमने अपार खनिज सम्पदा, डीजल, पेट्रोल आदि निकाल कर धरती की कोख को उजाड़ दिया। वृक्षों को काट-काट कर मानव समाज ने धरती को नग्न कर दिया। वन्य जीवों के प्राकृतवास वनों के कटने के कारण वन्य-जीव बेघर होते गए। असीमित औद्योगीकरण के कारण लगातार जहर उगलती चिमनियों ने वायुमण्डल को विषाक्त एवं निष्प्राण बना दिया। हमारी पावन नदियाँ अब गंदे नाले का रूप ले चुकी हैं। नदियों का जल विशाक्त होने के कारण उसमें रहने वाली मछलियाँ एवं अन्य जलीय जीव तड़प-तड़प कर मर रहे हैं। बढ़ते ध्वनि प्रदूषण से कानों के परदों पर लगातार घातक प्रभाव पड़ रहा है। लगातार घातक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूमि को उसरीला बनाता जा रहा है। पृथ्वी पर अम्लीय वर्षा का प्रकोप धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है तथा लगातार तापक्रम बढ़ने से पहाड़ों की बर्फ पिघल रही है जिससे पृथ्वी का अस्तित्व संकटग्रस्त होता जा रहा है।
पर्यावरण प्रदूषण आज विभिन्न घातक स्वरूपों में विद्यमान है जो मानव सभ्यता के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। स्थिति यहाँ तक आ गई है कि सृष्टि का भविष्य संकटग्रस्त है। पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख स्वरूप निम्न प्रकार हैं-
1. वायु प्रदूषण
1. | नाइट्रोजन | 79.20 प्रतिशत |
2. | ऑक्सीजन | 20.60 प्रतिशत |
3. | कार्बन डाइ ऑक्साइड | 0.20 प्रतिशत |
4. | अन्य | अति सूक्ष्म रूप में |
आधुनिक युग में उद्योगों की चिमनियों, बढ़ते वाहनों एवं अन्य कारणों से वायुमण्डल में अनेक हानिकारक गैसें मिश्रित हो रही हैं जिनमें सल्फर डाइ ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन के विभिन्न ऑक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन एवं फार्मेलिडहाइड मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त सड़कों पर चल रहे वाहनों से निकला सीसा (लेड), अधजले हाइड्रोकार्बन और विषैला धुआँ भी वायुमण्डल को लगातार प्रदूषित कर रहे हैं। वायुमण्डलीय वातावरण के इस असंतुलन को ‘वायु प्रदूषण’ कहते हैं।
अत्यधिक वायु प्रदूषण के कारण आसमान अब भूरा दिखाई देता है। विषाक्त वायु को अवशोषित करने वाले वृक्षों के कटान से वायुमण्डल में प्राणवायु ऑक्सीजन की लगातार कमी हो रही है तथा दूषित गैसों का दबाव बढ़ रहा है।
विभिन्न वायु प्रदूषक स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं। वायुमण्डल में इन विषाक्त गैसों की उपस्थिति के कारण स्मॉग (स्मोक + फॉग) का निर्माण होता है। लंदन एवं लॉस एंजेल्स में स्मॉग निर्माण से अनेक लोगों की मृत्यु हो चुकी है। हमारे देश में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में मिथाइल आइसो सायनाइड गैस से वायु इतनी प्रदूषित हुई जिससे हजारों लोग मौत एवं विकलांगता का शिकार हो गए। प्रदूषित वायु मानव के श्वसन-तंत्र को कुप्रभावित करती है।
विभिन्न गैसों का घातक प्रभाव निम्न प्रकार है-
क्र.सं. | प्रदूषक | प्रभाव |
1. | कार्बन मोनो ऑक्साइड | रक्त के हीमोग्लोबिन से मिलकर विषैला पदार्थ कार्बाक्सीहीमोग्लोबिन बनता है तथा अनेक व्याधियां पैदा करता है। |
2. | क्लोरीन | आँख, नाक, गले में जलन, आँखों में सूजन तथा खाँसी की बीमारी |
3. | धूलकण | एलर्जी, साँस के रोग, रेत की अधिकता से सिलकोसिस नामक रोग |
4. | एसबेस्टस कण | एस्बेस्टॉसिस नामक रोग |
5. | लेड कण | लेड विषाक्तता तथा कैंसर |
6. | मैगनीज कण | निमोनिया व साँस की बीमारी |
7. | हाइड्रोजन सल्फाइड | नाक, कान, गले में जलन, लकवा |
8. | हाइड्रोजन फ्लोराइड | बच्चों की शारीरिक संरचना में विकृति तथा फ्लोरोसिस |
9. | हाइड्रोजन के ऑक्साइड | श्वसन क्रिया अवरूद्ध होने से फेफड़ों में धूलकण व कजली का अधिक प्रवेश। |
10. | फास्जीन | खाँसी, क्षोभ को प्रेरित करती है। |
11. | पारे की वाष्प | अत्यंत विषैला होने की वजह से पारे की विषाक्तता हो जाती है। |
12. | नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड | जलन, फेफड़ों के रोग तथा दृष्टि की समस्या होती है। |
13. | ओजोन | आँख, नाक, गले में जलन, दमे की बीमारी तथा वातावरण में स्मॉग बनाना। |
14. | सल्फर डाइ ऑक्साइड | सिरदर्द, उल्टी, साँस लेने में तकलीफ तथा मृत्यु दर में वृद्धि। |
15. | रेडियोधर्मी कण | मुख्यत: कैंसर तथा आगे की पीढ़ी में संतानों में विकृति होना तथा आयु भी घटती है। |
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा परिवेशीय वायु की गुणवत्ता का मानक बनाया गया है, जो निम्न प्रकार है-
(सांद्रता-माइक्रोग्राम/घन मीटर) | |||||
क्र.सं. | परिक्षेत्र | निलंबित सल्फर डाइ ऑक्साइड | सूक्ष्म | कार्बन मोनो ऑक्साइड | नाइट्रोजन के ऑक्साइड |
1. | औद्योगिक और मिश्रित वातावरण | 120 | 500 | 5000 | 120 |
2. | आवासीय और शहरी | 80 | 200 | 2000 | 80 |
3. | संवेदनशील क्षेत्र (ऐतिहासिक इमारतें, पर्यटन स्थल एवं अभयारण्य आदि) | 30 | 100 | 1000 | 30 |
क्र.सं. | प्रदूषक | प्रभाव |
1. | कार्बन मोनो ऑक्साइड | रक्त के हीमोग्लोबिन से मिलकर विषैला पदार्थ कार्बाक्सीहीमोग्लोबिन बनता है तथा अनेक व्याधियां पैदा करता है। |
2. | क्लोरीन | आँख, नाक, गले में जलन, आँखों में सूजन तथा खाँसी की बीमारी |
3. | धूलकण | एलर्जी, साँस के रोग, रेत की अधिकता से सिलकोसिस नामक रोग |
4. | एसबेस्टस कण | एस्बेस्टॉसिस नामक रोग |
5. | लेड कण | लेड विषाक्तता तथा कैंसर |
6. | मैगनीज कण | निमोनिया व साँस की बीमारी |
7. | हाइड्रोजन सल्फाइड | नाक, कान, गले में जलन, लकवा |
8. | हाइड्रोजन फ्लोराइड | बच्चों की शारीरिक संरचना में विकृति तथा फ्लोरोसिस |
9. | हाइड्रोजन के ऑक्साइड | श्वसन क्रिया अवरूद्ध होने से फेफड़ों में धूलकण व कजली का अधिक प्रवेश। |
10. | फास्जीन | खाँसी, क्षोभ को प्रेरित करती है। |
11. | पारे की वाष्प | अत्यंत विषैला होने की वजह से पारे की विषाक्तता हो जाती है। |
12. | नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड | जलन, फेफड़ों के रोग तथा दृष्टि की समस्या होती है। |
13. | ओजोन | आँख, नाक, गले में जलन, दमे की बीमारी तथा वातावरण में स्मॉग बनाना। |
14. | सल्फर डाइ ऑक्साइड | सिरदर्द, उल्टी, साँस लेने में तकलीफ तथा मृत्यु दर में वृद्धि। |
15. | रेडियोधर्मी कण | मुख्यत: कैंसर तथा आगे की पीढ़ी में संतानों में विकृति होना तथा आयु भी घटती है। |
वायु प्रदूषण को रोकने हेतु प्रमुख उपाय निम्न प्रकार हैं-
2. जल प्रदूषण
जल प्रदूषण के कारण
जल प्रदूषण के मुख्य कारण निम्न प्रकार हैं-
1. उद्योगों से निकलने वाला कचरा- कई धातुयें जैसे- मरकरी, कैडमियम एवं लेड आदि अपने साथ निकालता है।
2. सीवेज का जल मानव तथा पशुओं के मल को अपने साथ ले जाता है जिसमें कई जीवाणु, हानिकारक पदार्थ जैसे यूरिया एवं यूरिक एसिड आदि मिले रहते हैं।
3. बहुत से साबुनों से निकलने वाला पानी भी जल को प्रदूषित करता है।
4. निर्माण कार्य में प्रयुक्त पदार्थ, इमारतों में प्रयोग होने वाले पदार्थ जैसे फास्फोरिक एसिड, कार्बोनिक एसिड, सल्फ्यूरिक एसिड आदि नदी में मिलकर जल प्रदूषण फैलाते हैं।
5. कुछ कीटनाशक पदार्थ जैसे डीडीटी, बीएचसी आदि के छिड़काव से जल प्रदूषित हो जाता है तथा समुद्री जानवरों एवं मछलियों आदि को हानि पहुँचाता है। अंतत: खाद्य श्रृंखला को प्रभावित करते हैं।
6. नाइट्रेट तथा फॉस्फेट लवण ही साधारणतया उर्वरक के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। यह लवण वर्षा में मिट्टी के साथ मिलकर जल को प्रदूषित कर देते हैं।
7. कच्चा पेट्रोल, कुँओं से निकालते समय समुद्र में मिल जाता है जिससे जल प्रदूषित होता है।
जल प्रदूषण के प्रभाव
क्र.सं. | प्रदूषक | प्रभाव |
1. | आर्सेनिक | कैंसर, ब्लैक फुट रोग |
2. | कैडमियम | उच्च रक्तचाप, रक्तकणिकाओं का क्षय, मिचली, दस्त, हृदय रोग |
3. | बेरेलियम | कैंसर |
4. | फ्लोराइड | दांतों का फ्लोरोसिस रोग, हड्डियों का क्षय |
5. | सीसा | कैंसर, एनिमिया, उग्र शरीर विष, तंत्रिका तंत्र पर कुप्रभाव, गर्भवती महिलाओं में रोग |
6. | पारा | अत्यधिक विषैला, मस्तिष्क पर कुप्रभाव, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर कुप्रभाव |
7. | क्रोमियम | चर्म रोग, खुजली, कैंसर |
8. | सिलेनियम | बालों का झड़ना, त्वचा संबंधी रोग |
9. | मल जल (सीवेज) | कुषोषण, पेचिस, आंत्र रोग |
10. | कार्बनिक रसायन डिटरजेंट आदि | जलीय जीवों पर कुप्रभाव, कृमि रोग, पेट संबंधी रोग |
11. | नाइट्रेट | मेटहीमोग्लोबैमिया |
12. | मैंगनीज | श्वांस रोग, निमोनिया, त्वचा रोग |
2. सूक्ष्म-जीव जल में घुले हुये ऑक्सीजन के एक बड़े भाग को अपने उपयोग के लिये अवशोषित कर लेते हैं। जब जल में जैविक द्रव्य बहुत अधिक होते हैं तब जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। जिसके कारण जल में रहने वाले जीव-जन्तुओं की मृत्यु हो जाती है।
3. औद्योगिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न रासायनिक पदार्थ प्राय: क्लोरीन, अमोनिया, हाइड्रोजन सल्फाइड, जस्ता, सीसा, निकिल एवं पारा आदि विषैले पदार्थों से युक्त होते हैं। यदि यह जल पीने के माध्यम से अथवा इस जल में पलने वाली मछलियों को खाने के माध्यम से शरीर में पहुँच जायें तो गंभीर बीमारियों का कारण बन जाता है जिसमें अंधापन, शरीर के अंगों को लकवा मार जाना और श्वसन क्रिया आदि का विकार शामिल है। जब यह जल, कपड़ा धोने अथवा नहाने के लिये नियमित प्रयोग में लाया जाता है तो त्वचा रोग उत्पन्न हो जाता है।
4. प्रदूषित जल से खेतों में सिंचाई करने पर प्रदूषक तत्व पौधों में प्रवेश कर जाते हैं। इन पौधों अथवा इनके फलों को खाने से अनेक भयंकर बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
5. आज हजारों जलयान एवं पेट्रोलियम टैंकर समुद्र में चल रहे हैं। ये लाखों टन पेट्रोलियम का विसरण समुद्र की सतह पर करते हैं, जो इनके लीकेज अथवा छोटी-मोटी दुर्घटनाओं से होते हैं। यह तेल मछलियों के लिये विष है और समुद्री पर्यावरण के लिये अभिशाप है। इस तेल की कुछ हानिकारक धातुएं जैसे- सीसा, निकिल अथवा कोबाल्ट आदि वनस्पतियों अथवा जीवों के माध्यम से मनुष्य तक पहुँच जाती है।
मनुष्य द्वारा पृथ्वी का कूड़ा-कचरा समुद्र में डाला जा रहा है। नदियाँ भी अपना प्रदूषित जल समुद्र में मिलाकर उसे लगातार प्रदूषित कर रही हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि भू-मध्य सागर में कूड़ा-कचरा डालना बंद न किया गया तो डॉलफिन और टूना जैसी सुंदर मछलियों का यह सागर शीघ्र ही इनका कब्रगाह बन जाएगा।
जल प्रदूषण रोकने के उपाय
3. ध्वनि प्रदूषण
क्र.सं. | क्रिया | ध्वनि का स्तर (डेसिबल में) |
1. | सामान्य श्रवण की सीमा | 20 |
2. | सामान्य वार्तालाप | 50.60 |
3. | सुनने की क्षमता में गिरावट | 75 |
4. | चिड़चिड़ाहट | 80 |
5. | मांस-पेशियों में उत्तेजना | 90 |
6. | दर्द की सीमा | 120 |
ध्वनि प्रदूषण का कारण
ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव
ध्वनि प्रदूषण का नियंत्रण
4. मृदा-प्रदूषण
मृदा प्रदूषण का कारण
मृदा प्रदूषण का प्रभाव
मृदा प्रदूषण का नियंत्रण
5. ओजोन परत में छेद
पृथ्वी के वायुमण्डल की विभिन्न परतें निम्न प्रकार हैं-
क्र.सं. | ऊँचाई | परत | तापमान |
1. | 0 से 11 किलोमीटर | ट्रोपोस्फेयर | 15 से .56 डिग्री सेंटीग्रेड |
2. | 11 से 50 किलोमीटर | स्ट्रेटोस्फेयर | .56 से .02 डिग्री सेंटीग्रेड |
3. | 50 से 85 किलोमीटर | मेजोस्फेयर | .02 से 92 डिग्री सेंटीग्रेड |
4. | 85 से 500 किलोमीटर | थर्मोस्फेयर | 92 से 1200 डिग्री सेंटीग्रेड |
हमारे वायुमण्डल के भीतर ओजोन स्ट्रेटोस्फेयर स्तर में 11 से 35 किलो मीटर ऊँचाई तक घने आवरण के रूप में (प्रति क्यूबिक सेंटीमीटर हवा में 3,000 बिलियन अणु) पाई जाती है। कम सान्द्रण में यह गैस 10 से 15 किलो मीटर एवं 30 से 50 किलो मीटर ऊँचाई तक पाई जाती है। ओजोन गैस ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनती है एवं इसका अणुसूत्र O3 है।
ओजोन की यह परत सूर्य से आने वाली घातक पराबैगनी किरणों को अवशोषित एवं परावर्तित कर पृथ्वी की रक्षा करती है। इसी आवरण को ओजोन सुरक्षा कवच कहते हैं। यहाँ पर ओजोन का निर्माण ऑक्सीजन पर पराबैगनी किरणों के प्रभाव से होता है। पराबैगनी किरणों के ट्रोपोस्फेयर में पहुँचने से प्रमुख घातक प्रभाव निम्नानुसार हैं-
1. मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास होता है जिससे रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है।
2. आनुवांशिक गुणों के वाहक डीएनए की क्षति होती है।
3 त्वचा कैंसर एवं मोतियाबिंद जैसे रोग बढ़ते हैं।
4. पौधों में होने वाली प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
5. फसल उत्पादन में कमी आती है।
6. समुद्री जीवों को हानि पहुँचती है।
7. अनेक पेड़-पौधों व जीवों की प्रजातियाँ धीरे-धीरे लुप्त हो जाती हैं।
ओजोन परत के बावजूद लगभग एक प्रतिशत पराबैगनी किरणें धरती पर आती हैं। यदि ओजोन परत न होती तो धरती पर जीवन न होता। वायुमण्डल में बढ़ते प्रदूषण के कारण ऑक्सीजन एवं ओजोन का संतुलन बिगड़ रहा है। ओजोन परत को हानि पहुँचाने वाली प्रमुख गैसें निम्न हैं-
1 क्लारोफ्लोरो कार्बन
2 क्लोरो ब्रोमो कार्बन
3 कार्बन टेट्रा क्लोराइड
4 मेथिल क्लोरोफार्म हैलोजन
प्रयोगों द्वारा यह सत्यापित है कि C.F.C. का एक अणु स्ट्रेटोस्फेयर में एक लाख ओजोन अणुओं को नष्ट कर सकता है। ओजोन की सबसे कमी वाला क्षेत्र अण्टार्कटिका है। अण्टार्कटिका एवं दक्षिणी ध्रुव पर पाया जाने वाला ओजोन छिद्र किसी क्षेत्र विशेष को नहीं बल्कि पूरे विश्व को प्रभावित करता है। ओजोन परत की क्षति के भयंकर कुपरिणाम हैं। अनुमान है कि ओजोन परत में एक प्रतिशत की क्षति से हुए पराबैगनी विकिरण की वृद्धि से एक वर्ष में स्किन कैंसर के मरीजों में 6 प्रतिशत की वृद्धि होती है। ओजोन परत को हानि पहुँचाने वाले पदार्थों का प्रयोग मुख्यत: रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर, प्लास्टिक फोम, स्प्रे के द्रवों, अग्निशमन एवं इलेक्ट्रॉनिक के साल्वेंट क्लीनर के रूप में हो रहा है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन निम्न सतह पर बहुत स्थिर होते हैं। जैसे- ये स्ट्रेटोस्फेयर में ओजोन परत तक पहुँचते हैं, पराबैगनी किरणों से क्रिया करके हैलोजन बनाते हैं। ये मुक्त मूलक ओजोन का तीव्र क्षरण करते हैं।
लुप्त हो रही ओजोन परत की रक्षा हेतु प्रभावी कदम उठाने के लिये 2 मई 1989 में विश्व के 80 राष्ट्रों ने अपनी सहमति दी थी। 1990 में एक अन्तरराष्ट्रीय बैठक में तय हुआ कि विकसित देश 2000 तक ‘क्लारो फ्लोरो कार्बन’ का उत्पादन पूर्णत: बंद कर देंगे। विकासशील देशों को इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु 10 वर्ष की छूट दी गई। ओजोन परत में छिद्र के व्यास की बढ़त को देखते हुए शीघ्रातिशीघ्र संपूर्ण विश्व में सीएफसी के उत्पादन पर रोक लगाना आवश्यक हो गया है। माण्ट्रियल प्रोटोकॉल दिनांक 16 सितम्बर 1987 को लागू हुआ ओजोन परत में बढ़ते छिद्र की ओर विश्व जनमत का ध्यान आकृष्ट करने के लिये प्रतिवर्ष 16 सितम्बर को ‘अन्तरराष्ट्रीय ओजोन परत संरक्षण दिवस’ मनाया जाता है। इन प्रयासों से अब ओजोन छिद्र के आकार में निरंतर कमी देखी जा रही है।
6. रेडियो एक्टिव प्रदूषण
रेडियो एक्टिव प्रदूषण का कारण
रेडियो एक्टिव प्रदूषण का प्रभाव
रेडियो एक्टिव प्रदूषण का निदान-
परमाणु एवं नाभिकीय परीक्षणों को सीमित करना।
7. जलवायु परिवर्तन
प्राकृतिक कारण-
मृदा क्षरण, बाढ़, तूफान, चक्रवात, भूस्खलन, ज्वालामुखी, दावाग्नि, सूखा, आँधी, तड़ित एवं भूकम्प आदि।
मानवीय कारण-
जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण, वन विनाश, यातायात के साधन, अनियोजित नगरीकरण, संसाधनों का असीमित विदोहन आदि।
जलवायु परिवर्तन के मुख्य प्रभाव निम्न प्रकार हैं-
1. ग्रीन हाउस प्रभाव तथा वैश्विक ताप में वृद्धि, 2. अम्लीय वर्षा, 3. ओजोन परत का क्षरण, 4. नाभिकीय दुर्घटनाएं, 5. प्रचण्ड अग्निकाण्ड, 6. भू-स्खलन, 7. मरुस्थलीकरण, 8. मृदाक्षरण, 9. पर्यावरण प्रदूषण, 10. बाढ़, 11. अकाल, 12. भूकम्प, 13. तूफान।
8. वैश्विक ताप वृद्धि
वैश्विक तापवृद्धि से उत्पन्न प्रमुख समस्याएं निम्न प्रकार हैं-
1. जैविक विविधता में तेजी से कमी आएगी तथा महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक स्रोतों का ह्रास होगा।
2. 1 डिग्री तापवृद्धि अक्षांश के 100 किमी परिवर्तन के बराबर होगा।
3. बढ़े हुए ताप से विश्व के अनेक भागों में तीव्र तूफान आएंगे। उन क्षेत्रों में भी तूफान आ सकते हैं जहाँ पहले कभी ऐसा नहीं होता था।
4. ताप बढ़ने से वर्षा एवं मानसून के स्वरूप में परिवर्तन होगा। कहीं पर सूखा होगा तथा कहीं अत्यधिक वर्षा होगी। इससे मृदा क्षरण बढ़ेगा।
5. पर्वत शिखरों एवं ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने से समुद्र का स्तर बढ़ेगा।
6. ताप वृद्धि से समुद्र गर्म होगा जिससे बांग्लादेश, भारत, मिश्र, इण्डोनेशिया आदि में बाढ़ आ सकती है।
7. वैश्विक तापवृद्धि से समुद्री पारिस्थिकी तंत्र अत्यधिक बिगड़ जाएगा।
8. तटीय शहरों की बाढ़ वहाँ संक्रामक रोग फैला सकती है।
वैश्विक ताप वृद्धि को नियंत्रित करने के उपाय
9. अम्लीय वर्षा
प्रमुख गैसें जो अम्लीय वर्षा हेतु उत्तरदायी हैं, निम्न प्रकार हैं-
1. सल्फर डाइ ऑक्साइड- यह पानी के साथ घुलकर सल्फ्यूरिक अम्ल बनाती है।
2. सल्फर ट्राई ऑक्साइड- यह पानी के साथ घुलकर सल्फ्यूरस अम्ल बनाती है।
3. हाइड्रोजन सल्फाइड- यह वायुमण्डल में हाड्रोजन मूलकों के साथ सल्फर डाइ ऑक्साइड बनाती है।
4. नाइट्रोजन के ऑक्साइड- यह प्रकाश ऑक्सीकरण द्वारा नाइट्रस अम्ल बनाती है।
5. कार्बन डाइ ऑक्साइड- यह पानी के साथ घुलकर कार्बोनिक अम्ल बनाती है।
अम्लीय वर्षा के प्रमुख स्रोत
अम्लीय वर्षा के कुप्रभाव
अम्लीय वर्षा के अत्यंत घातक परिणाम होते हैं जिनमें प्रमुख निम्न प्रकार हैं-
1. यह जल, स्थल, वायु, वनस्पतियों, जीव जन्तुओं एवं इमारतों सभी को क्षति पहुँचाती है।
2. झीलों, तालाबों नदियों आदि का जल अत्यधिक अम्लीय हो जाता है जिसे अम्ल सदमा कहते हैं। इससे पानी में रहने वाले जीव प्रभावित होते हैं।
3. झीलों, तालाबों आदि से पानी रिस कर भू-गर्भ में स्थित विभिन्न धातुओं जैसे तांबा, एल्युमिनियत, कैडमियम आदि से क्रिया करके विभिनन जहरीले यौगिक बनाता है जो प्राणियों को प्रभावित करते हैं।
4. अम्लीय वर्षा से त्वचा रोग तथा एलर्जी होती है।
5. अम्लीय जल जब घरों में जस्ता, सीसा या ताम्बे के पाइपों से गुजरता है तो इस जल में धातुओं की अधिकता हो जाती है जिससे अतिसार व पेचिश जैसे रोगों की संभावना बढ़ती है।
6. इससे दमा तथा कैंसर का भय होता है।
7. इससे मृदा की उर्वरता में कमी आती है।
8. इससे पौधों की वृद्धि में कमी आती है।
9. पौधों की पत्तियों में उपस्थित पर्णहरित का विघटन हो जाता है जिससे पत्तियों का रंग परिवर्तित हो जाता है।
10. पौधों की पत्तियाँ, पुष्प एवं फल असमय झड़ जाते हैं।
11. प्राचीन इमारतों का क्षरण होता है जिसे ‘‘स्टोन कैंसर’’ कहते हैं।
आगरा से 40 किमी दूर मथुरा का तेल शौधक कारखाना है जो प्रतिदिन 25 से 30 टन सल्फर डाइ ऑक्साइड गैस वायुमण्डल को देता है। इसी कारण आगरा के वायुमण्डल में सल्फर डाइ ऑक्साइड की मात्रा 1.75 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है। इसके कारण ताजमहल पर कहीं-कहीं संक्षारक धब्बे दिखाई देते हैं।
अम्लीय वर्षा से स्वीडन की बीस हजार झीलों की मछलियाँ मर गई। जर्मनी के जंगलों को अम्लीय वर्षा से अपार क्षति पहुँची है। अम्लीय वर्षा को नियत्रिंत करने के लिये सल्फर एवं नाइट्रोजन के ऑक्साइडों के प्रयोग में कमी लाना आवश्यक है।
10. पॉलीथीन प्रदूषण
पॉलीथीन के भौतिक गुण -
सामान्य रूप से व्यापारिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाले मध्यम व उच्च घनत्व वाले पॉलीथीन 120 डिग्री सेंटीग्रेड से 180 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के मध्य पिघलता है। अत: प्रयुक्त होने के उपरांत जहाँ फेंका जाता है- वहीं अत्यंत लम्बे समय तक बने रहकर सामान्य क्रियाकलाप बाधित करता है।
रासायनिक गुण -
अधिकांश एलडीपई (लो डेंसिटी पॉलीथीन, मिडिल डेंसिटी पॉलीथीन एवं हाई डेंसिटी पॉलीथीन) अत्यंत उत्कृष्ट कोटि के रासायनिक प्रतिरोधक होते हैं, अर्थात तीव्र अम्लीय या तीव्र क्षारीय पदार्थ से अभिक्रिया नहीं करते हैं। पॉलीथीन, नीली ज्वाला देते हुए धीरे-धीरे जलता है। जलने पर पॉलीथीन से पैराफीन की गंध आती है। लगातार जलाने पर ज्वाला समाप्त होने पर बूँद के रूप में हो जाता है। कमरे के तापमान पर क्रिस्टल नहीं घुलते हैं। सामान्यतया टालूईन या जाईलीन जैसे ऐरोमेटिक हाइड्रोकार्बन एवं ट्राई क्लोरोइथेन या ट्राई क्लोरोबेंजीन जैसे क्लोरीनेट विलायक में पॉलीथीन उच्च तापमान पर घुलता है।
कम मूल्य, सहज रूप से सुलभ होने व अत्यंत उपयोगी होने के कारण पॉलीथीन का प्रयोग अत्यंत तेजी से बढ़ रहा है। कागज के थैलों, कुल्हड़ों, कागज की प्लेटों का चलन पॉलीथीन का बढ़ते प्रयोग के कारण समाप्त होता जा रहा है। आसानी से उपलब्ध होने के कारण सामान क्रय करने जाते समय कपड़े का थैला ले जाने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। पॉलीथीन की बढ़ती लोकप्रियता व प्रयोग के कारण समाज व पर्यावरण के समक्ष नई समस्याएं व चुनौतियाँ उत्पन्न हो रही हैं, इसका मुख्य कारण पॉलीथीन का अपघटन न होना है। पॉलीथीन के अपघटन न होने से शहरों, गाँवों व यहाँ तक कि दुर्गम वन क्षेत्रों में भी प्रयोग के पश्चात फेंके गये पॉलीथीन का ढेर बहुत लंबे समय तक पड़ा रहता है। इस कारण उत्पन्न होने वाली समस्याएं एक दृष्टि में-
पॉलीथीन थैली के प्रयोग से होने वाली हानि-
संदर्भ
1. सिंह, केदार नाथ (2002) 21वीं सदी की वानिकी, वितरक-नटराज पब्लिशर्स।
2. श्रीवास्तव, मनोज (2010) पर्यावरण प्रदूषण के खतरे, ग्लोबल ग्रीन्स, इलाहाबाद।
3. चौधरी, बीएल एवं प्रसाद, जीतेन्द्र (2013) पर्यावरण अध्ययन, एसएफ पब्लिकेशन्स हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली।
4. जोसेफ, बेनी (2005) इनवायरनमेंटल स्टडीज, टाटा मैक्ग्रॉ हिल।
महेन्द्र प्रताप सिंह
उप वन संरक्षक, कार्यालय प्रमुख वन संरक्षक, 17, राणा प्रताप मार्ग, लखनऊ-226001, उत्तर प्रदेश, भारतMahendrapratapsingh_60@yahoo.com
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