भारत के पूर्वी हिमालय क्षेत्र में सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग जिला आता है। दुर्भाग्यवश, इस क्षेत्र में परम्परागत जल संग्रह को लेकर काफी कम लिखित सामग्री उपलब्ध है।

1. दार्जिलिंग
दार्जिलिंग हिमालय उत्तर बंगाल के मैदानों के बाद काफी ऊँचा पर्वतीय क्षेत्र है। ऊँची भूमि, तीखी ढलान, भारी वर्षा और उफनती नदियों के कारण इस क्षेत्र में जमीन कटने और धँसने की घटनाएँ बहुत आम हैं।1,2
दार्जिलिंग जिले के तराई क्षेत्र में कृत्रिम सिंचाई का चलन है। जमीन की ढलान और बेशुमार छोटे झरनों के कारण पानी का इस्तेमाल कर पाना आसान है। ऐसा अनुमान है कि 60 फीसदी निचली भूमि पर, जहाँ धान उगाया जाता है, सिंचाई होती है। तराई के उत्तरी क्षेत्र में भी (मेची, बालासान और महानंदा नदी से लगे शिवालिक पहाड़ियों के पास के क्षेत्र में, जहाँ बाँध और नहर बनाना आसान है) सिंचाई होती है।
दार्जिलिंग के पर्वतीय क्षेत्र में सन 1971 के आँकड़ों के मुताबिक सिर्फ 14.2 फीसदी जमीन पर खेती सम्भव थी। सिर्फ एक-चौथाई जमीन में सिंचाई की सुविधा थी। पहाड़ों में सिंचाई के एकमात्र भरोसेमन्द स्रोत झोरा अर्थात झरने हैं। इस क्षेत्र में लोग पहले झूम खेती करते थे। वनों को संरक्षित कर देने और नेपाल के खेतिहरों के आने के बाद से लेप्चों ने झूम खेती को तिलांजलि दे दी और जमीन जोतने का चलन शुरू हुआ। नेपालियों से उन्होंने पर्वतीय ढलानों पर सीढ़ीदार खेत बनाना भी सीखा। यह सीढ़ीदार खेत झरनों के पास ढलानों पर बनाए जाते हैं। झरनों का पानी छोटे जलमार्गों और बाँस की पाइपों के माध्यम से खेतों तक लाया जाता है।
इस सदी की शुरुआत में लेप्चा किसान घाटी के निचले हिस्सों में आमतौर पर इलायची की खेती करते थे। ये खेत जंगलों से घिरे हुए थे। वहीं भोटिया और नेपाली गुरूंग ऊँचाई वाले खेतों को पसन्द करते थे, क्योंकि यह उनके परम्परागत पेशे के अनुकूल था। पर्वतीय ऊँचाइयों पर वे पशुओं और भेड़ों को चराने के अभ्यस्त थे। लेकिन नेपाली खेतिहरों ने निचली ढलानों और घाटियों को पसन्द किया और इस वजह से एक समय ऐसा आया जब लेप्चा पूरी तरह हाशिए पर चले गए। इस क्षेत्र में पहाड़ी सीढ़ीदार खेतों में इलायची और धान की फसल की ही सिंचाई का इन्तजाम था। मक्का और दूसरी फसलें मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर थीं। इलायची के खेत आमतौर पर घाटी में बड़े झरनों के पास थे और वहाँ से निकलने वाली नहरों से उनकी सिंचाई होती थी। धान की खेती के लिये झरनों से नहरें निकाली जाती थीं।3
2. सिक्किम
यहाँ स्थानीय जल संग्रह परम्पराओं को लेकर लिखित दस्तावेज अपर्याप्त हैं। छुटपुट मिली सूचनाओं से पता चलता है कि स्थानीय लोगों ने अपनी परम्परागत भूमि बन्दोबस्त प्रणाली के साथ-साथ असरदार जल संचय प्रणालियाँ भी विकसित की हैं। सिंचाई मुख्य रूप से धान के खेतों और इलायची के बागानों तक सीमित थे। धान के खेतों में सिंचाई सीढ़ीदार खेतों में की जाती है, वहीं इलायची के बागानों में बगैर किसी जलमार्ग के पानी को बह जाने दिया जाता है।
जलमार्गों का निर्माण, पानी के बहाव पर नियंत्रण और पेयजल का इन्तजाम पारम्परिक रूप से सामुदायिक उद्यम है। सिक्किम में धान की खेती पूरी तरह से सिंचाई पर निर्भर है। सिंचाई के लिये बनाए गए जलमार्ग सीढ़ीदार खेतों से गुजरते हैं और अक्सर खेतों की सीमाएँ भी तय करते हैं।
भारी वर्षा होने की वजह से मिट्टी की ऊपरी परत अक्सर बह जाती है। लेकिन तीखी ढलान की वजह से पानी को जमा रख पाना मुश्किल है। यही नहीं, इस क्षेत्र की भूसंरचना ऐसी है कि ज्यादातर झरने काफी मुश्किल दर्रों के अन्दर हैं और इस वजह से उन पर बाँध बना पाना काफी कठिन है। उथले झरनों को ही रोककर नहर निकाल पाना सम्भव है।
पेयजल के मुख्य स्रोत झरने और खोला (तालाब) हैं। यहाँ के लोगों ने बाँस के खम्भों के सहारे घर तक पानी ले जाने की देसी प्रणाली विकसित की है। हाल के वर्षों में बाँस की बनी हुई पाइपों की जगह रबर की पाइपों ने ले ली है। उत्तरी जिले के आदिवासीबहुल जोंगू इलाके में 54 फीसदी घरों में अहाते के अन्दर ही खुप (तालाब) होते हैं।4
3. अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश में दो महत्त्वपूर्ण परम्परागत सिंचाई प्रणालियाँ हैं। पहली बाँस की नलियों के माध्यम से सीढ़ीदार धनखेतों में सिंचाई और दूसरी अपतानी प्रणाली। पहली प्रणाली में बाँस की नलियों के माध्यम से पानी को खेतों तक पहुँचाया जाता है, लेकिन अब इस प्रणाली की जगह लोहे की पाइपों और नलियों ने ले ली है।4
अरुणाचल प्रदेश में खेती की जगह बदलती रहती है। टिककर खेती करने का चलन मुख्य रूप से अपतानियों में है। ये लोग सुबनसिरी जिले के निचले हिस्से में 1572 मीटर की ऊँचाई पर स्थित जीरो के आस-पास रहते हैं। इस क्षेत्र में 1758 मिमी वर्षा होती है और कुल वर्षा का तीन-चौथाई मई और सितम्बर के बीच में होता है। मानसून के बाद सर्दियों का मौसम शुष्क होता है तथा मार्च और अप्रैल वर्ष के सबसे सूखे महीने हैं।5 अपतानियों की खेती सीढ़ीदार खेतों से मिलती-जुलती है, फर्क सिर्फ इतना है कि वे बहुत मामूली ढलान वाली घाटियों में खेती करते हैं।
सारिणी 2.3.1 : ऊर्जा प्राप्ति-खर्च की प्रकृति (मेगाजूल/हेक्टेयर/वर्ष) और अपतानी खेती की कुशलता | |||
पैदावार का तरीका | गाँव के दायरे में | गाँव के बाहर | |
देर से तैयार होने वाली किस्में | जल्दी तैयार होने वाली किस्में | देर वाली किस्में | |
कुल लागत : धान | 846.5 | 904.5 | 1,027.5 |
धान + मोटा अनाज | 870.2 | 946.0 | 1,051.5 |
धान + मोटा अनाज + मछली | 906.6 | - | 1,087.9 |
मजदूरी : धान | 713.0 | 769.0 | 786.0 |
मोटा अनाज | 23.0 | 40.0 | 23.0 |
मछली | 36.0 | - | 36.0 |
जैव खाद | 125.0 | 125.0 | 225.0 |
बीज : धान | 8.5 | 10.5 | 16.5 |
मोटा अनाज | 0.7 | 1.5 | 1.0 |
मछली | 0.4 | - | 0.4 |
कुल पैदावार : धान | 66,284.0 | 56,367.0 | 63,152.0 |
धान + मोटा अनाज + मछली |
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